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Sunday, August 22, 2021

भगत सिंह की हत्या का बदला


दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने के बाद चंपारण की धरती पर गांधी ने जो आंदोलन किया उसकी सफलता ने उनको देशभर में व्याप्ति दी। स्वाधीनता के संघर्ष में चंपारण की धरती से कई क्रांतिवीर निकले लेकिन इतिहासकारों ने गांधी और चंपारण को अपने लेखन में जिस तरह से रेखांकित किया उससे उस धरती के कई क्रांतिकारियों का योगदान धूमिल पड़ गया। आज जब देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है तो ऐसे सपूतों को याद करने का अवसर है जिन्होंने अपनि मातृभूमि के लिए अपनी जान न्योछावर कर दी। ऐसे ही एक क्रांतिकारी थे बैकुंठ सुकुल।

महात्मा गांधी के चंपारण पहुंचने के पहले मुजफ्फरपुर में एक ऐसी घटना घट चुकी थी जिसने बिहार समेत पूरे देश के मानस को झकझोर दिया था। ये घटना थी खुदीराम बोस को फांसी की। जब खुदीराम बोस को 1908 में मुजफ्फरपुर जेल में फांसी की सजा दी गई तो उसका उस इलाके के युवकों के मन पर गहरा प्रभाव पड़ा। समाचारपत्रों में युवकों ने पढ़ा कि खुदीराम को जब फांसी के लिए तख्ते तक ले जाया जा रहा था तब वो सीना ताने थे और मुस्कुरा रहे थे। इस समाचर ने वहां के युवकों को अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की प्रेरणा दी। उस दौर में उत्तर बिहार में सक्रिय कुछ युवकों ने हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के बैनर तले युवकों को जोड़ने का काम आरंभ कर दिया। इस काम में जोगेन्द्र सुकुल, किशोरी प्रसन्न सिंह और बसावन सिंह के साथ एक और युवक था बैकुंठ सुकुल। बैकुंठ सुकुल के अंदर भी अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने की तमन्ना तब और जोर मारने लगी जब एक दिन उसको पता चला कि भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के मृत्युदंड का जिम्मेदार शख्स उसी बिहार की धरती पर रह रहा है जहां ये लोग सक्रिय थे। दरअसल भगत सिंह और उनके साथियों को मृत्युदंड मिलने के पीछे फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही थी। पहले फणीन्द्र नाथ घोष भी क्रांतिकारियों के साथ थे लेकिन जब लाहौर षडयंत्र केस चला तो वो सरकारी गवाह बन गए। उनकी गवाही की वजह से स्वाधीनता आंदोलन को तगड़ा झटका लगा था क्योंकि घोष ने कई गुप्त जानकारियां अपनी गवाही के दौरान सार्वजनिक कर दी थीं। लाहौर षडयंत्र केस (ताज बनाम सुखदेव तथा अन्य) में सात अगस्त 1930 को फैसला आया। उस फैसले में इस बात का भी उल्लेख है कि मनमोहन बनर्जी तथा ललित मुखर्जी ने भी क्रांतिकारियों के खिलाफ गवाही दी थी। पर उस फैसले को पढ़ने के बाद यह स्पष्ट होता है कि फणीद्र नाथ घोष की गवाही बेहद अहम थी। यह घोष की गवाही ही थी जिसमें बेहद सूक्ष्मता और व्यापकता के साथ भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु के क्रांतिकारी मंसूबों को उजागर किया गया था। उसकी गवाही इस वजह से भी इन क्रांतिकारियों की फांसी की सजा की वजह बनी क्योंकि वो पहले इनके साथ ही काम कर रहा था। जब इन तीनों को फांसी दे दी गई तो पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ गुस्सा बढ़ा। 

