मलयालम फिल्म के एक निर्देशक हैं अदूर गोपालकृष्णन। मलयालम में नई तरह की फिल्म बनाने को लेकर उनकी ख्याति रही है। कई राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार से सम्मानित हो चुके हैं। पद्मश्री और पद्मविभूषण से भी सम्मानित हैं। देश विदेश की फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं से किसी न किसी रूप में जुड़े रहे हैं। इंटरनेट मीडिया पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इमरजेंसी के दौर (1975-1977) में पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के निदेशक रह चुके हैं। फिल्मों से जुड़ी कई संस्थाओं की समितियों में भी लंबे समय तक रहे हैं। ये सब बताने का आशय ये है कि अदूर गोपालकृष्णन का फिल्मों से जुड़ी संस्थाओं के प्रशासन आदि का लंबा अनुभव है। कई बार होता है कि अनुभवों की थाती को लेकर चल रहा व्यक्ति समय के साथ आनेवाले बदलाव की आहट को भांप नहीं पाता है। अदूर गोपालकृष्णन के साथ भी यही होता प्रतीत हो रहा है। वो इन दिनों सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अलग अलग विभागों के पुनर्गठन के फैसले की आलोचना कर रहे हैं। उनको लगता है कि केंद्र सरकार का ये फैसला अनुचित है। उनका मानना है कि इन सभी संस्थाओं को वर्तमान स्वरूप में ही काम करने दिया जाए। दरअसल जब वो इस तरह की बात करते हैं तो ये स्पष्ट हो जाता है कि बदलते हुए समय को पहचान नहीं पा रहे हैं। मनोरंजन की दुनिया या उसके प्रशासन से जुड़े तौर-तरीके अब वो नहीं रहे जो उदारीकरण के पहले हुआ करते थे। उदारीकरण और अब महामारी के दौर के बाद मनोरंजन की दुनिया पूरी तरह बदल चुकी है। इस बदले हुए दौर को पहचानना और उसके हिसाब से कार्य करना सरकार का दायित्व है।
सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्मों से सबंधित कई ऐसे विभाग हैं जिनका गठन उदारीकरण के दौर के पहले हुआ था। फिल्म प्रभाग, बाल चित्र समिति (चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी), फिल्म समारोह निदेशालय, नेशनल फिल्म आर्काइव और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम। इनके गठन के समय की मांग के अनुसार इन विभागों के दायित्व तय किए गए थे। समय बदला, सिनेमा के व्याकरण से लेकर उसके तकनीक तक में आमूल चूल बदलाव आया। फिल्मों से संबंधित इन सरकारी संस्थाओं में अपेक्षित बदलाव नहीं हो पाया। समय के साथ नहीं चल पाने की वजह से इनमें से कई संस्थाएं अपने मूल उद्देश्यों से भटक गईं। एक ही काम कई संस्थाएं करने लग गईं। चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी, फिल्म समारोह निदेशालय और फिल्म प्रभाग अलग-अलग तरह से फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करते हैं। कोई संस्था बच्चों की फिल्मों का फेस्टिवल आयोजित करती है तो कोई फीचर फिल्मों और कोई शार्ट फिल्म और एनिमेशन को लेकर फिल्मोत्सव आयोजित करती हैं।देश में फिल्म संस्कृति के विकास और दूसरे देशों के साथ सांस्कृतिक आदान प्रदान का कार्यक्रम भी दो संस्थाएं चलाती हैं। फिल्म प्रभाग, चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी और राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम फिल्मों के निर्माण और उसके प्रोत्साहन का कार्य करती हैं। कहने का तात्पर्य ये है कि सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाले विभागों में कामों को लेकर दोहराव है। एक ही मंत्रालय के अलग अलग विभाग एक ही काम करते हैं, जिससे करदाताओं के पैसे का अपव्यय होता है।
