पृथ्वीराज चौहान से बुरी तरह शिकस्त खाने के बाद मुहम्मद गोरी का लश्कर खैबर के दर्रे में दाखिल हुआ तो पराजित बादशाह को एक दीनदार नौजवान हिंदुस्तान की तरफ आता दिखाई दिया। बादशाह ने उस नौजवान को हाथ के इशारे से रोककर पूछा कि तू हिंदुस्तान किसलिए जा रहा है। नौजवान ने दृढ़ संकल्प का सहारा लेते हुए कहा कि मैं वहां इस्लाम फैलाने जा रहा हूं। बादशाह ने कहा कि पहले हमलोगों की हालत पर निगाह डाल और ये बात भी समझ ले कि हमलोग भी वहां इस्लाम के प्रचार के लिए गए थे लेकिन उनलोगों ने हिंदुस्तान से भागने पर मजबूर कर दिया। नौजवान ने फकीराना मुस्कुराहट होठों पर बिखेरते हुए कहा आपलोग वहां तलवार लेकर इस्लाम फैलाने गए थे इसलिए नाकाम और नामुराद लौटना पड़ रहा है। मेरे हाथों में सिर्फ कलामे इलाही है और दिल में इंसानियत का जज्बा है। नौजवान कोई मामूली शख्स नहीं था। यह तो हजरत ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती थे।‘ ये अंश है पूर्व में मशहूर और इन दिनों भटके हुए शायर मुनव्वर राना की पुस्तक ‘मीर आ के लौट गया’ का। यहां मुनव्वर राना इस्लाम को तलवार की ताकत पर फैलाने को गलत ठहरा रहे हैं। ये पुस्तक 2016 में वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई थी। पांच साल में ही मुनव्वर राना अपनी ही कही कहानी से अलग जाकर अफगानिस्तान में तालिबानियों का समर्थन करते नजर आ रहे हैं। तालिबानी तो मुहम्मद गौरी से भी ज्यादा बर्बर हैं और अफगानिस्तान पर कब्जा जमाते ही इस्लामी राज की घोषणा कर देते हैं। लेकिन राना को तालिबानियों में शांति दूत नजर आते हैं और वो उनकी तुलना में ऐसी ओछी बातें कर देते हैं तो उनकी कुंठा को, धर्मांधता को और अज्ञानता को प्रदर्शित करता है।
अपनी इसी किताब में ही बड़े ही चुनौतीपूर्ण अंदाज में राना कहते हैं कि ‘दुनिया के हर गैर मुस्लिम इतिहासकार ने लिखा है तो यही है कि इस्लाम तलवार के जोर से फैलाया गया मजहब है लेकिन दुनिया के तमाम इतिहासकार मिलकर भी इस बात को साबित नहीं कर सके कि दुनिया के किसी भी हिस्से में मुसलमान बे सबब हमलावर हुए या कत्ल और गारतगरी (तबाही) का बाजार गर्म किया। इस्लाम के सदाबहार दुश्मन यहूदियों और ईसाइयों ने बड़े ही सुनियोजित तरीके से इस्लाम के खिलाफ प्रोपगंडा की जो मुहिम शुरू की थी वो आज भी सूरतें बदल-बदलकर दुनिया में मौजूद है।‘ वो यहां भी सामान्यीकरण के दोष के शिकार तो हो जाते हैं और अपनी अज्ञानता का सार्वजनिक प्रदर्शन करते नजर आते हैं। मुनव्वर राना छह साल पहले इस तरह की बातें लिखते हैं क्या उनको नहीं मालूम था कि 1996 में तालिबान ने अफगानिस्तान में किस तरह की क्रूरता की थी। क्या राना को यह मालूम नहीं था कि तालिबानियों के दौर में अफगानिस्तान में महिलाओं को किस तरह से प्रताड़ित किया गया था। या इस्लाम को मानने वाले दहशतगर्दों ने अमेरिका से लेकर फ्रांस और अन्य मुल्कों में किस तरह की तबाही मचाई। तब भी वो लिख रहे थे कि मुसलमान कभी भी हमलावर नहीं हुए और दुनियाभर के तमाम इतिहासकारों ने इस्लाम के खिलाफ दुश्प्रचार किया। अब भी उनको ये नजर नहीं रहा कि तालिबान अफगानिस्तान में क्या कर रहा है। किस तरह से लोगों की जान ले रहा है या किस तरह के अत्याचार वहां हो रहे हैं। मुनव्वर राना तालिबानियों के प्रेम में इतने डूब गए कि उनको अपने वतन की साख का भी ख्याल नहीं रहा। तमाम मर्यादा को तोड़ते हुए इस बुजुर्ग शायर ने अपने देश के अपराधियों के पास तालिबान से ज्यादा हथियार होने की बात कह डाली। इतना ही नहीं मुनव्वर राना ने अपने जाहिल होने का भी सबूत पेश किया। उनका कहना है कि तालिबानियों के यहां जितनी क्रूरता है उससे अधिक क्रूरता तो हमारे यहां है। मुनव्वर राना के बेटों ने जिस तरह का ड्रामा रचा था अगर वैसा ड्रामा वो अफगानिस्तान में रचते तो उनको पता चलता कि क्रूरता क्या होती है। राना ये भूल जाते हैं कि इस देश में संविधान का राज चलता है, कोई धार्मिक सत्ता नहीं। यहां तर्क और तथ्यों के आधार पर कानून की धाराएं तय होती हैं किसी अन्य तरीके से नहीं।
