स्वाधीनता के बाद जब रजवाड़ों के भारत में विलय के समय का इतिहास देखा जाए तो जवाहरलाल नेहरू अपने मित्रों को लेकर उदार दिखते हैं। कश्मीर में वो शेख अब्दुल्ला को लेकर साथ चलने पर लगातार बल देते थे। कश्मीर को लेकर उनके बयानों से उलझन भी पैदा होती थी। सरदार कई बार नेहरू के कदमों से खिन्न भी हो जाते थे। जून 1946 में नेहरू शेख अब्दुल्ला के समर्थन में कश्मीर जाना चाहते थे। सरदार पटेल ने उसका विरोध किया था। 11 जुलाई 1946 को डी पी मिश्रा को पटेल ने लिखा, ‘उन्होंने (नेहरू ने) हाल में बहुत सी ऐसी बातें कही हैं, जिनसे जटिल उलझनें पैदा हुई हैं। कश्मीर के संदर्भ में उनकी गतिविधियां, संविधान सभा में सिख चुनाव में हस्तक्षेप, अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी के अधिवेशन के तुरंत बाद प्रेस कांफ्रेंस बुलाना, ये सभी कार्य भावनात्मक पागलपन के थे और इनसे हम सभी को इन मामलों को हल करने में बहुत ही तनावपूर्ण स्थिति का सामना करना पड़ा था। किंतु इन सभी निष्कलंक एवं अविवेकपूर्ण बातों को उनके स्वतंत्रता प्राप्ति के आवेश का असमान्य उत्साह माना जा सकता है।‘ महाराजा हरि सिंह से नेहरू के अच्छे संबंध नहीं थे इस वजह से उनको कश्मीर के भारतीय गणतंत्र में विलय के लिए सरदार पटेल पर निर्भर रहना पड़ रहा था। लेकिन ऐसी कोई मजबूरी सिक्किम को लेकर नहीं थी। आजादी के समय सिक्किम का राजा थोंडुप नामग्याल, नेहरू के मित्र थे। 1947 मे जब भारत को आजादी मिली तो सरदार पटेल और संविधान सभा के सलाहकार बी एन राव इस मत के थे कि सिक्किम का भारत में विलय किया जाना चाहिए लेकिन नेहरू ने इसका विरोध किया था।
सिक्किम के भारत में विलय पर प्रामाणिक पुस्तक लिखने वाले जी बी एस सिद्धू ने अपनी पुस्तक, सिक्किम, डान आफ डेमोक्रेसी में उपरोक्त प्रंसग का भी उल्लेख किया है। प्रामाणिक इस वजह से कि वो इस अभियान का हिस्सा थे। उनके मुताबिक जवाहरलाल नेहरू अपने आदर्शवाद, एशिया को लेकर अपनी दृष्टि और चीन की स्थिति को ध्यान में रखकर इस विलय का विरोध कर रहे थे। नेहरू चाहते थे कि सिक्किम को विशेष दर्जा मिले। ये सब तब हो रहा था जब सिक्किम स्वाधीनता के पहले चैंबर आफ प्रिसेंस और संविधान सभा का सदस्य भी था। बावजूद इसके थोंडुप नामग्याल सिक्किम को स्वतंत्र राष्ट्र के तौर पर कायम रखना चाहता था। उसने तो आजादी के करीब एक पखवाड़े पहले दार्जिलिंग को सिक्किम में मिलाने की चाल भी चली थी जो नाकाम हो गई थी। इस मामले में नेहरू की चली और सिक्किम को विशेष दर्जा दिया गया। फरवरी 1948 में सिक्किम के साथ भारत सरकार ने एक समझौता किया जिसमें 11 मामलों को छोड़कर सभी अधिकार सिक्किम के राजा को दिए गए। इसमें विदेश और रक्षा मामले भारत सरकार के पास रहे। 1950 में सिक्किम के राजा और भारत सरकार के बीच एक और समझौता हुआ। सिक्किम की जनता इससे खुश नहीं थी और वहां लगातार लोकतंत्र के पक्ष में आंदोलन चल रहा था। तत्कालीन भारत सरकार इसको दबाने में नामग्याल का सहयोग कर रही थी। राजा ने एक अमेरिकी महिला से शादी कर ली थी जिसके बारे में ये धारणा थी वो सीआईए की एजेंट है।
