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Saturday, April 16, 2022

हिंदी को देशभाषा बनाने का हो प्रयास


कुछ दिनों पहले ‘द कपिल शर्मा शो’ पर फिल्म आर आर आर के अभिनेता एनटीआर जूनियर, राम चरण, फिल्म के निर्देशक राजामौली और अभिनेत्री आलिया भट्ट आए थे। कपिल शर्मा के शो का नाम भले ही अंग्रेजी में है, इसमें ज्यातार बातचीत हिंदी में ही होती है। दक्षिण भारतीय फिल्मों के दोनों अभिनेता न केवल हिंदी समझ रहे थे बल्कि अच्छी हिंदी बोल भी रहे थे। उस शो में उन दोनों अभिनेताओं को अच्छी हिंदी बोलते देख अर्चना पूरन सिंह ने उनसे जानना चाहा कि उन्होंने इतनी अच्छी हिंदी कहां से और कैसे सीखी जबकि वो दोनों तो दक्षिण भारत में पले बढे हैं। एनटीआर जूनियर ने तपाक से इसका उत्तर दिया कि स्कूल में। उन्होंने कहा कि स्कूल में उनकी प्रथम भाषा हिंदी थी जिससे उनको बहुत मदद मिली। इसके अलावा अब जिस तरह से क्रास पालिनेशन (परागण) मुंबई, हैदराबाद और चेन्नई के बीच हो रहा है, उससे। वो भाषाई परागण की बात कर रहे थे जिसमें देश के अलग अलग हिस्सों में बनने वाली फिल्में अलग अलग भाषाओं में डब होकर रिलीज हो रही हैं। एनटीआर की बात सुनकर आलिया ने एक और दिलचस्प तथ्य बताया कि एनटीआर जूनियर ने पूरी फिल्म में अपने संवाद को अपनी आवाज में ही हिंदी में डब किया है। आलिया के मुताबिक इससे दर्शकों को एक प्रामाणिक अनुभव मिलता है। एक घंटे से अधिक के इस शो में राम चरण और एनटीआर जूनियर ने हिंदी और अंग्रेजी में अपनी बात रखी लेकिन हिंदी समझ सब रहे थे। दक्षिण भारत की फिल्में डब होकर हिंदी में जितनी सफल हो रही हैं उसने वहां की भाषा में बनने वाली फिल्मों को सफलता का नया क्षितिज दिया है। अब वहां बनने वाली कई फिल्में तमिल और तेलुगू के साथ-साथ हिंदी में भी बन रही हैं। हिंदी में बनने वाली कुछ फिल्में भी दक्षिण भारतीय भाषाओं में बनकर एक साथ सब जगह रिलीज होती हैं।  

उपरोक्त प्रसंग बताने का उद्देश्य ये है कि पिछले दिनों हिंदी को लेकर दक्षिण भारत के नेताओं और अंग्रेजी के पैरोकारों ने अकारण विवाद खड़ा किया। हुआ ये था कि कुछ दिनों पहले गृह मंत्री अमित शाह ने राजभाषा समिति की एक बैठक में कहा था कि ‘हमारे देश में अनेक प्रकार की भाषाएं हैं, कुछ प्रकार की बोलियां हैं। कई लोगों को लगता है कि ये देश के लिए बोझ हैं। मुझे लगता है कि अनेक भाषाएं और अनेक बोलियां हमारे देश की सबसे बड़ी ताकत हैं। …परंतु जरूरत है कि देश की एक भाषा हो। जिसके कारण विदेशी भाषाओं को जगह न मिले। देश की एक भाषा हो, इसी दृष्टि को ध्यान में रखते हुए हमारे पुरखों ने हमारे स्वातंत्र्य सेनानियों ने राजभाषा की कल्पना की थी और राजभाषा के रूप में हिंदी को स्वीकार किया था।‘  अपने भाषण में अमित शाह ने ना तो कुछ गलत कहा और ना ही कोई नई बात कही। अमित शाह के वक्तव्य का आशय स्पष्ट है कि हिंदी को संपर्क भाषा के तौर पर मजबूती दी जानी चाहिए और भारतीय भाषाओं को मजबूत किया जाना चाहिए। आज से दो साल पहले भी अमित शाह ने भारतीय भाषाओं को मजबूत करने के लिए आंदोलन करने जैसी बात कही थी। 

जब प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी ने लालकिला की प्राचीर से स्वाधीनता के अमृत महोत्सव की घोषणा की थी उसके बाद भी अमित शाह ने भाषाई आत्मनिर्भरता की बात की थी। उस वक्त गृहमंत्री ने कहा था कि आत्मनिर्भर शब्द केवल उत्पादन के लिए नहीं है, राजनीतिक व्यवस्थाओं के लिए नहीं है बल्कि भाषाओं को लेकर भी आत्मनिर्भर होना होगा। तब जाकर आत्मनिर्भर भारत की कल्पना साकार होगी। बिना भाषाई आत्मनिर्भरता के आत्मनिर्भर भारत अर्थहीन है। उन्होंने उस वक्त स्वाधीनता संग्राम के दौरान तीन ‘स्व’ के महत्ता की भी चर्चा की थी। स्वदेशी, स्वभाषा और स्वराज। इन तीनों को अमित शाह ने स्वाधीनता संग्राम का स्तंभ बताते हुए कहा था कि आजादी मिलते ही स्वराज का सपना पूरा हो गया। स्वदेशी के लिए प्रधानमंत्री मोदी ने अभियान छेड़ा हुआ है लेकिन स्वभाषा के लिए हम सबको मिलकर खासकर नई पीढ़ी को विशेष रूप से आगे आना होगा। तब उन्होंने प्रधानमंत्री मोदी के वैश्विक मंचों पर हिंदी में बोलने और बात करने को रेखांकित करते हुए कहा था कि अब अपनी भाषा को लेकर किसी लघुता ग्रंथि में रहने की जरूरत नहीं है। तब भी अमित शाह ने भारतीय भाषाओं की बात की थी। हिंदी की अनिवार्यता या उसको किसी अन्य भारतीय भाषा पर थोपने जैसी कोई बात नहीं कही थी। विवाद तब भी हुए थे क्योंकि कई क्षेत्रीय दलों को लगता है कि भाषा एक भावनात्मक मुद्दा है और उसको भुनाकर राजनीतिक लाभ कमाया जा सकता है। आज भले ही तमिलनाडु के मुख्यमंत्री  स्टालिन हिंदी को लेकर आक्रामक हो रहे हैं लेकिन उनको यह नहीं भूलना चाहिए कि पिछले सालों में हुए चुनाव के दौरान उनकी पार्टी डीएमके ने मदुरैई और उसके आसपास हिंदी में पोस्टर लगाए थे। तब उका हिंदी विरोध कहां गया था।

