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Saturday, February 18, 2023

सम्मेलन का स्वरूप बदलने की आवश्यकता


फिजी के शहर नांदी में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन समाप्त हो गया है। अड़तालीस वर्षों में विश्व हिंदी सम्मेलन ने बारह पड़ाव तय किए हैं। हर सम्मेलन के दौरान पारित प्रस्तावों पर नजर डालने से पता चलता है कि हिंदी भाषा को लेकर अलग अलग चिंताएं रही हैं। हर सम्मेलन में किसी न किसी रूप में हिंदी को संयुक्त राष्ट्र की आधिकारिक भाषा बनाने की बात उठती ही रही है। इस बार भी दो तीन सत्रों में वक्ताओं ने इस विषय को उठाया। यह एक भावनात्मक मुद्दा है जिसको रोका नहीं जा सकता है, रोका जाना भी नहीं चाहिए। फिजी में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन में हिंदी को विश्व भाषा यानि हिंदी को बोलने-जानने वालों और उसके प्रति अनुराग रखनेवालों विश्व के सभी नागरिकों के बीच हिंदी को संपर्क और संवाद की भाषा के रूप में विकसित करने पर जोर दिया गया। अगर हम पिछले आयोजनों और उसके प्रस्तावों पर नजर डालते हैं तो यह बात थोड़ी ही अलग दिखती है। एक मंतव्य ऐसा भी है जिसकी चर्चा 2007 में भी हो चुकी थी और उसको फिर से दोहराया गया है। 13-15 जुलाई 2007 को अमेरिका के न्यूयार्क में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के पारित मंतव्यों में से एक मंतव्य ये था कि विश्व हिंदी सचिवालय के कामकाज को सक्रिय एवं उद्देश्यपरक बनाने के लिए सचिवालय को भारत तथा विश्व के चार पांच अन्य देशों में इस सचिवालय के क्षेत्रीय कार्यालय खोलने पर विचार किया जाए। 2023 में कहा गया है कि विश्व सभ्यता को हिंदी की क्षमताओं का समुचित सहकार प्राप्त हो सके, इसके लिए यह सम्मेलन विश्व हिंदी सचिवालय को बहुराष्ट्रीय संस्था के रूप में विकसित करने तथा प्रशांत क्षेत्र सहित विश्व के अन्य भागों में इसके क्षेत्रीय केंद्र स्थापित करने की आवश्यकता का भी अनुभव कर रहा है। इसको देखकर ये लगता है कि नांदी में सम्मेलन का जो प्रतिवेदन विदेश राज्यमंत्री मुरलीधरन ने हिंदी प्रेमियों के समक्ष रखा उसको तैयार करनेवालों ने पर्याप्त तैयारी नहीं की। जो बिंदु सोलह वर्ष पहले आयोजित सम्मेलन के मंतव्य का हिस्सा रहा हो उसके ही शब्दों को थोड़ा बहुत बदलकर फिर से प्रतिवेदन का हिस्सा बनाना उचित नहीं कहा जा सकता है। इस तरह की कई चीजें फिजी के सम्मेलन में घटित हुईं जिसको लेकर विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजन के स्वरूप पर पुनर्विचार की आवश्यकता है। 

