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Sunday, December 8, 2024

मेरा नाम राजू...


दस ग्यारह वर्ष का एक बालक बाग में एयर गन से खेल रहा था। पेड़ पर चिड़ियां चहचहा रही थीं। अचानक बालक ने एयर गन से चिड़ियों की झुंड पर फायर कर दिया। एक बुलबुल पेड़ से नीचे गिरी। उसकी मौत हो चुकी थी। बालक ने उसको प्यार से उठाया। बाग में ही गड्ढा खोदकर बुलबुल को उसमें डालकर मिट्टी से ढंक दिया। फिर कुछ फूल लाकर उसने उस जगह पर रखा। बुलबुल को श्रद्धांजलि दी। साथ खेल रहे भाई बहनों से भी फूल डलवाया। बाद में इस कहानी को उसने बेहद संवेदनशील तरीके से अपने परिवारवालों को सुनाया। मधु जैन ने अपनी पुस्तक में इस घटना का रोचक वर्णन करते हुए लिखा है कि वो बालक मास्टर स्टोरीटेलर राज कपूर था। कहना ना होगा कि राज कपूर में बचपन से ही कहानी कहने का ना केवल शऊर था बल्कि उसमें समय के अनुरूप रोचकता का पुट मिलाने का हुनर भी। वो कहानियों में संवेदना को उभारते थे। राज कपूर ने अपने लंबे फिल्मी करियर में एक अभिनेता और निर्देशक के रूप में उस सपने को पर्दे पर उतारा जो कि भारतीय मध्यमवर्ग लगातार देख रहा था। अपने आंरंभिक दिनों में राज कपूर ने फिल्मों का व्याकरण और निर्माण कला की बारीकियों को सीखने के लिए इससे जुड़े प्रत्येक विभाग में कार्य किया। किशोरावस्था से ही वो सुंदर लड़कियों और महिलाओं के प्रति आकर्षित रहने लगे थे। कलकत्ता (तब कोलकाता) के अपने घर में उन्होंने जब बलराज साहनी की खूबसूरत पत्नी को देखा तो आसक्त हो गए थे। जब उनको केदार शर्मा ने फिल्म का आफर दिया तो उन्होंने बहुत संकोच के साथ उनके कान में फुसफुसफाते हुए कहा था कि प्लीज अंकल प्लीज मेरे साथ हीरोइन के तौर पर बेबी मुमताज तो रख लेना, वो बेहद खूबसूरत है। बेबी मुमताज को मधुबाला के नाम से जाना गया।

स्वाधीनता के पहले राज कपूर ने ‘आग’ फिल्म बनाने की सोची जो आजादी के बाद प्रदर्शित हुई। इस फिल्म में राज कपूर ने स्वाधीन भारत के युवा मन को पकड़ने का प्रयास किया। इस फिल्म को सफलता नहीं मिली। इसके बाद राज कपूर ने ‘बरसात’ बनाई। इस फिल्म से राज कपूर पर धन और प्रसिद्धि दोनों की बरसात हुई। यहीं से राज ने एक टीम बनाई जिसने साथ मिलकर हिंदी फिल्मों में सार्थक हस्तक्षेप किया। नर्गिस, गीतकार शैलेन्द्र और हसरत जयपुरी, गायक मुकेश और लता मंगेशकर, संगीतकार शंकर जयकिशन, कैमरापर्सन राधू करमाकर और कला निर्देशक एम आर आचरेकर की टीम ने राज कपूर के साथ मिलकर हिंदी फिल्मों को एक ऐसी ऊंचाई प्रदान की जिसको छूने का प्रयत्न अब भी हो रहा है। फिल्म बरसात के बाद राज कपूर ने आर के स्टूडियोज की स्थापना की। यहीं अपनी फिल्म आवारा बनाई। ये फिल्म भारतीय गणतंत्र की मासूमियत को सामने लाती है। राज कपूर ने कहा भी था कि ये भारत के गरीब युवाओं के निश्छल प्रेम की कहानी है। इस फिल्म ने राज कपूर को वैश्विक स्तर पर लोकप्रिय बनाया। आलोचकों ने तब इस फिल्म को साम्यवादी दृष्टि की प्रतिनिधि फिल्म बताने की चेष्टा की थी लेकिन राज कपूर किसी वाद की चौहद्दी में नहीं घिरे थे। फिल्म आवारा से लेकर राम तेरी गंगा मैली पर विचार करने के बाद ये लगता है कि राज कपूर प्रेम के ऐसे कवि थे जिनकी कविता फिल्मी पर्दे पर साकार होती रही। प्रेम पगे दृश्यों के बीच वो भारतीय समाज की विसंगतियों पर प्रहार भी करते चलते हैं। वो कहते थे कि मेरा पहला काम मनोरंजन करना है। ऐसा करते हुए अगर समाज को कोई संदेश जाता है तो अच्छी बात है। राज कपूर के बारे में उनके भाई शशि कपूर ने कहा था कि वो घोर परंपरावादी हिंदू हैं। 

