पिछले विधानसभा चुनाव के बाद मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी थी और कमलनाथ मुख्यमंत्री। मुख्यमंत्री बनने के बाद कमलनाथ सरकार ने एक आदेश के जरिए सूबे की तमाम उन समितियों को भंग करने का आदेश दिया था जिसके सदस्यों की नियुक्ति राज्य सरकार करती थी। किसी भी समिति के कार्यकाल के खत्म होने की प्रतीक्षा नहीं की गई थी। उसके पहले लंबे समय से मध्य प्रदेश में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी और वहां अलग अलग विभागों की समितियों, सलाहकार समितियों आदि में ज्यादातर भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से जुड़े लोग नामित थे। कमलनाथ ने एक झटके में सभी समितियों को भंग करके कांग्रेस और वामदलों में आस्था रखनेवालों को नियुक्त करना आरंभ कर दिया था। भोपाल के माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विश्वविद्यालय के कुलपति जगदीश उपासने से दबाव डालकर इस्तीफा लेने की खबर उस वक्त आई थी। उनके इस्तीफे के बाद कमलनाथ सरकार ने अपनी पसंद का कुलपति बनाया गया था। उन कुलपति महोदय ने भारतीय जनता पार्टी और नरेन्द्र मोदी पर सार्वजनिक रूप से अनर्गल टिप्पणी करनेवाले तीन व्यक्तियों को प्रोफेसर के तौर पर अस्थायी नियुक्ति भी दी थी। फिर मध्य प्रदेश का राजनीतिक घटनाक्रम बदला और शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री बन गए। पर कला-संस्कृति के क्षेत्र में कमलनाथ ने अपने सवा साल के कार्यकाल में जो बदलाव किए थे उनमें से ज्यादातर अब भी अपने अपने पदों पर डटे हुए हैं। कुछ लोगों ने भले ही इस्तीफा दे दिया।
पिछले दिनों भोपाल के भारत भवन से जुड़े प्रशासनिक अधिकारी प्रेमशंकर शुक्ल की कविता को लेकर विवाद आरंभ हुआ तो पूरे देश की नजर इस कला केंद्र की ओर गई। भारत भवन की परिकल्पना और स्थापना कला के विभिन्न रूपों में समन्वय और संवाद के एक केंद्र के रूप में की गई थी। आज से करीब अट्ठाइस साल पहले इसकी स्थापना हुई थी। इस संस्था को मध्य प्रदेश सरकार से अनुदान मिलता है। इसको चलानेवाले ट्रस्ट में मध्य प्रदेश सरकार और भारत सरकार के प्रतिनिधि होते हैं। प्रदेश के संस्कृति सचिव भी इस ट्रस्ट में रहते हैं। कमलनाथ सरकार ने जब सभी समितियों आदि को भंग किया था तब भारत भवन के ट्रस्टियों को भी हटा दिया गया था। उसके बाद कांग्रेस सरकार ने अपनी पसंद के लोगों को ट्रस्ट में नामित किया था। इस वक्त श्याम बेनेगल, गुलजार और संजना कपूर भारत भवन के ट्रस्टियों हैं। कमलनाथ ने जब भारत भवन के ट्रस्ट को भंग किया था तो उस वक्त की ट्रस्टियों में पद्मा सुब्रह्मण्यम जैसी विख्यात कलाकार और डॉ सच्चिदानंद जोशी जैसे प्रतिष्ठित लेखक और सांस्कृतिक प्रशासक शामिल थे। उस वक्त किसी ने ये नहीं सोचा कि पद्मा जी जैसी बड़ी कलाकार को कैसे हटाया जा सकता है। लेकिन अब के हुक्मरानों में इस बात को लेकर हिचक है गुलजार और श्याम बेनेगल को कैसे हटाया जा सकता है। यही फर्क है भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस में। कांग्रेस को जिसको रखना या हटाना होता है वो बेहिचक अपना काम करती है। और अगर कांग्रेस बौद्धिक क्षेत्र में ऐसा करती है तो वामपंथी उनके फैसलों को संरक्षण भी देते हैं। इससे उलट भारतीय जनता पार्टी सबको साथ लेकर चलने में विश्वास करती है। उदारतापूर्वक अपने विरोधियों को भी स्थान देती है। खैर ये एक अलहदा मुद्दा है जिसपर फिर कभी विस्तार से चर्चा होगी। फिलहाल हम बात कर रह हैं भारत भवन की।
