पिछले दिनों मुंबई जाने का अवसर मिला । महानगर के अलग अलग हिस्सों से गुजरते हुए सड़कों के नाम ने ध्यान आकृष्ट किया। मुंबई के बांद्रा इलाके से गुजरते हुए सबसे पहले नजर पड़ी एक विशाल पेड़ के नीचे बने चबूतरे पर। चबूतरा छोटे छोटे सफेद पत्थरों से सजा था। उन पत्थरों के बीच उगे पौधों के बीच कलात्मक तरीके से लिखी गई एक पट्टिका लगी थी। उस पर लिखा था बिमल राय पथ। स्थानीय लोगों ने बताया कि वहां पास ही में भारतीय फिल्मों के महानतम निर्देशकों में से एक बिमल राय का घर हुआ करता था। ये वही बिमल राय हैं जिन्होंने दो बीघा जमीन, मधुमती, देवदास जैसी कालजयी फिल्मों का निर्माण किया था। थोड़ा आगे बढ़ने पर ब्रांद्रा रिक्लमेशन के एक तिराहे पर मशहूर गजल गायक पद्मभूषण जगजीत सिंह का नाम दिखा। बताया गया कि उनकी पांचवीं पुण्यतिथि पर इस तिराहे को जगजीत सिंह की स्मृति में समर्पित किया गया। ब्रांद्रा के ही पाली हिल इलाके में अपने जमाने की मशहूर अभिनेत्री नरगिस दत्त के नाम भी एक सड़क दिखी। फिर तो मुंबई घूमते हुए सड़कों के नाम पर नजर जाने लगी। नरीमन प्वाइंट से उपनगरीय इलाकों की तरफ बढते हुए संगीतकार नौशाद अली मार्ग दिखा। सांताक्रूज इलाके में आर डी बर्मन और खार इलाके में एस डी बर्मन साहब के नाम की पट्टिका दिखी। जुहू इलाके में कैफी आजमी के नाम पर पार्क, हास्य कलाकार महमूद के नाम पर चौक, ख्वाजा अहमद अब्बास के नाम पर एक सड़क। ये सूची बहुत लंबी है। मुंबई में परिचितों ने बताया कि पूरे महानगर में कलाकारों, लेखकों के नाम पर सड़कों और चौराहों का नामकरण किया गया है। अब भी किया जाता है।
मुंबई में गीतकार, संगीतकार, गायक, अभिनेता, फिल्म निर्देशक आदि के नाम पर बनी सड़कों के नाम देखकर अचानक दिल्ली की सड़कों के नाम याद आने लगे। दिल्ली की सड़कों के नाम याद करने पर बाबर रोड, अकबर रोड, लोधी रोड, औरंगजेब लेन, तुगलक रोड, शेरशाह रोड, शाहजहां रोड, अशोक रोड, हुमांयू रोड, महात्मा गांधी मार्ग, इंदिरा चौक, राजीव गांधी चौक आदि का नाम जेहन में आता रहा। लेखकों आदि के नाम पर सड़कों के नाम याद करने की कोशिश करने लगा। सबसे पहले स्मरण हुआ तमिल लेखक कवि सुब्रह्मण्य भारती मार्ग का,अमृता शेरगिल मार्ग, रविशंकर लेन का फिर याद आया रूस के प्रसिद्ध लेखक टालस्टाय के नाम बनी सड़क का और हिंदी लेखिका दिनेश नंदिनी डालमिया मार्ग का। ढाई दशक से अधिक समय से दिल्ली में रहने के बावजूद याद नहीं पड़ता कि कहीं प्रेमचंद मार्ग हो, निराला मार्ग हो या भारतीय रंगमंच के दिग्गज इब्राहिम अल्काजी के नाम पर ही किसी सड़क का नाम हो। दिल्ली देश की राजधानी है, यहां तो पूरे देश के बड़े लेखकों, कलाकारों के नाम पर सड़कों के नाम होने चाहिए। दिल्ली में रवीन्द्र नाथ टैगोर के नाम पर कोई सड़क नहीं है लेकिन इजरायल के शहर तेल अवीव में टैगोर स्ट्रीट है। दिल्ली में तेलुगू के महान लेखक वी सत्यनारायण या मलयालम के महत्वपूर्ण लेखकों में से एक जी शंकर कुरुप के नाम पर भी कोई सड़क नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भूमिका निभानेवाले मध्यप्रदेश के माखनलाल चतुर्वेदी के नाम भी कोई मार्ग दिल्ली में नहीं है।
