लखनऊ में आयोजित होनेवाले आनंद सागर स्मृति कथाक्रम सम्मान का निमंत्रण पत्र पिछले दिनों मिला। कथाक्रम सम्मान, लखनऊ निवासी उपन्यासकार शैलेन्द्र सागर पिछले कई वर्षों से प्रदान कर रहे हैं। कथाक्रम सम्मान के निमंत्रण पत्र को देख रहा था। वहां कोष्ठक में उल्लिखित रजा फाउंडेशन से सहयोग प्राप्त पढ़ते समय थोड़ी देर रुका। रजा फाउंडेशन पूर्व नौकरशाह अशोक वाजपेयी चलाते हैं। इसके पहले कानपुर के किसी महाविद्यालय में आयोजित एक कार्यक्रम की प्रचार सामग्री इंटरनेट मीडिया पर दिखी थी। उसपर भी रजा फाउंडेशन का लोगो लगा था। हिंदी साहित्य से जुड़े कई अन्य कार्यक्रमों में रजा फाउंडेशन का सहयोग दिखता है। इसमें से अधिकतर कार्यक्रमों में रजा फाउंडेशन से संबद्ध अशोक वाजपेयी का नाम वक्ता के तौर पर होता है। कथाक्रम सम्मान समारोह के निमंत्रण पत्र पर भी वक्ता के तौर पर अशोक वाजपेयी का नामोल्लेख है। जब रजा फाउंडेशन का लोगो और अशोक वाजपेयी का नाम वक्ता के तौर पर देखा तो एक उपन्यासकार मित्र को फोन किया। चर्चा के दौरान उन्होंने और भी कई दिलचस्प बातें बताईं। उन्होंने कहा कि सिर्फ आनंद सागर कथाक्रम सम्मान क्यों, रजा फाउंडेशन तो देवीशंकर अवस्थी सम्मान और भारत भूषण अग्रवाल सम्मान में भी सहयोग करता है और वहां भी कई बार अशोक वाजपेयी वक्ता होते हैं। सम्मान और आयोजनों में सहयोग करके वक्ता बनने की ये प्रवृत्ति हिंदी साहित्य के लिए नई और दिलचस्प है। इसपर अगर गंभीरता से विचार किया जाए तो ऐसा प्रतीत होता है कि अशोक वाजपेयी रजा फाउंडेशन के माध्यम से हिंदी के पुरस्कारों का अधिग्रहण कर रहे हैं। क्या अशोक वाजपेयी हिंदी में एक नया साहित्यिक उपनिवेश बनाना चाहते हैं।
हिंदी साहित्य में नया उपनिवेश बनते देखकर अशोक वाजपेयी की वर्षों पहले लिखी एक टिप्पणी का स्मरण हो उठा। बुजुर्ग अवसरवादिता के नाम से लिखी उस टिप्पणी में अशोक जी ने शायर कैफी आजमी और अली सरदार जाफरी पर प्रहार किया था। अशोक वाजपेयी ने तब लिखा था, सफलता के इस निर्लज्ज युग में अकसर यह मान लिया जाता है कि युवा लोग ही अवसरवादी होते हैं। पर सच यह नहीं है। हमारे बुजुर्ग चौहान भी अवसर का लाभ उठाने से कतई नहीं चूकते। गालिब की द्विशताब्दी के सिलसिले में दिल्ली के लालकिले के नौबतखाने पर जो मुशायरा मुनक्कद किया गया था उसमें, जाहिर है, गालिब को प्रणीति देनी थी। उर्दू में किसी पुराने कवि की जमीन पर नया कुछ कहकर प्रणीति देने की एक खूबसूरत परंपरा है। लेकिन उस शाम हमारे दो बुजुर्ग शायरों कैफी आजमी और सरदार अली जाफरी ने इस परंपरा को तज दिया जबकि बाकी सबने उसे बखूबी निभाया। इस टिप्पणी में अशोक वाजपेयी ने जाफरी साहब पर गालिब से अलग हटकर गोष्ठी को हिंद-पाक दोस्ती के गुणगान के कार्यक्रम में बदलने के लिए व्यंग्य किया। अशोक वाजपेयी इतने पर ही नहीं रुके। उन्होंने जाफरी साहब की आलोचना करते हुए लिखा कि उन्होंने अहमद फराज की दोस्ताना नज्म के उत्तर में हिंद-पाक के 1965 के युद्ध के समय लिखी अपनी नज्म सुनाई । उनकी टिप्पणी थी, माना कि बम परीक्षण के बाद हिंद-पाक संबंध फिर से हमारी चिंता के विषय हो गए हैं पर इसका यह मतलब तो नहीं कि हर मौके पर उसी का राग अलापा जाने लगे, वह भी गालिब को प्रणिति देने के बजाय।
अशोक वाजपेयी ने अली सरदार जाफरी की अवसरवादिता का एक और उदाहरण अपनी उसी टिप्पणी में दिया था। उन्होंने लिखा था कि जाफरी साहब ने ज्ञानपीठ पुरस्कार के अवसर पर ऐसी ही अवसरवादिता का परिचय अपने स्वीकृति भाषण में दिया। अव्वल तो भारतीय संस्कृति में कमल के फूल के महत्व पर बेमौके काफी देर तक बोले जिसपर स्वयं प्रधानमंत्री जी ने भी बाद में चुटकी ली। दूसरे, उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी की कविता उद्धृत की, प्रधानमंत्री जी को कवि की हैसियत से उनके बम-विरोध की याद दिलाने के लिए। अपनी टिप्पणी की अंतिम