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Saturday, December 7, 2019

संस्कृति को लेकर उदासीनता


हाल ही में एक सेमिनार में जाने का अवसर मिला जहां समाजशास्त्रियों को सुना। इस सेमिनार में संस्थाओं के बनाने और उसको सुचारू रूप से चलाने पर बात हो रही थी। सभी वक्ता अपनी-अपनी बात तर्कों के साथ रख रहे थे, ज्यादातर वक्ता नई संस्थाओं को बनाने के लिए तर्क दे रहे थे, कुछ तो मौजूदा संस्थाओं को कैसे अच्छे से चलाया जाए और उनको मजबूत किया जाए, इस बारे में दलीलें दे रहे थे, सलाह भी। लेकिन सबसे दिलचस्प तरीके से बात रखी एक एक बेहद अनुभवी समाजशास्त्री विद्वान ने, उन्होंने कहा कि संस्थाओं को बनाने को लेकर बहुत सारी बातें हुईं लेकिन वो इस बात को रेखांकित करना चाहते हैं कि संस्थाओं को कैसे कमजोर किया जा सकता है। संस्थाओं को कमजोर करने की बात करते-करते उन्होंने इसके दो प्रमुख अलिखित नियम बताए। उनका कहना था कि जब भी किसी संस्थान की भूमिका का समाजशास्त्रीय अध्ययन किया जाता है तो इसका बहुत ध्यान रखा जाता है। पहला अलिखित नियम ये कि संस्था के प्रमुख के पद पर किसी की नियुक्ति मत करो वो संस्था धीरे-धीरे इतनी कमजोर हो जाएगी कि अपने गौरवशाली अतीत को भी खो देगी और भविष्य में उसको अपने बनाए मानदंडों तक पहुंचने में भी लंबा वक्त लगेगा। दूसरा औजार ये है कि संस्था में ऐसे व्यक्ति को नियुक्त करो जिसकी उस काम में रुचि नहीं है जो दायित्व उसको दिया गया हो। उनकी इन बातों को सुनते-सुनते मेरे दिमाग में उन संस्थाओं के नाम घुमड़ने लगे जो पिछले कई महीनों से खाली पड़े हैं और जिनको चलाने की जिम्मेदारी जिनपर है या जो उन संस्थाओं के प्रमुख कार्यकारी अधिकारी हैं।
ये माना जाता है कि मौजूदा सरकार शिक्षा और संस्कृति को लेकर बेहद संजीदा है और इन क्षेत्रों पर प्राथमिकता के आधार पर ध्यान दिया जाता है। संस्कृति को लेकर बहुत बातें होती हैं लेकिन संस्कृति पर कितना ध्यान है इसपर आगे विचार किया जाएगा पर पहले हम समझ लें कि संस्तृति क्या है और उसका निर्माण कैसे होता है। कवि-लेखक रामधारी सिंह दिनकर ने संस्कृति पर बहुत गहराई से विचार किया है और उसपर काफी लिखा भी है। दिनकर ने लिखा है कि संस्कृति ऐसी चीज नहीं है जिसकी रचना दस बीस या सौ-पचास वर्षों में की जा सकती है। अनेत शताब्दियों तक एक समाज के लोग जिस तरह खाते-पीते, रहते-सहते, पढ़ते-लिखते, सोचते –समझते और राज-काज चलाते अथवा धर्म-कर्म करते हैं, उन सभी कार्यों से उनकी संस्कृति का उत्पन्न होती है। असल में संस्कृति जिन्दगी का एक तरीका है और यह तरीका सदियों से जमा होकर उस समाज में छाया रहता है जिसमें हम जन्म लेते हैं। संस्कृति वह चीज मानी जाती है जो हमारे सारे जीवन को व्यापे हुए है तथा जिसकी रचना और विकास में अनेक सदियों के अनुभवों का हाथ है। संस्कृति असल में शरीर का नहीं आत्मा का गुण है। सभ्यता की सामग्रियों से हमारा संबंध शरीर के साथ ही छूट जाता है तब भी हमाररी संस्कृति का प्रभाव हमी आत्मा के साथ जन्म-जन्मांतर तक चलता रहता है। दिनकर ने अपने इसी लेख में आगे लिखा है कि संस्कृति के उपकरण हमारे पुस्तकालय, संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमागृह ही नहीं, बल्कि हमारे राजनीतिक और आर्थिक संगठन भी होते हैं क्योंकि उन पर भी हमारी रुचि और चरित्र की छाप लगी होती है।
