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Saturday, December 28, 2019

हैशटैग पर बनकर सफल होती फिल्में


देश में आर्थिक मंदी पर कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद के बयान का खूब मजाक बना था। रविशंकर प्रसाद ने तब कहा था कि जहां एक दिन में फिल्में सौ करोड़ से अधिक कमा रही हैं तो मंदी कैसे हो सकता है। जब उनका ये बयान आया था तब उसका ना सिर्फ मजाक बना था बल्कि विपक्ष समेत कई स्वतंत्र स्तंभकारों ने रविशंकर प्रसाद को घेरा था। टेलीविजन चैनलों पर बहस भी हुई थी। कई लोगों ने रवि बाबू के इस बयान को गंभीर मुद्दे को हल्के में लेनेवाला करार दिया था। बाद में इस मुद्दे पर सफाई आदि भी आई। लेकिन अब जो आंकड़ें आ रहे हैं वो इस बात की तस्दीक कर रहे हैं कि कम से कम हिंदी फिल्म उद्योग मंदी से प्रभावित नहीं है। रविशंकर प्रसाद भले ही मजाक मे कह रहे हों लेकिन अगर किसी सैक्टर में ग्रोथ तीस प्रतिशत से अधिक हो तो वहां मंदी जैसी बात तो नहीं ही कही जा सकती है। 2019 में फिल्मों के कारोबार का आंकड़ा चार हजार करोड़ को पार कर गया है। एक अनुमान के मुताबिक इस वर्ष फिल्मों का कारोबार चार हजार तीन सौ पचास करोड़ से ज्यादा का रहा जो पिछले वर्ष की तुलना में हजार करोड़ रुपए से भी ज्यादा है। इस वर्ष एक हिंदी फिल्म वॉर ने तीन सौ करोड़ से अधिक का बिजनेस किया जबकि तीन हिंदी फिल्मों ने दो सौ करोड़ रुपए से ज्यादा और दो ने दो सौ करोड़ का कारोबार किया। इसके अलावा तीन फिल्में ऐसी रहीं जिनका कारोबार डेढ़ सौ करोड़ से अधिक रहा। इस लिहाज से देखें तो दो हजार उन्नीस फिल्मों के कारोबार के लिहाज से अबतक का सबसे अधिक मुनाफा देने वाला वर्ष बन गया। सबसे अधिक कमाई तो फिल्म वॉर ने की जिसने तीन सौ करोड़ से अधिक का कारोबार किया और अगर इसमें तमिल और तेलुगू वर्जन को मिला दें तो ये आंकड़ा सवा तीन सौ करोड़ रुपए तक पहुंच जाता है।
वॉर के बाद कबीर सिंह ने दो सौ अस्सी करोड़ से अधिक का बिजनेस किया। इस फिल्म की काफी आलोचना भी हुई थी लेकिन बावजूद इसके दर्शकों ने इसको पसंद किया। कबीर सिंह तेलुगू फिल्म अर्जुन रेड्डी का हिंदी रीमेक है। इस फिल्म में शाहिद कपूर ने एक ऐसे शख्स की भूमिका निभाई है जिसको बहुत जल्दी गुस्सा आता है। सर्जन बनने के बाद भी वो शराब पीकर और ड्रग्स के डोज लेकर ऑपरेशन करता है। महिलाओं के प्रति हिंसा उसके व्यवहार उसके काम-काज के दौरान दिखता है। ये वही दौर था जब उरी और केसरी जैसी देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्में बॉक्स ऑफिस पर जोरदार कमाई कर रही थीं तो दूसरी तरफ कबीर सिंह जैसी फिल्म को भी दर्शक हाथों हाथ ले रहे थे। कबीर सिंह के अलावा उरी द सर्जिकल स्ट्राइक ने भी ढाई सौ करोड़ रुपए से अधिक का बिजनेस किया। हाउसफुल 4 और टोटल धमाल आदि भी कमाई में अव्वल रहीं।
इसके अलावा इस वर्ष हिंदी सिनेमा में एक और प्रवृत्ति दिखाई देती है जिसको रेखांकित किया जाना चाहिए। वो है देशभक्ति से ओतप्रोत फिल्मों का जमकर कारोबार करना। 2014 में नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद से देश में राष्ट्रवाद को लेकर काफी बातें होने लगीं थीं। राष्ट्रवाद के पक्ष और विपक्ष में तर्क-कुतर्क भी हुए, हिंसा से लेकर आंदोलन भी हुए। सोशल मीडिया पर राष्ट्रवाद कई बार ट्रेंड भी करता रहता है। राष्ट्रवाद का ये विमर्श अब भी अलग अलग रूपों में जारी है। फिल्मकारों ने राष्ट्रवाद के इस विमर्श को अपनी फिल्मों का विषय बनाया और जमकर मुनाफ कमाया। अगर हम सिर्फ नरेन्द्र मोदी के प्रधानमंत्रित्व काल में बनी फिल्मों पर नजर डालते हैं तो ये पाते हैं कि इस दौर में तीन दर्जन ने अधिक फिल्में ऐसी बनीं जिसमें देशभक्ति और राष्ट्रवाद के साथ-साथ भारत और भारतीयता को सकारात्मकता के साथ पेश करनेवाली फिल्मों ने जमकर कमाई की। उरी द सर्जिकल स्ट्राइक का उदाहरण तो सबके सामने है ही। इसके अलावा अगर हम नाम शबाना और गाजी अटैक जैसी फिल्मों को भी लें तो उसने अच्छा मुनाफा कमाया। पहले ज्यादातर लगान जैसी फिल्में बनती थीं जिसमें अंग्रेजों से गुलामी का बदला लिया जाता था और देशप्रेम की भावना को उभार कर निर्माता निर्देशक दर्शकों को सिनेमा तक खींच कर लाते थे, लेकिन मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद स्थितियां बदलने लगीं। अब तो देश के गौरव को स्थापित करनेवाली फिल्में दर्शकों को पसंद आने लगीं। दर्शकों को देश की सफलता की कहानी भी पसंद आने लगी। मिशन मंगल की सफलता इसकी एक बानगी भर है. इसमें भारत की अंतरिक्ष में कामयाबी की गौरव गाथा है। इस तरह हम ये कह सकते हैं कि राष्ट्रवाद की लहर से फिल्म उद्योग अछूता नहीं रहा। देशभक्ति, देश की गौरव गाथा, देश से जुड़ा गौरवशाली पल ये सब दर्शकों को पसंद आने लगा है। चाहे वो केसरी हो या बजरंगी भाईजान या फिर भारत
