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Saturday, May 14, 2022

फिल्मों के स्वावलंबन का सफर


आज पूरा देश स्वाधीनता का अमृत महोत्सव मना रहा है। अमृत महोत्सव के अवसर पर हमें इस बात पर भी विचार करना चाहिए कि भारतीय फिल्मों ने स्वाधीनता के बाद जो स्वावलंबन की राह पकड़ी वो कैसी थी, उनमें किस तरह की बाधाएं आ रही थीं। स्वाधीनता के बाद के भारतीय फिल्म के परिदृश्य पर विचार करने से पहले फिल्मों को लेकर दो बयान पर नजर डाले लेते हैं। पहला बयान रूस के कम्युनिस्ट नेता लेनिन का और दूसरा है महात्मा गांधी का। रूस की क्रांति के बाद लेनिन ने कहा था कि ‘हमारे लिए सिनेमा सभी कलाओं से अधिक महत्वपूर्ण है। सिनेमा केवल लोगों के मन बहलाव का नहीं बल्कि सामाजिक शिक्षा, संवाद स्थापित करने तथा हमारी विशाल जनसंख्या को एकसूत्र में बांधने का सशक्त साधन भी है।‘ रूसी क्रांति के दो साल बाद वहां के फिल्म उद्योग का राष्ट्रीयकरण करके उसको एक मंत्रालय के अधीन कर दिया गया था। इसके ठीक दस साल बाद भारत में स्वाधीनता संग्राम तेज हुआ। गांधी इसके सर्वमान्य नेता के तौर पर स्थापित हुए। उस वक्त तक गांधी फिल्म की शक्ति को पहचान नहीं पाए। पहचान तो वो बाद में नहीं पाए। गांधी फिल्मों को एक बुराई की तरह देखते थे। 1929 में वो बर्मा (अब म्यांमार) गए थे। वहां उनको एक नाटक देखना पड़ा। देखना पड़ा इस वजह से क्योंकि वो सोच कर गए थे कि मजदूरों की किसी सभा में जाना पड़ा रहा है। लेकिन जब वहां पहुंचे तो  नाटक का मंचन हो रहा था। गांधी ने वहां एक भाषण दिया जो गांधी वांग्मय में संकलित है। गांधी ने कहा, ‘सार्वजनिक नाटकघरों में जाने के अन्य जो भी परिणाम हो यह तो निश्चित ही है कि नाटकों ने अनेकानेक युवकों का आचरण और चरित्र भ्रष्ट कर दिया है। आप पक्की उम्र के लोग चाहे अपने को नाटकों के दुष्प्रभाव से बिल्कुल बरी मान लें, लेकिन आपको अपने छोटे-छोटे बच्चों का भी खयाल करना चाहिये जिनको आपत्तिजनक नाटकों में ले जाकर आप उनके निर्दोष, निष्पाप मन के साथ कितना बड़ा अनाचार कर रहे हैं।  आप चारों ओर नजर तो डालिये वर्तमान व्यवस्था के कुप्रभाव में पनपने वाले सिनेमा, नाटक, घुड़दौड़, शराबखाने और अफीमघर इत्यादि के रूप में समाज के ये सभी शत्रु चारों और से मुंह बाए हमारी घात में खड़े हैं।‘  सिनेमा को गांधी समाज का शत्रु मानते थे लेकिन लेनिन उसको सामाजिक शिक्षा का माध्यम मानते थे।  एक तरफ सिनेमा को लेकर लेनिन के विचार तो दूसरी तरफ गांधी के। 

स्वतंत्रता के बाद भारतीय फिल्मों की चुनौतियों पर बात करने के पहले गांधी के विचारों का ध्यान ऱखना होगा। 1947 में जब देश स्वाधीन हुआ तो फिल्म उद्योग के लोगों ने महात्मा गांधी को एक कार्यक्रम में आमंत्रित करना चाहा। उस समय गांधी के सचिव ने आयोजकों को उत्तर दिया था कि फिल्म से संबंधित किसी भी कार्यक्रम में गांधी जी को बुलाने के बारे में सोचिए भी नहीं क्योंकि फिल्मों को लेकर बापू की राय अच्छी नहीं है। कई जगह इस बात का उल्लेख मिलता है कि चक्रवर्ती राजगोपालाचारी भी फिल्मों को पाप फैलाने का माध्यम मानते थे और कहा करते थे कि फिल्में पश्चिम के घटिया मूल्यों को भारतीय समाज पर थोपतीं है। ये ठीक है कि दूसरे विश्वयुद्ध के पहले और बाद में भी विदेशी फिल्में बड़ी संख्या में भारत में आ रही थीं। उनका प्रदर्शन भी सफलतापूर्वक होता था। उनमें से कई फिल्मों में नग्नता होती थी। लेकिन ये भी उतना ही सच है कि दर्जनों भारतीय निर्माता निर्देशक अपने पौराणिक चरित्रों और संत महात्माओं को केंद्र में रखकर फिल्में बना रहे थे। जो काफी सफल भी हो रही थी। 1917 में दादा साहब फाल्के ने ‘लंका दहन’ के नाम से एक फिल्म बनाई थी। 1918 में श्रीनाथ पाटणकर ने ‘राम वनवास’ के नाम से एक ऐतिहासिक फिल्म बनाई। पाटणकर ने इसके बाद ‘सीता स्वंयवर’, ‘सती अंजनि’ और ‘वैदेही जनक’ नाम से फिल्में बनाईं थीं। मूक फिल्मों के दौर में तकरीबन हर वर्ष राम कथा पर केंद्रित फिल्में बनती थीं, इनमें से अहिल्या उद्धार, श्रीराम जन्म, लव कुश, राम रावण युद्ध, सीता विवाह, सीता स्वयंवर और सीता हरण आदि प्रमुख फिल्में हैं। बोलती फिल्मों के दौर में भी रामकथा को आधार बनाकर कई फिल्में बनीं। प्रकाश पिक्चर्स ने वाल्मीकि रामयाण पर आधारित चार फिल्में बनाईं, ‘भरत मिलाप’, ‘रामराज्य’, ‘राम वाण’ और ‘सीता स्वयंवर’। इन फिल्मों में राम का किरदार प्रेम अदीब और सीता की भूमिका शोभना समर्थ ने निभाई थी। बावजूद फिल्मों को लेकर गांधी के विचार नहीं बद सके थे। उसका असर प्रत्यक्ष और परोक्ष असर भारत के फिल्म उद्योग पर पड़ा। फिल्मों को लेकर सरदार पटेल और नेहरू के विचार गांधी से अलग थे। गांधी के जीवनकाल में ही पटेल ने मुंबई (तब बांबे) में फिल्म उद्योग के लोगों की एक सभा में उनको भरपूर सहयोग का वादा किया था। गांधी के निधन के बाद नेहरू ने भी फिल्मों को लेकर सकारात्मक रुख दिखाया था। 