अब जरा हम इसपर ही विचार कर लें जिन उपकरणों की ओर दिनकर जी ने इशारा किया है। हमारे यहां राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय है, इसकी बहुत प्रतिष्ठा है, यहां से पढ़कर निकले बहुत सारे कलाकारों ने अपनी कला के माध्यम से ना केवल इस संस्थान का नाम रौशन किया बल्कि अभिनय कला को भी समृद्ध किया। ऐसे कलाकारों की बहुत लंबी सूची है और उनके नाम गिनाने का यहां कोई अर्थ नहीं है। अब इसपर विचार किया जाना चाहिए कि यहां निदेशक का पद दिसंबर 2018 से खाली है यानि संस्था को चलाने की प्राथमिक जिम्मेदारी जिसकी है वो व्यक्ति यहां लगभग ग्यारह महीने से नहीं है। इससे भी दिलचस्प कहानी है यहां के अध्यक्ष की। रतन थियम का कार्यकाल 2017 में समाप्त हो गया और तब से यहां नियमित अध्यक्ष नहीं है और संस्था के उपाध्यक्ष डॉ अर्जुनदेव चारण पर ही दायित्व संभाल रहे हैं। ये कहानी सिर्फ राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय की नहीं है। अब संस्कृति मंत्रालय से संबद्ध एक और महत्वपूर्ण संस्था राष्ट्रीय अभिलेखागार पर विचार करते हैं। ये संस्था भारत सरकार के सभी अभिलेखों की संरक्षक है। इस संस्था में सालों से कोई नियमित महानिदेशक नहीं है, बीच में अल्प अवधि के लिए राघवेन्द्र सिंह को यहां का प्रभार मिला था लेकिन जल्द ही उनका भी तबादला हो गया। यहां का अतिरिक्त प्रभार संस्कृति मंत्रालय के अफसरों के पास रहा, अब भी है। एक और संस्था है राष्ट्रीय संग्रहालय। इस संस्था की जिम्मेदारी है ऐतिहासिक, सांस्कृतिक और कलात्मक महत्व की पुरावस्तुओं एवं कलाकृतियों को प्रदर्शन, सुरक्षा और शोध के प्रयोजन से संग्रहीत करना। इस संस्था के मुख्य कार्यकारी का पद खाली है। एक और बेहद महत्वपूर्ण संस्था है जिसका नाम है नेहरू स्मारक संग्रहालय और पुस्तकालय और इस संस्था के अध्यक्ष प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी हैं। 15 अक्तूबर 2019 को इसके निदेशक का प्रभार राघवेन्द्र सिंह को दिया गया है वो भी छह महीने के लिए या जबतक नए निदेशक की नियुक्ति नहीं हो जाती। राघवेन्द्र सिंह भारत सरकार में सचिव के पद से सेवानिवृत हो चुके हैं और सेवानिवृत्ति के बाद संस्कृति मंत्रालय के अंतर्गत ही सीईओ- डेवलपमेंट ऑफ म्यूजियम और कल्चरल स्पेस का पद संभाल रहे हैं। नियमित निदेशक नहीं होने से कामकाज पर असर पड़ रहा है इसकी छोटी सी झलक इसकी वेबसाइट को देखने से मिल सकती है जहां पुरानी जानकारी अबतक लगी हुई है।
