साहित्य अकादमी पुरस्कारों को लेकर साहित्यजगत में कई तरह की
किवदंतियां और मिथक मौजूद हैं । कब किसको मिला और कब किसको नहीं मिला इसको लेकर भी
कई तरह की बातें और प्रसंग साहित्य जगत में गूंजते रहते हैं, बहुधा साहित्यक बैठकियों
में तो कई बार पुस्तकों में आए प्रसंगों के उल्लेख के तौर पर । उन्नीस सौ बासठ में
हिंदी के लिए साहित्य अकादमी का पुरस्कार किसी लेखक को नहीं दिया गया था । आमतौर
पर लोगों के बीच धारणा ये रही है कि बासठ में चीन के साथ युद्ध की वजह से पुरस्कार
नहीं दिया गया लेकिन जब उन्नीस सौ ग्यारह में हिंदी के प्राध्यापक लेखक विश्वनाथ
त्रिपाठी की किताब व्योमकेश दरवेश प्रकाशित हुई तो उसमें एक अलग ही प्रसंग नजर आया
। बासठ के साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर इस तरह की बात की गई है जिससे लगता है
कि रामधारी सिंह दिनकर के दबाव की वजह से उस वर्ष किसी को पुरस्कार नहीं दिया गया
। त्रिपाठी जी दिनकर पर तंज भी कसते हैं - यशपाल के विषय में विवाद हुआ । कहते हैं
कि दिनकर ने आपत्ति दर्ज की कि झूठा सच के लेखक ने किताब में जवाहरलाल नेहरू के
लिए अपशब्दों का प्रयोग किया है ।नेहरू भारत के प्रधानमंत्री होने के साथ-साथ
अकादमी के अध्यक्ष भी थे । नेहरू तक बात पहुंची हो या ना पहुंची हो, द्विवेदी जी पर दिनकर की धमकी
का असर पड़ा होगा । भारत के सर्वाधिक लोकतांत्रिक नेता की अध्यक्षता और पंडित
हजारीप्रसाद द्विवेदी के संयोजकत्व में यह हुआ । अगर यह सच है तो अकादमी के
अध्यक्ष और हिंदी के संयोजक दोनों पर धब्बा है यह घटना और मेरे नगपति मेरे विशाल
के लेखक को क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । (पृष्ठ 214) । साहित्य अकादमी से डी एस राव की किताब- फाइव डिकेड्स,
अ शॉर्ट हिस्ट्री ऑफ साहित्य अकादमी का अनुवाद छपा है । पांच दशक के
नाम से प्रकाशित उस किताब का अनुवाद भारत भारद्वाज ने किया है । इस किताब में ये
प्रसंग है । यहां यह साफ है कि नेहरू जी को ये बात पता थी लिहाजा त्रिपाठी जी की
ये आशंका निर्मूल साबित होती है कि नेहरू तक ये बात पहुंची या नहीं। प्रसंग ये है –
साहित्य अकादमी की एक्जीक्यूटिव बोर्ड की बैठक में साहित्य अकादमी के तत्कालीन
अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू ने जानना चाहा कि उस वर्ष यशपाल के ‘झूठा
सच’ को अकादमी पुरस्कार क्यों नहीं मिला । हिंदी के संयोजक
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा कि इस उपन्यास में नेहरू की आलोचना है । इसपर
आश्चर्य व्यक्त करते हुए नेहरू ने कहा कि पुरस्कार के लिए किताब के ना चुने जाने
का कारण ये नहीं हो सकता है । इसपर द्विवेदी जी ने स्पष्ट किया कि सिर्फ ये कारण
नहीं है बल्कि कई अन्य बेहतर किताबें पुरस्कार के लिए थी । लेकिन किसीको पुरस्कार
दिया नहीं जा सका । साहित्य अकादमी के पांच दशक के इतिहास से यह बात साफ हो जाती
