साहित्योत्सव के दौरान प्रधानमंत्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष बिबेक देबराय ने शारदा पीठ का न केवल उल्लेख किया बल्कि जोर देकर कहा कि शारदा पीठ दुनिया का पहला विश्वविद्यालय भी था। बिबेक देवराय की इस बात पर चर्चा होनी चाहिए और विद्वानों को इसपर अपना अपना मत रखना चाहिए। कश्मीर के शारदा पीठ की अपने समय में बड़ी प्रतिष्ठा थी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि पूरे देश के विद्वान जब किसी ग्रंथ की रचना करते थे तो वो उसकी स्तरीयता की परख के लिए शारदा पीठ आते थे। वहां के विद्वान उस ग्रंथ पर चर्चा करते थे और अगर उसमें मौलिक स्थापना होती थी तो उसको अपने तरीके से प्रमाणित करते थे। दुर्भाग्य से शारदा पीठ इस वक्त गुलाम कश्मीर का हिस्सा है।
शारदा पीठ सिर्फ ज्ञान का केंद्र ही नहीं था बल्कि इस पीठ के नाम से एक लिपि भी उस दौर में प्रचलन में थी, जिसको शारदा लिपि के नाम से जानते हैं। ये माना जाता है कि शारदा लिपि का आरंभ दसवीं शताब्दी में हुआ था। कश्मीरी विद्वानों ने शारदा लिपि में विपुल लेखन किया था। शारदा लिपि में बहुत अधिक लिखा गया था और वहां के विद्वान लेखक अपनी रचनाओं को लेकर देश के अलग अलग हिस्सों में विमर्श के लिए गए भी थे। इसके अलावा देशभर के अलग अलग हिस्सों के विद्वान भी शारदा पीठ जाकर शारदा लिपि सीखकर अपने अपने क्षेत्रों में लौटते थे। फिर वो अपनी रचनाएं शारदा लिपि में लिखते थे। देशभर में कई ऐसे विश्वविद्यालय हैं जहां आज भी शारदा लिपि में लिखे गए ग्रंथ सहेजकर रखे हुए हैं। कश्मीर में सिर्फ शारदा लिपि ही नहीं बल्कि संस्कृत भाषा और उसमें रचना करनेवाले विद्वानों की लंबी सूची है। नीलमत पुराण में विस्तार इसकी चर्चा है कि कैसे कश्मीर में वहां की जनता उत्सवों के माध्यम से अपनी पंरपराओं को और अपनी ज्ञान परंपरा को जीवंत बनाए रखती थी। काव्यप्रकाश के रचयिता मम्मट भी कश्मीर की धरती के ही सपूत थे। काव्यप्रकाश एक ऐसा ग्रंथ है जो अब भी साहित्य के अध्येताओं के सामने चुनौती बनकर खड़ा है। अबतक इस पुस्तक की असंख्य टीकाएं लिखी जा चुकी हैं लेकिन अब भी कई विद्वान इसमें वर्णित उल्लास और कारिकाओं की व्याख्या करने में लगे रहते हैं। बिबेक देवराय ने एक ऐसे मुद्दे की ओर ध्यान आकर्षित किया जिसके बारे में लगातार चर्चा होती है। संस्कृत के आलोचकों का कहना है कि इस भाषा में व्यंग्य साहित्य की कमी है। संस्कृत की इस कथित कमी को आलोचक इस भाषा के रचनात्मक लेखन की कमजोरी के तौर पर रेखांकित करते हैं। बिबेक ने इस संबंध में कश्मीर के ही एक लेखक क्षेमेन्द्र का नाम लिया और कहा कि उनकी रचनाओं में पर्याप्त मात्रा में व्यंग्य उपस्थित है।
कश्मीर के इतिहास और उसकी परंपराओं पर पुस्तक लिखनेवाले निर्मलेंदु कुमार ने लिखा है कि भारत के प्रांतो में एकमात्र कश्मीर ही है जिसका मध्यकाल का पूरा प्रामाणिक इतिहास वहीं के विद्वानों द्वारा लिखा हुआ मिलता है। भारतवर्ष के अन्य प्रदेशवासियों की अपेक्षा कश्मीरियों में विशेष इतिहास-प्रेम रहा, जिससे उन्होंने अपने देश का शृंखलाबद्ध इतिहास लिख रखा है। कल्हण ने राजतरंगिणी की रचना की और उसके बाद जोनराज ने