राजेन्द्र यादव के ना होने का मतलब और उनके ना होने की कमी इस वक्त
हिंदी साहित्य जगत के अलावा हिंदी समाज को भी समझ में आ रही है । इस वक्त देश में
जो हालात हैं या साहित्य में जिस तरह की गति व्याप्त है उसपर कोई भी बड़ा लेखक
हस्तक्षेप करने से कतरा रहा है । जो एक दो लेखक अपनी राय सार्वजनिक रूप से व्यक्त
करते भी हैं उनकी साख उतनी नहीं बची कि हिंदी साहित्य के साथ साथ हिंदी समाज भी
उनको गंभीरता से ले । आज हमारे देश में सार्वजनिक बुद्धिजीवी की बहुत बातें होती
हैं, खासकर हिंदी पट्टी में तो उनकी बेहद कमी भी महसूस
की जाती है । आज हमारे हिंदी समाज में राजेन्द्र य़ादव जैसी खरी-खरी बात करनेवाले
और हर मसले पर अपनी राय रखनेवाले बुद्धिजीवी कहां बचे हैं । राजेन्द्र यादव
विचारों से मार्क्सवादी अवश्य थे लेकिन वो दूसरी विचारधारा को भी स्पेस देते थे ।
उनके यहां दूसरे विचारधारा को लेकर किसी किस्म की अस्पृश्य़ता नहीं थी । यही वजह थी
कि राजेन्द्र यादव सभी विचारधारा के लेखकों और साहित्यप्रेमियों के बीच समादृत थे
। राजेन्द्र यादव में ये माद्दा था कि वो जिस तीव्रता से किसी विचारधारा का विरोध
करते थे उतने ही सख्त तरीके से वो मार्क्सवाद पर भी सवाल खड़े करते थे । उनके
जीवित रहते हंस की सालाना गोष्ठी में एक बार जब तेलुगू के कवि बरबर राव वादा कर
जलसे में नहीं पहुंचे तो उनको गहरा दुख हुआ था । उन्होंने उस दिन माना था कि
मार्क्सवादियों में दूसरे विचारों को लेकर जो अस्पृश्यता का भाव है वो मार्क्स के
इन अनुयायियों को एक दिन ले डूबेगा । पता नहीं यादव जी के इस आंकलन में कितना दम
है लेकिन मार्क्सवादियों की गिरती साख से कुछ संकेत तो मिलने ही लगे हैं ।
सांप्रदायिकता के खिलाफ यादव जी ने जितना लिखा उतना शायद ही किसी हिंदी लेखक ने
लिखा होगा ।
राजेन्द्र यादव को आज की जो नई पीढ़ी है या जो नए लेखक हैं वो एक
संपादक के रूप में ज्यादा जानते हैं । यह अलहदा बात है कि जब पचास और साठ के दशक
में उनकी कहानियों और उपन्यासों की धूम मची हुई थी तब वो संपादकी नहीं करना चाहते
थे । नई कहानी की त्रिमूर्ति के दो मूर्ति- मोहन राकेश और कमलेश्वर जब सारिका के
संपादक बने थे तब यादव जी ने लेख लिखकर उनका मजाक उड़ाया था । लेकिन जब एक के बाद
एक साहित्यक पत्रिकाएं बंद होने लगी तो राजेन्द्र यादव ने उन्नीस सौ छियासी में
प्रेमचंद द्वारा स्थापित पत्रिका हंस का संपादन शुरू किया । अब यहां इस बात पर
ध्यान देना जरूरी है कि जो शख्स लेखक चले संपादकी की ओर जैसा लेख लिखकर मजाक उड़ा
रहा था उसने खुद संपादक बनने की क्यों ठानी । वो भी किसी संस्थान की पत्रिका में
नहीं बल्कि खुद की पत्रिका का संपादन क्यों । कुछ लोग कहते हैं कि मोहन राकेश और
कमलेश्वर के संपादक बनने के बाद उनके मन के कोने अंतरे में भी कहीं ना कहीं संपादक
बनने की आकांक्षा थी । लेकिन यादव जी का संपादक बनने की वजह बहुत सतही है । अगर ये
कुंठा और आकांक्षा होती तो वो किसी सेठाश्रयी पत्रिका के संपादन का दायित्व संभाल
सकते थे लेकिन उन्होंने खुद की पत्रिका निकालने का जोखिम उठाया । बाद में जब हंस
ने हिंदी के कई नामचीन लेखकों से साहित्य जगत का परिचय ही नहीं करवाया बल्कि उऩको
स्थापित भी किया तो भी ये तर्क गलत हो गए कि कुंठा की वजह से यादव जी संपादक बने ।
हंस के प्रकाशन के बाद यादव जी के लेखकीय व्यक्तित्व का एक दूसरा पहलू सामने आया
था । वो हिंदी के सार्वजनिक बुद्धिजीवी के तौर पर उभरे और कालांतर में अपनी उस छवि
को मजबूत किया । देश में इस वक्त जिस तरह
से विचारधारा की टकराहट का दौर चल रहा है उसमें राजेन्द्र यादव जैसे शख्स का होना
जरूरी था । अट्ठाइस अगस्त को उनका जन्मदिन है और इस मौके पर उनके तेवरों वाले लेखक
की कमी शिद्दत से महसूस की जा रही है
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