इस तरह की फिल्मों की सफलता से हिंदी फिल्मों से खान साम्राज्य के दबदबे में कमी की घोषणा भी हो गई है। आमिर खान की ठग्स ऑफ हिन्दोस्तान बुरी तरह से फ्लॉप रही। शाहरुख खान की 2019 में कोई फिल्म आई नहीं। इसके पहले जीरो को दर्शक नकार चुके हैं। ले देकर सलमान खान अब भी मैदान में डटे हुए हैं। इससे अलग कुछ ऐसे चेहरे हिंदी फिल्मों में स्थापित हुए जिसमें लोग अपने जैसी छवि देखते हैं। आयुष्मान खुराना से लेकर विकी कौशल जैसे अभिनेताओं ने अपनी अदाकारी से खुद को तो स्थापित किया ही फिल्मों को कारोबार के लिहाज से भी सफल बनाया।
इन सबसे अलग हटकर एक और तथ्य है जिसकी ओर फिल्मकारों ने ध्यान दिया और वो सफल रहे। पिछले पांच सालों से फिल्मकारों ने खबरों पर फिल्में बनानी शुरू कर दी हैं। जिस भी खबर ने देशव्यापी चर्चा हासिल की या जिस भी खबर को लेकर सोशल मीडिया पर मुहिम चली और उसका हैशटैग ट्रेंड करने लगा उन खबरों पर देर सबेर फिल्म बनी। नोएडा में स्कूली छात्रा आरुषि कलवार हत्याकांड पर मेघना गुलजार ने तलवार फिल्म बनाई। इसी तरह से लखनऊ में हुए एनकाउंटर और फिर परिवार का मुठभेड़ में मारे गए अपने लड़के का शव लेने से इंकार कर देने की घटना पूरे देश में चर्चा का विषय बनी थी। उस समय इस खबर को पूरे देश में एक मिसाल के तौर पर देखा गया था। निर्देशक अनुभव सिन्हा ने इस घटना को केंद्र में रखकर फिल्म मुल्क का निर्माण किया। ये फिल्म दर्शकों को खूब पसंद आई। अनुभव ने ही उत्तर प्रदेश के बदायूं में दो बहनों की मौत और उनके शव पेड़ पर लटके मिलने की बेहद चर्चित खबर को केंद्र में रखकर आर्टिकल15 बनाई। इस खबर की भी देश-विदेश में चर्चा हुई थी। सीबीआई जांच तक हुई थी। कई दिनों तक न्यूज चैनलों के प्राइम टाइम पर पेड़ से लटकी दो लड़कियों की तस्वीरों पर चर्चा हुई थी। इसी तरह से अलीगढ़ के एक समलैंगिक प्रोफेसर की कहानी पर अलीगढ़ के नाम से फिल्म बनी। तलवार फिल्म बनाने वाली मेघना गुलजार अब छपाक लेकर आ रही हैं जो एसिड अटैक पीड़ित लक्ष्मी की कहानी है। इस फिल्म में दीपिका पादुकोण केंद्रीय भूमिका में हैं। ये वारदात भी देशभर में चर्चित रही थी। अगर हम विचार करें तो ये पाते हैं कि हैशटैग पर फिल्म बनने की जो शुरुआत कुछ सालों पहले शुरू हुई थी वो दो हजार उन्नीस में आकर और मजबूत हुई और अब इसने एक ट्रेंड का रूप ले लिया है।
कुछ फिल्मकार इसको फिल्मों में यथार्थवादी कहानियों की वापसी के तौर पर देखते हैं। उनका कहना है कि इस तरह की कहानियों से दर्शकों को उन प्रश्नों का उत्तर मिल जाता है जो खबरों से नहीं मिल पाता है। फिल्मों में खबरों को फिक्शनलाइज करके दिखाया जाता है जिससे उनको ये छूट रहती है कि वो अपने हिसाब से खबर को उसके अंजाम तक पहुंचा सकें। इस प्रवृत्ति को साफ तौर पर फिल्म मुल्क से लेकर तलवार तक में देखा जा सकता है। इस तरह की फिल्मों के निर्देशकों को ये छूट भी मिल जाती है कि खबर को लेकर जन भावना के साथ अपनी फिल्म के क्लाइमैक्स को पहुंचा दे या फिर निर्देशक अपनी विचारधारा के हिसाब से दर्शकों को ज्ञान दे। लेकिन जनभावना अगर छूटती है तो फिल्म की सफलता संदिग्ध हो जाती है जिसका उदाहरण अलीगढ़ फिल्म की असफलता में देखा जा सकता है। तलवार में मेघना ने लगभग जन भावना के अनुरूप ही फिल्म का क्लाइमैक्स रचा। 2019 को हम फिल्मों के इतिहास में कारोबार के लिहाज से अबतक के सबसे सफलतम वर्ष में रख सकते हैं। इस वर्ष को फिल्मों के अधिक लोकतांत्रिक होने के वर्ष के रूप में भी याद किया जा सकता है।     

Thursday, December 26, 2019

हिंदी साहित्य के अजातशत्रु लेखक को नमन

18 दिसंबर की बात है, साहित्य अकादमी पुरस्कारों की घोषणा हुई थी। हिंदी के लिए नंदकिशोर आचार्य को पुरस्कार देने की घोषणा की गई थी लेकिन जूरी ने गंगा प्रसाद विमल के नाम पर भी विचार किया था। मुझे जब इस बात का पता चला तो मैंने शाम को उनको फोन किया और जूरी में हुई चर्चा के बारे में उनको बताते हुए अफसोस प्रकट करने के अंदाज में उनसे बोला कि सर! पुरस्कार आपको मिलते मिलते रह गया। विमल जी ने जो कहा उसने मुझे नि:शब्द कर दिया। बोले, अनंत जी कोई बात नहीं अभी और बेहतर लिखूंगा तो शायद जूरी मुझे पुरस्कार के लायक समझे। अस्सी साल की उम्र में बेहतर लेखन की ये ललक हिंदी साहित्य में कम ही मिलती है। अपने इस एक वाक्य से उन्होंने ये सीख दे दी कि अगर कुछ नहीं मिला तो निराश नहीं होना चाहिए बल्कि उसको चुनौती के तौर पर लेना चाहिए और बेहतर और सकारात्मक करना चाहिए। विमल जी को लंबे समय से जानता था। पिछले महीने 15 नवंबर को पटना पुस्तक मेला के दौरान दैनिक जागरण ने सान्निध्य कार्यक्रम किया था। कार्यक्रम में विमल जी को लेकर हम पटना गए थे। विमल जी ने कार्यक्रमों में जाना बहुत कम कर दिया था लेकिन वो दैनिक जागरण के कार्यक्रम में पहुंचे और सक्रिय भागीदारी की। कार्यक्रम के बाद रात को होटल में खाने की मेज पर बैठे तो साहित्य चर्चा शुरू हो गई। साथ में हिंदी के वरिष्ठ कवि लीलाधर जगूड़ी भी बैठे थे। महाभारत और रामायण पर चर्चा होने लगी। चर्चा इस बात पर होने लगी कि महाभारत दुनिया का सबसे बड़ा क्राइम थ्रिलर है। उसके पात्रों की बहुलता और स्त्री पात्रों पर चर्चा हुई। विमल जी को महाभारत के इतने प्रसंग याद थे कि कब रात के एक बज गए पता ही नहीं चला।