अमित शाह ने जब स्वतंत्रता सेनानियों और पुरखों की बात की थी तो वो ऐतिहासिक तथ्यों को रेखांकित कर रहे थे। स्वाधीनता संग्राम के दौरान हिंदी को लेकर हमारे पुरखों ने अपनी भावनाओं को सार्वजनिक किया था और उसको ताकत देने का प्रयास भी किया था। आज भले ही बंगाल की मुखख्यमंत्री ममता बनर्जी हिंदी का विरोध कर रही हैं लेकिन उनको ये नहीं भूलना चाहिए कि भूदेव मुखर्जी, शारदाचरण मित्र, सुनीति कुमार चटर्जी ने कभी हिंदी का विरोध नहीं किया। बंकिमचंद्र चटर्जी ने कहा था, ‘हिंदी एक दिन भारत की राष्ट्रभाषा होकर रहेगी क्योंकि हिंदी भाषा की सहायता से भारत के विभिन्न प्रदेशों में जो ऐक्य-बंधन स्थापित कर सकेगा वही भारत बंधु कहलाने के योग्य हैं।‘ महर्षि अरविंद ने तो अपने पत्र ‘धर्म’ में स्पष्ट लिखा था कि ‘भाषा-भेष से देश की एकता में बाधा नहीं पड़ेगी। सब लोग अपनी मातृभाषा की रक्षा करते हुए , हिंदी को साधारण भाषा के रूप में अपनाकर, इस भेद को नष्ट कर देंगे।‘  उस समय महर्षि अरविंद हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में देख रहे थे। अमित शाह भी महर्षि अरविंद के सोच को लेकर ही आगे चल रहे हैं। स्वतंत्रता संग्राम के कालखंड में हमारे उन पुरखों ने हिंदी को आगे बढ़ाने का प्रयास किया जो अहिंदी भाषी प्रदेशों से आते थे और जिनकी मातृभाषा हिंदी नहीं थी। बाल गंगाधर तिलक, वीर सावरकर, केशव राव पेठे, वेणीमाधव भट्टाचार्य, शारदाप्रसाद सान्याल, रायबहादुर प्रमदादास मित्र, प्यारी मोहन वंधोपाध्याय, नीलकमल मित्र, सी राजगोपालचारी आदि के नाम इसमें प्रमुख हैं। यह सूची बहुत लंबी है। राजगोपालाचारी जब मद्रास(अब चेन्नई) जाकर राजनीति करने लगे तो उन्होंने हिंदी का विरोध आरंभ किया था, उसके पहले वो हिंदी के प्रबल समर्थक थे। 

आज जब पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है. तो हमें अपने पुरखों की हिंदी को लेकर जो सोच था उसका सम्मान करना चाहिए। राजनीति ने भारतीय भाषाओं के बीच जो वैमनस्यता पैदा की उसको दूर करने का उपक्रम करना चाहिए। इस देश में भाषा के नाम पर पहले ही बहुत हिंसा हो चुकी है, राज्यों का विभाजन हो चुका है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में जिस तरह से भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता देने की बात की गई है उससे एक उम्मीद जगती है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पिछले वर्ष काशी हिंदू विश्वविद्यालय में महाकवि सुब्रह्णण्य भारती चेयर की स्थापना की घोषणा की थी। जिस भाषाई परागण की बात एनटीआर जूनियर कर रह थे वो इस तरह के कदमों से आगे बढ़ेगा और उसके अच्छे परिणाम सामने आएंगे। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर ने कभी कहा था ‘प्रत्येक के लिए अपनी मातृभाषा और सबके लिए हिंदी।‘ यही सोच भारतीय भाषाओं को मजबूत करेगा। 


3 comments:

ओम निश्‍चल said...

सुचिंतित विमर्श।

नटराज said...

बेहतरीन आलेख।हिंदी को लेकर सिर्फ राजनीति ही हो रही है।जबकि हिंदी देश को एक सूत्र में बांधे हुई है।अन्य भारतीय भाषाओं को बढ़ावा देते हुए हिंदी को संपर्क और राष्ट्रभाषा के रूप में प्राथमिकता दी जानी चाहिए। हाँ भाषा को लेकर गंदी राजनीति करने वालो की पहचान जरूरी है।ऐसे राजनीति करने वालो को महत्व न मिले

Dilip Kumar Singh said...

हमेशा की तरह बहुत ही विचारोत्तेजक लेख। लेखक के प्रति आभार।