मुनव्वर राना बार-बार अपनी मूर्खता का प्रमाण देते हैं। तालिबानियों पर बोलते हुए उनको महर्षि वाल्मीकि याद आ गए। मैं जान-बूझकर मूर्खता शब्द का उपयोग कर रहा हूं कि मुनव्वर राना को न तो महर्षि वाल्मीकि के अतीत के बारे में पता है और न ही उनके योगदान के बारे में। वाल्मीकि के बारे में जानने के लिए राना को न केवल वाल्मीकि रामायण पढ़ना पड़ेगा बल्कि स्कन्दपुराण आदि का अध्ययन भी करना पड़ेगा। इन ग्रंथों में वाल्मीकि के बारे में, उनकी जिंदगी के आरंभिक वर्षों के बारे में, उनके पेशे के बारे में विस्तार से उल्लेख मिलता है। बगैर पढ़े और सुनी सुनाई बातों के आधार पर राना की बातें बुढ़भस सरीखी हैं। राना पूरी तरह से न केवल विचार शून्य हैं बल्कि अपनी परंपराओं और पूर्वजों के बारे में भी उनको कुछ पता नहीं है। अगर पता होता तो वो वाल्मीकि की तुलना कभी भी तालिबानियों से नहीं करते। अब जब उनके खिलाफ मुकदमा हो गया है तो उनके होश ठिकाने आ गए हैं और उस बयान पर दाएं-बांए करते नजर आ रहे हैं। ऐसा वो पहले भी करते रहे हैं, ऊलजलूल बोल देते हैं और जब चौतरफा घिरने लगते हैं तो अपने बयान से पलट जाते हैं।
मुनव्वर राना का अतीत इसी तरह की पलटीमार घटनाओं से भरी हुई हैं। ज्यादा पीछे नहीं जाते हुए अगर हम 2015 की ही बात करते हैं। उस वर्ष देश में कुछ लेखकों ने असहिष्णुता को आधार बनाकर सरकार को बदनाम करने की साजिश रची। साहित्य अकादमी के पुरस्कार लौटाने का प्रपंच भी रचा गया। मुनव्वर राना ने भी तब साहित्य अकादमी के अपने पुरस्कार को लौटाने के लिए एक न्यूज चैनल का मंच चुना। हलांकि इसके तीन चार दिन पहले एक अंग्रेजी अखबार में उनका बयान पुरस्कार वापसी के खिलाफ छपा था। न्यूज चैनल पर पुरस्कार वापसी की घोषणा के बाद चैनल के कर्मचारी उनकी ट्राफी और चेक लेकर साहित्य अकादमी पहुंचे थे। चेक पर किसी का नाम नहीं लिखा था। पूरा ड्रामा फिल्मी था। उस वक्त न्यूज चैनलों में चर्चा थी कि राना ने एक बड़ी डील के तहत पुरस्कार वापसी को लेकर अपना स्टैंड बदला। अब डील क्या थी या उसकी सचाई क्या थी ये तो राना ही बता सकते हैं। पुरस्कार वापसी के अलावा राम मंदिर पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले पर भी राना ने बेहद आपत्तिजनक बयान दिया था और सर्वोच्च न्यायालय पर आरोप लगाए थे।
दरअसल राना की अपनी कोई विचारधारा नहीं है। उनका सार्वजनिक आचरण इस बात की गवाही देता है कि वो बेहद स्वार्थी व्यक्ति हैं और अपने स्वार्थ के आगे उनको कुछ नहीं दिखता है। वो लाभ के लिए स्टैंड लेते हैं और लाभ के लिए कभी अपने धर्म का तो कभी अपनी शायरी की आड़े लेते हैं। जब फंसने लगते हैं तो स्टैंड बदल देते हैं। राना जैसे लोगों के इस तरह के व्यवहार पर कथित प्रगतिशील खेमा भी खामोश रहता है। यहां तक कि बात बात पर प्रेस रिलिज जारी करनेवाला जनवादी लेखक संघ भी राना के तालिबान वाले बयान पर खामोश है। प्रगतिशील लेखक संघ और जन संस्कृति मंच को तो जैसे सांप सूंघ गया है। दरअसल इस तरह की खामोशी या कथित प्रगतिशीलता ही कट्टरता को सींचती है। आज अगर राना के बयानों का विरोध ये लेखक संगठन नहीं करते हैं तो फिर उनकी बची-खुची साख पर बड़ा सवालिया निशान लगता है।
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