1932 में पंजाब के क्रांतिकारी साथियों ने बिहार के अपने साथियों को एक संदेश भेजा कि इस कलंक को धोओगे कि ढोओगे? इस संदेश का अर्थ ये था कि जिस घोष की गवाही पर लाहौर में सांडर्स को मारने के जुर्म में भगत सिंह और उनके साथियों को फांसी दी गई वो बिहार के बेतिया का रहनेवाला था और सरकारी सुरक्षा में बेतिया में रह रहा था। पंजाब के क्रांतिकारी साथियों के संदेश के बाद बिहार में स्वाधीनता के लिए छटपटा रहे युवकों की एक बैठक हुई। इस बैठक में बैकुंठ सुकुल, अक्षयवट राय, किशोरी प्रसन्न सिंह आदि शामिल हुए। ये सभी फणीन्द्र नाथ घोष से बदला लेने का काम अपने हाथ में लेना चाहते थे। सभी चाहते थे कि स्वाधीनता के लिए अपनि जान देनेवाले अपने क्रांतिकारी साथियों की शहादत का बदला वो लें। लेकिन बैठक में जब कोई निर्णय नहीं लिया जा सका तो छह युवकों के नाम चिट पर लिखकर लाटरी निकाली गई। बैकुंठ सुकुल भाग्यशाली रहे और उनके नाम की चिट निकल आई और उनको फणीन्द्र नाथ घोष से बदला लेने की जिम्मेदारी मिली। अब बैकुंठ सुकुल ने अपने मित्र चंद्रमा के साथ मिलकर योजना बनाई। वो हाजीपुर से करीब सवा सौ किलोमीटर सायकिल चलाकर दरभंगा पहुंचे। दरभंगा में अपने एक साथी के साथ ठहरे। वहां एक भुजाली का इंतजाम किया और अपने साथी से एक धोती मांगकर मोतिहारी होते हुए बेतिया पहुंचे। 9 नवंबर 1932 की शाम, हल्का अंधेरा होने लगा था। फणीन्द्र घोष बेतिया बाजार में अपने एक दोस्त की दुकान पर बैठे हुए थे। उसी वक्त बैकुंठ सुकुल और चंद्रमा सिंह ने उनपर हमला कर बुरी तरह से जख्मी कर दिया। आठ दिन बाद उसकी मौत हो गई। 

ब्रिटिश हुकूमत लाहौर केस के गवाह पर हुए इस जानलेवा हमले के असर को समझ रही थी। लिहाजा बैकुंठ सुकुल और चंद्रमा सिंह की गिरफ्तारी के लिए चौतरफा घेरे बंदी की गई। करीब आठ महीने की मशक्कत के बाद अंग्रेजों ने चंद्रमा सिंह को कानपुर से और बैकुंठ सुकुल को सोनपुर से गिरफ्तार कर लिया। हमले के बाद जब ये दोनों वहां से गए थे तो अफरातफरी में उनकी गठरी वहीं छूट गई थी। गठरी से मिले सामान के आधार पर इनकी गिरफ्तारी हुई थी। फिर सात महीने केस चला और फरवरी में बैकुंठ सुकुल को फांसी की सजा सुनाई गई और मई 1934 में गया जेल में उनको फांसी दे दी गई। ये पूरा प्रसंग नंदकिशोर शुक्ल की पुस्तक स्वतंत्रता सेनानी बैकुंठ सुकुल का मुकदमा में उल्लिखित है। तमाम दस्तावेजों के आधार पर उन्होंने ये पुस्तक लिखी हैं। 

चंद्रमा सिंह को सबूतों के अभाव में बरी कर दिया गया। नवंबर 1932 से लेकर बैकुंठ सुकुल की फांसी होने तक इस केस से जुड़ी गतिविधियों ने युवको के अंदर देश के लिए मर मिटने का ज्वार पैदा कर दिया था। बैकुंठ सुकुल ने अपने कृत्य से ये संदेश दे दिया था कि अंग्रजों से मिलने और क्रांतिकारियों से गद्दारी की सजा मौत है। हमारे स्वाधीनता संग्राम के कई ऐसे नायक हैं जिनके देशभक्ति के कृत्य इतिहास की पुस्तकों में दबा दी गई है या उनको वो अहमियत नहीं दी गई जिसके वो अधिकारी थे। बैकुंठ सुकुल उनमें से एक थे। 

1 comment:

Naresh Jain said...

आप ही यह दायित्व निभाएँ कि स्वाधीनता के अमृत वर्ष में भूले बिसरे स्वातंत्र्य नायकों की कीर्ति गाथा को श्रंखलाबद्ध प्रकाशित करें ꫰