पिछले दिनों अंग्रेजी के एक स्तंभकार ने कांग्रेस पार्टी के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और कांग्रेस पार्टी का आकलन करते हुए अंग्रेजी में एक लेख लिखा। अपने लेख के लिंक को उन्होंने ट्विटर पर साझा किया और उसमें उन्होंने राहुल गांधी की जगह राजीव गांधी लिखा। थोड़ी ही देर में उन्होंने अपने उस ट्वीट को डिलीट कर दिया। फिर से लिंक साझा किया, इस थोड़ी लंबी टिप्पणी लिखी लेकिन फिर उन्होंने राहुल गांधी की जगह राजीव गांधी लिख दिया। फिर डिलीट कर दिया और तीसरी बार में उन्होंने अपने लेख के अनुसार ट्वीटर टिप्पणी में राहुल गांधी और कांग्रेस लिखा। तबतक कुछ लोग उनसे मजे ले चुके थे। उनको राजीव गांधी की भक्ति से बाहर निकलने की सलाह दे चुके थे। कई ने उनके पहले ट्वीट का स्क्रीन शॉट लेकर उनको राजीव गांधी के प्रभाव से मुक्त होने की सलाह भी दे डाली थी। ट्वीटर की दुनिया में ऐसा कई बार कई लोगों के साथ होता है। दरअसल इंटरनेट मीडिया की इस दुनिया का स्वभाव बिल्कुल अलग है। कई काम जो इंटरनेट मीडिया ने किया उसको रेखांकित करना तो आवश्यक है लेकिन इसके प्रभाव पर भी विचार करना चाहिए। इंटरनेट मीडिया के इन मंचों ने वैसे सभी लोगों को उनके मूल स्वभाव और रूप में दुनिया के सामने प्रस्तुत कर दिया। इस मीडिया ने वैसे सभी स्तंभकारों के पक्ष को भी सामने ला दिया जो ये दावा करते नहीं थकते थे कि वो निष्पक्ष हैं। निष्पक्ष होने का दावा करनेवाले लगभग सभी स्तंभकार, टिप्पणीकारों की सोच का परत दर परत सामने आ गया। ट्वीटर, फेसबुक और अन्य इंटरनेट माध्यम को इस बात का श्रेय दिया जाना चाहिए कि इसने निष्पक्षता की आड़ में इस या उस राजनीतिक दल या विचारधारा का समर्थन करनेवालों के सामने से आड़ हटा दी ।
पिछले दिनों शाह रुख खान के पुत्र आर्यन खान पर नशाखोरी का आरोप लगा। वो जेल गए। अदालती कार्यवाही चली और आखिर में बांबे हाई कोर्ट ने उनको जमानत दे दी। गिरफ्तारी से लेकर जमानत पर बांबे हाईकोर्ट के फैसले तक इंटरनेट मीडिया के माध्यमों पर ट्वीटर और फेसबुक वीरों ने जमकर तलबारबाजी की। अदालत पर सवाल उठाए। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो और उसके अधिकारियों की मंशा पर प्रश्न खड़े किए गए। केंद्र सरकार को कठघरे में खड़ा करने का प्रयास हुआ। परोक्ष रूप से प्रधानमंत्री मोदी को भी इस विवाद में शामिल करने का प्रयास हुआ। अदालत से पहले इंटरनेट मीडिया पर सक्रिय लोगों ने अपना निर्णय सुना दिया कि आर्यन बेगुनाह है। ये सोचने की जहमत नहीं उठाई कि अगर शाह रुख खान के बेटे को विशेष अदालत ने जमानत नहीं दी तो उसका कोई आधार होगा। उस न्यायाधीश के बारे में विचार नहीं किया गया जिसके फैसले पर पूरे देश की निगाहें टिकी थीं। ये भी नहीं सोचा गया कि मुंबई हाईकोर्ट ने तीन दिनों तक केस की दलीलों को क्यों सुना? केस के मेरिट पर बहस करना वकीलों और उसपर निर्णय सुनाना अदालत का काम है। ट्वीटरवीरों को धैर्य कहां है। वो तो अपने मन का फैसला सुनना चाहते हैं। अगर उनके मनमुताबिक निर्णय नहीं आया या किसी जांच एजेंसी का कोई कदम उनके हिसाब नहीं है तो बगैर कुछ सोचे समझे आलोचना शुरु कर देते हैं। निर्णयात्मक टिप्पणियां करने लग जाते हैं। यह एक नया ट्रेंड है जो इंटरनेट मीडिया के ये अराजक मंच अपने उपयोगकर्ताओं को देते हैं। लोकतंत्र में आलोचना करने का अधिकार सभी नागरिकों को है, लेकिन उसका कोई आधार तो होना चाहिए। जब मंच ही अराजक होने की छूट देता है तो उपयोगकर्ता क्यों परहेज करें।
