इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से स्त्री विमर्श चर्चा के केंद्र में है। एक लेखिका को उठाने और दूसरे को गिराने के लिए स्त्री विमर्श के विविध रूपों की आड़ ली जा रही है। रचना से अधिक व्यक्तिगत संबंधों पर बातें हो रही हैं। इसमें युवा लेखिकाएं भी शामिल हैं तो बुजुर्ग लेखिका भी मनोयोगपूर्वक अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने की होड़ में लगी दिखाई दे रही हैं। जो गंभीरता के साथ स्त्री विमर्श को समझती और बरतती हैं वो चुप हैं। राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य में जिस तरह के स्त्री विमर्श की नींव रखी थी उसको ही धुरी बनाकर कुछ लेखिकाएं तलवारबाजी करती रहती हैं। किसी का निधन हो तब, कोई विचार गोष्ठी हो तब, कोई समारोह हो तब स्त्री को लेकर उसी तरह का विमर्श किया जाता है जैसा राजेन्द्र यादव करते थे या करने के लिए अपने खेमे की लेखिकाओं को उकसाते रहते थे। राजेन्द्र यादव ने हिंदी साहित्य के स्त्री विमर्श को देह विमर्श के वृत्त में समेट दिया था। उस वृत्त की परिधि को क्रांतिवीर लेखिकाएं अब भी नहीं तोड़ पाई हैं। बल्कि अब तो स्त्री विमर्श के उस वृत्त के अंदर अज्ञान का भी प्रवेश हो गया है। ऐसी राय बनने के पीछे एक दो नहीं कई साहित्यिक गोष्ठियों का अनुभव है। कई लेखिकाएं वामपंथी विचार से अपनी करीबी प्रदर्शित करती रहती हैं। इस प्रदर्शन के चक्कर में वो भारतीय पौराणिक ग्रंथों के हवाले से स्त्रियों की चर्चा करती हैं।इस तरह की चर्चाओं में पौराणिक काल में भारतीय स्त्रियों की स्थिति पर आलोचनात्मक टिप्पणियां करती हैं। जब भी अवसर मिलता है तो गोष्ठियों में ऋगवेद से लेकर रामचरितमानस तक को उद्धृत कर डालती हैं। पौराणिक ग्रंथों से बगैर संदर्भ के एक दो पंक्तियां उठा लेती हैं। उन पंक्तियों के आधार पर उस समय के पूरे भारतीय समाज को स्त्री विरोधी और दकियानूसी साबित कर डालती हैं।
हाल ही में एक गोष्ठी में एक लेखिका ने बेहद क्रांतिकारी अंदाज में टेबल पर मुक्का मारते हुए ये साबित करने की कोशिश की कि ऋगवेद में स्त्रियों के बारे में आपत्तिजनक बातें हैं। इस सबंध में उन्होंने ऋगवेद के पुरुरवा- उर्वशी संवाद से एक पंक्ति बताई। उसमें उर्वशी कहती है कि ‘स्त्रियों से स्थायी मैत्री होना संभव नहीं है। स्त्रियों का ह्रदय भेड़िए के समान होता है।‘ ये बताते हुए उन्होंने कई बार मेज पर मुक्का मारा। जब वो बोल रही थीं तो मुझे भारतीय जनता पार्टी के नेता स्वर्गीय अरुण जेटली का राज्यसभा में दिया एक भाषण याद आ रहा था। जेटली ने कहा था, इफ यू हैव द फैक्ट, बैंग द फैक्ट, इफ यू डू नाट हैव द फैक्ट, बैंग द टेबल (अगर आपके पास तथ्य हैं तो तथ्य पर जोर दो और अगर तथ्य नहीं है तो टेबल पीटो)। ऋगवेद के आधार पर वैदिक काल में महिलाओं की स्थिति पर बोलनेवाली लेखिका के पास तथ्य नहीं था लिहाजा वो टेबल पर मुक्का मारकर अपने कहे को प्रभावी बनाना चाह रही थीं। दरअसल ये वामपंथियों की पुरानी प्रविधि है कि भारतीयता और सनातन धर्म को बदनाम करो। इसके लिए वो पौराणिक ग्रंथों से संदर्भों के बिना पंक्तियां उद्धृत करके भ्रम का वातावरण बनाते रहे हैं। यही काम तुलसीदास के साथ किया गया, यही काम वेद और पुरणों के अलावा स्मृतियों के साथ भी किया। ऋगवेद में जिस पुरुरवा-उर्वशी संवाद की उपरोक्त बातें कही गई उसका प्रसंग भी जानना समझना होगा। प्रसंग ये है कि जब उर्वशी, पुरुरवा से पीछा छुड़ाना चाहती है तो वो स्वयं ही स्त्रियों के स्वभाव की निंदा करती है। उसको लगता है कि ऐसा करने से उसको लाभ होगा। बगैर इस संदर्भ को समझे और समग्रता में श्रोताओं के सामने रखे क्रांतिकारी लेखिकाएं यहां तक कह देती हैं कि वैदिक काल में स्त्रियों की तुलना भेड़िए से की जाती थी, जो आपत्तिजनक है। इसी तरह स्मरण आता है दिल्ली की एक गोष्ठी में वामपंथी लेखिका ने राम की इस वजह से आलोचना की थी कि उन्होंने सीता को गर्भवती होने के बावजूद घर से निकाल दिया था। जब मैंने उनसे पूछा था कि ऐसा कहां उल्लिखित है तो उन्होंने बहुत ताव के साथ मुझे श्रीरामचरितमानस पढ़ने की सलाह दी थी। उस वक्त उनको बता नहीं पाया था कि श्रीरामचरितमानस श्रीराम के राज्याभिषेक के साथ खत्म हो जाता है। उसमें ये प्रसंग है ही नहीं।