है कि यशपाल को पुरस्कार नहीं देने के पीछे रामधारी सिंह दिनकर नहीं थे ।
उस दौर में दिनकर के विरोधियों ने यह बात सुननियोजित तरीके से
फैलाई गई कि इसके पीछे दिनकर का दबाव था । विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपनी किताब में इस
प्रसंग को उद्धृत करते हुए ये टिप्पणी भी की - मेरे नगपति मेरे विशाल के लेखक को
क्या कहा जाए जो अपने समय का सूर्य होने की घोषणा करता है । इससे साफ है कि अपनी
किताब में विश्वनाथ त्रिपाठी ने अपने गुरू आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी को बेदाग
दिखाने के लिए दिनकर पर तोहमत लगाया । दरअसल दिनकर सचमुच अपने समय का सूर्य थे और
बहुधा उस सूर्य पर ग्रहण लगाने की कोशिश की जाती रही लेकिन सूर्य तो सूर्य होता है।
साहित्य अकादमी के पांच दशक के इतिहास से इस तरह के कई धुंध छंटते नजर आते हैं । इस
किताब से जवाहरलाल नेहरू की साहित्यक रुचियों और उनके लोकतांत्रिक होने का पता
चलता है । साहित्य अकादमी के अध्यक्ष और प्रधानमंत्री रहते हुए उन्होंने टिप्पणी
की थी- साहित्य अकादमी के अध्यक्ष होने के नाते मैं बहुत स्पष्ट शब्दों में कह
सकता हूं कि मैं नहीं चाहूंगा कि प्रधानमंत्री भी मेरे काम में हस्तक्षेप करें । दरअसल
जवाहरलाल नेहरू ने साहित्य अकादमी के अध्यक्ष के अपने दस साल के कार्यकाल में उस
भूमिका का निर्वाह किया जो किसी भी संस्था को बनाने के लिए जरूरी होता है । जवाहरलाल
नेहरू अकादमी के सक्रिय अध्यक्ष के तौर पर काम करते रहे और हर छोटी बड़ी चीज पर
बारीक नजर रखते रहे । जब निराला बीमार थे और आर्थिक तंगी से गुजर रहे थे तो नेहरू
ने मार्च 1954 में साहित्य अकादमी के सचिव कृष्ण कृपलानी को उनकी आर्थिक मदद के
लिए पत्र लिखा था । इसी तरह से जब 9 मार्च 1956 को साहित्य अकादमी के सचिव कृपलानी
ने अध्यक्ष जवाहरलाल नेहरू को रवीन्द्र नाथ ठाकुर जन्मशताब्दी समारोह के बारे में
एक नोट भेजा 1960 में उनकी जन्म-शताब्दी वर्ष का उल्लेख करते हुए । नेहरू ने उसी
दिन सचिव को उत्तर दिया कि – ‘हम कार्यकारी मंडल की बैठक में इसपर चर्चा करेंगे । मेरा अनुमान है कि रवीन्द्रनाथ
ठाकुर का जन्म 1861 में हुआ था। ‘ इस तरह के कई दिलचस्प
प्रसंग इस किताब में हैं । साहित्य अकादमी और हिंदी साहित्य के इतिहास में रुचि
रखनेवालों के लिए ये एक जरूरी किताब है ।
पिछले दिनों साहित्य अकादमी पुरस्कार वापसी को लेकर बहुत चर्चा हुई
थी, तब पुरस्कार वापस करनेवालों और उनेक समर्थकों ने इस तरह का माहौल बनाया कि
साहित्य अकादमी के इतिहास में अपनी तरह की ये पहली घटना है । साहित्य अकादमी का
इतिहास - पांच दशक- पलटने के बाद यह भी गलत साबित हो रही है । 1981 में तेलुगू
लेखक वी आर नार्ला के नाटक ‘सीता जोस्यम जिअर’ पर साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया
गया लेकिन जब अकादमी की पत्रिका इंडियन लिटरेचर में उसकी प्रतिकूल समीक्षा छपी तो
