काफी दिनों के बाद एक साहित्यिक गोष्ठी में जाना हुआ। वहां समकालीन हिंदी कहानी और उपन्यास लेखन पर चर्चा हो रही थी। कार्यक्रम चूंकि हिंदी कहानी और उपन्यास पर हो रही थी इस कारण वक्तों में कहानीकार और उपन्यासकार अधिक थे, टिप्पणीकार कम। एक बुजुर्ग लेखक ने जोरदार शब्दों में हिंदी कहानी से कथा तत्व के लगभग गायब होते जाने की बात कही। साथ ही उन्होंने कहानियों में जीवन दर्शन की कमी को भी रेखांकित किया। इस क्रम में उन्होंने रैल्फ फाक्स को उद्धृत करते हुए कहा कि हो सकता है कि ‘जब जब दार्शनिकों ने कहानियां लिखी हों मुंह की खाई हो, लेकिन यह भी तय है कि उपन्यास बिना एक सुनिश्चित जीवन-दर्शन के लिखा ही नहीं जा सकता।‘ इसके बाद एक युवा उपन्यासकार बोलने के लिए आए। युवा उत्साही होते हैं तो उनके वक्तव्य में भी उत्साह था और उन्होंने उपन्यास में जीवन दर्शन जैसे गंभीर बातों की खिल्ली उड़ाई और कहा कि हिंदी कहानी को इस तरह की बातों से ही नुकसान पहुंचा है। उसके मुताबिक आज का उपन्यास हिंदी के इन आलोचकीय विद्वता से मुक्त होकर आम आदमी की कहानी कहने लगा है। उसने इसके फायदे भी गिनाए और कहा कि जीवन दर्शन आदि की खोज से दूर जाकर हिंदी कहानी ने अपने को बोझिलता से दूर किया। युवा उपन्यासकार ने न केवल हिंदी की समृद्ध परंपरा का उपहास किया बल्कि यहां तक कह गए कि हिंदी कथा साहित्य को अज्ञेय और निर्मल वर्मा जैसों की बौद्धिकता से दूर ही रहने की आवश्यकता है। आश्चर्य की बात है कि जब वो ये सब बोल रहे थे तो सभागार में बैठे कुछ अन्य युवा तालियां भी बजा रहे थे। बाद के कुछ वक्ताओँ ने हल्के स्वर में उनकी स्थापनाओं का प्रतिरोध करने की औपचारिकता निभाई और अन्य बातों पर चले गए।
कार्यक्रम के अगले हिस्से में समकालीन कहानियों के समाचारों पर आधारित होने की बात एक वक्ता ने उठाई। उनका कहना था कि हिंदी के नए कहानीकार अब समाचारपत्रों से किसी घटना को उठाते हैं और उसको अपनी भाषा में थोड़ी काल्पनिकता का सहारा लेकर लिख डालते हैं। उन्होंने नए कहानीकारों पर फार्मूलाबद्ध और फैशनेबल कहानियां लिखने का आरोप भी जड़ा। उनका तर्क था कि जब इस तरह की कहानी पाठकों के सामने आती है तो वो सतही और छिछला प्रतीत होता है। उन्होंने नए कहानीकारों को हिंदी कहानी की परंपरा को साधने और उसको ही आगे बढ़ाने की नसीहत देते हुए कहा कि हिंदी के नए कहानीकारों को अपने पूर्वज कहानीकारों का ना केवल सम्मान करना चाहिए बल्कि उनको पढ़कर कहानी लिखने की कला भी सीखनी चाहिए। ये महोदय बहुत जोश में बोल रहे थे और ऐसा प्रतीत हो रहा था कि सभागार में उपस्थित बहुसंख्यक श्रोता उनकी बातों से सहमत भी हो रहे थे। दो सत्र के बाद कार्यक्रम संपन्न हो गया। लेकिन दोनों सत्रों में वक्ताओं ने जिस प्रकार से अपने तर्क रखे उसको देखकर लगा कि हिंदी में इस समय अतिवादिता का दौर चल रहा है। एक तरफ अपने पूर्वज कथाकारों को नकारने की प्रवृत्ति देखने को मिली तो दूसरी तरफ युवा लेखकों को खारिज करने का सोच दिखा। दोनों ही अतिवाद है। ऐसा नहीं है कि हिंदी कहानी को लेकर इस तरह की गर्मागर्मी पहले नहीं होती थी। हर दौर में इस तरह की साहित्यिक बहसें होती थीं। पहले साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में लेख और टिप्पणियों के माध्यम से इस प्रकार की बहसें चला करती थीं। अब साहित्यिक पत्रिकाओं के कम हो जाने के कारण गोष्ठियों में इस तरह की बातें ज्यादा सुनने को मिलती हैं।
