बुधवार को एक साहित्यिक गोष्ठी में जाने का अवसर मिला। ये गोष्ठी हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल की जन्मतिथि पर आयोजित की गई थी। गोष्ठी में मंचासीन अधिकतर वक्ता विश्वविद्यालयों के शिक्षक थे। कार्यक्रम दो घंटे तक चला और सभी वक्ताओं ने आचार्य शुक्ल को हिंदी साहित्य का पहला व्यवस्थित और प्रमाणिक इतिहास लिखने के लिए याद किया। एक वक्ता ने आचार्य शुक्ल को नामवर सिंह के हवाले से उनको हिंदी नवजागरण से जोड़ते हुए उनके योगदान को रेखांकित किया। गोष्ठी का नियत समय दो घंटे था लेकिन समय अधिक लग गया। कार्यक्रम समाप्त होने के बाद घर वापस लौटते हुए गोष्ठी में हुई चर्चा को याद कर रहा था। वहां आचार्य रामचंद्र शुक्ल के लेखकीय व्यक्तित्व के अपेक्षाकृत अधिक ज्ञात पक्षों पर चर्चा हुई। अपने समय की राजनीति पर आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी और अंग्रेजी में जो टिप्पणियां की थीं उसका किसी वक्ता ने उल्लेख नहीं किया। शुक्ल जी ने अपने लेखों में इतिहास पर लिखा, धर्म पर विचार किया, विज्ञान पर चर्चा की। अंग्रेजी में जो लेख उन्होंने लिखे उसमें कई जटिल विषयों पर अपने विचार जनता के समक्ष प्रस्तुत किए। उन्होंने हिंदुओं और मुसलमानों के संबंधों पर लिखा। जाति व्यवस्था से लेकर धर्म के विकास पर विस्तार से लिखा। गांधी के असहयोग आंदोलन की आलोचना की आदि। उन्होंने उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद में विभेद करते हुए अंग्रेजों को साम्राज्यावादी करार दिया था।
आज इतिहास के पुर्नलेखन को लेकर बहुत चर्चा होती है। पक्ष विपक्ष में अनेक प्रकार के तर्क दिए जाते हैं। मौजूदा सरकार पर कथित प्रगतिशील बुद्धिजीवी आरोप लगाते हैं कि वो इतिहास बदलने की कोशिश कर रही है। इतिहास के पुनर्लेखन का अर्थ ये नहीं है कि इतिहास की घटनाओं को बदल दिया जाएगा। पुनर्लेखन का अर्थ है कि इतिहास लेखन को संतुलित और समग्र किया जाए। आचार्य शुक्ल के संबंध में जो लेखन हुआ या उनके लिखे पर बाद में जो विचार हुआ उसमें उनके व्यक्तित्व के कई आयामों को छोड़ दिया गया। जहां उन्होंने कांग्रेस की आलोचना की, जहां उन्होंने गांधी के कदमों को प्रश्नांकित किया उसको ओझल करने का प्रयास किया है। इस तरह का व्यवहार सिर्फ आचार्य शुक्ल के साथ ही नहीं किया बल्कि उन सभी लोगों के साथ किया गया जिन्होंने कांग्रेस की, गांधी की आलोचना की। उन सभी विचारों को बौद्धिक जगत की परिधि पर पहुंचाया गया ताकि उनपर कम से कम चर्चा हो सके। शुक्ल जी के राजनीतिक लेखों को आगे न बढ़ाकर उनको साहित्य के इतिहासकार और निबंधकार के रूप में रिड्यूस करने का खेल भी खेला गया। इसको लेकर एक जमाने में प्रगतिशील माने जाने वाले नामवर सिंह को भी कहना पड़ा कि हिंदी के लेखकों को बार-बार ये पढ़ाने और समझाने की कोशिश की जाती है कि यदि इंडियन नेशनल कांग्रेस न होती तो राष्ट्रीय चेतना हिंदी लेखकों में आई ही न होती। स्वाधीनता संग्राम का इतिहास सचमुच नए सिरे से लिखा जाना चाहिए और देखना चाहिए कि स्वाधीनता संग्राम में रोष्ट्रीय चेतना और स्वाधीनता की चेतना के विकास में देशी भाषाओं के लेखकों और साधारण जनता की क्या भूमिका है, उनकी अपेक्षा, जो अंग्रेजी माध्यम से इन तमाम चीजों का प्रचार किया करते थे। 1928 में आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने लिखा था, कांग्रेस वर्ष में किसी एक दिन कहीं किसी बड़ी सभा में एकत्र होकर प्रस्ताव पास किया करती थी और स्वाधीनता की मांग याचना से आगे नहीं बढ़ती थी।
