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Sunday, August 7, 2016

साहित्यजगत के विदूषक

शेक्सपियर के नाटकों में विदूषकों की अहम भूमिका होती है और उसने उस वक्त समकालीन आलोचकों को ध्यान अपनी ओर खींचा था, बल्कि हम ये कह सकते हैं कि बगैर क्लाउंस के शेक्सपियर के नाटकों की कल्पना नहीं की जा सकती है । शेक्सपियर के नाटकों में विदूषक दो तरह के होते हैं पहला जो अपनी मूर्खतापूर्ण बातों से दर्शकों को हंसाता है लेकिन वो अपने चरित्र में गंवार होता है । विदूषक के अलावा कहीं कहीं मसखरा भी मिलता है जिसे जेस्टर कहा जाता है जो अपनी हरकतों से या फिर अपने हावभाव से दर्शकों को हंसाने की कोशिश करता है । दोनों चरित्रों में बहुकक बारीक विभेद होता है जिसको समझने के लिए साहित्यक सूझबूझ की आवश्यकता होती है ।  हिंदी साहित्य में अगर रचनात्मक लेखन पर गौर करें तो पात्रों के तौर पर मसखरों और विदूषकों की कमी नजर आती है लेकिन वो कमी साहित्य जगत में नहीं दिखाई देती है । यहां आपको विदूषक से लेकर मसखरे तक बहुतायत में दिखाई देते हैं । बहुधा अपनी मूर्खतापूर्ण बातों और हरकतों से हिंदी जगत का मनोरंजन करते रहते हैं तो कई बार अपने विट और ह्यूमर से भी पाठकों को हंसाते भी रहते हैं । साहित्यजगत के ये मसखरे श्कसपियर के जस्टर की तरह गंवार नहीं होते हैं । यह एक बुनियादी अंतर भी है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए । दरअसल जिस तरह से शेक्सपियर के नाटकों के मंचन के लिए क्लाउन एक अहम और जरूरी किरदार होता है उसी तरह से अगर समकालीन हिंदी साहित्य को फेसबुक के मंच पर देखें तो इस तरह के कई विदूषक वहां आपको एक आवश्यक तत्व की तरह नजर आएंगे । शेक्सपियर के विदूषकों और हिंदी साहित्य के इन विदूषकों में एक बुनियादी अंतर नजर आएगा । शेक्सपियर के कलाउन और जेस्टर कई बार अज्ञानता में ऐसी बातें कहते हैं या कर डालते हैं जो दर्शकों को हंसाने के लिए मजबूर करते हैं लेकिन फेसबुक पर मौजूद साहित्यक विदूषक जानबूझकर मनोरंजक हरकतें करते हैं । शेक्सपियर के विदूषकों और फेसबुक के मसखरों में एक समानता भी है वो यह है कि दोनों अनप्रेडिक्टेबल हैं । खैर यह साहित्य का एक आवश्यक तत्व है जिससे साहित्य जगत नीरसता से बचा रहता है ।

शेक्सपीरियन फूल्स और फेसबुकिए मसखरों में एक बुनियादी अंतर भी है । शेक्सपियर के ये पात्र लेखक द्वारा रचे गए हैं और लेखक को पता है कि मर्यादा की किस लक्ष्मणरेखा तक जाकर उनको पाठकों का मनोरंजन करना है और ये भी मालूम है कि उस किस लक्ष्मणरेखा के पार नहीं जाना है । परंतु फेसबुक पर मौजूद साहित्यक विदूषकों के लिए किसी तरह की कोई लक्ष्मणरेखा नहीं है- ना तो मर्यादा की और ना ही रचनात्मकता की । उनके लिए तो सारा आकाश खुला हुआ है और आप समझ सकते हैं कि अगर विदूषकों या मसखरों के लिए कोई लक्ष्मणरेखा नहीं होगी तो वो किस हद तक जा सकता है । जाता भी है । जैसा कि उपर कहा गया है कि शेक्सपियर के क्लाउन की तरह फेसबुक के विदूषक मूर्ख नहीं होते हैं तो कई बार ये भी देखने को मिलता है कि मसखरेपन की आड़ में अपने साहित्यक विरोधियों को निबटाने की मंशा से इनका उपयोग किया जाता है । फेसबुक के मंच पर इन सबको देखने और समझने में भी शेक्सपियर के नाटकों को देखने जैसा आनंद आता है । बस दिक्कत तब होती है जब समकालीन साहित्य जगत के कुछ लोग इन विदूषकों को गंभीरता से लेने लगते हैं और उनकी टिप्पणियों को लेकर उलझने लगते हैं । विदूषक और मसखरों से साहित्य जगत हरा-भरा रहता है और साथी लेखकों को इस हरियाली का आनंद उठाना चाहिए ।  

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