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Sunday, August 23, 2015

स्तरीयता बनाए रखने की चुनौती

हिंदी के यशस्वी कथाकार और लंब समय तक हंस पत्रिका के संपादक रहे राजेन्द्र यादव बहुधा कहा करते थे कि हमारे देश के विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग प्रतिभाओं की कब्रगाह है । हमारी उनसे इस बात को लेकर काफी बहस हुआ करती थी लेकिन वो अपनी इस राय से कभी भी डिगे नहीं । हम भले ही कभी कभार डगमगाते रहे । अभी महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की पत्रिका पुस्तक वार्ता के करीब दर्जन भर अंक मिले । एक साथ इतने अंक मिलने की भी एक अलग कहानी है जिसपर कभी बाद में बात करूंगा । पुस्तक वार्ता का सबसे ताजा अंक 56 है जो जनवरी- फरवरी 2015 का अंक है । पुस्तक वार्ता की शुरुआत महात्मा गांधी अंतराष्ट्रीय विश्वविद्यालय के पहले कुलपति अशोक वाजपेयी के कार्यकाल में हुई थी । इसके संस्थापक संपादक राकेश श्रीमाल थे । उनके संपादन में बहुत अच्छी निकलती रही । उनके बाद समीक्षक भारत भारद्वाज के संपादन में पत्रिका ने अपनी उस पहचान को और मजबूती दी । यह संयोग है कि मैंने इस पत्रिका में शुरुआत से ही स्तंभ लिखा और लगभग पंद्रह सालों तक उसमें लिखता रहा । मेरे स्तंभ का स्वरूप बदलता रहा लेकिन पत्रिका का स्वरूप बरकरार रहा । एक बार फिर इस पत्रिका के संपादक राकेश श्रीमाल बने जिनके संपादन में पत्रिका के दो संयुक्तांक निकले । उसके बाद इस पत्रिका के संपादन की जिम्मेदारी पत्रकार विमल झा को सौंपी गई । विमल झा के अंदर का पत्रकार इस पत्रिका पर हावी होता दिखा । विमल झा के संपादन में निकले पहले अंक के बाद उसके ले आउट से लेकर कवर पेज तक में आमूल तूल परिवर्तन हुआ । कंटेंट तक में भी । गर संपादक का यह होता है कि वो अपनी मर्जी के हिसाब से पत्र-पत्रिकाओं के कंटेंट से लेकर हर चीज में बदलवा करे क्यों पाठकों और आलोचकों की कसौटी पर उसको ही कसा जाता है ।  विमल झा ने पत्रिका के कवर को चमकीला बना दिया लेकिन स्तर बरकरार नहीं रख सके, ना ही इसकी आवर्तिता । विश्वविद्यालय के धन से प्रकाशित होनेवाली पत्रिका अगर समय पर नहीं निकले तो आश्चर्य होता है ।

पुस्तक वार्ता की जब परिकल्पना हुई थी तो यह तय किया गया था कि इसको हिंदी साहित्य के पाठकों के लिए जरूरी द्वैमासिक बनाया जाए जिसमें नए प्रकाशनों की जानकारी हो । लेकिन पंद्रह साल बाद लगता है पत्रिका अपने मूल उद्देश्य से भटक गई है । अंक पचपन के संपादकीय में मीडिया के हालात पर चिंता जताई गई है । मेरे मन में बार बार सवाल उठ रहा है कि साहित्यक पत्रिका के संपदीक में मीडिया की चर्चा क्यों । चलइे अगर एक मिनट तक इसको मान भी लें तो क्या पूरे अंक में उस चिंता को विस्तार दिया गया है । इसी तरह से अंक 56 के संपादकीय में सोशल मीडियापर फोकस है । अंत में संपादक कहता है कि पौने तीन लाइन में निराला के जन्मदिन की सूचना देता है और कहता है कि इस वजह से अंक का प्रारंभ निराला के स्मरण से किया जा रहा है । पत्रिका में जो एक सूत्र दिखना चाहिए जिसमें उसके लेख पिरोए हों उसका अभाव साफ खटकता है । अब तो पुस्तक वार्ता में कई कई साल पुरानी किताबों की समीक्षा प्रकाशित होती है । पुस्तक वार्ता में लेखकों के नामों के साथ विशेषण भी उदारता से छपने लगे हैं । लगभग सभी लेखक वरिष्ठ नहीं तो आलोचक तो हैं ही । पुस्तक वार्ता भी अन्य विश्वविद्यालयों के हिंदी विभागों की पत्रिका की तरह बनती जा रही है । पुस्तक वार्ता के संपादक के सामने बड़ी चुनौती इसकी विरासत है । विरासत से मुठभेड़ करते हुए पुस्तक वार्ता अपनी पहचान को बरकारर रख पाती है या फिर अन्य पत्रिकाओं की भीड़ में गुम हो जाती है । पांच अंकों को देखते के बाद भीड़ में गुम हो जाने का खतरा ज्यादा है । 

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