मणिपुर पर संसद में चल रहे गतिरोध और शोरशराबे के बीच 24 जुलाई को राज्यसभा में संस्कृति मंत्रालय से जुड़ी राष्ट्रीय अकादमियां और अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं के कामकाज से संबंधित एक रिपोर्ट पेश की गई। इस रिपोर्ट में अकादमियों के बीच समन्वय पर टिप्पणी की गई है। इसके अलावा इन अकादमियों और संस्कृतिक संस्थाओं की चुनौतियों और अवसरों पर भी बात की गई है। 96 पन्नों की यह महत्वपूर्ण रिपोर्ट है। इस रिपोर्ट में संसदीय समिति ने 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान के कारणों पर मंथन किया और अपने सुझाव दिए। एक बार फिर याद दिला दें कि बिहार विधानसभा चुनाव के पहले सुनियोजित तरीके से असहिष्णुता को मुद्दा बनाकर पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया गया था। इस स्तंभ में पुरस्कार वापसी अभियान की चर्चा कई बार हो चुकी है, उसके प्रमुख रणनीतिकारों के बारे में विस्तार से लिखा गया है इसलिए उन सबको दोहराना उचित नहीं होगा।
पुरस्कार वापसी अभियान के करीब आठ वर्ष बाद संसदीय समिति ने उसपर विचार किया है। समिति ने स्पष्ट रूप से कहा है कि अकादमियों को पुरस्कार देने के पहले संभावित लेखकों, कलाकारों से एक वचन पत्र लेना चाहिए कि अगर उनको पुरस्कार दिया जाता है तो वो भविष्य में उसको नहीं लौटाएंगे। बौद्धिक जगत में इसको केंद्र सरकार से जोड़कर आलोचना हो रही है। कहा जा रहा है कि सरकार अब लेखकों को पुरस्कार देने के पहले वचन पत्र लेना चाहती है। आलोचना करनेवाले यह भूल गए कि पुरस्कार वापसी अभियान के समय एक लेखक ने घोषणा करके खूब प्रचार हासिल किया। जब मामला ठंडा पड़ गया तो साहित्य अकादमी को पत्र लिखकर पुरस्कार वापसी पर खेद प्रकट करते हुए पुरस्कार अपने पास रखने का आग्रह किया। अकादमी के संविधान में पुरस्कार वापसी का कोई प्रविधान ही नहीं है इसलिए उसने किसी का लौटाया गया पुरस्कार स्वीकार नहीं किया। पुरस्कार वापसी अभभियान के समय कई लेखकों ने साहित्य अकादमी परिसर में कदम न ऱकने की कसम खाई थी। वो भी राजनीतिक कसम साबित हुआ । अब वो सभी लेखक साहित्य अकादमी के कार्यक्रमों में न केवल नजर आते हैं बल्कि सक्रिय सहयोग भी कर रहे हैं। संसदीय समिति ने ठीक लिखा है कि पुरस्कार वापसी अभियान पूरी तरह से राजनीति से प्रेरित था। अकादमी के प्रतिष्ठित पुरस्कारों को राजनीतिक का औजार बनने से रोकने के लिए समिति ने वचन पत्र का सुझाव दिया है। संसदीय समिति का मानना है कि इस तरह राजनीतिक अभियानों का हिस्सा बनने से पुरस्कारों की प्रतिष्ठा कम होती है। अकादमियों का ये दायित्व है कि वो अपने द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों के सम्मान को बनाए रखने का प्रयास करे। संसदीय समिति ने ये भी सुझाव दिया है कि अगर वचन पत्र के बावजूद कोई लेखक या कलाकार पुरस्कार वापसी करता या करती है तो उसके नाम पर भविष्य में किसी भी प्रकार के पुरस्कार के लिए विचार नहीं किया जाए।
संसदीय समिति की रिपोर्ट के इस बिंदु पर जितनी चर्चा हुई उसकी वजह से अन्य महत्वपूर्ण निष्कर्षों या राय पर चर्चा नहीं हो पाई। बौद्धिक जगत अगर इन टिप्पणियों पर चर्चा करता तो देश में साहित्य कला संस्कृति को लेकर एक सकारात्मक वातावरण बनता। संसदीय समिति की रिपोर्ट के दो अन्य बिंदुओं को रेखांकित किया जाना चाहिए। वो है कला और संस्कृति से जुड़े अधिकारियों की संवेदनशीलता और अकादमी और अन्य सांस्कृतिक संस्थाओं में अधिकारियों और कर्मचारियों की कमी। संसदीय समिति ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि सांस्कृतिक प्रबंधन से जुड़े अधिकतर अधिकारियों और कर्मचारियों को इसका बहुत कम ज्ञान है। समिति ने इसके लिए व्यापक स्तर पर कर्मचारियों को प्रशिक्षण देने की अपेक्षा की है। कहा गया है कि मंत्रालय पहले इन कर्मचारियों के प्रशिक्षण क्षेत्रों का आकलन करे और फिर उसके आधार पर कला प्रबंधन के लिए