इन दोनों टिप्पणियों को सुनने के बाद मुझे कथाकार राजेन्द्र यादव की याद आ गई। उन्होंने लिखा था कि ‘कभी-कभी होता क्या है कि साहित्य का कोई युग खुद ही एक अजब सा खाली-खालीपन, एक निर्जीव पुनरावृत्ति और सब मिलाकर एक निर्रथक अस्तित्व का बासीपन महसूस करने लगता है। सब कुछ तब बड़ा सतही और छिछला लगता है। उस समय उसे जीवन और प्रेरणा शक्ति देनेवाली दो शक्तियों की ओर निगाह जाती है, एक लोक साहित्य और और लोक जीवन की प्रेरणाएं और दूसरे विदेशी साहित्य की स्वस्थ उपलब्धियां। राजेन्द्र यादव ने तब लिखा था कि अगर इस देश के कथा साहित्य को तटस्थ होकर देखें तो ये दोनों ही प्रवृत्तियां साफ साफ दिखती हैं। उनका मानना था कि उनके समय में भी सतहीपन और झूठे मूल्यों का घपला ही था जिससे उबकर नवयुवक कथाकारों की एक धारा ग्रामीण जीवन और आंचलिक इकाइयों की ओर मुड़ गईं और दूसरी विदेशी साहित्य की ओर। वो उस काल को प्रयोग और परीक्षण का काल मानते थे जिसमें भटकाव भी था लेकिन दोनों धारा में एक सही रास्ता खोजने की तड़प थी। आज की कहानियों पर अगर विचार करें तो यहां न तो कोई प्रयोग दिखाई देता है और न ही किसी प्रकार का कोई परीक्षण। एक दो उपन्यासकार को छोड़ दें तो ज्यादातर उपन्यासकार प्रयोग का जोखिम नहीं उठाते हैं। इस समय जो लोग ग्रामीण जीवन पर कहानियां लिख रहे हैं वो तकनीक आदि के विस्तार से जीवन शैली में आए बदलाव को पकड़ नहीं पाते हैं या पकड़ना नहीं चाहते हैं। इसके पीछे एक कारण ये हो सकता है कि वो श्रम से बचना चाहते हों। लोगों के मनोविज्ञान में आ रहे बदलाव को समझने और उसको कथा में पिरोने की जगह वो ऐसा उपक्रम करते हैं कि पाठकों को लगे कि वो नई जमीन तोड़ रहे हैं। समाज में हिंदू-मुसलमान के सामाजिक रिश्तों में बदलाव आ रहा है। इस रिश्ते के मनोविज्ञान को पकड़ने का प्रयास हिंदी कहानी में कहां दिखाई देता है।
हम अज्ञेय या निर्मल वर्मा की भाषा की बात करें तो उसमें एक खास प्रकार का आकर्षण दिखाई देता है। जिसको एक कथाकार ने उत्साह में बोझिलता बता दिया था दरअसल वो हिंदी भाषा की समृद्धि का प्रतीक है। दरअसल होता यह है कि जब भी हिंदी में कहानियों की भाषा पर बात की जाती है तो वो भी यथार्थ के धरातल पर आकर टिक जाती है। इस तरह की बातें करनेवाले ये भूल जाते हैं कि भाषा केवल स्थितियों और परिस्थितियों को अभिव्यक्त ही नहीं करती है बल्कि पाठकों के सामने चिंतन के सूत्र भी छोड़ती है। वो अतीत में भी जाती है और वर्तमान से होते हुए भविष्य की चिंता भी करती है। आज के कहानीकारों के सामने सबसे बड़ा संकट ये है कि उनकी पीढ़ी का कोई कथा आलोचक नहीं है। इस वक्त हिंदी कहानी पर टिप्पणीकार तो कई हैं लेकिन समग्रता में कथा आलोचना के माध्यम से कहानीकारों और पाठकों के बीच सेतु बनने वाला कोई आलोचक नहीं है। आज के अधिकतर कहानीकार अपने लिखे को अंतिम सत्य मानते हैं और उसपर आत्ममुग्ध रहते हैं। उनको आईना दिखानेवाला न तो कोई देवीशंकर अवस्थी है, न कोई सुरेन्द्र चौधरी और न ही कोई नामवर सिंह। इसके अलावा इस समय कथा का जो संकट है वो ये है कि कहानीकार भी अपने समकालीनों पर लिखने से घबराते हैं। इंटरनेट मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर आपको सिर्फ प्रशंसात्मक टिप्पणियां मिलेंगी। अच्छी रचनाओं की प्रशंसा अवश्य होनी चाहिए। प्रशंसा से लेखक का उत्साह बढ़ता है लेकिन कई बार झूठी प्रशंसा लेखकों या रचनाकारों के लिए नुकसानदायक होती है। आज हिंदी के युवा कथाकारों के सामने सबसे बड़ी चुनौती है कि वो सबसे पहले कहानी या उपन्यास की परंपरा का अध्ययन करें, उसको समझकर आत्मसात करें, फिर अपने लेखन में उसके आगे बढ़ाने का प्रयत्न करें। अगर लेखकों को अपनी परंपरा का ज्ञान नहीं होगा तो उसके आत्ममुग्ध होने का बड़ा खतरा होता है। ये खतरा इतना बड़ा होता है कि वो लेखन प्रतिभा को कुंद कर देता है।
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