गुलाम नबी आजाद के मुतिबक कश्मीर की आबादी पहले हिंदू थी जो बाद में इस्लाम स्वीकार करके मुसलमान बन गई। आजाद के इस बयान को दो हिस्से में बांट कर देखा जाना चाहिए। पहला ये कि कश्मीर की अधिसंख्यक आबादी पहले हिंदू थी और दूसरी ये कि बाद में उन्होंने अपना धर्म बदल दिया और वो मुसलमान हो गए। ऐसा नहीं है कि आजाद ने कोई नई बात कही है या कोई नया अन्वेषण कर खुलासा किया है। आजाद ने जिस बात को स्वीकार किया है जो हमारे पौराणिक ग्रंथों में तो है ही कई आधुनिक इतिहासकार और लेखक भी इस बात को लगातार कह रहे हैं। ये अवश्य है कि इन ऐतिहासिक तथ्यों को प्रचारित नहीं किया गया। पाठ्य पुस्तकों में छात्रों को इस बात को पढाया नहीं गया। ये विषय सेमिनारों में विमर्श का विषय नहीं बन पाए। उल्टे कश्मीर के बारे में जो बताया जाता रहा है वो अर्धसत्य रहा है। अभी हाल ही में कुमार निर्मलेन्दु की कश्मीर पर एक पुस्तक आई है जिसका नाम है ‘कश्मीर इतिहास और परंपरा’। इस पुस्तक में लेखक ने बेहद स्पष्ट तरीके से सप्रमाण ये बताया है कि कश्मीरी हिंदूओं को कैसे मुसलमान बनाया गया। निर्मलेन्दु ने लिखा है कि ‘1339 ई. तक कश्मीर एक स्वशासित हिंदू राज्य था। परन्तु मध्यकालीन हिंदू शासकों की दुर्बलता और उनके सामंतों के षडयंत्रों के कारण वहां अराजकता का वातावरण पैदा हो गया। इस स्थिति का लाभ उठाते हुए 1939 में शाहमीर नाम के एक मुसलमान ने कश्मीर के राजसिंहासन पर कब्जा कर लिया।‘ शाहमीर के पूर्वज काम की तलाश में कश्मीरआए थे । शाहमीर को राजा उदयन देव के समय में राजदरबार में नौकरी मिली थी। राजा उदयन देव के निधन के बाद उनकी पत्नी कोटा देवी के सत्ता की बागडोर संभालने का जिक्र इतिहास की पुस्तकों में मिलता है। उस समय तक शाहमीर राज दरबार में प्रमुख पद पर पहुंच चुका था उसने वहां की सेना में भी अपनी पैठ बना ली थी और एक दिन उसने रानी कोटा को चुनौती दी। रानी कोटा ने उसके साथ युद्ध किया लेकिन शाहमीर ने उनको हराकर बंदी बना लिया और खुद को कश्मीर का राजा घोषित कर दिया। निर्मलेन्दु लिखते हैं कि, ‘शाहमीर द्वारा प्रवर्तित राजवंश का छठा सुल्तान सिकंदर बहुत ही अत्याचारी और धर्मान्ध था। उसके अत्याचारों ने अधिकांश हिंदू जनता को मुसलमान बनने को विवश कर दिया। अनेक हिंदू कश्मीर छोड़कर चले गए और जो रह गए उनपर जजिया कर लगाया गया। तत्कालीन कश्मीरी हिंदुओं का जीवन बहुत कष्टप्रद रहा। मंदिरों और मूर्तियों का वह ऐसा शत्रु था कि उसका नाम ही बुतशिकन (मूर्तिभंजक) पड़ गया था।… उसने परिहासपुर के विशाल मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। जैन राजतरंगिणी में भी इस बात का जिक्र मिलता है कि कट्टर मुसलमानों से प्रेरित होकर सुल्तान सिकंदर ने सभी संस्कृत ग्रंथों को जलाकर भस्म कर दिया था। उस समय मुसलमानों के उपद्रव से आतंकित होकर धर्मपरायण हिंदू अपने पवित्र ग्रंथों को लेकर कश्मीर से पलायन कर गए थे।‘
