बिहार के मुंगेर-जमालपुर-भागलपुर क्षेत्र में एक पौधा होता है जिसे उरकुस्सी कहते हैं। उस पौधे का पत्ता अगर शरीर के किसी हिस्से को छू जाए तो काफी देर तक खुजली होती रहती है। उस अंचल में कई बार उरकुस्सी के पत्ते का उपयोग बारात में आए नखरेबाज अतिथियों को ठीक करने में किया जाता है। जब बारात दुल्हन के घर की ओर जा रही होती है तो कन्या पक्ष का कोई व्यक्ति चुपके से नखरेबाज व्यक्ति के शरीर के किसी हिस्से से उरकुस्सी का पत्ता छुआ देता है। उसके बाद शरीर के उस हिस्से में होनेवाली खुजली से वो इस कदर परेशान हो जाता है कि सारे नखरे भूल जाता है। उरकुस्सी का असर काफी देर तक रहता है। देश के अलग-अलग अंचल में इस पौधे को अलग-अलग नाम से जानते हैं। कुछ राज्यों में इसको झुनझुनिया कहते हैं तो कहीं बिछुआ पत्ती या बिच्छू बूटी कहते हैं । हिमाचल प्रदेश में इसको ऐण के नाम से जाना जाता है। विवेक अग्निहोत्री की फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ की रिलीज के बाद उरकुस्सी के पौधे और उसके पत्ते की याद आ रही है। इस फिल्म के रिलीज होने के बाद अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के कथित झंडाबरदारों या फिर समाजिक समरसता की पैरोकारी का दंभ भरनेवालों की प्रतिक्रिया देखकर लग रहा है कि किसी ने उनको उरकुस्सी का पत्ता छुआ दिया है। खुद को लिबरल जमात कहने वाले ये लोग ‘द कश्मीर फाइल्स’ रूपी उरकुस्सी के पत्ते से होनेवाली खुजली से परेशान हैं। इस फिल्म की सफलता ने उनकी परेशानी और बढ़ा दी है।
उरकुस्सी का ये रूपक फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ को लेकर वितंडा खड़ा करनेवालों पर एकदम फिट बैठ रहा है। प्रतीत हो रहा है कि ‘द कश्मीर फाइल्स’ रूपी उरकुस्सी या बिच्छू बूटी के पत्ते को किसी ने इकोसिस्टम को छुआ दिया है और इकोसिस्टम खुजली से परेशान है। ‘द कश्मीर फाइल्स’ से पैदा हुई खुजली से परेशान कुछ लोग इस फिल्म को नफरत फैलाने वाला करार दे रहे हैं। कुछ इसमें तथ्यों की कमी ढूंढ रहे हैं। समग्रता में बात नहीं हो रही है। इस फिल्म की सफलता के बाद कुछ लोग अपने माथे पर इतिहासकार की कलगी लगाकर मैदान में उतर आए हैं। खुद को कश्मीर विशेषज्ञ मानने वाले भी परिदृश्य पर अवतरित हो गए हैं। इन कथित इतिहासकारों और विशेषज्ञों ने फिल्म के कई तथ्यों पर सवाल खड़ा करना आरंभ कर दिया है। फिल्म के व्याकरण पर बात नहीं करके उसके दृश्यों और प्रसंगों पर प्रश्नचिन्ह लगाया जा रहा है। ये बात समझ नहीं पा रहे हैं कि सफल फिल्म वही होती है जो दर्शकों के मन को छू ले। ‘द कश्मीर फाइल्स’ पूरे देश के लोगों के मन को छू रही है। दर्शकों के साथ अपना कनेक्ट बना रही है। इस फिल्म में तथ्य और घटनाओं और संवाद में सत्य ढूंढनेवाले लोग पूर्व में बनी फिल्मों के एकतरफा संवाद, दृश्य और फिल्मांकन को लेकर हमेशा से अपने मुंह पर पट्टी लगाए रहे हैं।