जगूड़ी जी ने चर्चा को साहित्य में श्रृंगार रस की ओर मोड़ा तो विमल जी उसमें भी उसी अंदाज में भागीदार बने। जब चर्चा वाल्मीकि रामायण के आधार पर स्त्रियों के आभूषणों और श्रृंगार पर वासुदेव शरण अग्रवाल की लिखी पुस्तक श्रृंगार हाट की चली तो विमल जी ने उस पुस्तक में रानियों के अलावा राक्षस स्त्रियों के आभूषणों पर बोलते रहे। जगूड़ी जी को भी उस पुस्तक की याद आ रही थी। ये पुस्तक अब मिलती नहीं है। गंगा प्रसाद विमल जी ने एक बार फिर से उस पुस्तक को पढ़ने की इच्छा जताई थी और मुझे ये जिम्मा सौंपा था कि कहीं मिले तो उसकी फोटो कॉपी उनको दूं। उनके असमय चले जाने से उनकी ये इच्छा पूरी नहीं हो पाई।
विमल जी के साथ हमारी ढेर सारी यादें हैं। अब से करीब बीस साल पहले की बात होगी। हमलोग एक शादी में मेरठ गए थे। रास्ते में मैंने उनका एक लंबा इंटरव्यू रिकॉर्ड किया था। विमल जी अपने स्वभाव के विपरीत उस दिन बेहद आक्रामक थे और वामपंथ के खिलाफ काफी कुछ बोल गए थे। शादी समारोह में काफी रात हो गई थी और विमल जी रसरंजन के बाद मगन हो गए थे। मैं, विमल जी और रुद्रनेत्र शर्मा जी मेरठ से लौट रहे थे। दिल्ली में भयानक गर्मी पड़ रही थी। तब विमल जी पटपड़गंज में रहा करते थे। ये हमें भी मालूम था लेकिन अपार्टमेंट का पता नहीं था। हम जब इंदिरापुरम से आगे बढ़े तो उनसे पूछा कि आपको कहां छोड़ दें, किस अपार्टमेंट में रहते हैं। विमल जी ने कहा कि मुझे याद नहीं है। फिर बोले कि मदर डेयरी वाली रोड पर एक मंदिर है वहीं मेरा घर है। आपलोग मंदिर के पास मुझे छोड़ दो मैं घर चला जाऊंगा। हमने मंदिर के पास उनको उतार दिया। तब रात के करीब डेढ़ बजे थे। जब हम थोड़ा आगे चले गए तो रुद्रनेत्र जी ने कहा कि एक बार वापस चलते हैं और देख लेते हैं कि विमल जी अपने घर गए कि नहीं। हमलोग वापस मंदिर के पास पहुंचे तो विमल जी वहीं फुटपाथ पर बैठे थे। अब रात के करीब दो बज रहे हैं, विमल जी से पूछा तो फिर वही उत्तर कि याद नहीं। फिर किसी तरह से उऩको लेकर हम पैदल ही उस रोड पर चले तो थोड़ा आगे बढ़ते ही एक अपार्टमेंट के गेट पर खड़े गार्ड ने विमल जी को पहचान लिया और बोला सर तो यहीं रहते हैं। हमारी जान में जान आई। गार्ड विमल जी को लेकर उनके फ्लैट पर पहुंचा आया। अगले दिन विमल दी से बात हुई तो एकदम सामान्य, बीती रात की कोई चर्चा ही नहीं।
गंगा प्रसाद विमल हिंदी के बेहद समादृत लेखक थे, प्रतिभाशाली भी। उन्होंने विपुल लेखन किया और उनकी पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हैं। हिंदी में अकहानी आंदोलन के प्रणेता के तौर पर भी उऩको याद किया जाता है। उन्होंने हिंदी कहानी को अपनि लेखनी से समृद्ध किया। गंगा प्रसाद विमल ने कहानी के अलावा कविताएं भी लिखीं और एक कवि के रूप में हिंदी साहित्य में अपनी पहचान स्थापित की। कहानी और कविता के अलावा विमल जी ने उपन्यास भी लिखा। 1971 में प्रकाशित उनका उपन्यास कहीं कुछ और को पाठकों ने बहुत पसंद किया था। विमल जी ने दिल्ली के जाकिर हुसैन कॉलेज में अध्यापन किया, केंद्रीय हिंदी निदेशालय के एक दशक से अधिक समय तक निदेशक रहे, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में प्रोफेसर रहे। जेएनयू से रिटायर होने के बाद दिल्ली का इंडिया इंटरनेशनल सेंटर उनकी पसंदीदा जगह थी। वहीं वो मिलते भी थे और साहित्यिक चर्चाएं भी करते थे। विमल जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही अच्छे व्यक्ति भी थे। इस वजह से पूरे साहित्य जगत में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं जो विमल जी का मुरीद ना हो। साहित्य के इस अजातशत्रु लेखक को नमन।

Saturday, December 21, 2019

पुरस्कार प्रक्रिया से बेनकाब प्रपंच


देशभर को साहित्य अकादमी पुरस्कारों का इंतजार रहता है। साहित्य अकादमी पुरस्कार को लेकर हमेशा विवाद होते रहते हैं, कभी छिटपुट तो कभी बड़ा। इस वर्ष भी हुआ। पहले तो मैथिली भाषा के संयोजक प्रेम मोहन मिश्रा ने इस्तीफा का मेल भेजकर विवाद को हवा देने की कोशिश की। मिश्र को पुरस्कार की प्रक्रिया से ही परेशानी थी। खबरों के मुताबिक प्रेम मोहन मिश्र ने अकादमी को जो पत्र भेजा उसमें पुरस्कार देने की लिए जूरी के गठन पर सवाल उठाते हुए वहां एक रैकेट के सक्रिय होने का आरोप जड़ा। उनका आरोप है कि इस बार जूरी के सदस्यों का नाम पहले ही सार्वजनिक हो गया और ये भी सबको पता था कि इस वर्ष का पुरस्कार किसको दिया जाएगा। उनकी मांग है कि जूरी के चयन और पुरस्कार की प्रक्रिया गोपनीय होनी चाहिए। अभी तक जो प्रक्रिया है उसके मुताबिक हर भाषा के जो प्रतिनिधि होते हैं वही जूरी के सदस्यों का नाम प्रस्तावित करते हैं। जब नई आम सभा का गठन होता है तो सभी सदस्यों को एक पत्र भेजा जाता है और उनसे, आधार सूची बनाने के लिए, प्राथमिक सूची पर विचार करने के लिए और फिर अंतिम जूरी के सदस्यों के लिए संभावित लोगों के नाम मांगे जाते हैं। सभी भाषा के सदस्यों के नाम जब आ जाते हैं तो उसको मिलाकर एक विस्तृत सूची तैयार की जाती है। इसी सूची से पांच साल तक हर प्रकार की जूरी का चयन किया जाता है। साहित्य अकादमी के चारों पुरस्कार के लिए इसी विस्तृत सूची से हर वर्ष नाम निकालकर अध्यक्ष के सामने रख दिया जाता है।
