प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने स्वतंत्रता दिवस के एक दिन पहले एक ट्वीट किया। लिखा कि ‘देश के बंटवारे के दर्द को कभी भुलाया नहीं जा सकता। नफरत और हिंसा की वजह से हमारे लाखों बहनों भाइयों को विस्थापित होना पड़ा और अपनी जान तक गंवानी पड़ी। उन लोगों के संघर्ष और बलिदान की याद में 14 अगस्त को ‘विभाजन विभीषिका स्मृति दिवस’ के तौर पर मनाने का निर्णय लिया गया है।‘ केंद्र सरकार के इस फैसले पर राजनीति आरंभ हो गई है। हम राजनीति से इतर साहित्य सृजन के आइने में विभाजन की विभीषिका को परखने की कोशिश करते हैं। 1947 में हमारे देश का बंटवारा हुआ। उसके बाद के हिंदी साहित्य के परिदृश्य पर नजर डालें तो इस विषय को केंद्र में रखकर बहुत कम लेखन नजर आता है। ले-देकर यशपाल की औपन्यासिक कृति ‘झूठा सच’ का दो खंड और भीष्म साहनी के उपन्यास ‘तमस’ का नाम याद पड़ता है। बदीउज्जमा के उपन्यास ‘छाको की वापसी’ के अलावा सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’, मोहन राकेश और कृष्णा सोबती ने कुछ कहानियां लिखी हैं। बहुत बाद में आकर कमलेश्वर ने भी लिखा। भीष्म जी को भी तमस लिखने में बीस साल से अधिक लगे। कथा साहित्य में तो कुछ रचनाएं मिलती भी हैं लेकिन कवियों ने तो इस ओर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया, प्रतीत होता है। अज्ञेय की ही एक कविता ‘शरणार्थी’ का स्मरण होता है। वामपंथी लेखक जिन मुक्तिबोध को अपना सबसे बड़ा कवि मानते और प्रचारित करते हैं उनकी रचनाओं में भी विभाजन की विभीषिका नहीं दिखाई देती है। दूसरी तरफ गुरुदत्त जैसे राष्ट्रवादी लेखकों ने विभाजन पर कम से कम आधा दर्जन उपन्यास लिखे। लेकिन गुरुदत्त को इन कथित प्रगतिशील लेखकों और आलोचकों ने साहित्य के परिदृश्य से ओझल कर दिया। उनकी विभाजन पर लिखी रचनाओं पर न तो आलोचनात्मक लेख लिखे गए और न ही किसी विमर्श में उनका नामोल्लेख किया जाता है। बावजूद इसके जब भी हिंदी में विभाजन पर लिखे साहित्य की बात होगी तो गुरुदत्त का नाम लेना ही पड़ेगा।
स्वाधीनता के बाद हिंदी साहित्य में प्रगतिशीलता का झंडा लेकर घूमनेवाले लेखकों का बोलबाला रहा है। कई तरह के साहित्यिक आंदोलन चले लेकिन उन आंदोलनों में कहीं भी विभाजन की विभीषिका के दर्द और संघर्ष को जगह नहीं मिल पाई है। लाखों लोगों की जान गई, उससे अधिक लोग विस्थापित हुए। मरनेवालों के परिवार और विस्थापित समूहों के दर्द को हिंदी साहित्य के लेखक पकड़ नहीं पाए। पिछले दिनों मार्क्सवादी लेखक जगदीश्वर चतुर्वेदी से बात हो रही थी तो उन्होंने एक बेहद चौंकानेवाला तथ्य बताया। 15 अगस्त 1947 में जब देश स्वाधीन हुआ तो उसके अगले महीने यानि सितंबर में प्रयागराज (तब इलाहाबाद) में प्रगतिशील लेखक संघ की एक बैठक हुई। उस बैठक में उस वक्त के तमाम छोटे-बड़े लेखक शामिल हुए थे। सितंबर 1947 में हुए प्रगतिशील लेखक संघ की इस बैठक में 22 प्रस्ताव पास किए गए थे। इन 22 प्रस्तावों में कहीं भी विभाजन की चर्चा तो दूर की बात उसका उल्लेख तक नहीं था। ये वो दौर था जब पूरे देश में सिर्फ विभीषिका की चर्चा ही हो रही थी। यह तथाकथित प्रगतिशील लेखकों की अज्ञानता नहीं हो सकती है ये तो उदासीनता थी। बैठक के एक प्रस्ताव में एक या डेढ़ पंक्ति में सांप्रदायिकता की बात कही गई थी। ये चर्चा भी इस वजह से हुई कि प्रगतिशील लेखक संघ की बैठक के एक दिन पहले शाम को प्रयागराज के मुस्लिम बहुल इलाके में छुरेबाजी की घटना हुई थी। जिसकी वजह से प्रस्ताव में सांप्रदायिकता का उल्लेख हुआ था। ये वही प्रगतिशील लेखक संघ है जिसने 1975 में इमरजेंसी लगाए जाने के बाद दिल्ली में हुई अपनी बैठक में उसका समर्थन किया था। इमरजेंसी के समर्थन में प्रस्ताव पास किया था। इसलिए यह तर्क नहीं दिया जा सकता है कि लेखक संघों की बैठक में राजनीतिक मसलों पर प्रस्ताव पास नहीं किए जाते थे। विभाजन का दर्द वैसे भी राजनीतिक मसला नहीं था बल्कि वो सामाजिक और मानवीय मसला था। मानवता के कलेजे पर भोंके गए इस खंजर का दर्द उस समनय के हिंदी के लेखक महसूस नहीं कर सके।