जब उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को लेकर बहस चल रही थी तो 1907 में ही आचार्य शुक्ल ने द हिन्दुस्तान रिव्यू में एक लेख लिखकर स्पष्ट किया था कि साम्राज्यावद ही भारत में ब्रिटिश राज की नीति की प्रेरक शक्ति रही है। नामवर सिंह ने माना था कि आच्राय शुक्ल ही पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने साम्राज्यावाद पर अंगुली रखी। उनके अनुसार इसके पहले किसी ने अंग्रेज भारतीय शासकों को इतने स्पष्ट शब्दों में साम्राज्यवादी नहीं कहा था। तब नामवर सिंह ने इस बात की अपेक्षा जताई थी कि विश्वविद्यालयों में इसपर शोध होना चाहिए। नामवर सिंह ये बातें तो कहते रहे लेकिन उन्होंने शुक्ल जी पर इस तरह का कोई शोध करवाया हो ये ज्ञात नहीं है। स्वाधीनता आंदोलन में रत कांग्रेस पार्टी को भी उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद को समझने में काफी समय लगा। इसी कारण से कांग्रेस को स्वराज्य और स्वाधीनता का स्वरूप तय करके उसके बारे में मत बनाने में भी समय लगा। लाहौर अधिवेशन में आकर कांग्रेस ने पूर्ण स्वराज्य की मांग की। आचार्य शुक्ल का एक और महत्वपूर्ण राजनीतिक लेख है जो उन्होंने असहयोग आंदोलन के समय लिखा था। आचार्य शुक्ल ने तब कहा था कि असहयोग आंदोलन देश के पूंजीपतियों का पक्षधर है। इस आंदोलन से पूंजीपतियों का हित हो रहा है। पश्चिम के राष्ट्र अपने को जिससे मुक्त करना चाह रहे हैं उसी पूंजीवाद की ओर यह बढ़ता कदम है। यह पूंजी बटोरने और समाज में व्यक्तिवादी जीवन मूल्यों के क्षुद्र अमेरिकी मानदंड स्थापित करने का प्रयास भर है। अगर 1907 में लिखे आचार्य शुक्ल के लेख और असहोयग आंदोलन पर लिखे उनके लेख को देखें तो ये पता चलता है कि किस तरह से हिंदी का एक लेखक स्वाधीनता आंदोलन के विभिन्न कोणों को देखते हुए उसकी व्याख्या कर रहा था। सिर्फ व्याख्या ही नहीं बल्कि उसकी स्वस्थ आलोचना कर समाज में एक नया विमर्श स्थापित करना चाहता था। आचार्य शुक्ल का एक और अधूरा लेख हिंदी साहित्य के सामने है जिसमें उन्होंने जाति व्यवस्था पर विचार किया था।
आचार्य शुक्ल ने 1917 में लीडर पत्रिका में एक लेख हिंदी और मुसलमान नाम से लिखा था। इस लेख में उन्होंने स्पष्ट रूप से कहा था कि उर्दू कोई स्वतंत्र भाषा नहीं है। यह पश्चिमी हिंदी की एक शाखा मात्र है जिसे मुसलमानों द्वारा अपनी ऐकांतिक रुचियों और पूर्वग्रहों के अनुकूल एक निजी रूप दे दिया है। अपने इस लेख में रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी और उर्दू को लेकर जो भ्रांतियां विदेशी भाषाविज्ञानियों द्वारा पैदा की गई हैं उसका खंडन भी किया है। यह लेख उर्दू और हिंदी के संबंधों को समझने के लिए आवश्यक लेख है। हिंदी और उर्दू के बीच जो खिंचाव दिखाई देता है उसके ऐतिहासिक कारण है। कुल मिलाकर अगर देखा जाए तो आचार्य शुक्ल सिर्फ हिंदी साहित्य का इतिहास लिखनेवाले लेखक नहीं थे बल्कि जैसी वो अपेक्षा करते थे वैसा ही उनका व्यक्तित्व भी था। वो एक साथ समाज सुधारक, राजनीतिक आंदोलनकर्ता, कवि और शिक्षाशास्त्री थे। आचार्य शुक्ल हिंदी के एक ऐसे लेखक थे जिनसे देश की नई पीढ़ी का परिचय करवाना बहुत आवश्यक है। उनके लेखन के विविध कोणों पर व्यापक शोध की आवश्यकता भी है ताकि उनके ओझल हो चुके विचारों को सामने लाया जा सके। इतिहास का पुनर्लेखन इसलिए भी आवश्यक है कि शुक्ल जी जैसे लेखकों का सोच समग्रता में सामने आ सके।
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