अध्यक्ष के सामने जूरी के सदस्यों का नाम रखने के पहले ये जांच लिया जाता है कि कोई भी नाम पिछले साल के दौरान तो जूरी का सदस्य नामित नहीं हुआ। नियम ये है कि एक बार जो व्यक्ति जूरी का सदस्य नामित हो जाता है वो अगले साल किसी स्तर पर जूरी का सदस्य नामित नहीं किया जाता है। इस जांच पड़ताल के बाद जो भी नाम अध्यक्ष के सामने आते हैं उसमें से वो तीन नाम का चयन करते हैं जो वर्ष और भाषा विशेष की जूरी में शामिल होते हैं। अगर साहित्य अकादमी में नियमानुसार जूरी के सदस्यों का चयन किया गया है तो प्रेम मोहन मिश्र भी उसके सहभागी माने जा सकते हैं क्योंकि नाम तो उन्होंने भी प्रस्तावित किया होगा। मिश्र जी के हवाले से जो खबर छपी है उसके मुताबिक उन्होंने दस दिसंबर को पहली बार आपत्ति की। दस दिसंबर को आपत्ति करने का अर्थ इस वजह से नहीं रह जाता है कि तबतक पुरस्कार का काम लगभग पूरा हो चुका था। अंतिम चयन पर विचार बाकी रह गया था।
मिश्र का एक आरोप पुरस्कार के रैकेट का भी है। इस तरह का रैकेट वामपंथियों के दबदबे वाले काल में सक्रिय रहता था लेकिन पिछले कई वर्षों से ऐसी बात सामने नहीं आई है। उस वक्त तो ये होता था कि महीनों पहले से साहित्य जगत को पता होता था कि साहित्य अकादमी का पुरस्कार किसको दिया जाना है। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा भी हो चुकी है और बता भी दिया गया था कि किसको पुरस्कार मिलनेवाला है, उसको ही मिलता भी था। गड़बड़ी तो यहां तक होती थी कि लंबी कहानी को उपन्यास मानकर उसी श्रेणी में पुरस्कार भी दे दिया जाता था।
राहुल गांधी से लेकर कांग्रेस के कई नेताओं के अलावा वामपंथी बुद्धिजीवी भी लगातार ये आरोप लगाते हैं कि मोदी सरकार संस्थाओं को नष्ट कर रही है। उसकी परंपराओं को भंग कर रही है और स्वयत्त संस्थाओं के कामकाज में हस्तक्षेप कर रही है। लेकिन इस बार साहित्य अकादमी में एक ऐसी घटना हुई जो कांग्रेस और वामपंथियों के इन आरोपों को नकारने के लिए काफी है। इस वर्ष अंग्रेजी के लिए कांग्रेस के तिरुवनंतपुरम से सांसद और लेखक शशि थरूर को उनकी पुस्तक एन एरा ऑफ डार्कनेस के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया। अगर साहित्य अकादमी की स्वायत्तता को बाधित करने या उसको कमजोर करने की कोशिश होती तो क्या शशि थरूर को पुरस्कार मिल पाता? क्या साहित्य अकादमी के फिछले छह दशक के इतिहास में कभी ऐसा हुआ है कि विरोधी विचारधारा ही नहीं प्रमुख विपक्षी दल के सांसद को पुरस्कृत किया गया हो। संभवत: नहीं। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लेखकों की तो छोड़िए भारतीयता की बात करनेवाले लेखकों के नाम पर भी साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए विचार हुआ हो, ऐसा ज्ञात नहीं है। नरेन्द्र कोहली के के नाम पर कभी विचार भी हुआ ऐसी चर्चा तक नहीं हुई। पाठकों को ये तय करना चाहिए कि असहिष्णु कौन है या अपनी विचारधारा को सृजनात्मकता पर थोपने की कोशिश किस विचारधारा के लोग करते हैं। प्रेम मोहन मिश्र को इस तरह की बातों पर भी प्रकाश डालना चाहिए था।
पिछले सप्ताह के स्तंभ में इस बात की चर्चा की गई थी कि दो हजार पंद्रह के बिहार विधानसभा चुनाव के पहले पुरस्कार वापसी का जो अभियान चला था उसमें शामिल उदय प्रकाश, मंगलेश, अशोक वाजपेयी जैसे लेखक किस तरह से अकादमी पुरस्कारों को अपने परिचय में शान से शामिल करते हैं। इस बार तो इस तरह के लेखक और बेनकाब हो गए और इस बात को और बल मिला कि पुरस्कार वापसी अभियान ना केवल मोदी सरकार को बदनाम करने के लिए किया गया था बल्कि अपने राजनीतिक आकाओं के कहने पर उनके राजनीतिक लक्ष्य की पूर्ति के लिए साहित्य का इस्तेमाल किया गया। दरअसल लक्ष्य तो बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भारतीय जनता पार्टी के खिलाफ माहौल बनाना था। उनको अभिव्यक्ति की आजादी की ना तो चिंता थी और ना ही वो लेखकों पर हो रहे हमलों से व्यथित थे।
शशि थरूर को जिस जूरी ने पुरस्कार योग्य माना उसमें शामिल लेखकों के नाम देख लेते हैं। इससे कुछ और लोग बेनकाब होंगे। पहला नाम है जी एन देवी, दूसरा के सच्चिदानंदन और तीसरे हैं सुकांत चौधरी। जी एन देवी वही शख्स हैं जिन्होंने जोर-शोर से पुरस्कार वापस करने की घोषणा की थी और मोदी सरकार पर तमाम तरह के आरोप जड़े थे। दूसरे शख्स हैं के सच्चिदानंदन जिन्होंने पुरस्कार तो वापस नहीं किया था लेकिन उस वक्त अंग्रेजी की सलाहकार समिति से विरोधस्वरूप इस्तीफा दे दिया था। साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष विश्वनाथ तिवारी को एक ईमेल भेजकर विरोध जताया था और तिवारी को अहंकारी आदि कहा था। तब सच्चिदानंदन ने साहित्य अकादमी से भविष्य में किसी प्रकार का संबंध नहीं रखने का एलान भी किया था। बिहार विधानसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी की हार के बाद वो सब भूल गए और अकादमी से अपने संबंध बना लिया और इस वर्ष तो जूरी में भी शामिल रहे। अब ये बात समझ से परे है कि बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद अभिव्यक्ति की आजादी कैसे बहाल हो गई और किस तरह से लेखक सुरक्षित हो गए। अगर दोनों चीजें हो गईं तो स्वीकार की घोषणा भी होनी चाहिए।
