एक फिल्मकार हैं, नाम हैं जाह्नू बरुआ। असमिया
में फिल्में बनाकर मशहूर हुए हैं। फिल्मों का राष्ट्रीय पुरस्कार भी उनको मिल चुका
है। तमाम सरकारी कमेटियों में स्थायी तौर पर उपस्थित रहते हैं। फिल्म आर्काइव से
लेकर फिल्म हेरिटेज तक के प्रोजेक्ट में जुड़े हैं। पुणे के प्रतिष्ठिच फिल्म और
टेलीविजन संस्थान से भी जुड़े रहे। केंद्र के अलावा राज्य सरकार की फिल्म नीतियां
आदि से भी जुड़े रहते हैं। कान से लेकर अनेक अंतर्राष्ट्रीय फिल्म महोत्सवों में
सरकारी प्रतिनिधिमंडल का हिस्सा रहे हैं। उनको भारत सरकार ने पद्म भूषण सम्मान से
भी सम्मानित किया है। जाह्नू बरुआ का ये परिचय इस वजह से दे रहा हूं जिससे पता चल
सके के वो कितने प्रतिभाशाली हैं और लोगों को ये भी समझ में आ जाए कि उनकी प्रतिभा
किसी सरकार या किसी खास मंत्री की मोहताज नहीं है। किसी भी पार्टी की सरकार रहे वो
समान रूप से मौजूद रहते हैं। कहना ना होगा कि बरुआ में इतनी प्रतिभा है कि चाहे
सरकार कोई हो, किसी भी पार्टी की हो लेकिन उनकी अहमियत बनी रहती है। हलांकि सिनेमा
से जुड़े कई लोग उनकी इस प्रतिभा को जुगाड़ प्रतिभा भी कहते हैं कि लेकिन अगर
इसमें आंशिक सचाई भी है तो यह तो माना ही जा सकता है कि कम से कम इस तरह की
प्रतिभा तो उनमें हैं कि वो खुद को अजातशत्रु बना चुके हैं। पर इन दिनों बरुआ साहब
मोदी सरकार से खफा हैं। उनकी नाराजगी की वजह है नागरिकता संशोधन कानून। वो
नागिरकता संसोधन कानून को असम की संस्कृति के खिलाफ मान रहे हैं लिहाजा इसका विरोध
भी कर रहे हैं। अब कलाकार हैं तो उनके विरोध का तरीका भी कलात्मक ही होगा। लिहाजा
उन्होंने असम फिल्म अवॉर्ड और असम सरकार के सहयोग से आयोजित फिल्म फेस्टिवल से
अपनी फिल्म वापस लेने की घोषणा कर दी है। बरुआ की इस फिल्म भोगा खिड़की ( टूटी
खिड़की) को मशहूर अभिनेत्री प्रियंका चोपड़ा ने प्रोड्यूस किया था। यहां तो ठीक है
उनका गुस्सा और विरोध भी जायज हो सकता है लेकिन अपने विरोध को जताते हुए उन्होंने
जो कहा वो बेहद आपत्तिजनक है। जाह्नू बरुआ ने कहा कि राजनीति के लिए नेता उनकी ‘मातृभूमि को निर्वस्त्र’ कर रहे हैं। जब कलाकार, वो भी इतना प्रतिष्ठित
और इतना मशहूर, अगर कुछ बोलता है तो उसको बेहद सोच समझ कर बोलना चाहिए। लेकिन कहा
जाता है ना कि क्रोध में विवेक समाप्त हो जाता है। बरुआ भी इसी दोष के शिकार हो गए
और नेताओं को निशाने पर लेने के क्रोध में उन्होंने मातृभूमि को निर्वस्त्र करने
जैसी उपमा का चयन कर लिया। इससे जाह्नू की पितृसत्तात्मक सोच का पता चलता है। वो
अपने विरोध के लिए किसी नारी के शरीर और उसको निर्वस्त्र करने की उपमा का प्रयोग
करते हैं, क्यों? क्या अभिव्यक्ति के लिए उनको कोई दूसरा शब्द नहीं
मिला था या ये मान लिया जाए कि जाह्नू के मानलिकता क्रोध में सार्वजनिक हो गई है। अगर
जाह्नू की यही मानसिकता है तो उनकी तमाम कला और कलाकारी पर उनके