दरअसल अगर हम समग्रता में विचार करें तो इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि जिन लेखकों की आस्था कम्युनिस्ट पार्टियों में थीं वो विभाजन को लेकर उदासीन रहे, उसके दर्द को लेकर खामोश रहे। अपनी इस उदासीनता को उन्होंने बहुत करीने से दबाए रखा। वो लगातार ये नारा लगा रहे थे कि ‘ये आजादी झूठी है, देश की जनता भूखी है’ । ये नारा नहीं कम्युनिस्टों की मानसिकता को दर्शा रहा था। स्वाधीनता का ये अस्वीकार क्यों था। ये एक अलग लेख की मांग करता है। जब एक संप्रभु राष्ट्र जन्म ले रहा था तो ये कम्युनिस्ट उसका स्वागत करने की बजाए उसपर प्रश्न खड़े कर रहे थे। जब देश में लोकतंत्र स्थापित हो रहा था तो ये भूख और गरीबी का नारा लगाकर लोकतंत्र का मजाक उड़ा रहे थे। इनको ये बुनियादी बात समझ नहीं आ रही थी कि अगर देश स्वतंत्र नहीं होगा तो भूख और गरीबी कैसे हटेगी। दरअसल ये कम्युनिस्ट मन से स्वाधीनता के विरोधी थे। ये अनायास नहीं था कि देश के स्वतंत्र होने के 74 साल बाद कम्युनिस्ट पार्टी ने अपने कार्यालय पर तिरंगा झंडा फहराया। जब मातृ संगठन की ये सोच होगी तो उससे संबद्ध लेखक संगठन और उन लेखक संगठनों से जुड़े लेखक भी तो इसी सोच के आधार पर सृजन करेंगे। हिंदी साहित्य में विभाजन की विभीषिका पर कहानी-कविता तो कम लिखी ही गईं कोई विमर्श भी नहीं हुआ। तो क्या ये माना जाए कि कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में ऐसा किया गया।
दूसरा तर्क ये हो सकता है कि विभाजन के समय सक्रिय हिंदी के लेखकों की सोच का दायरा बहुत छोटा रहा। उनकी संवेदना में विभाजन का दर्द या विस्थापन की पीड़ा आ ही नहीं सकी। वो जिस भौगोलिक क्षेत्र में रहते थे वहां का विभाजन नहीं हुआ तो वो स्वतंत्र भारत की इस घटना को महसूस नहीं कर सके। पंजाब का विभाजन हुआ तो पंजाबी साहित्य में विभाजन को लेकर, उसके अलग अलग पहलुओं को लेकर विपुल लेखन हुआ। बंगाल का विभाजन हुआ तो बंगला में विभाजन पर, उसके असर को लेकर कई उत्कृष्ट कृतियां हैं। ये सही है कि हिंदी प्रदेश का भौगोलिक विभाजन नहीं हुआ लेकिन हिंदी प्रदेशों ने विभाजन की विभीषिका को तो बहुत करीब से देखा तो था ही। हिंदी के लेखकों की संवेदना क्यों नहीं झंकृत हुईं, ये आश्चर्य की बात है। इसी भौगोलिक प्रदेश के इतिहासकारों ने विभाजन को लेकर बहुत लिखा। भारत विभाजन के राजनीतिक पक्ष भी बहुत लिखा गया लेकिन हिंदी के लेखक अलग अलग विषयों में उलझे रहे। कहानी कविता से इतर आकर अगर आलोचना पर भी विचार करें तो वहां भी देश के बंटवारे को लेकर कोई डिस्कोर्स नहीं दिखता। रामविलास जी से लेकर नामवर सिंह तक के लेखन में इस विषय को प्रमुखता नहीं मिलती है। नामवर सिंह तो उर्दू के भी जानकार माने जाते हैं, उनको बंगला का भी ज्ञान था लेकिन उनके लेखन में भी विभाजन की बात नहीं आना हैरत में डालता है। बात घूम फिरकर वहीं पहुंचती है कि कम्युनिस्ट विचारधारा के प्रभाव में रहनेवाले लेखकों को विभाजन का दर्द या तो समझ नहीं आया या फिर वो जानबूझकर उस वक्त हुए नरसंहार और विस्थापन को लेकर आंखें मूंदे बैठे रहे। अब अगर विभाजन विभीषिका दिवस की घोषणा हुई है तो एक बार फिर से हिंदी के लेखकों को अपनी इस ऐतिहासिक भूल पर विचार करना चाहिए और उसको सुधारने का उपक्रम भी।
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