अशोक वाजपेयी के इंकार के बाद अष्टभुजा शुक्ल का नाम काव्य पाठ वाले सत्र में शामिल किया गया । अनामिका, बद्री नारायण, दिनेश कुशवाह और मानव कौल ने कविताएं पढ़ीं। साहित्य अकादमी पुरस्कार के लिए चयनित बद्री नारायण ने बताया कि उनको भी आयोजकों की तरफ से फोन आया था। फोन करनेवाले ने पूछा था कि वो किस तरह की कविताएं पढ़ेंगे। बद्री नारायण ने उनसे कहा कि वो हाशिए के लोगों को लेकर लिखी कविताओं का पाठ करेंगे।बात समापत हो गई। दिनेश कुशवाह को भी फोन कर पूछा गया था कि वो किस तरह की कविताएं पढ़ेंगे। उन्होंने तो आयोजकों को कहा कि वो जैसी कविताएं लिखते हैं वही पढ़ेंगे। उन्होंने जिज्ञासा भी प्रकट की कि ये प्रश्न क्यों पूछा जा रहा है। फोन करनेवाले ने बताया था कि ये सूचनाएं सत्र संचालक की सुविधा के लिए जुटाई जा रही हैं। बात खत्म हो गई। अब पता नहीं अशोक वाजपेयी को आयोजकों ने ऐसा क्यों कहा कि वो राजनीति या सरकार की सीधी आलोचना वाली कविता नहीं पढ़ें। वैसे अशोक वाजपेयी राजनीतिक कविता लिखने के लिए जाने भी नहीं जाते हैं। उनकी कविताओं का मूल स्वर तो प्रेम, प्रकृति और देह है। राजनीतिक कविताओं का तो वो उपहास ही करते रहे हैं। राजनीतिक कविताओं को लेकर उन्होंने एक बार टिप्पणी की थी कि इनमें अभिधा का आतंक होता है। ऐसे कवि से कोई भी आयोजक ये क्यों कहेगा कि वो राजनीति या सरकार की सीधी आलोचना वाली कविता न पढ़ें। वो भी रेख्ता जैसी संस्था जिनसे अशोक वाजपेयी का ना केवल परिचय रहा है बल्कि बहुत गहरे और पुराने संबंध भी। रेख्ता की तरफ से सफाई आई। उनकी तरफ से सिर्फ ये पूछा गया था कि अशोक जी किस विषय पर बोलने जा रहे हैं। रेख्ता की सफाई में ये भी कहा गया है कि उनकी तरफ से किसी विशेष कविता के नहीं पढ़ने या पढ़ने का कोई आग्रह नहीं किया गया था। रेख्ता के प्लेटफार्म पर तो जावेद अख्तर और कुमार विश्वास जैसे कवि अपनी कविताओं का पाठ करते रहे हैं और बहुधा राजनीतिक टिप्पणियां भी। रेख्ता का कहना है कि पूरा मसला चकित करनेवाला और अप्रसांगिक है। सचाई क्या है ईश्वर जानें।
ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक वाजपेयी किसी न किसी बहाने से चर्चा में बने रहने का बहाना ढूंढ़ते रहते हैं। वो हमेशा से राजनीति और सत्ता से दूर रहने का दंभ भी भरते रहे हैं। राजनेताओं के साथ मंच साझा करने को लेकर भी वो चुनिंदा स्टैंड लेते रहते हैं। किसी दल के नेता के साथ मंच साझा करने में उनको कोई आपत्ति नहीं होती है तो किसी दल के नेता के साथ वो मंच पर दिखना नहीं चाहते हैं। कई अवसरों पर उनको राजनेताओं के साथ देखा गया है, कई बार मंच पर भी। हाल ही में अशोक वाजपेयी ने राहुल गांधी की भारत-जोड़ो यात्रा में शामिल होकर अपनी प्रतिबद्धता को सार्वजनिक भी किया