आज संसद के नए भवन का शुभारंभ होनेवाला है। उसपर जमकर राजनीति हो रही है। कई विपक्षी दल इसके उद्घाटन समारोह के बहिष्कार की घोषणा कर चुके हैं तो कई दल समर्थन में हैं। इस बीच गृह मंत्री अमित शाह ने स्वाधीनता के बाद सत्ता हस्तांतरण के प्रतीक सेंगोल के बारे में देश की जनता को बताया। इसके बाद सेंगोल को लेकर भी पक्ष विपक्ष में दलीलें दी जाने लगीं। कुछ लोगों ने सेंगोल की महत्ता पर प्रश्न खड़े कर दिए। सेंगोल की परंपरा को जब चोल सम्राज्य से जोड़ा गया तो कथित लिबरल और सेक्यूलर बुद्धिजीवियों ने इसको हिंदू राष्ट्र से जोड़ दिया। यहां वो ये भूल गए कि सत्ता के हस्तांतरण के समय इस तरह के दंड को सौंपने का विधान हमारे देश में सदियों से रहा है। महाभारत के शांति पर्व में विस्तार से इस बारे में चर्चा है। कर्नाटक के हंफी के विरुपाक्ष मंदिर में नटराज की मूर्ति के साथ सेंगोल भी है, जिसके शीर्ष पर नंदी की आकृति है। बताया जाता है कि ये मंदिर सातवीं शताब्दी का है। सेंगोल की परंपरा हमें ग्रंथों और मूर्तियों में मिलते हैं। इस पर अनावश्यक विवाद है। जब विवाद अनावश्यक होते है तो शोरगुल ज्यादा होता है।संसद के उद्घाटन और सेंगोल की प्रामाणिकता के शोरगुल में एक महत्वपूर्ण मुद्दा दब गया। सियासी शोर में भाषा के मुद्दे नेपथ्य में चले जाते हैं।
भारतीय भाषाओं के विस्तार और उसको समृद्ध करने के लिए कई संस्थाएं कार्य करती हैं। इनमें हिंदी से जुड़ी संस्थाएं भी हैं जो अन्य कार्यों के अलावा हिंदी और गैर हिंदी भाषियों को हिंदी में श्रेष्ठ लेखन के लिए पुरस्कृत करती रही हैं। ऐसी ही एक संस्था है केंद्रीय हिंदी निदेशालय। ये भारत सरकार के शिक्षा मंत्रालय के उच्चतर शिक्षा विभाग के अंतर्गत आती है। 17 मई 2023 को इस संस्था ने एक महत्वपूर्ण सूचना जारी की। विषय़ था शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत विभिन्न भाषाओं द्वारा दिए जा रहे पुरस्कारों का युक्तिकरण-हिंदी भाषा में पुरस्कारों को बंद करने के सबंध में। इस सूचना में बताया गया कि भाषा प्रभाग, उच्चतर शिक्षा विभाग, शिक्षा मंत्रालय, दिल्ली के उपसचिव के निदेश पत्रांक एफ संख्या 8-86/2015/एल-II दिनांक 4 मई 2023 की अनुपालना के परिप्रेक्ष्य में सर्वसाधारण को सूचित करने का निदेश हुआ है कि शिक्षा मंत्रालय ने केंद्रीय हिंदी निदेशालय द्वारा शिक्षा पुरस्कार योजना तथा हिंदीतर भाषी लेखक पुरस्कार योजना के अंतर्गत दिए गए पुरस्कारों को समाप्त करने का निर्णय लिया है। यानि कि पिछले कई वर्षों से दिए जा रहे इन पुरस्कारों को भारत सरकार ने बंद कर दिया। बताया जा रहा है कि इसी तरह से केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा के पुरस्कारों को भी शिक्षा मंत्रालय ने बंद कर दिया है। केंद्रीय हिंदी संस्थान भी हिंदी सेवियों के अलावा गैर हिंदी भाषियों को हिंदी में श्रेष्ठ कार्य करने के लिए पुरस्कृत करती है। प्रवासी लेखकों को भी। केंद्रीय हिंदी संस्थान के पुरस्कार बेहद सम्मानित माने जाते हैं। ये राष्ट्रपति के हाथों दिए जाते थे जो परंपरा कई वर्षों से बंद है। संस्थान से सुब्रह्मण्य भारती, दीनदयाल उपाध्याय, सरदार वल्लभ भाई पटेल, गंगा शरण सिंह, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे महानुभावों के नाम से वर्षों से दिए जा रहे पुरस्कारों को बंद कर दिया गया। प्रश्न ये उठता है कि इन महत्वपूर्ण पुरस्कारों को बंद करने का निर्णय सरकार के स्तर पर हो गया या हिंदी भाषा के लिए कार्य कर रहे विद्वानों या इन संस्थाओं में शीर्ष पर बैठे लोगों से विमर्श किया गया।