पंक्ति में अशोक वाजपेयी कहते हैं कि उम्र के इस पड़ाव पर जाफरी साहब को यह सब करने की क्या जरूरत है। आज से करीब 25 वर्ष पूर्व जब अशोक वाजपेयी उर्दू के दो कवियों के बहाने जिस बुजुर्ग अवसरवादिता को रेखांकित कर रहे थे वही अब परोक्ष रूप से उनके व्यवहार में या कर्म में दिखाई देता है। आयोजन को अपने फाउंडेशन के माध्यम से आर्थिक सहयोग देना और फिर उसी आयोजन में वक्ता बनना। यह तो ‘बुजुर्ग चौहान’ का अवसर का लाभ उठाने जैसा ही प्रतीत होता है। इस सहयोग का एक अन्य पहलू भी है। रजा फाउंडेशन के माध्यम से अशोक वाजपेयी साहित्य और संस्कृति की दुनिया में एक प्रतीकात्मक राजसत्ता की स्थापना कर रहे हैं। एक ऐसी राजसत्ता जिसमें साहित्यिक न्याय के लिए कोई जगह नहीं होगी। जिसमें समर्थकों और चाटुकारों को स्थान मिलेगा। स्थान उपलब्ध करवाने वाले के लिए नायकत्व का सृजन होगा। एक तरफ अपने राजनीतिक आकाओं के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कारों की वापसी का प्रपंच रचा जाता है दूसरी तरफ पूंजी की शक्ति का उपयोग करके पुरस्कारों का अधिग्रहण कर अपने समर्थकों को उपकृत किया जाता है। आयोजनों में ‘सहयोग’ देकर मंच हासिल करते हैं और फिर उस मंच से राग फासीवाद और समय का संकट जैसे राग अलापते हैं। अवसर मिलते ही ‘बुजुर्ग चौहान’ भारत जोड़ो यात्रा में शामिल होकर अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता, संबद्धता और संलिप्तता भी साबित करते हैं।
एक जमाना था जब हिंदी पट्टी के साहित्यकार दिल्ली आते थे तो अकारण राजेन्द्र यादव से मिलने हंस पत्रिका के कार्यालय चले जाते थे। वहां जानेवालों का उद्देश्य साहित्य सत्ता के दरबार में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाना होती थी। नामवर सिंह के यहां भी पद और पुरस्कार के आकांक्षी लेखक अपनी हाजिरी लगाते थे। राजेन्द्र यादव और नामवर सिंह के निधन के बाद हिंदी के आकांक्षी लेखक अशोक वाजपेयी के दरबार में पहुंचने लगे। अशोक वाजपेयी के पास आर्थिक शक्ति भी है जिसका उद्घोष रजा फाउंडेशन से सहयोग प्राप्त, की पंक्ति निरंतर करती रहती है। ये पंक्ति आयोजनों की प्रचार सामग्री से लेकर पुस्तकों पर दिखती रहती है। हिंदी साहित्य में आपको कई ऐसे लेखक मिल जाएंगे जो रजा फाउंडेशन के लिए किसी दिवंगत हो गए लेखक की जीवनी लिख रहे होंगे। दिवंगत लेखक भी ‘बुजुर्ग चौहान’ की पसंद के होते हैं। लेखक को पैसे देकर जीवनी लिखवाना और फिर प्रकाशकों को सहायता प्रदान कर पुस्तकों का प्रकाशन। अब तो हालत यहां तक पहुंच गई है कि अपना साक्षात्कार भी ‘सहयोग और मदद’ से प्रकाशित करवा रहे हैं। परिणाम यह कि ‘बुजुर्ग चौहान’ के इर्द गिर्द आकांक्षी प्रकाशकों का जमावड़ा। आकांक्षी लेखक और आकांक्षी प्रकाशकों की मदद से नायकत्व का विस्तार होता जाता है। ‘बुजुर्ग चौहान’ फासीवाद-फासीवाद का राग भी अलापते रहते हैं लेकिन जब अपने नायकत्व को मजबूत कर रहे होते हैं तो एक प्रकार से साहित्यिक फासीवाद का पोषण कर रहे होते हैं।
अशोक वाजपेयी ने सरदार जाफरी, कैफी आजमी से लेकर नामवर सिंह तक को अवसरवादी कहा और लिखा है। नामवर सिंह को तो उन्होंने उनके विचलनों के आधार पर अचूक अवसरवादी करार दिया था। जहां तक मुझे याद है तो इसी शीर्षक से एक लंबा लेख भी लिखा था। अपने साथी लेखकों को अवसरवादी करार देनेवाले अशोक वाजपेयी रजा फाउंडेशन के माध्यम से अपनी साहित्यिक महात्वाकांक्षओं की पूर्ति में लगे हैं। विचार करना होगा कि अपने को साहित्य का नायक स्थापित करने के लिए हर तरह के अवसर का लाभ उठाना अवसरवादिता है या नहीं। क्या साहित्य सेवा की आड़ में अपनी छवि को गाढ़ा करने का खेल अवसरवादिता है या नहीं। अंत में अशोक वाजपेयी के शब्दों के साथ में ही अगर कहूं तो, उम्र के इस पड़ाव पर आखिर ये सब करने की जरूरत क्या है।
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