अटल बिहारी वाजपेयी जब प्रधानमंत्री थे तब भारत सरकार की एक समिति ने इन संस्थाओं में युक्तिसंगत बदलाव की सिफारिश की थी। उस समय कोई ठोस निर्णय नहीं हो सका था। कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार के दस साल के कार्यकाल में यथास्थिति कायम रही। 2016 में नीति आयोग ने फिल्मों से जुड़ी इन संस्थाओं के क्रियाकलापों का अध्ययन कर उससे संबंधित सुझाव दिए थे। फिर एक समिति बनी। समिति ने सुझाव दिए। लेकिन अमल नहीं हो सका। अब सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर ने इन विभागों के पुनर्गठन के प्रस्ताव को स्वीकार कर इनके कार्यों को युक्तिसंगत बनाने का आदेश दिया है। इसी क्रम में 30 मार्च को फिल्म समारोह निदेशालय से भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव के आयोजन का काम लेकर फिल्म विकास निगम को सौप दिया गया है। अन्य विभागों को भी पुनर्गठित किया जा रहा है। अदूर गोपालकृष्णन का कहना है कि वो इन संस्थाओं से जुड़े होने की वजह से इनके कामकाज से परिचित हैं। उनका मानना है कि संस्थाओं का विलय करके उसका अस्तित्व समाप्त करने से कला का नुकासन होगा। इस संदर्भ में वो जया बच्चन का उदाहरण देते हैं कि जब वो चिल्ड्रन फिल्म सोसाइटी की अध्यक्ष थीं तो बेहतर फिल्म का निर्माण हुआ था और फिल्म फेस्टिवल भी स्तरीय हुआ था। यहां अदूर गोपालकृष्णन को ये बताना चाहिए था कि उस समय कौन सी ऐसी फिल्म का निर्माण हुआ था जिसने बच्चों की रुचि इस माध्यम में पैदा की थी। क्या अब उन फिल्मों के बारे में किसी को याद है। अगर बनी भी थी तो क्या फिल्म विकास निगम वैसी फिल्में नहीं बना सकता है। अदूर गोपालकृष्णन को ये भी बताना चाहिए कि जब वो पुणे के भारतीय फिल्म और टेलीविजन संस्थान के अगुवा थे उस समय वो कितनी बार संस्थान गए थे और उसकी कितनी बैठकों में शामिल हुए थे। उस वक्त उनको अनुपस्थित निदेशक क्यों कहा जाता था।
2011 में जब नेशनल म्यूजियम आफ इंडियन सिनेमा बनाने की योजना बनी थी तो सूचना और प्रसारण मंत्रालय ने श्याम बेनेगल की अध्यक्षता में एक सलाहकार समिति का गठन किया था। उस समिति में अदूर गोपालकृष्णन भी सदस्य थे। उसके बाद 2017 में सरकार ने प्रोक्यूरमेंट (खरीद) कमेटी बनाई जिसमें भी अदूरगोपालकृष्णन थे। अदूर गोपालकृष्णनको बताना चाहिए कि सलाहकार समिति ने 2019 तक क्या काम किया। क्या उस वक्त अदूर गोपालकृष्णन ने सरकार को ये सलाह दी थी कि पुणे की फिल्म आर्काइव को ही म्यूजियम बना दिया जाए। नौ वर्षों में सलाहकार समिति की बैठकों पर करदाताओं का कितना व्यय हुआ। बताना तो ये भी चाहिए कि सलाहकार समिति के रहते 2017 में म्यूजियम की गुणवत्ता में सुधार के लिए नई समिति का गठन क्यों करना पड़ा। जिसके बाद म्यूजियम आकार ले सका। फिल्म विकास निगम ने समांतर सिनेमा या न्यू वेव सिनेमा के नाम पर जिस प्रकार के फिल्मों को वित्तीय सहायता दी उसका भी आकलन किया जाना चाहिए। दरअसल जब फिल्मों और उससे जुड़ी संस्थाओं में सुधार की बात होती है तो एक पूरा इकोसिस्टम उसके खिलाफ हो जाता है। अदूर गोपालकृष्णन उसी इकोसिस्टम के हिस्सा हैं। उन्होंने पहली बार इसका विरोध नहीं किया है । जब से नरेन्द्र मोदी प्रधानमंत्री बने हैं और फिल्मों की संस्थाओं पर कुंडली जमाकर बैठे एक विचारधारा विशेष के लोगों को चुनौती मिलने लगी तभी से इस तरह की बातें सामने आने लगी हैं। कहा जाने लगा कि वर्तमान सरकार का फिल्मों के प्रति रवैया नकारात्मक और विध्वंसात्मक है। अब ये लोग संस्थाओं के पुनर्गठन को संस्कृति के संरक्षण और क्षरण से जोड़कर प्रचारित कर रहे हैं।
अदूर गोपालकृष्णन और उन जैसे लोगों को ये समझना होगा कि तकनीक के आगमन के बाद फिल्मों से जुड़ी पुरानी संस्थाओं के कार्य की समीक्षा आवश्यक है। अगर फिल्म विकास निगम फिल्म बनवाने में सक्षम है या उसके पास फिल्म बनाने या फिल्म निर्माण को प्रोत्साहित करने का मैंडेट है तो फिर दूसरी सरकारी संस्था फिल्म क्यों बनाए। क्यों नहीं फिल्म विकास निगम ही बच्चों की फिल्मों के निर्माण का कार्य करे। क्यों नहीं एक सरकारी संस्था सभी तरह के फिल्म फेस्टिवल का आयोजन करे। सूचना और प्रसारण मंत्रालय को पुर्नगठन और इन संस्थाओं में प्रशासवनिक सुधार के कार्य को तेज करना चाहिए। मंत्रालय के अधीन आनेवाले विभाग सांग और ड्रामा डिवीजन एवं प्रकाशन विभाग की उपोगिता पर भी पुनर्विचार करना चाहिए। उन्नत तकनीक के इस दौर में इन संस्थाओं के मैंडेट को भी बदले जाने की आवश्यकता है।
No comments:
Post a Comment