यो तीन शब्द भारी पड़ रहे हैं। इससे तो ये भी साबित होता है कि एक संवेदनशील
कलाकार की जो छवि उन्होंने गढ़ी वो वैसे हैं नहीं। अफसोस तो इस बात का है कि
फिल्मों में नारी के चरित्र चित्रण को लेकर सवाल उठानेवाले सारे बयानवीर भी बरुआ
की इन शब्दों पर खामोश हैं। दुख इस बात भी है कि वो सारे कलाकार जिनको भारत में डर
लगता है वो भी बरुआ के इस नारी विरोधी पद पर खामोशी ओढ कर बैठ गए हैं। चुप्पी की
इस राजनीति पर भी लोग कुछ नहीं बोल रहे हैं क्योंकि बरुआ के इस बयान और फिल्म वापस
लेने के फैसले पर सुर्खियां बनती हैं और मोदी सरकार को घेरने का एक मौका मिलता है
कि देखो इतना बड़ा कलाकार भी नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ है।
एक और उदाहरण देना चाहता हूं जिसपर देश का
बौद्धिक वर्ग चुनी हुई चुप्पी का प्रदर्शन कर रहा है। वो भी नागरिकता संशोधन कानून
के विरोध से ही जुड़ा हुआ है । एक उर्दू की लेखिका हैं शिरीन दलवी। इन्होंने नागरिकता
संशोधन कानून के खिलाफ राज्य साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का एलान कर दिया है। उनका
मानना है कि ये कानून समाज के लिए विभाजनकारी है। उन्होंने अपने निर्णय की घोषणा
के साथ-साथ अपने मित्रों को संदेश भी भेजा कि सीएबी नहीं चलेगा। उनके निर्णय को
तथाकथित धर्मनिरपेक्ष और समुदाय विशेष के पक्षकारों ने इस तरह से प्रस्तुत किया
जैसे कि किसी लेखक ने केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया हो लेकिन
ट्विटर पर ही ये बात भी साफ हो गई कि ये राज्य अकादमी का पुरस्कार था। यहां भी
किसी को कोई आपत्ति नहीं हो सकती है उनको पुरस्कार मिला और अब वो उसको वापस करना
चाहती हैं।
यहां दिलाना जरूरी है कि पुरस्कार वापसी सिर्फ
प्रचार हासिल करने का एक औजार है इससे कुछ होता नहीं है। पाठकों को याद होगा कि
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले भी देश में सहिष्णुता के मुद्दे पर हिंदी के कई
लेखकों ने साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटाने का ऐलान किया था। हिंदी में पुरस्कार
वापसी की शुरुआत सबसे पहले जादुई यथार्थवादी लेखक उदय प्रकाश ने शुरू किया था। तब
उनको भारत में बहुत डर लग रहा था। अभी-अभी वाणी प्रकाशन से उदय प्रकाश की नई
पुस्तक आई है नाम है, अम्बर में अबाबील। किताब को पलटते हुए मेरी नजर अंत में छपे
उनके परिचय पर गई। वहां लिखा है- उदय प्रकाश को भारतीय एवं अंतराष्ट्रीय साहित्य
में विशिश्ट स्थान प्राप्त है। देश और विदेश की लगभग समस्त भाषाओं में अनूदित और
पुरस्कृत उनका साहित्य बदलते समय और यथार्थ का प्रामाणिक और साहसिक दस्तावेज है।
साहित्य अकादमी, सार्क राइटर सम्मान, मुक्तिबोध सम्मान आदि के अतिरिक्त उनकी
रचनाओं के अनुवाद को भी कई अंतराष्ट्रीय सम्मान प्राप्त है। अब इस परिचय पर विचार
कीजिए तो ये आइने ती तरह साफ हो जाता है कि अकादमी पुरस्कार लौटाना किसी विरोध का