राज कपूर ने अपनी फिल्मों में रोमांस का एक ऐसा स्वरूप पेश किया जो मिजाज में तो पश्चिमी था लेकिन उसमें भारतीयता के तत्व भी भरे हुए थे। उन्होंने एक ऐसी शैली विकसित की जिसमें पश्चिम की छाप थी लेकिन वातावरण और सामाजिक प्रतिरोध भारतीय था। आवारा में नर्गिस एक समय में दो पुरुषों से प्यार करती है। एक ऐसी नारी जो सोच और परिधान से पश्चिम से प्रभावित है लेकिन भारतीय वातावरण में रह रही है। इसका नायक भी समाज के तमाम बंधनों से मुक्त है। राज कपूर ने कैमरे की आंख से बाहर निकलकर एक ऐसे वातावरण का निर्माण किया जो दर्शकों को झटके भी दे रहा था लेकिन पसंद भी आ रहा था। ब्लैक एंड व्हाइट फिल्मों के दौर में राज कपूर ने लाइटिंग से दृष्यों को जीवंत किया। रंगीन फिल्मों का दौर आया तो राज कपूर ने इंद्रधनुषी रंगों का बेहतरनी उपयोग करके दर्शकों को बांधने में सफलता प्राप्त की। इसके बाद की फिल्मों में भी राज कपूर भारतीय जीवन के यथार्थ से टकराते रहे। नर्गिस से उनका रोमांस चरम पर था। देश विदेश में उनके साथ के दौरे चर्चा में रहते थे। 

राज कपूर की जिंदगी और उनकी फिल्मों का रास्ता बदलता है 1960 में। जब वो पद्मिनी को लेकर जिस देश में गंगा बहती है बनाते हैं। यहां से राज कपूर की फिल्मों में नारी देह पर कैमरा फोकस करने लगता है जो राम तेरी गंगा मैली तक निरंतर बढ़ता चला गया। इस बात पर बहस हो सकती है कि राज कपूर की फिल्मों में नारी देह का चित्रण जुगुप्साजनक होता है या सौंदर्य को उद्घाटित करने वाला। 1964 में राज कपूर की फिल्म आती है संगम। इस फिल्म से राज कपूर पूरी तरह से व्यावसायिक राह पर चल पड़े। लेकिन कलाकार मन फिर से दर्शन की ओर लौटने को बेताब था। 1970 में आई फिल्म मेरा नाम जोकर। फिल्म बिल्कुल नहीं चली। राज कपूर पर इस असफलता का गहरा प्रभाव पड़ा। यही वो दौर था जब उनके पिता का अमेरिका में इलाज चल रहा था। राज कपूर डिप्रेशन में तो गए लेकिन टूटे नहीं। पांच वर्ष बाद जब उनकी फिल्म बाबी आई तो उसने सफलता के कई कीर्तिमान स्थापित किए। हिंदी फिल्मों में रोमांस का रास्ता भी बदल दिया। बाबी के बाद की बनी कई फिल्मों में स्वाधीनता के बाद जन्मी पीढ़ी के किशोर और अल्हड़ प्रेम का प्लाट भी अन्य निर्माता निर्देशकों के हाथ लग गया। नारी देह पर घूमने वाला राज कपूर का कैमरा सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत अमान की देह के विभिन्न कोणों पर पहुंचता है लेकिन फिल्म को अपेक्षित सफलता नहीं मिली। नारी देह दिखाने का राज कपूर का फार्मूला हर फिल्म में नहीं चला। संगम में वैजयंती माला के अंग प्रदर्शन को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन जब मेरा नाम जोकर में सिमी ग्रेवाल की नग्न टांगों को और सत्यम शिवम सुंदरम में जीनत के उत्तेजक दृष्यों को नकारा। फिर राम तेरी गंगा मैली में मंदाकिनी के देह दर्शन ने फिल्म को सफलता दिलाई। 1982 में जब राज ने प्रेम रोग बनाया तो इस फिल्म में सामतंवादी रूड़ियों पर प्रहार तो था लेकिन एक सुंदर प्रेम कहानी भी गढ़ी गई थी।

यहां ये भी ध्यान रखना चाहिए कि राज कपूर ने अपनी और अपने फिल्मों की अलग जगह उस समय बनाई जब महबूब खान और के आसिफ जैसे फिल्मकार फिल्में बना रहे थे। देवानंद, दिलीप कुमार और जुबली कुमार राजेन्द्र कुमार निरंतर सफल हो रहे थे। समाजिक यथार्थ और रोमांस का ऐसा मिश्रण राज कपूर ने तैयार किया जिसमें गीत-संगीत से ऐसी मिठास घोली कि दर्शक चार दशकों तक उसके प्रभाव में रहा। राज कपूर की जन्मशती का उत्सव ग्रेट शौ मैन का स्मरण पर्व भी है। 