वर्षों से विश्व हिंदी सम्मेलन का स्वरूप वही बना हुआ है। सम्मेलन में कुछ सत्र होंगे। हर सत्र में आठ-दस वक्ता होंगे । सभी अपनी-अपनी बात रखेंगे। कुछ पुस्तकों का विमोचन होगा। एक स्मारिका का प्रकाशन किया जाएगा। सम्मेलन के दौरान चार पन्ने का एक समाचार पत्र निकाला जाएगा। अब तकनीक ने बहुत से कामों को आसान कर दिया है तो इसके आयोजन और अन्य गतिविधियों को तकनीक आधारित किए जाने की आश्यकता है। उदाहरण के तौर पर अगर देखा जाए तो इस वर्ष सम्मेलन के दौरान जिस चार पन्ने के समाचार पत्र का प्रकाशन हुआ उसको अगर इलेक्ट्रानिक फार्मेट में बनाकर प्रतिदिन सभी प्रतिभागियों के व्हाट्सएप और ईमेल पर भेजने की व्यवस्था की जाती तो इसकी सार्थकता होती। उसके प्रकाशन पर आनेवाले खर्च को कम करके हिंदी भाषा के विकास पर खर्च किया जा सकता है। अगर इसका प्रकाशन इलेक्ट्रानिक फार्मेट में हो तो उसमें प्रतिदिन आयोजित होनेवाले सत्रों में हुई चर्चा को विस्तार से स्थान दिया जा सकता है। यह सम्मेलन के दौरान हुई चर्चा को भविष्य के लिए सहेज कर रखने का एक माध्यम भी हो सकता है। भविष्यय में इसका उपयोग संदर्भ सामग्री के रूप में हो सकता है। अगर ये इलेक्ट्रानिक फार्मेट में होगा तो इसकी पहुंच सम्मेलन स्थल से बाहर विश्व के अन्य देशों तक हो सकती है जहां के हिंदी प्रेमी सम्मेलन में क्या हो रहा है उसके बारे में जान समझ सकेंगे। तकनीक ने हमें अब ये सुविधा दे दी है कि प्रत्येक सत्र में हुई चर्चा के वीडियो को भी कहीं एक जगह अपलोड किया जाए ताकि दुनियाभर के हिंदीप्रेमी उसको देख सुन सकें। इसके लिए सबसे अच्छी जगह तो विश्व हिंदी सचिवालय की वेबसाइट ही हो सकती है। इस तरह के समन्वय के लिए आवश्यक है कि विश्व हिंदी सचिवालय को और सक्रिय भूमिका दी जाए। विश्व हिंदी सचिवालय की वेबसाइट पर वीडियो अपलोड करने का प्रविधान है लेकिन वहां एक आडियो फाइल अपलोड है। इस वेबसाइट को देखने के बाद ऐसा लगता है कि इसको एक ऐसे संपादक या व्यक्ति की आवश्कता है जो इसको अद्यतन रख सके। पहले ये तय भी था कि विश्व हिंदी सचिवालय की विश्व हिंदी सम्मेलनों के आयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका होगी लेकिन अबतक ऐसा हो नहीं सका है। विश्व हिंदी सचिवालय के अन्य केंद्र खोलने से अधिक आवश्यक है कि इस संस्था को ही अपेक्षाकृत अधिक सक्रिय किया जाए। वहां निरंतर कार्य हो और विश्व हिंदी सम्मेलन के दौरान हुई चर्चा और सम्मेलन की अनुशंसाओं के अनुपालन की प्रगति की समीक्षा की जाए। मेरी जानकारी के अनुसार पिछले विश्व हिंदी सम्मेलन की अनुशंसाओं के अनुपालन की समीक्षा के लिए कोई अधिकृत बैठक नहीं हो सकी है। अगर सम्मेलन में पारित प्रस्तावों या सुझावों को लेकर निरंतर कार्य नहीं होगा तो उसका कोई अर्थ नहीं रह जाएगा। कुछ वर्षों के बाद फिर से उसी प्रस्ताव को पारित करने जैसी गलती संभव है। जैसा इस वर्ष हुआ।

विश्व हिंदी सम्मेलन को समय के साथ भी चलने की भी आवश्यकता है। यह अच्छा है कि फिजी में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस( कृत्रिम मेधा) पर चर्चा हुई लेकिन एक वक्ता को छोड़कर किसी ने भी गहराई से उसपर विचार नहीं किया। 2012 में दक्षिण अफ्रीका में आयोजित विश्व हिंदी सम्मेलन के अवसर पर प्रकाशित स्मारिका में इसका उल्लेख था कि प्रगतिशील लेखक संघ ने भारत की सभी भाषाओं के लिए रोमन लिपि अपनाने का सुझाव दिया था, लेकिन देवनागरी लिपि समर्थकों ने ये कहते हुए उसे खारिज कर दिया था कि इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। आज रोमन लिपि हिंदी के सामने एक बड़े खतरे के रूप में उपस्थित है। हिंदी फिल्मों की दुनिया में लगभग सारा कार्य रोमन लिपि में होता है। एक दो अभिनेताओं को छोड़कर लगभग सारे अभिनेता स्क्रिप्ट से लेकर संवाद तक रोमन में पढ़ते हैं। इसके अलावा जो पीढ़ी उन्नत तकनीक के साथ बड़ी हो रही है उसकी भाषा भी न तो देवनागरी हो पा रही है न ही अंग्रेजी। वो अधिकतर रोमन में संवाद करते हैं और अब तो वाक्यों और शब्दों का स्थान चिन्हों ने ले लिया है। हिंदी के सामने जो इस तरह की व्यावहारिक चुनौतियां हैं उसपर विचार करना बेहद आवश्यक है। दूसरी बात ये है कि विश्व हिंदी सम्मेलन और इसके कर्ताधर्ताओं को युवाओं को इससे जोड़ने का उपक्रम करना चाहिए। सम्मेलन के सत्रों को लाइव प्रसारण हो और उसमें युवाओं की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। उनके मन में उठने वाले प्रश्नों पर मंथन हो। कोई ऐसा तंत्र विकसित किया जाए कि पूरी दुनिया में हिंदी से प्रेम करनेवाले युवा इस सम्मेलन से आनलाइन माध्यम से जुड़ सकें। अंत में काका साहब कालेलकर की एक पंक्ति याद आ रही है जहां उन्होंने कहा था कि हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर अगर विजयी बनना है तो वह संस्कृत का सहारा छोड़ नहीं सकती है। उनका मानना था कि भारत के हरेक प्रदेश ने संस्कृत भाषा से, संस्कृत साहित्य से और संस्कृत की शब्द शक्ति से लाभ उठाया है। संस्कृत संस्कृति ही भारतीय संस्कृति का प्राण है। संस्कृत की मदद के बिना भारत की कोई भाषा पनप नहीं सकती है। विश्व हिंदी सम्मेलन के आयोजकों को, विश्व हिंदी सचिवालय को काका कालेलकर की बातों पर गंभीरता से विचार करना चाहिए। 

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