फिल्मों पर सर्वश्रेष्ठ लेखन के लिए राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित लेखक विनोद अनुपम ने अपनी फेसबुक पोस्ट में लिखा- ‘माचिस’ में गुलजार भाई साहब ने आतंकवादियों की वकालत करते हुए लिखा, आतंकवादी खेतों में नहीं उगते। ‘फना’ में यश चोपड़ा जी ने कश्मीर में जनमत संग्रह के वादे की याद दिलाई। ‘हैदर’ में विशाल भाई कहते हैं, यह डेमोक्रेसी नहीं, दम घोंटनेवाला क्रेसी है(तंत्र) है। ‘फिजा’, ‘मिशन कश्मीर’....लिस्ट लंबी है। तबतक ‘द कश्मीर फाइल्स’ देख लीजिए और फिर पक्षधरता तय कीजिए।‘ विनोद अनुपम की बात में दम तो है। उनकी इस छोटी टिप्पणी ने कई फिल्मकारों और उनसे जुड़े ईकोसिस्टम की कमजोर नस दबा दी है। फिल्म फना में आतंकवाद को प्रेम का आवरण देकर एक खूबसूरत रंग देने की कोशिश की गई थी। फिल्म की कहानी याद कीजिए कि कैसे आतंकवादियों के मनोविज्ञान के विश्लेषण को आधार बनाकर परोक्ष रूप से कश्मीर के आतंकवाद को आजादी की लड़ाई कहा गया था। फराह खान की फिल्म ‘मैं हूं ना’ के संवाद पर एकाध लोगों ने ही सवाल उठाया था। उस फिल्म में भारतीय सेना के एक अधिकारी को बेहद क्रूर दिखाया गया है। वो अधिकारी भारत की सीमा में पानी लेने के लिए आए सामान्य पाकिस्तानी नागरिकों को पंक्तिबद्ध कर गोली मार देता है। बच्चों को भी नहीं छोड़ता। काल्पनिक कहानी के आधार पर भारतीय सेना की छवि खराब करने की कोशिश का उदाहरण। फिल्म के अंतिम कुछ मिनटों के संवाद में पाकिस्तानियों का महिमामंडन भी चकित करनेवाला था। इकोसिस्टम चुप रहा।
ये तो कुछ वर्ष पहले की फिल्मों की बात हुई। हाल में भी ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म पर कुछ वेब सीरीज ऐसी आईं जिनमें खुलकर हिन्दू मुसलमान किया गया। हमारे देश की पुलिस को, व्यवस्था को खुलकर मुस्लिम विरोधी करार दिया गया लेकिन सब खामोश रहे। इन वेब सीरीज के संवाद तो देश की संवैधानिक व्यवस्था के खिलाफ एक संप्रदाय को उकसाने वाले भी थे। आज जिनको ‘द कश्मीर फाइल्स’ में नफरत दिखाई दे रही है वो गुजरात दंगों की पृष्ठभूमि पर बनी फिल्मों और डाक्यूमेंट्री को लेकर कभी उत्तेजित नहीं हुए। उनकी उत्तेजना कभी मुजफ्फरनगर दंगों पर बनी फिल्म को लेकर भी सामने नहीं आई। फिल्म ‘परजानिया’ के दृश्यों में या संवाद में या फिर नंदिता दास की फिल्म ‘फिराक’ के संवादों में किसी कथित इतिहासकार ने तथ्य खोजने और उसकी सत्यता को परखने की कोशिश नहीं की। क्यों? क्योंकि वो इकोसिस्टम के अनुसार है। 2002 के गुजरात दंगों का जिक्र उसके बाद बनी कई फिल्मों में आया। लगभग सभी समीक्षकों ने फिल्मों में दिखाई गई कहानियों को सच मानकर आंखें मूंद लीं। जो कुछ लोग बोलने की कोशिश करते दिखे उनको हाशिए पर डाल दिया गया। उन फिल्मों में से कुछ पर विवाद हुआ तो तर्क दिया गया कि फिल्म को कलात्मक अभिव्यक्ति मानकर ही देखा और परखा जाना चाहिए। अब उनमें से ही कई लोग ‘द कश्मीर फाइल्स’ में दिखाए कश्मीरी हिंदुओं के नरसंहार में तथ्य ढूंढ रहे हैं। तथ्य खोजने के चक्कर में सिर्फ ये प्रतिस्थापित करने की कोशिश की जा रही है कि आतंकवाद का कोई धर्म नहीं होता। नहीं होता होगा लेकिन कश्मीरी हिंदुओं के साथ जो हुआ उसमें तो स्पष्ट रूप से मजहब की आड़ ली गई थी।