भारत भवन अपनी स्थापना काल से ही विवादों में रहा है लेकिन अब लगभग दिशाहीन हो गया है। 1982 में जब इसकी स्थापना हुई थी तब नौकरशाह अशोक वाजपेयी इसके कर्ताधर्ता थे। उस समय भी अशोक वाजपेयी के एक बयान से विवाद हुआ था। दिसंबर 1984 के भोपाल गैस त्रासदी में हजारों लोगों की मौत हुई थी। उसके तीन महीने बाद भारत भवन ने 1985 में विश्व कविता समारोह का आयोजन किया था। अशोक वाजपेयी का बयान इस आयोजन के संदर्भ में ही था, जिसकी पूरे देश में निंदा हुई थी। अशोक वाजपेयी ने कहा था कि ‘मरनेवाले से साथ मरा नहीं जाता’। बाद में अशोक वाजपेयी ने अपनी सफाई में कहा कि उनकी संवाददाता से फोन पर अनौपचारिक बातचीत हुई थी और उन्होंने कहा था कि ‘यही जीवन है और हम मरनेवालों के साथ मर नहीं जाते’। अगर अशोक वाजपेयी की दलील मान भी ली जाए तो अनौपचारिक बातचीत से भी संवेदना के संकेत तो मिलते ही हैं। उसके बाद भी कई विवाद भारत भवन को लेकर होते रहे हैं। अभी हाल का विवाद यहां के कर्ताधर्ता प्रेमशंकर शुक्ल की कविता और उनकी कार्यशैली को लेकर उठा है। इस विवाद पर आगे बात हो इसके पहले बताना आवश्यक है कि प्रेमशंकर शुक्ल अशोक वाजपेयी की बगिया के ही फूल हैं। प्रेमशंकर शुक्ल की आस्था अब भी अशोक वाजपेयी से ही जुड़ी है। यह अनायास नहीं है कि अशोक वाजपेयी से जुड़े लोगों पर या वामपंथ से जुड़े लेखकों कवियों को भारत भवन से प्रकाशित पत्रिकाओं के अंकों में प्रमुखता से स्थान मिलता है। उन्हीं कवियों को भारत भवन के आयोजनों में बार बार बुलाया जाता है जो अशोक वाजपेयी की मित्र मंडली में हैं। इस तरह की कला संस्थाओं में किसी कवि या लेखक को आमंत्रित करने का कोई मानदंड तो होता नहीं है, न ही इस बात की कोई व्यवस्था होती है कि किस रचनाकार को कितनी बार आमंत्रित किया जाए। इसकी ही आड़ में इन संस्थाओं में खेल चलते हैं।
भारत भवन के अधिकारी प्रेमशंकर शुक्ल कविता भी लिखते हैं। उनकी कुछ कविताएं जो इन दिनों चर्चा के केंद्र में हैं उनमें शिव-पार्वती से लेकर पान और होठ तक के बिंब का प्रयोग किया गया है। इन कथित कविताओं में जो भावोच्छवास है वो अश्लीलता तक पहुंचती है। यह ठीक है कि कवि अपनी कल्पना में बहुधा देह के सौंदर्य का उपयोग करते हैं लेकिन प्रेमशंकर शुक्ल के यहां जब इस तरह के बिंब आते हैं तो वो फूहड़ता के साथ उपस्थित होते हैं। चाहे उनकी कविता अंगराग हो, मीठी पीर हो, केलि हो या अनावरण और आदि पलथी हो। इनकी कविताओं को पढने के बाद ऐसा लगता है कि अशोक वाजपेयी की शागिर्दी में इतने लंबे समय से रहने के बाद भी प्रेमशंकर शुक्ल कविता लिखना नहीं सीख पाए। हिंदी साहित्य के पिछले तीन चार दशक के परिदृश्य पर नजर डालें तो पाते हैं कि इस कालखंड में कई अफसर लेखक-कवि हुए। अगर वो अपने समकालीन रचनाकारों को लाभ पहुंचाने की स्थिति में होते हैं तो वो चर्चित भी होते रहे हैं। वजह बताने की जरूरत नहीं। कोई अफसर किसी शोध संस्थान में पदस्थापित होते ही पुस्तक लिखने लग जाता है। उनके पास सहूलियतें होती हैं और समकालीन लेखकों को उपकृत करने का संसाधन। इन सरकारी सहूलियतों और संसाधनों के बल पर ज्यादातर अफसर कवि हो जाते हैं। नामवर सिंह ने कई ऐसे अफसरों को सदी का श्रेष्ठ रचनाकार तक घोषित किया था।
मध्य प्रदेश के बारे में माना जाता रहा है कि इस प्रदेश में संस्कृति को लेकर अन्य राज्यों की अपेक्षा ज्यादा संजीदगी से काम होता है। इस प्रदेश के सबसे बड़े कला केंद्र की गतिविधियां इस धारणा को खंडित करती है। भारत भवन में जिस तरह के आयोजन हो रहे हैं या जो प्रकाशन हो रहा है उसपर मध्य प्रदेश सरकार के संस्कृति विभाग को ध्यान देना चाहिए। गुलजार और श्याम बेनेगल की प्रतिष्ठा हो सकती है लेकिन उम्र के इस पड़ाव पर आकर उनसे ये अपेक्षा करना व्यर्थ है कि वो संस्था को कोई दिशा दे सकेंगे। भारत भवन को रचनात्मक केंद्र के रूप में स्थापित करने के लिए रचनात्मक और सकारात्मक बदलाव की आवश्यकता कला जगत में महसूस की जा रही है।