था। यहां वो कह सकते हैं कि ये राजनीतिक यात्रा नहीं थी लेकिन सचाई सबको पता है। लोकतंत्र में किसी को भी कहीं जाने या अपनी पसंद के दल के नेताओं के साथ दिखने की स्वतंत्रता है। अशोक वाजपेयी को भी है। जब पसंदीदा नेताओं या दल के मंच पर खड़ा होना है तो ये नैतिक स्टैंड खोखला लगता कि लेखकों को नेताओं से दूर रहना चाहिए। कांग्रेस पार्टी से उनके पुराने संबंध रहे हैं, हलांकि वो अपने लेखन में इसका साक्ष्य नहीं होने की बात करते हैं। लेखन में न सही लेकिन उनके क्रियाकलापों में तो ये निरंतर दिखता है। जब वो एक केंद्रीय विश्वविद्यालय के कुलपति थे तो गुजरात हिंसा के खिलाफ अभियान चलाया था। राष्ट्रपति को ज्ञापन आदि भी देने गए थे। अभी भी हर चुनाव के पहले चलनेवाले नरेन्द्र मोदी या भारतीय जनता पार्टी विरोधी हस्ताक्षर अभियान में उनके हस्ताक्षर दिख जाते हैं। वो इसको एक नागरिक के कर्तव्य के तौर पर प्रचारित करते हैं। उन्होंने ये स्वीकार भी किया है कि उनकी प्रशासनिक सेवाओं का दो तिहाई हिस्सा कांग्रेसी सरकारों के साथ काम करते हुए बीता है। इसमें वो ये जोड़ना नहीं भूलते कि वो सभी सरकारों को लोकतांत्रिक प्रणाली ने चुना था। प्रश्न ये उठता है कि 2014 से या उसके बाद जो सरकारें बन रही हैं क्या वो लोकतांत्रिक प्रणाली से नहीं चुनी जा रही हैं।
अशोक वाजपेयी ने अपने एक साक्षात्कार में नामवर सिंह को अचूक अवसरवादी कहा था। उस साक्षात्कार में उन्होंने नामवर सिंह के विचलनों का साक्ष्य देने का दावा किया था। क्या राहुल गांधी के साथ उनकी पदयात्रा में शामिल होकर अशोक वाजपेयी ने स्वयं ये साक्ष्य प्रस्तुत नहीं कर दिया कि उनकी राजनीतिक प्रतिबद्धता क्या है। पदयात्रा में शामिल होने को वो प्रतिरोध का स्थापत्य गढ़ना भी कह सकते हैं लेकिन उनकी पालिटिक्स हिंदी समाज को समझ आती है। बिहार विधानसभा चुनाव के पहले असहिष्णुता के नाम पर पुरस्कार वापसी अभियान चलाना भी उसी राजनीति का एक भाग था। अशोक वाजपेयी को उस समय आपत्ति नहीं हुई थी या कला संस्कृति पर कोई खतरा नजर नहीं आया था जब राजीव गांधी के शासनकाल में सलमान रश्दी की पुस्तक के आयात पर प्रतिबंध लगाया गया था। पुरस्कार वापसी जैसा कदम तब भी नहीं उठाया था जब मकबूल फिदा हुसैन ने भारत की नागरिकता छोड़ने का निर्णय लिया था। क्यों? क्योंकि तब केंद्र में कांग्रेस की सरकार थी। दरअसल अशोक वाजपेयी प्रतिरोध का स्थापत्य तभी गढ़ते हुए दिखते हैं जब राजनीति या राजनीतिक स्थितियां उनके अनुकूल नहीं होती है। आज स्थितियां इस तरह की बन गई हैं कि अशोक वाजपेयी ने नामवर सिंह को जिस विशेषण से विभूषित किया था वो पलटकर उनपर ही चिपकता नजर आ रहा है। नामवर जी में हो सकता है विचलन हो लेकिन इनके कांग्रेस प्रेम में तो निरंतरता है।