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Saturday, October 15, 2022

कला को सांप्रदायिक बनाने की कोशिश


महाराष्ट्र के एक नेता हैं, नाम है शरद पवार। पहले कांग्रेस में थे। कांग्रेस के अध्यक्ष पद का चुनाव लड़ा था। पराजित हुए थे। सोनिया गांधी के विदेशी मूल का मुद्दा उठाकर कांग्रेस से अलग हो गए थे। अपनी पार्टी बनाई। फिर कांग्रेस के साथ हो लिए। महाराष्ट्र में दोनों पार्टियों ने मिलकर शासन किया। शिवसेना का विरोध करते रहे लेकिन शिवसेना के साथ भी सत्ता में साझेदारी की। शरद पवार की चर्चा का कारण है उनका हाल में दिया गया एक बयान। अपने इस बयान में शरद पवार ने कहा कि अगर हम कला, कविता और लेखन के बारे में बात करें तो अल्पसंख्यकों में इन क्षेत्रों में योगदान देने की अपार क्षमता है। उन्होंने ये कहने के बाद प्रश्न उठाया कि बालीवुड में सबसे अधिक योगदान किसका है। फिर उसका उत्तर दिया कि मुस्लिम अल्पसंख्यकों ने सबसे अधिक योगदान किया, हम इसकी अनदेखी नहीं कर सकते। शरद पवार का ये बयान बेहद गंभीर और समाज को बांटनेवाला है। अबतक इस देश में कला और साहित्य को धर्म के आधार पर बांटने का प्रयास नहीं हुआ है लेकिन शरद पवार के इस बयान में ये दिखता है। 

शरद पवार दावा कर रहे हैं कि बालीवुड मे सबसे अधिक योगदान मुस्लिम अल्पसंख्यकों का है। देश का इतना बड़ा नेता जब इस तरह का बयान देते हैं तो उसके परिणाम की कल्पना की जा सकती है। इसलिए शरद पवार को ये बताना आवश्यक है कि बालीवुड में मुस्लिमों के सबसे अधिक योगदान का उनका जो दावा है वो न केवल प्रतिभा बल्कि आंकड़ों के हिसाब से भी हवाई है। ऐसा कहकर वो महाराष्ट्र के उन फिल्मकारों का भी अपमान कर रहे हैं जिन्होंने अपना जीवन होम करके फिल्म विधा को भारत में स्थापित और समृद्ध किया। शरद पवार शायद ये भूल गए कि दादा साहब फाल्के भी महाराष्ट्र के ही थे। उन्होंने जब फिल्म बनाया तो अपनी पत्नी के गहने गिरवी रखे और फिल्म बनाने के दौरान उनकी आंखों पर बहुत बुरा असर पड़ा था। दादा साहेब फाल्के के बाद महाराष्ट्र के ही बाबूराव पेंटर ने सैरंध्री नामक फिल्म बनाई जिसको उस समय खूब सराहना मिली थी। भीम और कीचक की भूमिका में बाबूराव ने दो पेशेवर पहलवान, सरदार बाला साहब यादव और झुंझार राव पवार को लिया था। बाबू राव पेंटर को भारतीय फिल्मों की पहली मौलिक प्रतिभा के तौर पर फिल्म इतिहासकार देखते हैं। इस तथ्य को भी रेखांकित किया जाता रहा है कि बाबूराव पेंटर के साथ रहकर ही शांताराम, विनायक राव, भालजी पेंढरकर और विष्णुपंत गोविंद दामले ने फिल्म कला की बारीकियां सीखी थीं। शरद पवार की टिप्पणी कि बालीवुड में मुस्लिमों का सबसे अधिक योगदान है को अगर इन महानुभावों के योगदान के सामने रखकर देखेंगे तो शरद पवार की अज्ञानता साफ तौर पर नजर आती है। भारतीय फिल्मों के परिदृष्य पर नजर डालते हैं को वहां भी देवकी बोस, नितिन बोस प्रथमेश बरुआ, फणी मजूमदार, रायचंद्र बोराल, दुर्गा खोटे, देविका रानी, हिमांशु राय जैसे अनगिनत नाम हमारी स्मृतियों में आते हैं। हिमांशु राय ने भारतीय फिल्मों को वैश्विक स्वरूप प्रदान किया। अब अगर उस दौर से आगे बढ़ते हैं और स्वाधीनता के बाद के दौर के हिंदी फिल्मों को देखते हैं तो भी मुस्लिमों का सबसे अधिक योगदान नजर नहीं आता है। हिमांशु राय की फिल्म कर्मा लंदन और बर्मिंघम के सिनेमाघरों में 1933 में प्रदर्शित की गई थी। इस फिल्म का निर्माण भारत, ब्रिटेन और जर्मनी के निर्माताओं ने संयुक्त रूप से किया था। इसमें हिमांशु राय और देविका रानी थी। इस फिल्म के बारे में लंदन के समाचारपत्रों में कई प्रशंसात्मक लेख छपे थे। लेकिन शरद पवार अपनी टिप्पणी करते समय इन सबके योगदान को क्यों नहीं देख पाते हैं।