ऐसा नहीं है कि कश्मीर की सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों में बदलाव का उल्लेख सिर्फ निर्मलेन्दु की पुस्तक में मिलता है। इस तरह की बातों का उल्लेख कल्हण की राजतरंगिणी, जैन राजतरंगिणी से लेकर विदेशी यात्रियों के लेखन में भी उपलब्ध है। जैन और बौद्ध साहित्य में भी कश्मीर और वहां बदल रही सामाजिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों और उसके बदले जाने का उल्लेख मिलता है। कालांतर में जब कश्मीर को अकबर ने अपने साम्राज्य का हिस्सा बना लिया तो उसके बाद से ही वहां योजनाबद्ध तरीके से वहां के समाज और संस्कृति को इस्लामिक संस्कृति से जोड़ने का अङियान आरंभ हुआ। ये अकारण नहीं है कि जो कश्मीर वैदिक धर्म का प्रमुख स्थान था। जहां शारदा पीठ जैसा विद्या अध्ययन का प्रमुख केंद्र था जहां देशभर के विद्वान जुटते थे और अपनी रचनाओं पर विमर्श करते थे। जिनकी अपनी की लिपि थी। जिसको शारदा लिपि के नाम से जानते हैं। कई दुर्लभ पांडुलिपियां शारदा लिपि में में हैं। अब के जम्मू कश्मीर से लेकर हिमाचल प्रदेश में मौजूद कई शिलालेखों पर शारदा लिपि में ही संदेश उकेरा हुआ मिलता है। कश्मीर एक ऐसा भौगोलिक प्रदेश रहा है जहां की धरती पर एक से एक विद्वान पैदा हुए जिन्होंने अपनी रचनाओं से भारतीय सनातन संस्कृति को समृद्ध किया। अभिनवगुप्त, भामह और मम्मट जैसे उच्च कोटि के लेखकों का नाम लिया जा सकता है। यह सूची बहुत लंबी है। जहां से शंकराचार्य का गहरा नाता रहा है। जहां शैव, वैष्णव दर्शन को मजबूती मिली, जहां कई भव्य और दिव्य मंदिर थे। वहां से जब हिंदुओं का पलायन होता है तो उसपर बहस तो होनी ही चाहिए। उन बातों की पड़ताल और उसका प्रचार भी होना चाहिए कि किन परिस्थितियों में कश्मीर जैसे ज्ञान का केंद्र, सनातन धर्म का प्रमुख केंद्र आज आतंकवाद और विवाद से घिर गया है।
विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को फिल्म और उसकी सफलता, दो सौ करोड़ से अधिक की कमाई आदि के प्रिज्म से नहीं देखकर उसको इस तरह से देखा जाना चाहिए कि इस फिल्म ने इतिहास के एक विस्मृत पन्ने को पढ़ने की उत्सुकता जगा दी है। क्या देश के हिंदुओं को ये जानने का अधिकार नहीं है कि उसका इतिहास क्या रहा है, क्या उनको ये जानने का अधिकार नहीं है कि वैदिक धर्म की ज्ञान परंपरा कैसी रही है, क्या उनको ये जानने का अधिकार नहीं है कि किन लोगों और परिस्थियों ने हिंदुओं की इस समृद्ध विरासत को पूरी तरह से बदल दिया। फिल्म द कश्मीर फाइल्स ने तो एक कालखंड में कश्मीर से हिंदुओं के पलायन और नरसंहार को दिखाकर एक शुरुआत की है। क्या अब वक्त नहीं आ गया है कि शाहमीर के दौर में हिंदुओं पर हुए अत्याचार को सामने लाया जाय, उस समय हिंदुओं के पलायन पर बात हो। आजादी पूर्व शेख अब्दुल्ला के कार्यों को लेकर नए सिरे से तथ्यों की खोजबीन की जाए। क्योंकि अगर हम इतिहास के साथ छल करते हैं तो देश का अहित करते हैं।