इनके प्रशिक्षण का प्रबंध करे। संस्कृति मंत्रालय में समय-समय पर रेलवे, आयकर, रेलवे लेखा, डाक सेवा और अन्य सर्विस के अधिकारी महत्वपूर्ण पदों पर रहे हैं, अब भी हैं। इनसे कला और कलाकारों को लेकर उस तरह की संवेदशीलता की अपेक्षा नहीं की जा सकती। सूचना सेवा के अधिकारी को अगर कला के संरक्षण का जिम्मा दिया जाएगा तो उनको परेशानी होगी और संरक्षण का कार्य प्रभावित होगा। रेलवे या लेखा विभाग के अधिकारी को अगर नाट्य प्रशिक्षण का कार्य देखने का दायित्व होगा तो उनसे इसकी अपेक्षा नहीं की जा सकती है कि वो हमारे देश की नाट्य परंपराओं को जानें और उसकी संवेदनशीलता को समझते हुए इस क्षेत्र को समृद्ध करने में अपना योगदान दे सकें। इस संबंध में भी इस स्तंभ में कई बार लिखा जा चुका है कि देश में एक संस्कृति नीति बने और कला संस्कृति के अधिकारियों का एक कैडर बने। संसदीय समिति जब अगली बार अपनी रिपोर्ट तैयार करे तो सांसदों को इस दिशा में मंथन करते हुए सरकार को अपनी सुझावों से अवगत करवाना चाहिए।
संसदीय समिति ने दूसरी एक महत्वपूर्ण तथ्य को रेखांकित किया है वो है इन अकादमियों और संस्थाओं में अधिकारियों और कर्माचरियों की कमी। संसदीय समिति ने सूक्ष्मता से इसका आकलन किया है और बताया है कि संगीत नाटक अकादमी में 111 स्वीकृत पद हैं जिनमें से 65 रिक्त हैं। ललित कला अकादमी में 170 में से 99 पद रिक्त हैं। साहित्य अकादमी में 175 में से 44 पद रिक्त हैं। राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में 176 में से 82 पद रिक्त हैं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के 248 स्वीकृत पदों में से 88 रिक्त हैं। इस तरह से देखा जाए तो सात संस्थाओं के 1078 स्वीकृत पदों में 450 पद रिक्त हैं। यानि औसतन एक तिहाई से अधिक पद रिक्त हैं। अभी हाल ही में राष्ट्रीय संग्रहालय से जुड़ी एक बेहद रोचक जानकारी संज्ञान में आई। वहां के एक अधिकारी अगले महीने सेवानिवृत होने जा रहे हैं। उनके पास कलाकृतियों के संरक्षण का दायित्व है। संस्था में कोई ऐसा व्यक्ति नहीं है जिनको वो सेवानिवृत्ति के वक्त चार्ज दे सकें। अगर चार्ज नहीं देंगे तो उनको सेवानिवृत्ति पर मिलनेवाली जमा राशि आदि नहीं मिल पाएगी। उनको कहा जा रहा है कि संस्थान उनको किसी अन्य विधि से सेवा में बनाए रखना चाहती है लेकिन वो सेवानिवृत्ति होना चाहते हैं। देखना होगा कि किस प्रकार से ये मामला परिणति तक पहुंचता है। कला और संस्कृति के इस विषय को संस्कृति मंत्रालय को गंभीरता से देखने की आवश्यकता है। संसदीय समिति ने अपनी पिछली रिपोर्ट में भी और इस रिपोर्ट में भी मंत्रालय को इन पदों को जल्द से भरने का सुझाव दिया है लेकिन पता नहीं किन कारणों से ये संभव नहीं हो पा रहा है। अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव हैं और अगर इस वर्ष दिसंबर या अगले वर्ष जनवरी तक भर्तियां नहीं हो पाती हैं तो फिर मसला जून जुलाई तक टल जाएगा। यह कला संस्कृति के लिए अच्छी स्थिति नहीं होगी।
संस्कृति मंत्रालय का प्राथमिक दायित्व कला और संस्कृति का संरक्षण और सवर्धन है। अगर संस्कृति मंत्रालय अपने इन दायित्वों से हटकर कार्यक्रमों के आयोजन में ही अपनी पूरी ऊर्जा लगा देती है तो फिर संरक्षण और संवर्धन का क्या होगा जिसपर प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी लगातार बल देते हैं। कार्यक्रमों का तात्कालिक महत्व होता है, वो आयोजित होने चाहिए लेकिन संस्कृति मंत्रालय को बहुत गंभीरता के साथ कला संस्कृति को समृद्ध करनेवाले दीर्घकालीन योजनाएं बनाकर उसके क्रियान्वयन पर कार्य करने की आवश्यकता है। संस्कृति मंत्री किशन रेड्डी के पास पहले से पर्यटन और अन्य मंत्रालय की जिम्मेदारी है। अब तो उनको तेलंगाना का प्रदेश अध्यक्ष भी बना दिया गया है। ऐसे में उनके सामने बड़ी चुनौती है कि वो किस तरह से मंत्रालय के अपने प्राथमिक दायित्व का निर्वहन कर पाते हैं।