ये बात सिर्फ इन दोनों तक सीमित नहीं है, हिंदी की जूरी में रहे नंद भारद्वाज ने भी अपना पुरस्कार वापस किया था लेकिन उनको भी अकादमी से कोई परहेज नहीं है। अकादमी के लोग बताते हैं कि नंद भारद्वाज ने चंद दिनों के बाद ही पुरस्कार वापसी का अपना फैसला चुपचाप वापस ले लिया था और अकादमी को भेजे चेक आदि भी वापस ले लिए थे। सरकार के खिलाफ माहौल बनाने के लिए सार्वजनिक घोषणा और सुर्खियां बटोर लेने के बाद अकादमी के कार्यक्रमों में चुपके से भागीदारी की ये कला पता नहीं कहां से सीखते हैं ये बौद्धिक। ऐसे ही कई और लेखक हैं जिनमें पंजाबी के सुरजीत पातर, अंग्रेजी के केकी एन दारूवाला, इन लोगों ने भी पुरस्कार वापस किया था लेकिन अब सक्रिय रूप से साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों और क्रियाकलापों में भागीदार दिखते हैं। नैतिकता की मांग तो ये है कि इस तरह से सभी लेखक सार्वजनिक रूप से ये स्वीकार करें कि मोदी सरकार के उस दौर में लेखकों को डर लगता था लेकिन अब मोदी सरकार के दौरान ही लेखकों का वो कथित डर समाप्त हो गया और अभिव्यक्ति की आजादी बहाल हो गई। क्या पुरस्कार वापसी करनेवाले इन लेखकों से इस नैतिकता की उम्मीद की जा सकती है। क्या इनमें इतना नैतिक साहस बचा है या ये मान लेना चाहिए कि लेखकों में जो नैतिक आभा होती है उसको स्वार्थ और लाभ-लोभ ने ढंक लिया। साहित्य अकादमी एक स्वायत्त संस्थान है जो भारत सरकार के प्रत्यक्ष नियंत्रण में नहीं है और लेखक समुदाय के लिए ये आवश्यक है कि इसकी स्वायत्ता बरकरार रहे। ये तभी संभव है जब लेखक समुदाय इसको राजनीति का अखाड़ा न बनाएं और यहां सृजन की ऐसी जमीन तैयार करें जहां रचनात्मकता की फसल लहलहा सके।

Saturday, December 14, 2019

सिनेमा और साहित्य की ओट में प्रपंच


एक फिल्मकार हैं, नाम हैं जाह्नू बरुआ। असमिया में फिल्में बनाकर मशहूर हुए हैं। फिल्मों का राष्ट्रीय पुरस्कार भी उनको मिल चुका है। तमाम सरकारी कमेटियों में स्थायी तौर पर उपस्थित रहते हैं। फिल्म आर्काइव से लेकर फिल्म हेरिटेज तक के प्रोजेक्ट में जुड़े हैं। पुणे के प्रतिष्ठिच फिल्म और टेलीविजन संस्थान से भी जुड़े रहे। केंद्र के अलावा राज्य सरकार की फिल्म नीतियां आदि से भी जुड़े रहते हैं। कान से लेकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में सरकारी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे हैं। उनको भारत सरकार ने पद्म भूषण सम्मान से भी सम्मानित किया है। जाह्नू बरुआ का ये परिचय इस वजह से दे रहा हूं जिससे पता चल सके के वो कितने प्रतिभाशाली हैं और लोगों को ये भी समझ में आ जाए कि उनकी प्रतिभा किसी सरकार या किसी खास मंत्री की मोहताज नहीं है। किसी भी पार्टी की सरकार रहे वो समान रूप से मौजूद रहते हैं। कहना ना होगा कि बरुआ में इतनी प्रतिभा है कि चाहे सरकार कोई हो, किसी भी पार्टी की हो लेकिन उनकी अहमियत बनी रहती है। हलांकि सिनेमा से जुड़े कई लोग उनकी इस प्रतिभा को जुगाड़ प्रतिभा भी कहते हैं कि लेकिन अगर इसमें आंशिक सचाई भी है तो यह तो माना ही जा सकता है कि कम से कम इस तरह की प्रतिभा तो उनमें हैं कि वो खुद को अजातशत्रु बना चुके हैं। पर इन दिनों बरुआ साहब मोदी सरकार से खफा हैं। उनकी नाराजगी की वजह है नागरिकता संशोधन कानून। वो नागिरकता संसोधन कानून को असम की संस्कृति के खिलाफ मान रहे हैं लिहाजा इसका विरोध भी कर रहे हैं। अब कलाकार हैं तो उनके विरोध का तरीका भी कलात्मक ही होगा। लिहाजा उन्होंने असम फिल्म अवॉर्ड और असम सरकार के सहयोग से आयोजित फिल्म फेस्टिवल से अपनी फिल्म वापस लेने की घोषणा कर दी है। बरुआ की इस फिल्म भोगा खिड़की ( टूटी खिड़की) को मशहूर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने प्रोड्यूस किया था। यहां तो ठीक है उनका गुस्सा और विरोध भी जायज हो सकता है लेकिन अपने विरोध को जताते हुए उन्होंने जो कहा वो बेहद आपत्तिजनक है। जाह्नू बरुआ ने कहा कि राजनीति के लिए नेता उनकी मातृभूमि को निर्वस्त्र कर रहे हैं। जब कलाकार, वो भी इतना प्रतिष्ठित और इतना मशहूर, अगर कुछ बोलता है तो उसको बेहद सोच समझ कर बोलना चाहिए। लेकिन कहा जाता है ना कि क्रोध में विवेक समाप्त हो जाता है। बरुआ भी इसी दोष के शिकार हो गए और नेताओं को निशाने पर लेने के क्रोध में उन्होंने मातृभूमि को निर्वस्त्र करने जैसी उपमा का चयन कर लिया। इससे जाह्नू की पितृसत्तात्मक सोच का पता चलता है। वो अपने विरोध के लिए किसी नारी के शरीर और उसको निर्वस्त्र करने की उपमा का प्रयोग करते हैं, क्यों? क्या अभिव्यक्ति के लिए उनको कोई दूसरा शब्द नहीं मिला था या ये मान लिया जाए कि जाह्नू के