गिरिजा टिक्कू पर हुए अत्याचार को लोग भूले नहीं हैं। जिंदलाल कौल और जगन्नाथ की पेड़ से लटका कर एक एक करके अंगों को काटा गया था। इन वारदातों के चश्मदीद अभी जिंदा है। कश्मीर में हिंदुओ के नरसंहार को लेकर अन्य नैरेटिव स्थापित करना कठिन है। इन तथ्य खोजक इतिहासकारों को उन परिस्थियों पर विचार करना चाहिए जिसकी वजह से कश्मीर में हिंदुओं ने मानवता के इतिहास की क्रूरतम यातनाएं झेलीं। जम्मू कश्मीर के पूर्व पुलिस महानिदेशक एस पी वैद के मुताबिक राजनीतिक फैसले की वजह से आईएसआई से प्रशिक्षित 70 आतंकवादियों को पुलिस को छोड़ना पड़ा था। इस फैसले के असर का आकलन शेष है।
‘द कश्मीर फाइल्स’ पर फिल्म निर्माण की दृष्टि से विचार करते हैं तो पाते हैं कि ये फिल्म निर्माण के क्षेत्र में प्रस्थान बिंदु है। पिछले सालों में हिंदी फिल्मों की कहानियों के क्षितिज का विस्तार हुआ है। छोटे शहरों की कहानियों पर सफल फिल्में बनीं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता से हिंदी फिल्मों के निर्माताओं को उन प्रदेशों में प्रवेश का हौसला मिलेगा जिनमें घुसने से वो हिचकते थे। बहुत संभव है कि स्वाधीन भारत की अन्य घटनाओं जैसे पंजाब समस्या और उसका समाधान, पूर्वोत्तर में आतंकवाद, दिल्ली में हुए सिखों के नरसंहार पर फिल्में बनाने के लिए निर्माता आगे आएं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ की सफलता से हिंदी फिल्मों की कहानियों का क्षेत्र विस्तार होगा और दर्शकों के सामने विकल्प की विविधता होगी।
8 comments:
बहुत अच्छा लेख। किंतु लगता है कुछ नामों में वर्तनी की गलतियां हो गयी हैं। गिरिजा टिक्कू की जगह गीतिका टिक्कू लिख गया है। सर्वानंद को जिंदलाल लिख गया है। कृपया ठीक कर लें।
बहुत बढ़िया लिखा आपने। मैं ऐसे ही किसी लेख की प्रतीक्षा कर रही थी। तथाकथित लिबरल्स तो अपने हाथों में ठप्पे लेकर बैठे हैं। वह विचारधारा कैसी है जो सत्य को सत्य की तरह नहीं देखती।
बहुत बढ़िया लिखा आपने। मैं ऐसे ही किसी लेख की प्रतीक्षा कर रही थी। तथाकथित लिबरल्स तो अपने हाथों में ठप्पे लेकर बैठे हैं। वह विचारधारा कैसी है जो सत्य को सत्य की तरह नहीं देखती।
बहुत बढ़िया लिखा आपने। मैं ऐसे ही किसी लेख की प्रतीक्षा कर रही थी। तथाकथित लिबरल्स तो अपने हाथों में ठप्पे लेकर बैठे हैं। वह विचारधारा कैसी है जो सत्य को सत्य की तरह नहीं देखती।
Excellent writing..
बहुत अच्छा लिखा आपने। अकाट्य है।
बहुत अच्छा। अकाट्य लिखा है। बधाई
हमारे यहां जौनपुर मे कवांच बोलते है लेकिन यह पत्ता नही बीज होता है ।
हालांकि उपमा बहुत सटीक किया है आपने
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