Translate

Saturday, March 12, 2022

प्रश्नों के घेरे में लेखक प्रकाशक संबंध


हिंदी साहित्य में इन दिनों एक बार फिर से विनोद कुमार शुक्ल की चर्चा हो रही है। चर्चा उनकी किसी कृति को लेकर नहीं बल्कि उनके एक बयान को लेकर हो रही है। इंटरनेट मीडिया पर वायरल एक वीडियो में वो अपनी पुस्तकों के प्रकाशकों से नाराजगी व्यक्त कर रहे हैं। उनको इस बात का मलाल है कि उनके प्रकाशकों ने उनकी पुस्तकों पर रायल्टी कम दी या रायल्टी देने में गड़बड़ी की। इस वीडियो के पहले फिल्मों से जुड़े मानव कौल ने विनोद कुमार शुक्ल को मिलनेवाली रायल्टी के बारे में लिखा था। विनोद कुमार शुक्ल की आयु 85 वर्ष से अधिक हो रही है। इस उम्र में उन्होंने रायल्टी का मुद्दा उठाया, अच्छी बात है। उनकी पुस्तकों के प्रकाशकों, राजकमल और वाणी प्रकाशन, ने भी अपना पक्ष सार्वजनिक रूप से सामने रखा। इन दोनों प्रकाशकों के प्रमुखों ने विनोद जी को सम्मानित लेखक बताया और उनको समय पर रायल्टी देने की बात कही। 1990 के बाद के वर्षों में विनोद कुमार शुक्ल को लेकर अशोक वाजपेयी और उनकी मंडली के लोग खूब चर्चा करते थे। 1994 में अशोक वाजपेयी को जब संस्कृति मंत्रालय में संयुक्त सचिव रहते साहित्य अकादमी पुरस्कार मिल गया तो उनकी मंडली ने विनोद कुमार शुक्ल के पक्ष में माहौल बनाना आरंभ किया था। उस वक्त साहित्य जगत में ये चर्चा हुई थी कि कवि विष्णु खरे ने विनोद कुमार शुक्ल के उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का प्रकाशन अरुण माहेश्वरी से बात करके वाणी प्रकाशन से करवाया था। चर्चा तो इस बात की भी हुई थी कि वाणी प्रकाशन ने उपन्यास लेखक को अग्रिम भुगतान किया था। विनोद जी हिंदी के प्रतिष्ठित लेखक हैं। उनकी बात को हिंदी जगत में गंभीरता से लिया जाता है। उन्होंने रायल्टी का मसला छेड़ा है तो उनको ये भी बताना चाहिए कि ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का अनुबंध कब हुआ था और उसकी शर्तें क्या थीं। क्या पुस्तक प्रकाशन के पहले अनुबंध हुआ था या प्रकाशन के बाद, आदि। 