स्वाधीनता के बाद के दौर को भी देखें तो फिल्मों में मुसलमानों का योदगान सबसे अधिक नहीं दिखाई देता है। अशोक कुमार, राज कपूर, देवानंद, गुरु दत्त जैसे लोगों को शरद पवार बहुत आसानी से भूल जाते हैं। गुरु दत्त ने भारतीय सिनेमा को जो ऊंचाई प्रदान की उसको फिल्म के बारे में जानने वाला कोई भी व्यक्ति नहीं भुला सकता है। प्यासा, कागज के फूल, साहब बीबी और गुलाम जैसी फिल्में बनानेवाले गुरु दत्त के बारे में कहा जाता है कि वो रूपहले पर्द पर पात्रों के माध्यम से कविता करते थे। बालीवुड में योगदान कि जब बात आती है तो क्या लता मंगेशकर को भुलाया जा सकता है या उनके किसी भी गायक की तुलना की जा सकती है। मराठा शरद पवार को लता मंगेशकर भी याद नहीं आई और उन्होंने एक बचकाना बयान दे दिया। याद तो शरद पवार को अमिताभ बच्चन भी नहीं आए जिनको सदी का महानायक कहा जाता है। जो पिछले पचास से अधिक वर्षों से फिल्मी दुनिया में न केवल सक्रिय हैं बल्कि फिल्म. टीवी और ओटीटी(ओवर द टाप) पर भी उनकी लोकप्रियता बरकरार है। जितेन्द्र से लेकर धर्मेन्द्र तक और अनिल कपूर से लेकर कार्तिक आर्यन तक की याद भी शरद पवार को नहीं आई। अभिनेत्रियों की भी लंबी सूची है जिसके बारे में बोलने के पहले शरद पवार ने विचार नहीं किया। 

अब जरा आंकड़ों पर गौर कर लेते हैं। 1967 से राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिए जाने लगे इसके पहले इसको स्टेट अवार्ड फार फिल्म्स कहते थे। 1969 से भारतीय फिल्मों में विशिष्ट योगदान के लिए दादा साहब फाल्के सम्मान का आरंभ हुआ। 1969 में पहला दादा साहब फाल्के अवार्ड अभिनेत्री देविका रानी को दिया गया। तब से लेकर अबतक 52 कलाकारों को दादा साहब फाल्के अवार्ड दिया जा चुका है इनमें से तीन, संगीतकार नौशाद, अभिनेता दिलीप कुमार और गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी ही मुस्लिम समुदाय से आते हैं। कला का यह बंटवारा उचित नहीं है लेकिन चूंकि शरद पवार ने यह बात उठाई है तो उनको यह बताना आवश्यक है कि सबसे अधिक योगदान का अर्थ क्या होता है। कम से 52 में से तीन तो नहीं ही होता है। कुछ लोग ये कह सकते हैं कि मदर इंडिया और मुगल ए आजम बनाकर महबूब खान और के आसिफ ने भारतीय सिनेमा का समृद्ध किया। यहां भी एक दिलचस्प तथ्य है। 1957 में मदर इंडिया सिनेमाघरों में प्रदर्शित हुई थी। उस वर्ष के स्टेट अवार्ड फार फिल्म्स की सूची पर नजर डालते हैं तो उस वर्ष के सर्वश्रेष्ठ फिल्म का अवार्ड फिल्म दो आंखें बारह हाथ के लिए व्ही शांताराम को मिला था जबकि महबूब खान की मदर इंडिया को सिर्फ प्रशंसा पत्र प्रदान किया गया था। अब जरा राष्ट्रीय फिल्म अवार्ड की सूची पर भी नजर डाल लेते हैं। अबतक राष्ट्रीय फिल्म में 54 बार सर्वश्रेष्ठ फिल्म अभिनेता को पुरस्कृत किया गया है। कई बार संयुक्त रूप से भी दिया गया है। इन 54 में से सिर्फ तीन मुस्लिम अभिनेताओं नसीरुद्दीन शाह, सैफ अली खान और इरफान खान को सर्वश्रेष्ठ अभिनेता का पुरस्कार मिला है। बाकी 51 अभिनेता किस समुदाय से आते हैं  कहने की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह से अबतक सिर्फ चार मुस्लिम अभिनेत्रियों नर्गिस, रेहाना, वहीदा रहमान और शबाना आजमी को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार दिया गया है। 

शरद पवार तीन बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रहे और उनके मुख्यमंत्रित्व काल में सिर्फ एक मुस्लिम कलाकार दिलीप कुमार को दादा साहब फाल्के पुरस्कार दिया गया। तब शरद पवार ने तो कोई प्रश्न नहीं खड़ा किया। वो 2004 से 2014 तक केंद्र में मंत्री रहे। इस दौरान किसी भी मुस्लिम का दादा साहब फाल्के अवार्ड नहीं मिला। तब भी उन्होंने इस बात पर सार्वजनिक चिंता नहीं की। शरद पवार जैसे नेता जब कला और कलाकार के बारे में बोलते हैं तो उनको बहुत सोचविचार कर बोलना चाहिए। कला को हिंदू मुसलमान में बांटने का प्रयास नहीं करना चाहिए। 


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