राजतरंगिणी का दूसरा खंड लिखा। आगे भी दो खंड लिखे गए। इस तरह से हम देखते हैं कि कश्मीर का साहित्यिक और सांस्कृतिक वैभव अपने जमाने में शिखर पर था। भारत के स्वतंत्रता के कुछ समय पहले से और उसके कुछ दिनों के बाद से कश्मीर में जिस तरह की राजनीति की गई उसने भी यहां की समृद्ध सांस्कृतिक विरासत की विकास यात्रा को अवरुद्ध कर दिया। स्वाधीन भारत में कश्मीर एक ऐसा मुद्दा बना रहा जिसपर हमेशा से राजनीति होती रही। राजनीति भी ऐसी जिसको न तो प्रदेश की विकास की फिक्र थी और न ही विचारों के निर्बाध प्रवाह की। विकास और विचार दोनों बाधित हुए। विकास और विचार को बाधित करने के बाद वहां आतंक को केंद्र में लाने का कुत्सित प्रयास हुआ। आतंकवाद ने लंबे कालखंड तक न केवल कश्मीर की जनता को परेशान किया बल्कि उसको देश दुनिया से काटकर रखा। एक समय तो ऐसा भी आ गया था जब लगने लगा था कि कश्मीर हाथ से निकलने वाला है। वहां के हालात बेकाबू थे। कश्मीरी हिंदुओं की हत्या और उनके पलायन ने स्थिति को और बिगाड़ दिया। जो धरती कभी शैव मत के दर्शन को शक्ति प्रदान करनेवाली रही, वो धरती जहां के लोग शिव और विष्णु के उपासक थे उसी धरती से हिंदू धर्म को माननेवालों को या तो मार डाला गया या उनको उस धरती को छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया। इस तरह से कश्मीर की जनता को धर्म के आधार पर विभाजित करने का जो खेल स्वाधीनता के बाद से आरंभ हुआ था वो कश्मीरी हिंदुओं के पलायन के साथ अपने चरम पर पहुंचा।
अनुच्छेद 370 खत्म होने के बाद से कश्मीर में जिस तरह से विकास के साथ साथ विचार का प्रवाह भी आरंभ हुआ है उसने एक उम्मीद जगाई है। कश्मीर में आयोजित कुमांऊ लिटरेचर फेस्टिवल के दौरान स्थानीय कश्मीरी छात्रों की भागीदारी या स्थानीय लेखकों की उपस्थिति और सत्रों में हिस्सेदारी संतोषजनक रही। छात्रों में इस बात को जानने की उत्सुकता थी कि अन्य भाषाओं में क्या लिखा जा रहा है। अन्य प्रदेशों में किन बिंदुओं पर विमर्श होते हैं और उन विमर्शों से क्या निकलकर आता है। उनके अंदर सिनेमा की बारीकियों और उनसे जुड़े किस्सों को सुनने की भी ललक दिखाई पड़ रही थी। जब राज कपूर के सहायक निर्देशक रहे और बाद में ‘बेताब’ और ‘लव स्टोरी’ जैसी फिल्में बनाने वाले राहुल रवैल के सत्र में कश्मीरी युवकों की प्रश्नाकुलता देखते ही बनती थी। वो ये जानना चाहते थे कि जिस फिल्म के नाम पर कश्मीर में बेताब वैली है उसके निर्माता के उस वक्त के अनुभव क्या थे। जब राहुल रवैल ने बताया कि ‘बाबी’ फिल्म का कुछ हिस्सा डल झील के किनारे शूट हुआ था तो युवकों की जिज्ञासा और बढ़ गई। राहुल रवैल साहब ने भी विस्तार से अपनी बात रखकर उपस्थित श्रोताओं की जिज्ञासा शांत करने की कोशिश की। कश्मीर में इस तरह के आयोजनों से न केवल वहां के युवाओं के मन में उठ रहे प्रश्नों का शमन होगा बल्कि उनकी रचनात्मकता को विस्तार मिलेगा। भारत सरकार और कश्मीर प्रशासन दोनों को ये सोचना चाहिए कि विकास के साथ विचार का भी अगर प्रवाह होगा तो वो लोगों के मन मस्तिष्क को खोलेगा जो किसी समस्या के हल के लिए आवश्यक अवयव है।
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