इन
दिनों हिंदी से लेकर अन्य भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी में भी पौराणिक कथाओं
और चरित्रों के बारे में बहुत लिखा जा रहा है। महाभारत के पात्र, रामायण के पात्र
और पुराणों में वर्णित घटनाओं, उपनिषदों के प्रसंगों के अलावा देवी देवताओं के
प्रचलित और गैर प्रचलित किस्सों को केंद्र में रखकर दर्जनों उपन्यास लिखे जा चुके
हैं और अब भी लिखे जा रहे हैं । पौराणिक कथाओं पर लिखनेवाले लेखकों की सूची बहुत
लंबी है और हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषा के पाठकों को उनके बारे में ज्ञात भी है।
इसलिए उसको दुहराने का कोई अर्थ नहीं है। पहले भी लेखक पौराणिक कथाओं को अपने लेखन
में विषय बनाते थे लेकिन वो अपेक्षाकृत कम होते थे। जैसे अगर हम देखें तो हजारी
प्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर और आचार्य चतुरसेन शास्त्री के यहां भी इस तरह का
लेखन मिलता है लेकिन उन्होंने योजनाबद्ध तरीके से बहुत ज्यादा नहीं लिखा। हिंदी के
अलावा अन्य भारतीय भाषाओं में भी यही स्थिति थी। हिंदी में नरेन्द्र कोहली, मराठी
में शिवाजी सावंत और अन्य भाषाओं में इसी तरह कम लेखक इस तरह के विषयों को उठा रहे
थे या फिर पौराणिक चरित्रों पर लिख रहे थे। बहुतायत में लिखी जा रही इन पुस्तकों
में हर लेखक अलग अलग तरीके से पौराणिक या मिथकीय चरित्रों को व्याख्यित करता है। उदाहरण
के तौर पर अगर हम देखें तो अमीश ने राम-त्रयी के अपने उपन्यास सीता, मिथिला की
योद्धा में सीता की एकदम अलग तरह की छवि गढ़ी है। उनको योद्धा के तौर पर सामने
रखा। जबकि सीता की छवि सुकुमारी की रही है। अमीश ने सीता को लेकर कथा का जो वितान
रचा है वो उनकी शोध और सोच का हिस्सा हो सकता है। उसमें रोचकता भी है, पढ़ते समय
पाठकों के दिमाग में आगे क्या जैसी जिज्ञासा भी जगती है। लेकिन कई लोगों को अमीश
के उस उपन्यास में सीता के चरित्र चित्रण को लेकर आपत्तियां भी हैं। होनी भी
चाहिए। एक जाग्रत समाज से ये अपेक्षा भी की जाती है वो किसी कृति पर रचनात्मक
आपत्तियां उठाए। इससे ही तो विमर्श की जमीन तैयार होती है,, संवाद का माहौल बनता
है। लेकिन आपत्तियों का ठोस आधार होना भी उतना ही आवश्यक है।
अब
प्रश्न यह उठता है कि पौराणिक कथाओं को लिखते हुए लेखक जब रचनात्मक छूट लेता है तो
क्या वो परंपरा या इतिहास के साथ खिलवाड़ करता है या एक नया इतिहास गढ़ता है।
इतिहास के साथ खिलवाड़ या नया इतिहास गढ़ने की बात पर विचार करने से लगता है कि इसके
अलावा भी एक पक्ष है वो ये है कि कुछ लेखक बगैर इतिहास से खिलवाड़ किए बिना उपलब्ध
प्रामाणिक या लिखित जानकारी के आधार पर पात्रों को समकालीन बनाने का जतन करते हैं।
जैसे नरेन्द्र कोहली। कुछ लोग जनश्रुतियों के आधार पर, लोक में व्याप्त छवियों के
आधार पर पौराणिक चरित्रों को व्याख्यायित करने की कोशिश करते हैं। जैसे देवदत्त
पटनायक। कुछ लेखक अपने हिसाब से पौराणिक चरित्रों को गढ़ने की कोशिश करते हैं और
कुछ लोग उससे भी आगे जाकर पौराणिक चरित्रों का अपनी विचारधारा के आधार पर आकलन
करने लग जाते हैं। विचारधारा की कसौटी पर कसते हुए पौराणिक चरित्रों को या तो
गिराने का लेखन किया जाता है या फिर खलनायकों को नायक बनाने की कोशिश की जाती है। इसका
एक उदाहरण महाभारत का चरित्र कर्ण है। महाभारत के इस पात्र को शिवाजी सावंत ने
अपनी कृति ‘मृत्युंजय’
में नायक के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की है। वैसा नायक जो बुरा काम करते हुए
भी समाज में नायक की प्रतिष्ठा हासिल करता है। लेकिन जब हम नरेन्द्र कोहली के ‘महाभारत’
पर लिखी कृतियों में कर्ण के चरित्र को देखते हैं तो वहां वो बेहद क्रूर और खलनायक
नजर आता है। एक बार मैंने नरेन्द्र कोहली जी से प्रश्न पूछा था कि आपके यहां कर्ण
इतना क्रूर और कुटिल क्यों दिखाई देता है, जबकि अन्य लेखक उसको वंचितों का
प्रतिनधित्व मानते हुए सहानुभूतिपूर्वक उस चरित्र का चित्रण करते हैं। तब कोहली जी