उन्होंने पुरस्कार वापस कर दिया । इसी तरह
से देशबंधु डोगरा ‘नूतन’ को उनके डोगरी
उपन्यास ‘कैदी’ के लिए 1982 में चुना
गया था । वो पुरस्कार वितरण समारोह में पहुंचे और वहां उन्होंने ये कहते हुए
पुरस्कार लौटा दिया कि साहित्य अकादमी ने उनको पुरस्कार देने में बहुत देर कर दी, उनको
तो बहुत पहले पुरस्कार मिल जाना चाहिए था । इसी तरह से 1983 में गुजराती लेखक
सुरेश जोशी को उनकी किताब ‘चिंतयामि मनसा’ के लिए अकादमी पुरस्कार दिया गया लेकिन उन्होंने ये कहते हुए पुरस्कार
लौटा दिया कि उनकी किताब में छिटपुट लेख हैं जो पुरस्कार के लायक नहीं है । उन्होंने
उस वक्त एक टिप्पणी भी की थी- अकादमी चुके हुए लेखकों को पुरस्कृत करती है । इस
आरोप पर उस वक्त के अध्यक्ष गोकाक ने टिप्पणी की थी- यह पता लगाना दिलचस्प होगा कि
लेखक अपनी रचनात्मक शक्तियों के शिखर पर कब होता है । तब वह बिना चुकी हुई शक्ति
होता है ? यह कहना मुश्किल होगा । आयुवर्ग को ध्यान में रखते
हुए, हम नहीं कह सकते कि मुनष्य तीसवें वर्ष में, चालीसवें में, पचासवें में,
साठवें में अपने लेखन के प्रखर रूप में होता है । हो सकता है कि कुछ अद्धभुत लड़के
चट्टान की तरह हों या थोड़ा उम्रदराज शैली या कीट्स की तरह हों । वर्ड्सवर्थ की
प्रतिभा का उम्र बढ़ने के साथ ह्रास हुआ लेकिन रवीन्द्रनाथ जैसे लेखक भी थे जिनकी
रचनात्मक उर्जा सत्तर पार भी अक्षुण्ण थीं । ‘ बाद में लेखकों को
पुरस्कृत करने में इस तरह के तर्कों का सहारा मिला । बाद में भी कई बार साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर विवाद
उठा । ये बात भी समय समय पर उठी कि साहित्य अकादमी पुरस्कार को लाइफ टाइम अचीवमेंट
पुरस्कार बना दिया जाना चाहिए । साहित्य अकादमी पुरस्कार पर कृष्णा सोबती की
टिप्पणी भी गौर करने लायक थी जब उन्होंने इसको आईसीसी में तय होने की बात की थी ।
आलोचक भारत भारद्वाज द्वारा अनुदित ये किताब अकादमी के पचास सालों के गौरवशाली इतिहास को सामने लाती है । इसमें साहित्य
अकादमी की स्थापना के पीछे की सोच से
लेकर इसकी स्वायत्ता का आधार भी मौजूद है । शुरुआती दौर की बहसें भी इस किताब में
हैं । इसके अलावा साहित्य अकादमी का संविधान भी इस किताब में है जिसको पढ़कर हिंदी
के उन लेखकों का ज्ञानचक्षु खुल सकता है जो अकादमी के क्रियाकलापों के बारे में
मनगढंत टिप्पणी करते रहते हैं । साहित्य अकादमी का पचास साल का इतिहास हिंदी में प्रकाशित
हो गया है। अब आवश्यकता इस बात की है कि उसके बाद के करीब बारह साल का इतिहास भी
प्रकाशित हो । साहित्य अकादमी को कुछ इस तरह का इंतजाम करना चाहिए कि हर दस साल
बाद इसका इतिहास एक दस्तावेज के रूप में सामने आए । इससे साहित्य के नए पाठकों को
अकादमी के बारे में जानने समझने में सहूलियत होगी ।
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