इंटरनेट मीडिया के मंचों पर एक तीसरी प्रवृत्ति दिखाई देने लगी है। ये प्रवृति है समाज में जहर घोलने की कोशिश। जैसे ही शाह रुख खान का पुत्र गिरफ्तार होता है तो इस तरह के ट्वीट आने लगते हैं कि देश के मुस्लिम सुपरस्टार को तंग किया जा जा रहा है। मुस्लिम सुपरस्टार को चुप कराने की साजिश की जा रही है। अब ये प्रवृत्ति कितनी घातक है इसपर विचार किया जाना चाहिए। शाह रुख खान की कला का सम्मान इस देश के हिंदुओं ने भी किया। उन्होंने भी शाह रुख खान की फिल्में देखीं। शाह रुख खान को क्या सिर्फ मुसलमानों ने सुपरस्टार बनाया। क्या सिर्फ मुस्लिम दर्शक शाह रुख खान की फिल्मों के प्रशंसक हैं। बिना ये सोचे समझे कला को भी सांप्रदायिकता का शिकार बनाने की जो मानसिकता है वो भी इसी इंटरनेट मीडिया के मंच पर दिखाई देती है। इस तरह के ट्वीट से समाज बंटता है। समाज में वैमनस्यता फैलती है जो किसी भी तरह से न तो देशहित में है और न ही हमारे अपने हित में । इंटरनेट मीडिया के इन मंचों के अराजक स्वभाव को न तो देशहित की चिंता है और न ही समाज हित की। सांप्रदायिक सोच का खुले आम प्रकटीकरण और उस सोच को मुखर और मौन दोनों तरह का समर्थन मिलता है। क्या इंटरनेट मीडिया के उपयोगकर्ताओं ने कभी ये सोचा कि किसी भी कला को हिंदू मुसलमान में विभक्त करके वो कितना बड़ा अपराध कर रहे हैं। नहीं सोचा। सोचने का समय आ गया है।
इंटरनेट मीडिया खासकर ट्वीटर पर इन दिनों कुछ लोग अति सक्रियता के शिकार भी नजर आते हैं। छोटी छोटी बातों पर कैंपेन चला देना और फिर संबंधित व्यक्ति या समूह कंपनी पर हमलावर अंदाज में अपनी बातें करना इसी अति सक्रियता का उदाहरण है। ऐसे कई छोटे छोटे समूह खासतौर पर ट्वीर पर देखे जा सकते हैं जो हर दिन ये ढूंढते हैं कि आज क्या ट्रेंड करवाया जाए। इस अति सक्रियता से कई बार नकारात्मकता का भाव सामने आता है। एक ऐसा नकार जो समाज और देश हित में नहीं होता। लेकिन ट्रेंड करवाने वाले इन समूहों को इसका भान नहीं होता है कि उनके तथाकथित कैंपेन का असर कितना गहरा होता है। पिछले दिनों एक विज्ञापन एजेंसी के बड़े अधिकारी से बात हो रही थी तो उन्होंने बताया कि अब तो विज्ञापन एजेंसियां क्रिएटिव बनाते समय कई बार इस बात को ध्यान में रखकर काम करती हैं कि ये विवादित होगा कि नहीं। कई बार जानबूझ कर विवाद पैदा करनेवाले विज्ञापन बनाए जाते हैं। ट्वीटर पर अतिसक्रिय समूह बहुधा इस तरह के विज्ञापनों को लेकर हो हल्ला मचाने लगते हैं और विज्ञापन एजेंसी का काम पूरा हो जाता है। फिल्मों और वेब सीरीज को लेकर इस तरह के विवादित कैंपेन आपको ट्वीटर पर नियमित अंतराल पर देखने को मिलते हैं। किसी कार्यक्रम में किसी को बुलाने को लेकर आए दिन हो हल्ला मचता ही रहता है। किसी समिति में किसी के नामांकन पर भी पक्ष विपक्ष में टीका टिप्पणी होती ही रहती है। इसके अलावा इन दिनों इंटरनेट मीडिया पर धर्म को लेकर भी तरह तरह की टिपणियां देखने को मिलती हैं। कई बार कट्टर हिंदू जैसे शब्द भी पढने को मिलते हैं। हिंदू और कट्टरता दोनों नदी के दो किनारे हैं जो कभी मिल ही नहीं सकते। हिंदू विचार या हिंदू दर्शन से अनभिज्ञ लोग इस तरह की शब्दावली का उपयोग कर खुद को हास्यास्पद बनाते हैं। ट्वीटर पर कोई छोटा मोटा कैंपेन भी चलता है तो ट्विटर पर सक्रिय लोगों का उत्साह देखते ही बनता है। वो ये भूल जाते हैं कि एक सौ तीस करोड़ से अधिक आबादी वाले इस देश में ट्वीटर पर सिर्फ सवा दो करोड़ लोग सक्रिय हैं। फेसबुक पर करीब चौंतीस करोड़। इसमें भी कितने लोग सक्रिय हैं वो देखने पर संख्या और कम हो जाती है। इसलिए ट्वीटर और फेसबुक पर चलनेवाली बहसों का इसका कोई अखिल भारतीय प्रभाव होता होगा, इसमें संदेह है।
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