मानलिकता क्रोध में सार्वजनिक हो गई है। अगर जाह्नू की यही मानसिकता है तो उनकी तमाम कला और कलाकारी पर उनके यो तीन शब्द भारी पड़ रहे हैं। इससे तो ये भी साबित होता है कि एक संवेदनशील कलाकार की जो छवि उन्होंने गढ़ी वो वैसे हैं नहीं। अफसोस तो इस बात का है कि फिल्मों में नारी के चरित्र चित्रण को लेकर सवाल उठानेवाले सारे बयानवीर भी बरुआ की इन शब्दों पर खामोश हैं। दुख इस बात भी है कि वो सारे कलाकार जिनको भारत में डर लगता है वो भी बरुआ के इस नारी विरोधी पद पर खामोशी ओढ कर बैठ गए हैं। चुप्पी की इस राजनीति पर भी लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं क्योंकि बरुआ के इस बयान और फिल्म वापस लेने के फैसले पर सुर्खियां बनती हैं और मोदी सरकार को घेरने का एक मौका मिलता है कि देखो इतना बड़ा कलाकार भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ है।
एक और उदाहरण देना चाहता हूं जिसपर देश का बौद्धिक वर्ग चुनी हुई चुप्पी का प्रदर्शन कर रहा है। वो भी नागरिकता संशोधन कानून के विरोध से ही जुड़ा हुआ है । एक उर्दू की लेखिका हैं शिरीन दलवी। इन्होंने नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया है। उनका मानना है कि ये कानून समाज के लिए विभाजनकारी है। उन्होंने अपने निर्णय की घोषणा के साथ-साथ अपने मित्रों को संदेश भी भेजा कि सीएबी नहीं चलेगा। उनके निर्णय को तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और समुदाय विशेष के पक्षकारों ने इस तरह से प्रस्तुत किया जैसे कि किसी लेखक ने केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया हो लेकिन ट्विटर पर ही ये बात भी साफ हो गई कि ये राज्य अकादमी का पुरस्कार था। यहां भी किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है उनको पुरस्कार मिला और अब वो उसको वापस करना चाहती हैं।
यहां दिलाना जरूरी है कि पुरस्कार वापसी सिर्फ प्रचार हासिल करने का एक औजार है इससे कुछ होता नहीं है। पाठकों को याद होगा कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी देश में सहिष्णुता के मुद्दे पर हिंदी के कई लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का ऐलान किया था। हिंदी में पुरस्कार वापसी की शुरुआत सबसे पहले जादुई यथार्थवादी लेखक उदय प्रकाश ने शुरू किया था। तब उनको भारत में बहुत डर लग रहा था। अभी-अभी वाणी प्रकाशन से उदय प्रकाश की नई पुस्तक आई है नाम है, अम्बर में अबाबील। किताब को पलटते हुए मेरी नजर अंत में छपे उनके परिचय पर गई। वहां लिखा है- उदय प्रकाश को भारतीय एवं अंतराष्ट्रीय साहित्य में विशिश्ट स्थान प्राप्त है। देश और विदेश की लगभग समस्त भाषाओं में अनूदित और पुरस्कृत उनका साहित्य बदलते समय और यथार्थ का प्रामाणिक और साहसिक दस्तावेज है। साहित्य अकादमी, सार्क राइटर सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान आदि के अतिरिक्त उनकी रचनाओं के अनुवाद को भी कई अंतराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है। अब इस परिचय पर विचार कीजिए तो ये आइने ती तरह साफ हो जाता है कि अकादमी पुरस्कार लौटाना किसी विरोध का हिस्सा नहीं था। अगर होता तो वो आपके परिचय का हिस्सा नहीं होता। उनके परिचय में बिल्कुल सही लिखा है कि उदय प्रकाश के साहित्य में साहित्य के बदलते समय और यथार्थ का प्रामाणिक दस्तावेज है। इससे ज्यादा बड़ा यथार्थ क्या हो सकता है जहां लेखक खुद को बेनकाब कर दे। उदय के इस परिचय में भी यही हुआ है।
ये सिर्फ उदय प्रकाश की ही बात नहीं है एक और हिंदी के कवि हैं नाम हैं मंगलेश डबराल। जब साहित्य अकादमी पर वामपंथियों का एकछत्र राज था तब इनको भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। लिहाजा ये भी पुरस्कार वापसी का हिस्सा बन गए थे। अकादमी पुरस्कार लौटाकर उनको प्रचार मिला था क्योंकि उन्हें पता था कि साहित्य अकादमी किसी भी कीमत पर एक बार दिए पुरस्कार की ना तो राशि वापस स्वीकार कर सकती है और ना ही स्मृति चिन्ह आदि। इसकी पुष्टि कोर्ट ने भी की थी। यह सब जानते बूझते अकादमी पुरस्कार लौटाया गया था। बाद में मंगलेश जब भी मंच पर जाते रहे उनका परिचय साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक के तौर पर दिया जाता रहा और वो वहां बैठकर खुश होते रहे। एक बार भी उन्होंने रोकने या टोकने की जहमत नहीं उठाई कि उन्होंने साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया है लिहाजा उनके परिचय में ये नहीं बोला जाए। अशोक वाजपेयी के साथ भी यही हो रहा है। जिन भी लेखकों ने पुरस्कार लौटाए, लगभग वो सभी साहित्य अकादमी पुरस्कार को अपने सर पर कलगी की तरह लगाए घूम रहे हैं लेकिन उस वक्त शहीद होने का जैसा प्रपंच करके पर्याप्त यश लूटा था। तो साहित्य पुरस्कार वापसी आदि को लेकर अब कोई स्पंदन हो नहीं पाता है। शिरीन को भी ये समझना होगा कि अब पुरस्कार वापसी से किसी प्रकार के यश की आशा करना व्यर्थ है।