वेदों को बिना पढ़े, उनको बिना समझे, उनमें वर्णित पंक्तियों को संदर्भ से काट कर किसी निर्णय पर पहुंचनेवालों को ये देखना चाहिए कि वेदों में महिलाओं को कितना उच्च स्थान दिया गया है। ऋगवेद में तो कन्या, पत्नी और माता के रूप में नारी का समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान था। विश्ववारा, घोषा, अपाला, लोपामुद्रा जैसी तेजस्वी नारियों का वर्णन ऋगवेद में मिलता है। ऋगवेद में विवाह योग्य कन्या की तुलना सूर्य के प्रकाश से की गई है, जो कि अपने आप में यह बताने के लिए काफी है कि लड़कियों का कितना सम्मान था । उनको कितने उच्च स्थान पर रखा जाता था। विवाह के बाद जब लड़की ससुराल आती थी तो उसको गृह स्वामिनी का अधिकार दिया जाता था। उसका अधिकार सिर्फ पति पर नहीं बल्कि घर से जुड़ी हर चीज पर होता था। वह सभी धार्मिक कार्यों में पति के साथ बराबरी से भाग लेती थी। उस काल में भी पुरुष का एक विवाह आदर्श माना जाता था और परस्त्री गमन को पाप समझा जाता था। माता का स्थान समाज में बेहद प्रतिष्ठित था। देवताओं की जननी के तौर पर पृथ्वी को रखा गया है और पृथ्वी को माता कहा गया है। पृथ्वी माता की उदारता और सहिष्णुता से जुड़े प्रसंग पौराणिक ग्रंथों में बहुतायत में मिलते हैं। माता रूपी इस प्रतीक को स्त्री विमर्श की क्रांतिकारी झंडाबरदार समझ पाएंगी या समझकर भी न समझने का स्वांग करेंगी यह कहना कठिन है।
भारतीय समाज में सनातन काल से स्त्रियों का बहुत ही श्रेष्ठ स्थान रहा है और वो पुरुषों के साथ बराबरी का अधिकार रखती थीं। जब हमारे देश पर विदेशी आक्रांताओं का आक्रमण हुआ तो उन्होंने न सिर्फ भारत की भौगोलिक भूमि पर कब्जा जमाया बल्कि संस्कृति और समाज को प्रभावित किया। विदेशी आक्रांताओं के प्रभाव में या उनके भय का असर ये हुआ कि महिलाएं पर्दा करने लगीं, शिक्षा से दूर हो गईं, पुरुषों से बराबरी का अधिकार खत्म सा होने लगा। मुगलों के शासनकाल में भारत की महिलाओं को उनके अधिकार से वंचित किया जाने लगा। अंग्रेजों के काल में भी ये जारी रहा। ऐसे कई उदाहरण हैं कि जब किसी राजघराने में पुरुष वारिस नहीं होता था तो अंग्रेज उस राज पर कब्जा कर लेते थे। भारतीय समाज में महिलाओं को गैरबराबरी का दर्जा आक्रांताओं के काल में ही आरंभ होकर स्थापित होता है। स्त्री विमर्श का झंडा उठानेवाली अधिकतर लेखिकाएं इस बात का न तो उल्लेख करती हैं और न ही इसको रेखांकित करती हैं। आवश्यकता इस बात की है कि स्त्री विमर्श पर जब भी बात हो तो कथित क्रांतिकारिता के साथ साथ अपनी विरासत और परंपराओं पर भी बात हो। उन अधिकारों की भी चर्चा हो जो हमारे देश की नारियों को आक्रांताओं के भारत आगमन के पूर्व मिला हुआ था। अगर ऐसा होता है तो भारतीय स्त्री विमर्श पश्चिम के स्त्री विमर्श से अलग नजर आएगा। देह विमर्श के वृत्त से बाहर निकलकर स्त्रियों के मूल अधिकारों की ओर समाज का ध्यान आकर्षित हो पाएगा। वामपंथी या वामपंथी दिखने की कोशिश में लगी लेखिकाओं को अब सत्य का संधान करना चाहिए ताकि स्त्री विमर्श का एक समग्र रूप समाज के सामने आ पाए।
2 comments:
स्त्री ही प्रकृति है
हिन्दू होकर भी सनातन को बदनाम करने की बात सिर्फ वामपंथी ही कर सकते हैं। ये लेखक, विचारक, आलोचक का तमगा ओढ़े फिरते हैं। अन्य धर्मों के कुरीतियों पर इनके कलम और जिह्वा से एक शब्द भी नहीं निकलता।
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