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Friday, August 19, 2016

जनरलों के बीच जंग !

भारतीय सेना । इस नाम से देश की जनता के मन में गौरव का भाव जगता है । सेना के अफसरों और जवानों के उच्च बलिदानों की वजह से ना केवल विश्व में भारत का माथा उंचा होता है बल्कि देश की सीमापर या देश के अंदर जब भी जरूरत आन पड़ती है तो सेना के जवान और अफसर अपने अदम्य साहस और कर्मठता से अपनी जिम्मेदारी का निर्वहन करते हैं । पिछले दिनों भारतीय सेना के तीन जनरलों – दो पूर्व- जनरल वी के सिंह, जनरल बिक्रम सिंह और एक मौजूदा जनरल दलबीर सिंह सुहाग के बीच जिस तरह से विवाद हुआ है वो सेना की प्रतिष्ठा के अनुकूल नहीं है । बारहल लाख अफसरों और जवानों की भारतीय सेना एक बेहद अनुशासित फोर्स मानी जाती थी और संविधान की भावनाओं का सम्मान करते हुए निर्णयों का पालन करती है । इन दिनों सेना के काम-काज में राजनीतित हस्तक्षेपों और कोर्ट कचहरी की वजह से सेना के चंद अफसरों के क्रियायाकलाप विवादित हो रहे हैं । जनरल वी के सिंह पहले सेनाध्यक्ष हुए जिन्होंने भारत सरकार को सुप्रीम कोर्ट में घसीटा । अपने उम्र विवाद में वो सुप्रीम कोर्ट पहुंचे थे लेकिन अदालत के रुख को देखते हुए कदम पीछे खींच लिए थे । पाठकों को याद होगा कि जब उन्नीस सौ तिरासी में इंदिरा गांधी ने लेफ्टिनेंट जनरल एस के सिन्हा की दावेदारी को सुपरसीड करते हुए एस एस वैद्य को सेनाध्यक्ष बनाया था तो उन्होंने एक अनुशासित सिपाही की तरह भारत सरकार के आदेशों को शिरोधार्य किया था । अब स्थितियां धीरे-धीरे बदल रही हैं ।
ताजा विवाद मौजूदा सेनाध्यक्ष जनरल दलबीर सिंह सुहाग के एक हलफनामे से पैदा हुआ है जो उन्होंने पूर्व सेनाध्यक्ष और अब भारत सरकार में मंत्री जनरल वीके सिंह के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में दायर किया है । अपने इस हलफनामे में जनरल सुहाग ने जनरल वीके सिंह पर आरोप लगाया है कि सेना प्रमुख रहते हुए उन्होंने प्रमोशन रोकने के लिए झूठे आरोप लगाए और उनपर कार्रवाई की । दरअसल ये पूरा विवाद शुरू हुआ है लेफ्टिनेंट जनरल रवि दस्ताने की एक याचिका पर जिसमें उन्होंने आरोप लगाया था कि सुहाग को सेनाध्यक्ष बनाने के लिए उनकी वरीयता को ताक पर रखा गया था । सेना के ट्रायब्यूनल से उनकी याचिका खारिज होने के बाद दास्ताने सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए जहां सुनवाई के दौरान जनरल दलबीर सिंह सुहाग ने हलफनामा दाखिल कर पूर्व सेनाध्यक्ष पर संगीन इल्जाम लगाए । इस केस के जानकारों का कहना है कि जनरल सुहाग ने कुछ भी नया नहीं कहा है । जब ये केस सशसत्र बल न्यायधिकरण में चल रहा था तब 2012 में उन्होंने यही हलफनामा वहां भी दायर किया था । उस वक्त ना तो वी के सिंह केंद्रीय मंत्री थे और ना ही सुहाग सेनाध्यक्ष ।
ये पूरा विवाद दो हजार बारह के जनरल वीके सिंह के उस आदेश की वजह से शुरू हुआ जिसमें उन्होंने सुहाग पर कथित रूप से कमान और नियंत्रण में विफल रहने की वजह से अनुशासन और सतर्कता प्रतिबंध लगाया था । जनरल वी के सिंह के इस फैसले का आधार कॉर्प थ्री खुफिया यूनिट की ओर से बीस इक्कसी दिसबंर दो हजार ग्यारह की रात को असम के जोरहट में चलाए एक अभियान की कोर्ट ऑफ इंक्यावरी की जांच थी । इसके बाद मई में वीके सिंह रिटायर हो गए और उनके बाद सेनाध्यक्ष बने जनरल बिक्रम सिंह ने जून में सुहाग को राहत देते हुए ये प्रतिबंध हटा लिया था और उनको फूर्वी कमान का जीओसी इन सी के पद पर तैनाती का हुक्म जारी कर दिया था। अब सुप्रीम कोर्ट में जनरल सुहाग के हलफनामे के बाद रक्षा मंत्री ने उनको तलब कर पूरे मामले की जानकारी ली है । कहा ये जा रहा है कि सरकार को बगैर बताए जनरल सुहाग ने सुप्रीम कोर्ट में ये हलफनामा दायर कर दिया। जनरल वी के सिंह पर आरोप लगा था कि वो अपने रिश्तेदार अशोक सिंह को सेनाध्यक्ष बनवाने के लिए ये सब कर रहे थे लेकिन इतना याद रखना जरूरी है कि जनरल वीके सिंह से सेना में दलालों के दखल पर पूरी तरह से रोक लगाई थी । उन्होंने सेना के पूरे सिस्टम को झकझोरा भी था नेताओं को उनकी संवैधानिक जगह भी याद दिलाई थी । वी के सिंह के खिलाफ उन दिनों देश की मजबूत आर्म्स लॉबी ने भी बहुत साजिश रची थी क्योंकि उन्होंने इन दलालों को उनकी औकात बता दी थी ।

दरअसल पिछले कुछ सालों में सेना के क्रियाकलापों में अफसरों और नेताओं का दखल बढ़ा है जिसकी वजह से इस तरह के विवाद सतह पर आने लगे हैं । अब दो पूर्व सेनाध्यक्षों के बीच के इस ताजा विवाद ने एक बार फिर से भारतीय सेना के गौरवशाली परंपरा पर सवाल थड़े कर दिए हैं और जनता के मन में ये प्रश्न उठ खड़ा हुआ है कि क्या एक सेनाध्यक्ष अपने साथी अफसर के खिलाफ साजिश रच सकता है । जनता के मनमें उठने वाले इस तरह के सवाल लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है । 

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