ने कहा था कि ‘उनका
कर्ण महाभारत का वास्तविक कर्ण है।‘ उन्होंने कहा कि- ‘महाभारत में जो- दुर्योधन, दुशासन, शकुनि और कर्ण की
चांडाल चौकडी है, उसका वो सबसे दुष्ट पात्र है। द्रोपदी का चीरहरण करने के लिए
किसने कहा, कौन व्यक्ति था जो चाहता था कि वो राजपरिवार में रहे, राजकुमारों के
बराबर रहे, धृतराष्ट्र उसको अपना पुत्र मान ले।‘ कोहली ने ये भी कहा कि ‘अगर
हम महाभारत में चित्रित कर्ण के चरित्र को देखते हैं तो पाते हैं कि जितने भी
युद्ध हुए उसमें सबसे पहले कर्ण भागता है, लोगों को ये मालूम महीं है, लोगों ने
महाभारत को नहीं पढा है, लोगों ने इधर उधर की सुनी सुनाई बातें या
बंबइया फिल्मों में कर्ण के चरित्र को देखा है या पारसी थिएटर में महावीर कर्ण, महादानी
कर्ण वगैरह वगैरह देखा है जो कि मूल महाभारत के कर्ण से अलग है। पांडव जब वन में
जाते हैं तो उनको चिढाने के लिए जाने का सुझाव किसने दिया, कर्ण ने। कर्ण ने द्यूत
सभा में द्रौपदी को जो कहा है वो सुनिए, कर्ण ने युद्ध के समय शल्य को मद्र देश की
स्त्रियों के विषय में जो कुछ कहा है, उससे उसकी घटिया सोच के बारे मे पता चलता
है। इन दोनों बातों को पढ़ने से ही पता चल जाएगा कि कर्ण की स्त्रियों को लेकर सोच
क्या थी। कितनी अपमानित करनेवाली बातें हैं उसको जानने के लिए महाभारत को पढ़ना
आवश्यक है। और ये जो दलित या जाति आदि की बात होती है वो तो उस काल में था ही नहीं
वो तो इस समय की बात है, चाहे उसको शिवाजी सावंत ने उठाया हो चाहे किसी अन्य लेखक
ने। ये बातें आज की मानसिकता को उसपर आरोपित करना है। कर्ण तो राजपरिवार में पला,
राजकुमारों के साथ पला.राजमहल में रहा, उसको कौन सी कमी थी सिवाए इसके कि वो
धृतराष्ट्र का पुत्र कहला नहीं सका।‘
पौराणिक
कथाओं में कल्पना का पुट लगाकर विपुल लेखन हो रहा है, फिक्शन में ये बातें उचित हो
सकती हैं लेकिन जब आप किसी मूल ग्रंथ में वर्णित पात्रों के चरित्र को बदलने की
कोशिश करते हैं तो लेखन पर सवाल उठने लगते हैं। होना यह चाहिए कि अगर जब लेखक किसी
पौराणिक चरित्र को उठाता है और उसको मूल ग्रंथ का चरित्र बताता है तो लेखक को मूल
चरित्र के निकट से निकट जाने की कोशिश करनी चाहिए। यह तो संभव है कि लेखक पौराणिक
चरित्रों या कथाओं को सामयिकता, सार्थकता और प्रासंगिकता की कसौटी पर कसे, क्योंकि
कोई भी रचना समय से मुक्त तो हो नहीं सकती है। लेकिन आधुनिकता के नाम या समकालीनता
के नाम पर या नया लिखने के नाम पर जब मूल चरित्र को बदलने की कोशिश होती है तो वो
हास्यास्पद हो जाती है।
पौराणिक
चरित्रों को लेकर संकट सिर्फ लेखन में ही नहीं सार्वजनिक बातचीत में भी बहुत होती
है। सीता और राम के संबंधों को लेकर बहुत सारे विमर्श होते रहते हैं। स्त्रियों के
पक्ष में डंडा-झंडा लेकर चलनेवाले रचनाकार राम को सीता के घर से निकालने के प्रसंग
को लेकर बहुधा सवाल खड़े करते हैं। लेकिन कुछ शोध ऐसे भी आए हैं जिनमें ये माना
गया है कि राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा और राज्य से बाहर निकालने की कथा
वाल्मीकि रामायण में बाद में प्रक्षिप्त की गई है। इसका आधार यह माना जाता है कि
अधर्म पर धर्म की विजय की कहानी तो रावण के वध के बाद ही समाप्त हो जाती है। तुलसीदास
के रामचरित मानस में तो ये प्रसंग है ही नहीं। स्रावजनित विमर्श में कई बार जब राम
को कठघरे में खड़ा करने की कोशिश होती है तो कई संदर्भ इसी तरह से जोड़े घटाए जाते
हैं। समग्रता में तर्क सामने नहीं आते हैं क्योंकि मूल ग्रंथ के चरित्र तक जाने और
उसके जानने की कोशिश के बगैर ही किसी पात्र या चरित्र के बारे में राय बना ली जाती
है। पौराणिक कथाओं पर लिखना या पौऱाणिक चरित्रों के बारे में लिखना बहुत सावधानी
की मांग करता है, बहुत गहरे अध्ययन की मांग करता है। यहां लेखक को उसी तरह का
संतुलन रखना पड़ता है जैसे नट रस्सी पर चलते हुए रखता है। जरा सी चूक उसको नीचे
गिरा सकती है या जरा सी असावधानी से लेखक की साख धूल में मिल सकती है।