प्रश्न ये उठता है कि दिल्ली और मुंबई में ये अंतर क्यों है? दिल्ली अपने नायकों को लेकर इतनी उदासीन क्यों है और मुंबई अपने लेखकों और कलाकरों को लेकर इतना उदार क्यों है? इसके पीछे के कारणों को देखने पर ये प्रतीत होता है कि मुंबई मराठों की संस्कृति से प्रभावित रहा और दिल्ली मुगलों की संस्कृति के प्रभाव में रहा। मराठा राजाओं के शासनकाल के दौरान अपने कौशल या अपनी कला से समाज को प्रभावित करनेवालों को सम्मान देने की परंपरा रही है। पूरा समाज उनके प्रति एक ऋणभाव में रहता है। मुगलों के दरबार में भी कला और कलाकारों का सम्मान होता था लेकिन सर्वोच्च सम्मान बादशाह को ही मिलता था। मुगलिया शासन के दौरान इमारतों और स्मारकों के नाम भी बादशाह या बादशाह के परिवारवालों के नाम पर ही बनाए गए। भारत में मुगल सल्तनत की स्थापना भले ही जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर ने की लेकिन इस देश में मुगलों की सांस्कृतिक सत्ता का संस्थापक हुमांयू था। जब हुमांयू दूसरी बार दिल्ली की गद्दी पर बैठा तब उसने भारत में फारसी कलाओं को बढ़ाना आरंभ किया था। उसने फारसी वास्तुकला, चित्रकला, स्थापत्य कला को प्राथमिकता देकर भारतीय कलाजगत को नेपथ्य में धकेलने का कार्य किया। उसने इस कार्य के लिए फारस के वास्तुविद, चित्रकार आदि हिन्दुस्तान बुलाए थे। समय के साथ भले ही मुगल सल्तनत का अंत हो गया लेकिन जिस सांस्कृतिक सल्तनत की स्थापना हुमांयू ने की थी वो अब भी किसी न किसी रूप में कहीं न कहीं दिखता ही रहता है।
मेरे देश पर मुगलों ने तीन सौ साल से अधिक समय तक शासन किया। उसके बाद अंग्रजी राज स्थापित हुआ लेकिन उसका कालखंड मुगलों की तुलना में कम रहा। भारतीय समाज और संस्कृति को अंग्रेजों ने भी प्रभावित किया लेकिन जिस योजनाबद्ध तरीके से मुगलों ने यहां की संस्कृति को बदलने का कार्य किया वो अंग्रेज नहीं कर पाए। दिल्ली की संस्कृति बादशाहों और शासकों से प्रभावित रही। स्वाधीनता के बाद भी वही हाल रहा। पहले तो कई वर्षों तक सड़कों और इमारतों के नाम अंग्रेजों और मुगल शासकों के नाम पर रहे। स्वाधीनता के बाद जब सड़कों और इमारतों के नाम आदि बदलने आरंभ हुए तो नेताओं को ही प्राथमिकता मिली। नई दिल्ली का मंडी हाउस इलाका सांस्कृतिक केंद्र माना जाता है लेकिन वहीं पर पास में बाबर रोड है, बाबर लेन है। कलाकारों के नाम पर सिर्फ सफदर हाशमी और तानसेन मार्ग है। स्वाधीनता के अमृत महोत्सव वर्ष में दिल्ली के इस सांस्कृतिक इलाके के गोल चक्कर का नाम किसी भारतीय लेखक या कलाकार के नाम पर किया जाना चाहिए। बेहतर होता कि इंडिया गेट गोलचक्कर से निकलनेवाले मार्गों के नाम भी मुगल बादशाहों की जगह भारतीय समाज के नायकों के नाम पर रख पाते। यह अल्कपनीय है कि जिस बाबर ने हमें गुलाम बनाया, जिस हुमांयू ने हमारी संस्कृति को नष्ट करने का षडयंत्र रचा उन आततायियों के नामों को हम आज भी अपनी यादों में संजोए हुए हैं। जिस तरह से धीरे-धीरे अंग्रजों के नाम हटाकर सड़कों के नाम भारतीय नेताओं के नाम पर रखे गए उसी तरह से मुगलों के नाम पर बने सड़कों के नाम भारतीयों के नाम पर होने चाहिए। दरअसल मुगलों का नाम हटाने को लेकर राजनीति आरंभ हो जाती है और सरकारें बैकफुट पर आ जाती हैं। यह अनायास नहीं है कि दिल्ली में औरंगजेब रोड का नाम बदलकर ए पी जे अब्दुल कलाम तो कर दिया गया लेकिन औरंगजेब लेन का नाम नहीं बदला जा सका। केंद्र सरकार को सड़कों के नामकरण को लेकर एक स्पष्ट नीति बनानी चाहिए। एक ऐसी नीति जिसमें ये प्रविधान हो कि लेखकों और कलाकारों के नाम पर भी सड़कों के नाम रखे जा सकें। अगर हम आनेवाली पीढ़ियों को अपनी समृद्ध सांस्कृतिक विरासत सौंपना चाहते हैं तो सबसे पहले उनके मानस पर उन कला मनीषियों का नाम अंकित करना होगा। उसका सबसे आसान तरीका है सड़कों और इमारतों का नाम उनके नाम पर रखे जाएं। इससे हमारी सांस्कृतिक विरासत भी संरक्षित होगी और आततातियों के नाम भी धीरे-धीरे इतिहास की पुस्तकों में कैद होकर रह जाएंगे। लेखकों और कलाकारों के सम्मान की सस्कृति भी विकसित होगी।