1997 में विनोद कुमार की पुस्तक ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का प्रकाशन हुआ और दो वर्षों के बाद 1999 में इस पुस्तक पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला। अकादमी पुरस्कार के बाद विनोद जी की पुस्तकों की बिक्री बढ़ी होगी, ऐसा अनुमान लगाया जा सकता है। श्रद्धा से मुक्त होकर विचार करना होगा कि क्या विनोद कुमार शुक्ल की पुस्तकें अब भी उतनी ही संख्या में बिकती हैं जितनी बीस वर्ष पहले बिका करती थीं। कोई भी पुस्तक अपने प्रकाशन के दो तीन वर्षों तक अधिक संख्या में बिकती है और उसके बाद धीरे धीरे उसकी बिक्री कम हो जाती है। विनोद कुमार शुक्ल की पुस्तकें इसका अपवाद नहीं हो सकती हैं। किंडल आदि पर तो बिक्री का आंकड़ा पारदर्शी होता है। उसमें तो किसी भी तरह की गड़बड़ी की भी नहीं जा सकती। जितना डाउनलोड होगा उतनी संख्या पता चल जाएगी।  हिंदी साहित्य में इन दिनों एक चिंताजनक प्रवृत्ति देखने को मिल रही है, वो ये कि साहित्य से जुड़े कुछ लोग साहित्यिक मसलों का फेसबुक पर फौरी हल चाहते हैं। इस मामले में भी ऐसा ही  देखने को मिल रहा है। जिनको प्रकाशन जगत की बारीकियों का कुछ भी नहीं पता वो भी क्रांति की पताका लेकर फेसबुक पर विनोद कुमार शुक्ल के पक्ष में नारेबाजी कर रहे हैं। जबकि इस पूरे मसले को समग्रता में देखे जाने की जरूरत है। इस पर विचार करने की भी आवश्यकता है कि विनोद कुमार शुक्ल जैसे सम्मानित लेखक को इस उम्र में ऐसे सवाल क्यों उठाने पड़ रहे हैं। कुछ वर्षों पूर्व निर्मल वर्मा की पुस्तकों की रायल्टी को लेकर विवाद उठा था। निर्मल जी की पत्नी गगन गिल ने तो झुब्ध होकर प्रकाशक बदल दिया था। इन दो लेखकों के अलावा भी लेखकों और प्रकाशकों के बीच रायल्टी को लेकर विवाद होते रहते हैं। दरअसल हिंदी प्रकाशन जगत अनुबंध से अधिक संबंध के आधार पर चलते रहे हैं। पुस्तक प्रकाशन के समय कम ही लेखक अनुबंध पर जोर देते हैं और इससे भी कम लेखक अनुबंध की शर्तों को लेकर प्रकाशक से बातचीत करते हैं। लेखक का जोर तो पुस्तक के प्रकाशन को लेकर रहता है। हिंदी प्रकाशन में कोई मानक अनुबंध नहीं है, अलग अलग प्रकाशकों के अलग अलग अनुबंध पत्र हैं। 

स्वाधीन भारत में पहली बार रायल्टी को लेकर पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने टिप्पणी की थी। 13 मार्च 1954 को साहित्य अकादमी के तत्कालीन सचिव कृष्ण कृपलाणी को नेहरू ने एक पत्र लिखा था। उस पत्र में उन्होंने निराला जी की आर्थिक मदद की बात की। उसी पत्र में नेहरू ने लिखा था प्रकाशकों ने निराला की पुस्तकें बेचकर काफी मुनाफा कमाया लेकिन निराला को बहुत कम राशि मिली। नेहरू ने इसको प्रकाशकों के लेखक के शोषण का शर्मनाक मसला बताया था। उन्होंने अकादमी से कापीराइट एक्ट में बदलाव को लेकर गंभीरता से काम करने की सलाह भी दी थी। कापीराइट एक्ट में बदलाव तो हुए लेकिन रायल्टी का मसला नहीं सुलझ पाया। नेहरू के कालखंड में भी और उसके बाद भी जो लोग साहित्य की दुनिया में प्रभावशाली रहे उन्होंने लेखक प्रकाशक संबंध को लेकर कोई काम नहीं किया। अगर किया होता तो आज विनोद कुमार शुक्ल को ये सब कहने की जरूरत नहीं पड़ती। एक विशेष कालखंड में हिंदी में लेखक संघ प्रभावी रहे हैं। प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ, जन संस्कृति मंच जैसे वाम विचार वाले लेखक संगठनों ने रायल्टी के मुद्दे पर कोई गंभीर पहल तो दूर की बात गंभीर मंथन भी नहीं किया। नामवर सिंह प्रगतिशील लेखक संघ से लंबे समय से जुड़े रहे और वो राजकमल प्रकाशन के भी सलाहकार रहे लेकिन लेखक-प्रकाशक अनुबंध के मानकीकरण की दिशा में कोई काम नहीं किया। साहित्य अकादमी में भी नामवर सिंह और उनके खेमे के लेखकों का दबदबा रहा लेकिन रायल्टी का मसला वहां भी दबा ही रहा। बात बात पर अपील जारी करनेवाले लेखकों ने भी कभी रायल्टी के मुद्दे को अपने एजेंडे में शामिल नहीं किया। कश्मीर समस्या से लेकर साप्रदायिकता पर लेखकों को एकजुट करने का दावा करनेवाले अशोक वाजपेयी ने भी रायल्टी के मसले पर कोई पहल की हो, ऐसा याद नहीं पड़ता। वामपंथी लेखकों ने भी लेखकीय अधिकार के लिए कभी एकजुट होकर आवाज नहीं उठाई। वामपंथी लेखकों ने प्रकाशकों के साथ मिलकर स्वयं का स्वार्थ साधा और खामोश रहे। 