कालांतर में जब इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनीं नामग्याल दिल्ली आए। उनसे मिले और भारत के साथ सिक्किम की जारी संधि से मुक्त होकर स्वतंत्र राष्ट्र की अपेक्षा जाहिर की। यही वो निर्णायक मोड़ था जब इंदिरा गांधी ने फैसला किया कि सिक्किम का पूर्ण रूप से भारत में विलय होना चाहिए। इस बीच बंग्लादेश की समस्या सामने आई लेकिन साथ ही साथ सिक्किम को लेकर कूटनीतिक और रणनीतिक स्तर पर तैयारी आरंभ हो चुकी थी। टी एन कौल उस समय विदेश सचिव थे। वो सिक्किम के भारत में पूर्ण विलय की बजाए चाहते थे कि पूर्व में हुए समझौते के आधार पर एक स्थायी संधि की जाए। इस स्थायी संधि के लिए कौल ने एक ड्राफ्ट तैयार किया और उसपर मंत्रियों के समूह में चर्चा हुई। इस चर्चा में तत्ताकलीन सेनाध्यक्ष जनरल मानिक शा को भी बुलाया गया था। सिद्धू की पुस्तक के मुताबिक किसी मंत्री ने इसपर कुछ नहीं बोला लेकिन जनरल मानिक शा ने कहा कि आपलोग चाहे जो भी निर्णय लें लेकिन मुझे तो सैनिकों की तैनाती और आपरेशन की स्वतंत्रता है। जनरल शा के इस वाक्य से संदेश स्पष्ट था। इंदिरा गांधी ने अपने पिता नेहरू की सोच के उलट सिक्किम को पूरी तरह से भारतीय गणराज्य का हिस्सा बनाने का जिम्मा रिसर्च एंड एनलैसिस विंग( आरएडब्लू) के चीफ आर एन काव को सौंपा। ये वो दौर था जब पाकिस्तान के दो टुकड़े हो चुके थे और बंग्लादेश अस्तित्व में आ चुका था। काव ने रा के ही एक अधिकारी जी बी एस सिद्धू को इसका जिम्मा सौंपा।
सिक्किम का ये आपरेशन आम खुफिया आपरेशन की तरह नहीं था। इसमें राजनीतिक तंत्र का उपयोग करके लक्ष्य हासिल करना था। सिद्धू ने सिक्किम में लोकतंत्र के समर्थक नेताओं के साथ संपर्क बढ़ाना आरंभ किया। उन्होने सिक्किम नेशनल कांग्रेस के दोरजी काजी और जनता कांग्रेस के महासचिव एस के राय को विश्वास में लिया और उनको हर तरह की मदद देने लगे। उद्देश्य था कि नामग्याल को अलग थलग करना, लोकतांत्रिक ताकतों को मजबूत करना और चुनाव करवाकर विलय को अंजाम देना। सिद्धू को काव का स्पष्ट निर्देश था कि वो अपनी गतिविधियों की जानकारी किसी भारतीय अधिकारी के साथ भी साझा न करें। इस मिशन की जानकारी सिर्फ तीन लोगों को थी, सिद्धू, कोलकाता में रा के अफसर पी एन बनर्जी और काव। इंदिर जी को को तो थी ही। सिद्धू उस वक्त के सिक्किम कांग्रेस के नेता दोरजी काजी को मजबूत कर रहे थे। वो भारत के साथ विलय के लिए जनमत तैयार कर रहे थे। अप्रैल 1973 में राजा के विरोध की आग इतनी तेज हो गई कि उसको भारत सरकार के साथ एक समझैता करना पड़ा। तय हुआ कि भारत के निर्वाचन आयोग की देखरेख में राज्य में विधानसभा के चुनाव होंगे। अप्रैल 1974 में सिक्किम में चुनाव करवाए गए जिसमें सिक्किम कांग्रेस को 32 में 31 सीटें मिली।
अब इस आपरेशन का दूसरा चरण आरंभ हुआ। रा के सामने ये चुनौती थी कि सिक्किम के सभी नवनिर्वाचित सदस्य काजी के पक्ष में एकजुट रहें और भारत के साथ विलय का प्रस्ताव पारित हो। नई दिल्ली से कोई निर्देश आने तक राजा की साजिशों पर ध्यान रखा जाए। सिक्किम के अन्य नेता के सी प्रधान और बी बी गुरुंग पर भी नजर रखी जा रही थी। नई दिल्ली से हरी झंडी मिलते ही विधानसभा से एक प्रस्ताव पारित हुआ कि भारत के साथ सक्रिय संबंध बनाए जाएं और संवैधानिक संस्थाओं के साथ मिलकर काम किया जाए। नामग्याल ने इसका कड़ा विरोध किया। लेकिन तबतक तय हो चुका था कि सिक्किम में जनमत संग्रह करवाया जाए। नामग्याल जनमत संग्रह के लिए राजी नहीं हो रहा था। वो इसको किसी तरह फेल करना चाहता था। उसकी संदिग्ध गतिविधियां तेज हो गई थीं। तब भारतीय सेना को उसके महल में हल्की सैन्य कार्रवाई करनी पड़ी थी। उसके कुछ दिनों जनमत संग्रह हुआ और 97 फीसदी ने सिक्किम के भारत में विलय को मंजूरी दी। इसके बाद पहले लोकसभा और फिर राज्यसभा में विलय को मंजूरी दी और राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ ही सिक्किम भारत का अंग बन गया। नेहरू ने ‘स्वतंत्रता प्राप्ति के आवेश के असमान्य उत्साह’ में जो गलती की थी उसको उनकी बेटी की दृढ़ इच्छाशक्ति ने सुधारा।
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