दरअसल अगर हम इस पूरे प्रकरण को देखें तो एक बात और निकल कर आ रही है कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की वजह भी समझ में नहीं आ रही है। ना तो जाह्नू बरुआ और ना ही शिरीन दलवी अपने विरोध की वजह साफ कर पा रही हैं। जाह्नू का कहना है कि ये उनकी मातृभूमि को निर्वस्त्र करने की कोशिश है लेकिन जब उनसे पूछा गया कि कैसे तो वो कोई ठोस उत्तर नहीं दे पाए और संस्कृति को खतरे में बता कर निकल गए। लोकतंत्र में हर किसी को विरोध करने का हक है लेकिन विरोध साहित्य, सिनेमा और कला की ओट में होता है तो आपकी मंशा साफ होती है और फिर वो विरोध का प्रपंच हो जाता है। जरूरत इस बात की है कि जो साहित्य और कला जगत विरोध की भूमि बनती है वो ऐसे प्रपंचों को बेनकाब करने की भूमि भी बने ताकि उसकी प्रतिष्ठा और लोगों का उसमें भरोसा कायम रह सके।  

Saturday, December 7, 2019

संस्कृति को लेकर उदासीनता


हाल ही में एक सेमिनार में जाने का अवसर मिला जहां समाजशास्त्रियों को सुना। इस सेमिनार में संस्थाओं के बनाने और उसको सुचारू रूप से चलाने पर बात हो रही थी। सभी वक्ता अपनी-अपनी बात तर्कों के साथ रख रहे थे, ज्यादातर वक्ता नई संस्थाओं को बनाने के लिए तर्क दे रहे थे, कुछ तो मौजूदा संस्थाओं को कैसे अच्छे से चलाया जाए और उनको मजबूत किया जाए, इस बारे में दलीलें दे रहे थे, सलाह भी। लेकिन सबसे दिलचस्प तरीके से बात रखी एक एक बेहद अनुभवी समाजशास्त्री विद्वान ने, उन्होंने कहा कि संस्थाओं को बनाने को लेकर बहुत सारी बातें हुईं लेकिन वो इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं कि संस्थाओं को कैसे कमजोर किया जा सकता है। संस्थाओं को कमजोर करने की बात करते-करते उन्होंने इसके दो प्रमुख अलिखित नियम बताए। उनका कहना था कि जब भी किसी संस्थान की भूमिका का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाता है तो इसका बहुत ध्यान रखा जाता है। पहला अलिखित नियम ये कि संस्था के प्रमुख के पद पर किसी की नियुक्ति मत करो वो संस्था धीरे-धीरे इतनी कमजोर हो जाएगी कि अपने गौरवशाली अतीत को भी खो देगी और भविष्य में उसको अपने बनाए मानदंडों तक पहुंचने में भी लंबा वक्त लगेगा। दूसरा औजार ये है कि संस्था में ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करो जिसकी उस काम में रुचि नहीं है जो दायित्व उसको दिया गया हो। उनकी इन बातों को सुनते-सुनते मेरे दिमाग में उन संस्थाओं के नाम घुमड़ने लगे जो पिछले कई महीनों से खाली पड़े हैं और जिनको चलाने की जिम्मेदारी जिनपर है या जो उन संस्थाओं के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी हैं।
ये माना जाता है कि मौजूदा सरकार शिक्षा और संस्कृति को लेकर बेहद संजीदा है और इन क्षेत्रों पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाता है। संस्कृति को लेकर बहुत बातें होती हैं लेकिन संस्कृति पर कितना ध्यान है इसपर आगे विचार किया जाएगा पर पहले हम समझ लें कि संस्तृति क्या है और उसका निर्माण कैसे होता है। कवि-लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति पर बहुत गहराई से विचार किया है और उसपर काफी लिखा भी है। दिनकर ने लिखा है कि संस्कृति ऐसी चीज नहीं है जिसकी रचना दस बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। अनेत शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचते –समझते और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उनकी संस्कृति का उत्पन्न होती है। असल में संस्कृति जिन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है। सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है तब भी हमाररी संस्कृति का प्रभाव हमी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है। दिनकर ने अपने इसी लेख में आगे लिखा है कि संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय, संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमागृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन भी होते हैं क्योंकि उन पर भी हमारी रुचि और चरित्र की छाप लगी होती है।
अब जरा हम इसपर ही विचार कर लें जिन उपकरणों की ओर दिनकर जी ने इशारा किया है। हमारे यहां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है, इसकी बहुत प्रतिष्ठा है, यहां से पढ़कर निकले बहुत सारे कलाकारों ने अपनी कला के माध्यम से ना केवल इस संस्थान का नाम रौशन किया बल्कि अभिनय कला को भी समृद्ध किया। ऐसे कलाकारों की बहुत लंबी सूची है और उनके नाम गिनाने का यहां कोई अर्थ नहीं है। अब इसपर विचार किया जाना चाहिए कि यहां निदेशक का पद दिसंबर 2018 से खाली है यानि संस्था को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी जिसकी है वो व्यक्ति यहां लगभग ग्यारह महीने से नहीं है। इससे भी दिलचस्प कहानी है यहां के अध्यक्ष की। रतन थियम का कार्यकाल 2017 में समाप्त हो गया और तब से यहां नियमित अध्यक्ष नहीं है और संस्था के उपाध्यक्ष डॉ अर्जुनदेव चारण पर ही दायित्व संभाल रहे हैं। ये कहानी सिर्फ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की नहीं है। अब संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक और महत्वपूर्ण संस्था राष्ट्रीय अभिलेखागार पर विचार करते हैं। ये संस्था भारत सरकार के सभी अभिलेखों की संरक्षक है। इस संस्था में सालों से कोई नियमित महानिदेशक नहीं है, बीच में अल्प अवधि के लिए राघवेन्द्र सिंह को यहां का प्रभार मिला था लेकिन जल्द ही उनका भी तबादला हो गया। यहां का अतिरिक्त प्रभार संस्कृति मंत्रालय के अफसरों के पास रहा, अब भी है। एक और संस्था है राष्ट्रीय संग्रहालय। इस संस्था की जिम्मेदारी है ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और कलात्मक महत्व की पुरावस्तुओं एवं कलाकृतियों को प्रदर्शन, सुरक्षा और शोध के प्रयोजन से संग्रहीत करना। इस संस्था के मुख्य कार्यकारी का पद खाली है। एक और बेहद महत्वपूर्ण संस्था है जिसका नाम है नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय और इस संस्था के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। 15 अक्तूबर 2019 को इसके निदेशक का प्रभार राघवेन्द्र सिंह को दिया गया है वो भी छह महीने के लिए या जबतक नए निदेशक की नियुक्ति नहीं हो जाती। राघवेन्द्र सिंह भारत सरकार में सचिव के पद से सेवानिवृत हो चुके हैं और सेवानिवृत्ति के बाद संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत ही सीईओ- डेवलपमेंट ऑफ म्यूजियम और कल्चरल स्पेस का पद संभाल रहे हैं। नियमित निदेशक नहीं होने से कामकाज पर असर पड़ रहा है इसकी छोटी सी झलक इसकी वेबसाइट को देखने से मिल सकती है जहां पुरानी जानकारी अबतक लगी हुई है।
संस्कृति मंत्रालय से इतर अगर बात करें तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कई संस्थाओं में भी उसके प्रमुख कार्यकारी नहीं हैं। एक संस्थान है राष्ट्रीय पुस्तक न्यास इसके निदेशक का पद भी रीता चौधरी का कार्यकाल खत्म होने के बाद से खाली पड़ा हुआ है। इस सरकार को हिंदी को प्रमुखता देने के लिए भी जाना जाता है लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय। इसमें वर्षों से नियमित निदेशक नहीं हैं और इसका काम अतिरिक्त प्रभार के जुगाड़ से ही चल रहा है। मैसूर में स्थित भारतीय भाषा संस्थान अपनी स्थापना के पचास साल मना रही लेकिन बगैर निदेशख के। इस महत्वपूर्ण संस्थान के निदेशक का पद खाली है। मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत ही एक संस्थान है सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल। इसके निदेशक की जिम्मेदारी भी वहां के रजिस्ट्रार संभाल रहे हैं। दिनकर जी ने पुस्तकालय, संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमागृह को संस्कृति के उपकरण के तौर पर रेखांकित किया है। उनके इन औजारों के आधार पर इस विवेचन में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की संस्थाओं पर नजर डालें तो वहां भी कई संस्थानों में प्रमुख के पद खाली हैं।
सबसे पहले अगर हम देखें तो फिल्म समारोह निदेशालय में नियमित निदेशक का पद महीनों से खाली पड़ा है। इस संस्था के पास अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आयोजन की जिम्मेदारी से लेकर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के आयोजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। दूसरा संस्थान है, भारतीय जन संचार संस्थान जो आईआईएमसी के नाम से जाना जाता है, वहां के महानिदेशक का पद भी लंबे समय से खाली है। इस संस्थान की देश दुनिया में प्रतिष्ठा है लेकिन इसके भी महानिदेशक के पद पर प्रभारी हैं। इसके अलावा दूरदर्शन के निदेशक का पद खाली है, आकाशवाणी के निदेशक का पद इसी महीने के अंत में खाली हो जाएगा। हलांकि ये दोनों पद विज्ञापित हो गए हैं लेकिन अगर कुछ वक्त के लिए भी ये पद खाली रहते हैं तो संस्थान के काम-काज पर तो असर पड़ेगा। क्या इन संस्थानों में ये व्यवस्था नहीं है कि एक व्यक्ति के कार्यकाल खत्म होने के पहले ही दूसरे की नियुक्ति हो जाए, जैसा गृह सचिव या कैबिनेट सचिव के पद के लिए होता है। इस बात पर उच्चतम स्तर पर विचार किया जाना चाहिए कि इतने सारे संस्थानों के पद क्यों खाली हैं? क्या अफसर नहीं चाहते कि इन पदों को भरा जाए क्योंकि इनके नहीं भरे जाने का लाभ उनको अतिरिक्त प्रभार के रूप में मिलता है। या क्या मंत्रियों की रुचि नहीं है।
जिन मंत्रालयों के कामकाज से संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है या यों कहें कि संस्कृति के निर्माण में जिनकी भूमिका है उनके प्रति इस तरह की उदासीनता का ये आलम प्रश्नाकुल कर देता है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि अगर आप किसी को प्यार करते हैं तो उसको प्रदर्शित भी करें। इस कहावत को अगर हम अपनी संस्कृति से जोड़कर देखें और विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि अगर हम अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं तो हमें इसका प्रदर्शन भी करना चाहिए। ये प्रदर्शन कैसे होगा इसका सबसे बेहतर तरीका तो यही है कि हम संस्कृति के प्रति गंभीर रहें, गंभीर दिखें।