हिस्सा नहीं था। अगर होता तो वो आपके परिचय का हिस्सा नहीं होता। उनके परिचय में
बिल्कुल सही लिखा है कि उदय प्रकाश के साहित्य में ‘साहित्य
के बदलते समय और यथार्थ का प्रामाणिक दस्तावेज’ है। इससे ज्यादा
बड़ा यथार्थ क्या हो सकता है जहां लेखक खुद को बेनकाब कर दे। उदय के इस परिचय में
भी यही हुआ है।
ये सिर्फ उदय प्रकाश की ही बात नहीं है एक और
हिंदी के कवि हैं नाम हैं मंगलेश डबराल। जब साहित्य अकादमी पर वामपंथियों का एकछत्र
राज था तब इनको भी साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। लिहाजा ये भी पुरस्कार वापसी
का हिस्सा बन गए थे। अकादमी
पुरस्कार लौटाकर उनको प्रचार मिला था क्योंकि उन्हें पता था कि साहित्य अकादमी
किसी भी कीमत पर एक बार दिए पुरस्कार की ना तो राशि वापस स्वीकार कर सकती है और ना
ही स्मृति चिन्ह आदि। इसकी पुष्टि कोर्ट ने भी की थी। यह सब जानते बूझते अकादमी
पुरस्कार लौटाया गया था। बाद में मंगलेश जब भी मंच पर जाते रहे उनका परिचय साहित्य
अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखक के तौर पर दिया जाता रहा और वो वहां बैठकर खुश होते
रहे। एक बार भी उन्होंने रोकने या टोकने की जहमत नहीं उठाई कि उन्होंने साहित्य
अकादमी का पुरस्कार लौटा दिया है लिहाजा उनके परिचय में ये नहीं बोला जाए। अशोक
वाजपेयी के साथ भी यही हो रहा है। जिन भी लेखकों ने पुरस्कार लौटाए, लगभग वो सभी
साहित्य अकादमी पुरस्कार को अपने सर पर कलगी की तरह लगाए घूम रहे हैं लेकिन उस
वक्त शहीद होने का जैसा प्रपंच करके पर्याप्त यश लूटा था। तो साहित्य पुरस्कार
वापसी आदि को लेकर अब कोई स्पंदन हो नहीं पाता है। शिरीन को भी ये समझना होगा कि
अब पुरस्कार वापसी से किसी प्रकार के यश की आशा करना व्यर्थ है।
दरअसल अगर हम इस पूरे प्रकरण को देखें
तो एक बात और निकल कर आ रही है कि नागरिकता संशोधन कानून के विरोध की वजह भी समझ
में नहीं आ रही है। ना तो जाह्नू बरुआ और ना ही शिरीन दलवी अपने विरोध की वजह साफ कर पा रही हैं।
जाह्नू का कहना है कि ये उनकी मातृभूमि को निर्वस्त्र करने की कोशिश है लेकिन जब
उनसे पूछा गया कि कैसे तो वो कोई ठोस उत्तर नहीं दे पाए और संस्कृति को खतरे में
बता कर निकल गए। लोकतंत्र में हर किसी को विरोध करने का हक है लेकिन विरोध
साहित्य, सिनेमा और कला की ओट में होता है तो आपकी मंशा साफ होती है और फिर वो
विरोध का प्रपंच हो जाता है। जरूरत इस बात की है कि जो साहित्य और कला जगत विरोध
की भूमि बनती है वो ऐसे प्रपंचों को बेनकाब करने की भूमि भी बने ताकि उसकी
प्रतिष्ठा और लोगों का उसमें भरोसा कायम रह सके।
1 comment:
अपने बहुत तर्कपूर्ण तरीके से बात रखी है। अगर सम्मान लौटा दिया गया है तो परिचय में लिखना चाहिए सम्मान लौटाने वाला। शायद तब अधिक विश्वसनीयता रहती, सम्मान मिलता। जैसे सार्त्र के संबम्ध में लिखा जाता है, नोबेल पुरस्कार से इंकार करने वाला।
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