विनोद कुमार शुक्ल ने अगर अपनी लोकप्रियता के कालखंड में रायल्टी का प्रश्न उठाया होता तो ज्यादा असरदार होता। वाणी प्रकाशन और राजकमल प्रकाशन के बयानों को देखें तो उसमें विनोद कुमार शुक्ल को ज्यादातर समय अग्रिम भुगतान ही होता रहा है। फेसबुक के क्रांतिवीरों को भी ये देखना चाहिए और इसपर भी सवाल खड़े करने चाहिए। आज आवश्यकता इस बात की है कि रायल्टी के मुद्दे पर ठोस और सकारात्मक पहल हो। लेखकों और प्रकाशकों को अनुबंध के मानकीकरण की दिशा में काम करना होगा। रायल्टी ठीक से और समय पर मिले इसके लिए एक ऐसा तंत्र विकसित करना होगा जिसमें किसी तरह की शंका की गुंजाइश न रहे। पुस्तकों की बिक्री के आंकड़ों का रिकार्ड रखने के लिए भी एक पारदर्शी तंत्र बनाना होगा। लेखकों को भी पुस्तक प्रकाशन के पहले अनुबंध को ध्यान से देखना चाहिए। ‘किसी तरह पुस्तक छप जाए’ की मानसिकता से बाहर निकलना होगा। प्रकाशकों को भी खुले दिल से लेखकों के साथ बैठकर इस समस्या को दूर करना चाहिए। कोरोनाकाल में प्रकाशन जगत संकट के दौर से गुजर रहा है। लेखकों और प्रकाशकों को रायल्टी के साथ साथ पुस्तको की बिक्री बढ़ाने के उपायों पर भी संयुक्त रूप से विचार करना चाहिए। 

4 comments:

girish pankaj said...

बढिया लिखा। बधाई।

भूपेन्द्र भारतीय said...

अच्छा विषय उठाया आपने, अभी अखबार में आपका आलेख पढ़ा। दो दिन से मैं भी विचार कर रहा था कि इस मुद्दे पर कुछ लिखू। लेकिन आपने अपने आलेख के माध्यम से मेरी अधिकांश बातें कह दी।
हाँ आपने कुछ बातें नहीं कहीं, जैसे
प्रकाशकों का नवोदित लेखकों से पुस्तक प्रकाशन के लिए खुलेआम राशि मांगना पुस्तक छापने के लिए। वही जब भी लेखक अनुबंध की बात करता है तो प्रकाशक उससे बचते हैं। हर युवा अपनी पहली या दूसरी किताब छपाने के लिए राशि नहीं दे सकता है। इस मुद्दे पर भी विचार होना चाहिए। बाकी सारे बातें आपने बहुत अच्छी उठाई। सरकार को इस विषय पर ठोस कानून के साथ पारदर्शी व्यवस्था बनाना चाहिए।
खैर इस पर लेखक को भी जागरूक व सर्तक रहना चाहिए। वहीं सरकार की भाषा व साहित्यिक संस्थाओ को इस ओर ध्यान देना व मुखर होना होगा।
आपका आलेख लेखकों के लिए महत्वपूर्ण बधाई सर🌻

डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल said...

प्रिय अनंत जी, आपने बहुत सारी सही बातें कही हैं. मेरा निवेदन है कि जब हम प्रकाशन तंत्र की बारीकियों और उसकी जटिताओं की बात करें तो अमूर्तन को छोड़ सीधे-सीधे बताना चाहिए कि क्या दिक्कतें हैं. दूसरी बात यह कि माना वाम संगठनों ने इस दिशा में कुछ नहीं किया. यह भी बताया जाना चाहिए कि ग़ैर वाम संगठनों ने क्या क्या कर दिया है. तभी बात पूरी होगी.

सीमा घोष said...

नमस्कार सर।
सही मुद्दा है यह।टेक्नोलॉजी के इस दौर में बिक्री के आंकड़ों का रिकॉर्ड रखने कोई सॉफ्टवेयर develop होना चाहिए जिसका एक्सेस लेखक प्रकाशक दोनो के पास हो।मेहनत के साथ न्याय हो इस बात का जरूर ध्यान रखना चाहिए।