इस पृष्ठभूमि के बावजूद भारतीय फिल्म उद्योग लगातार बढ़ता रहा तो इसके पीछे की वजह फिल्मों को लेकर इससे जुड़े लोगों का इस विधा में विश्वास था। स्वाधीनता के बाद 1948 में एक फिल्म रिलीज हुई थी, जिसका नाम था चंद्रलेखा। इस फिल्म का निर्माण मद्रास की जैमिनी स्टूडियो ने किया था और इसके निर्देशक एस एस वासन थे। ये भव्य फिल्म तीस लाख रुपए की लागत से तैयार हुई थी। सालभर में करीब दो करोड़ रुपए का कारोबार इस फिल्म ने किया था। यहीं से हिंदी फिल्मों को सफलता का एक सूत्र मिला जिसको कई फिल्म निर्माताओं ने अपनाया। ये सूत्र था एक नायिका और उसको चाहनेवाले दो अभिनेता। ये फार्मूला कई सालों तक चलता रहा। अब भी गाहे बगाहे किसी न किसी फिल्म में ये कथानक देखने को मिल जाता है। 1950 के आसपास कुछ ऐसी घटनाएं घटीं जिसने भारतीय फिल्मों के स्वरूप को बहुत हद तक प्रभावित किया। भारत सरकार ने 1949 में एस के पाटिल की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई जिसको फिल्म उद्योग की स्थिति के बारे में आकलन करने और उसमें बेहतकी के लिए सुझाव का जिम्मा सौंपा गया। 1951 में राजकपूर की फिल्म अवारा रिलीज हुई। इस फिल्म को देश के अलावा विदेश खासतौर पर रूस में अपार लोकप्रियता मिली। इसके सालभर बाद 1952 में देश के चार महानगरों में फिल्म फेस्टिवल का आरंभ हुआ। बांबे ( तब मुंबई ), दिल्ली, चेन्नई (तब मद्रास) और कोलकाता (तब कलकत्ता) में भारतीय के साथ साथ विदेशी फिल्मों का प्रदर्शन हुआ। इसने भारतीय फिल्म उद्योग को विदेश की कलात्मक फिल्मों से परिचय करवाया। जापान, रूस और इंगलैंड से फिल्में आईं। इस आयोजन से हमारे देश में फिल्म संस्कृति के विकास की नींव पड़ी। 

स्वाधीनता के पहले जिस स्टूडियो व्यवस्था की नींव पड़ी थी वो आज बहुत सफल है। आज फिल्मों के निर्माण की दर्जन भर से अधिक कंपनियां करोड़ों और कुछ तो अरबों रुपए का कारोबार कर रही हैं। अगर हम स्टूडियो के व्यावसायीकरण की बात करें तो इसका आरंभ स्वाधीनता के पहले ही हो गया था। फरवरी 1934 में हिमांशु राय ने बम्बई टाकीज के लिए पच्चीस लाख रुपए जुटाने के लिए सौ रुपए के पच्चीस हजार शेयर जारी किए थे। देविका रानी ने लिखा था कि ‘1935 में जब हमने बम्बई के मलाड में बम्बई टाकीज स्थापित किया तो तो उसे एक व्यापार की तरह चलाया। हमारी कंपनी के पास श्रेष्ठ उपकरण थे- बेल एंड हावेल कंपनी के कैमरे थे और आरसीए ध्वनि पद्धति थी।‘ इसके पहले भी फिल्म कंपनियां फिल्मों का निर्माण कर रही थीं लेकिन हिमांशु राय ने उसको एक अलग आयाम दिया। आज भारतीय फिल्म उद्योग जगत दुनिया के सबसे बड़े फिल्म उद्योगों में शामिल हो चुका है और निरंतर मजबूत हो रहा है। 


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