संस्कृति मंत्रालय से इतर अगर बात करें तो मानव संसाधन विकास मंत्रालय के कई संस्थाओं में भी उसके प्रमुख कार्यकारी नहीं हैं। एक संस्थान है राष्ट्रीय पुस्तक न्यास इसके निदेशक का पद भी रीता चौधरी का कार्यकाल खत्म होने के बाद से खाली पड़ा हुआ है। इस सरकार को हिंदी को प्रमुखता देने के लिए भी जाना जाता है लेकिन मानव संसाधन विकास मंत्रालय से संबद्ध संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय। इसमें वर्षों से नियमित निदेशक नहीं हैं और इसका काम अतिरिक्त प्रभार के जुगाड़ से ही चल रहा है। मैसूर में स्थित भारतीय भाषा संस्थान अपनी स्थापना के पचास साल मना रही लेकिन बगैर निदेशख के। इस महत्वपूर्ण संस्थान के निदेशक का पद खाली है। मानव संसाधन मंत्रालय के अंतर्गत ही एक संस्थान है सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ क्लासिकल तमिल। इसके निदेशक की जिम्मेदारी भी वहां के रजिस्ट्रार संभाल रहे हैं। दिनकर जी ने पुस्तकालय, संग्रहालय, नाटकशाला और सिनेमागृह को संस्कृति के उपकरण के तौर पर रेखांकित किया है। उनके इन औजारों के आधार पर इस विवेचन में सूचना और प्रसारण मंत्रालय की संस्थाओं पर नजर डालें तो वहां भी कई संस्थानों में प्रमुख के पद खाली हैं।
सबसे पहले अगर हम देखें तो फिल्म समारोह निदेशालय में नियमित निदेशक का पद महीनों से खाली पड़ा है। इस संस्था के पास अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आयोजन की जिम्मेदारी से लेकर राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार के आयोजन की महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है। दूसरा संस्थान है, भारतीय जन संचार संस्थान जो आईआईएमसी के नाम से जाना जाता है, वहां के महानिदेशक का पद भी लंबे समय से खाली है। इस संस्थान की देश दुनिया में प्रतिष्ठा है लेकिन इसके भी महानिदेशक के पद पर प्रभारी हैं। इसके अलावा दूरदर्शन के निदेशक का पद खाली है, आकाशवाणी के निदेशक का पद इसी महीने के अंत में खाली हो जाएगा। हलांकि ये दोनों पद विज्ञापित हो गए हैं लेकिन अगर कुछ वक्त के लिए भी ये पद खाली रहते हैं तो संस्थान के काम-काज पर तो असर पड़ेगा। क्या इन संस्थानों में ये व्यवस्था नहीं है कि एक व्यक्ति के कार्यकाल खत्म होने के पहले ही दूसरे की नियुक्ति हो जाए, जैसा गृह सचिव या कैबिनेट सचिव के पद के लिए होता है। इस बात पर उच्चतम स्तर पर विचार किया जाना चाहिए कि इतने सारे संस्थानों के पद क्यों खाली हैं? क्या अफसर नहीं चाहते कि इन पदों को भरा जाए क्योंकि इनके नहीं भरे जाने का लाभ उनको अतिरिक्त प्रभार के रूप में मिलता है। या क्या मंत्रियों की रुचि नहीं है।
जिन मंत्रालयों के कामकाज से संस्कृति पर प्रभाव पड़ता है या यों कहें कि संस्कृति के निर्माण में जिनकी भूमिका है उनके प्रति इस तरह की उदासीनता का ये आलम प्रश्नाकुल कर देता है। अंग्रेजी में एक कहावत है कि अगर आप किसी को प्यार करते हैं तो उसको प्रदर्शित भी करें। इस कहावत को अगर हम अपनी संस्कृति से जोड़कर देखें और विचार करें तो यह कहा जा सकता है कि अगर हम अपनी संस्कृति से प्यार करते हैं तो हमें इसका प्रदर्शन भी करना चाहिए। ये प्रदर्शन कैसे होगा इसका सबसे बेहतर तरीका तो यही है कि हम संस्कृति के प्रति गंभीर रहें, गंभीर दिखें।

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