शिक्षा मंत्रालय की तरफ से इन संस्थानों को 4 मई 2023 को जो आदेश आया है उसमें लिखा है कि गृह मंत्रालय के निर्देश पर राष्ट्रपति द्वारा दिए जानेवाले पुरस्कारों और अन्य भाषाई पुरस्कारों का युक्तिकरण किया जा रहा है। इस सिलसिले में शिक्षा मंत्री की अध्यक्षता में एक बैठक 15.11.2022 को हुई। इस बैठक में चर्चा के दौरान ये बात सामने आई कि हिंदी के लिए विभिन्न मंत्रालयों और संस्थाओं द्वारा पुरस्कार दिए जाते हैं। इसलिए शिक्षा मंत्रालय के अंतर्गत केंद्रीय हिंदी संस्थान और केंद्रीय हिंदी निदेशालय के पुरस्कार के संबंध में किसी प्रकार की कार्यवाही न की जाए। कुछ इसी तरह का निर्देश राष्ट्रीय सिंधी भाषा विकास परिषद को भी प्राप्त हुआ है। उनको भी निर्देशित किया गया है कि वो अपने पुरस्कारों पर किसी तरह की कार्यवाही न करें।
इन सूचनाओं से ये पता चलता है कि गृह मंत्रालय के निर्देश के आलोक में शिक्षा मंत्रालय ने हिंदी के पुरस्कारों को बंद करने का निर्णय लिया है। हैरानी की बात है कि गृह मंत्री अमित शाह हिंदी की व्याप्ति को बढ़ाने के लिए निरंतर प्रयासरत हैं और उनके ही मंत्रालय के निर्देश पर हिंदी और हिंदीतर भाषियों के पुरस्कारों को बंद किया जा रहा है। जब 2014 में नरेन्द्र मोदी की सरकार सत्ता में आई थी तो उसके दो वर्ष बाद 2016 में केंद्रीय हिंदी संस्थानों के पुरस्कारों की राशि एक लाख रुफए से बढ़ाकर पांच लाख रुपए कर दी गई थी। तब उसका हिंदी जगत में स्वागत हुआ था। सात वर्षों में ऐसा क्या हो गया कि यही सरकार उन पुरस्कारों को बंद कर रही है। एक अनुमान के मुताबिक देश में हिंदी भाषियों की संख्या 60-70 करोड़ के करीब है। ऐसे में अगर अलग अलग मंत्रालय और संस्थाएं हिंदी सेवियों को पुरस्कृत करती हैं तो उसमें हानि क्या है। अगर इन पुरस्कारों को युक्तिसंगत करने के लिए बंद किया गया है तो हिंदी भाषी लोगों से इस बारे में चर्चा करनी चाहिए थी।
एक तरफ गृह मंत्रालय हिंदी और हिंदीतर भाषा के पुरस्करों को बंद कर रही है दूसरी तरफ वित्त मंत्रालय के अंतर्गत आनेवाला एक बैंक 61 लाख रुपए के पुरस्कारों की घोषणा कर चुका है। पुरस्कारों के लिए उसकी लांगलिस्ट प्रकाशित हो चुकी है। ये अलग बात है कि बैंक का ये पुरस्कार अनुवाद के लिए है। हैरानी की बात है कि इस पुरस्कार के लांगलिस्ट में भी हिंदी में अनूदित कोई पुस्तक नहीं है। इस पुरस्कार की जूरी के सदस्यों के नाम देखने पर फिल्म द कश्मीर फाइल्स के एक संवाद का स्मरण होता है- सरकार कोई भी हो सिस्टम तो अपना ही चलता है। इस पुरस्कार की जूरी में बुकर पुरस्कार से सम्मानित और वैचारिक रूप से वामपंथ के साथ गीतांजलिश्री, प्रसिद्ध वामपंथी लेखक अरुण कमल और पुष्पेश पंत आदि हैं। इसमें अनुवाद के लिए पहला पुरस्कार कृति की मूल भाषा के लेखक को रु 21 लाख और अनुवादक को 15 लाख रुपए देने का प्रविधान है। इसके अलावा 5 अन्य अनुवाद के पुरस्कार दिए जाने हैं जिसमें मूल कृति के लेखक को तीन लाख रुपए और अनुवादक को 2 लाख रु दिए जाएंगे। राशि के लिहाज से अगर देखें तो ये भारत का सबसे बड़ा पुरस्कार है। क्या ये वित्त मंत्रालय की बिना सहमति के आरंभ हुआ है। अगर बगैर भारत सरकार की सहमति के इतनी भारी भरकम रकम का पुरस्कार सरकारी बैंक से दिया जा रहा है तो भी चिंता की बात है। पुरस्कार की ये राशि भी करदाताओं के पैसे दिए जाने हैं और हिंदी निदेशालय या हिंदी संस्थान के पुरस्कार भी करदाताओं के पैसे दिए जाने हैं। अगर गृह मंत्रालय पुरस्कारों को युक्तिसंगत करना चाहता है तो क्या वहां से वित्त मंत्रालय को किसी प्रकार का निर्देश गया था।
भारत सरकार को हिंदी भाषा की समृद्धि और उसके विस्तार के लिए काम करनेवालों को दिए जानेवाले इन पुरस्कारों को बंद किए जाने के अपने निर्णय पर पुनर्विचार करना चाहिए। गृह मंत्री अमित शाह को हस्तक्षेप करना चाहिए। कुछ वर्षों पूर्व इसी तरह से हिंदी की संस्थाओं के विलय का प्रस्ताव आया था लेकिन तब प्रधानमंत्री के हस्तक्षेप के बाद उसका कार्न्वयन रोक दिया गया था। सरकार को हिंदी के पुरस्कारों को युक्तिसंगत बनाते समय हिंदी भाषा-भाषियों की संख्या पर भी विचार करना चाहिए।