Saturday, December 7, 2024

सरकार तुम्हारी सिस्टम हमारा का सच


पिछले दिनों प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पुस्तकालयों की महत्ता को रेखांकित किया था। मन की बात कार्यक्रम में प्रधानमंत्री ने कहा कि माना जाता है कि पुस्तकें हमारी सबसे अच्छी दोस्त होती हैं। इस दोस्ती को मजबूत करने के लिए सबसे अच्छी जगह पुस्तकालय है। इस क्रम में उन्होंने चेन्नई से लेकर देश के अन्य हिस्सों में स्थापित पुस्तकालयों का ना केवल उल्लेख किया बल्कि उसको रचनात्मकता के केंद्र के रुप में विकसित करने पर बल भी दिया। इसी क्रम में प्रधानमंत्री ने बिहार के गोपालगंज के प्रयोग पुस्तकालय की भी चर्चा की। इस पुस्तकालय की चर्चा से आसपास के जिलों में उत्सुकता का वातावरण बना है। प्रयोग पुस्तकालय जिले के 12 गावों के युवाओं को पढ़ने की सुविधा उपलब्ध करवा रहा है। प्रधानमंत्री ने पुस्तकालयों को ज्ञान के केंद्र में रूप में भी रेखांकित किया और लोगों को पुस्तकों से दोस्ती करने का आह्वान भी किया। उनका मानना है कि पुस्तकों से दोस्ती करने पर आपकी जिंदगी बदल सकती है। इसके पहले अपने गुजरात के अपने लोकसभा चुनाव क्षेत्र गांधीनगर के एक कार्यक्रम में गृहमंत्री अमित शाह ने भी पुस्तकालयों को समाज और राष्ट्र निर्माण के लिए महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने पुस्तकालयों के प्रभारियों के साथ एक बैठक भी की। अमित शाह ने कहा कि देश के भविष्य को संवारने में पुस्तकालयों की बड़ी भूमिका है। गृहमंत्री ने अपने लोकसभा क्षेत्र के सभी पुस्तकालों को दो -दो लाख रुपए देने की भी घोषणा की। उन्होंने पुस्तकालयों को आधुनिक बनाने पर बल देते हुए कहा कि तकनीक के उपयोग को बढ़ाकर व्यक्तिगत रुचियों के आधार पर पुस्तकें उपलब्ध करवाई जा सकती हैं। अमित शाह ने प्राचीन ग्रंथों को आनलाइन उपलब्ध करवाने का भी आग्रह किया। इसके पहले राष्ट्रपति ने भी पुस्तकालयों को लेकर अपनी अपेक्षा जाहिर की थी। 

प्रधानमंत्री ने 24 नवंबर 2024 को मन की बात कार्यक्रम में पुस्तकालयों पर अपनी राय रखी और अगले ही दिन यानि 25 नवंबर को संस्कृति मंत्रालय ने अपने एक आदेश के जरिए कोलकाता स्थित राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन में एक प्रभारी को मुक्त करके दूसरे प्रभारी की नियुक्ति का आदेश जारी कर दिया। नेशनल लाइब्रेरी के महानिदेशक ए पी सिंह को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन का छह महीने या नियमित नियुक्ति जो भी पहले हो, तक प्रभार दे दिया गया। ये आदेश संस्कृति मंत्री के अनुमोदन के बाद जारी किया गया। 24 नवंबर को प्रधानमंत्री का लाइब्रेरी पर बोलना और 25 नवंबर को राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक के प्रबार संबंधित आदेश जारी होना एक संयोग हो सकता है, लेकिन संयोग सुखद है। फिर वही प्रश्न कि प्रभारियों के जरिए सांस्कृतिक संस्थाओं का काम कब तक चलता रहेगा। पता नहीं कब से राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के महानिदेशक पर नियमित अधिकारी नहीं हैं। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन देश में पुस्तकालयों की नोडल संस्था है। उसका ये हाल है तो प्रधानमंत्री और गृह मंत्री की पुस्तकालयों को लेकर देखे जा रहे स्वप्न का क्या होगा इसका सहज अंदाज लगाया जा सकता है। प्रभारी तो बस संस्था को चलायमान रख सकते हैं। उनसे किसी नवाचार, किसी नए प्रकल्प की आशा व्यर्थ है। उनका प्राथमिक दायित्व तो अपनी मूल संस्था के प्रति होता है। पुस्तकालयों की नोडल संस्था में नियमित महानिदेशक का नहीं होना संस्कृति मंत्रालय के क्रियाकलापों पर बड़े प्रश्न खड़े करता है। 

राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को लेकर संस्कृति मंत्रालय कितनी गंभीर है इसको इस घटना से भी समझा जा सकता है। राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन के सदस्यों की एक बैठक करीब दो वर्ष बाद 25 सितंबर 2024 को हुई। नवनियुक्त सदस्यों की ये पहली बैठक थी। इस बैठक में पिछले वर्ष के निर्णयों का अनुमोदन होना था। फाउंडेशन पुस्तकों की खरीद भी करता है। इस बैठक में पुस्तकों की सूची अनुमोदन के लिए आई तो कुछ सदस्यों ने उसपर आपत्ति जताई। संस्कृति मंत्री इस बैठक की अध्यक्षता कर रहे थे। उन्होंने इस मसले को देखने का आश्वासन दिया। आश्वासन तो इस बात का भी दिया गया था कि पुस्तकों की सरकारी खरीद के नियमों को पारदर्शी बनाया जाए। मजे की बात ये रही कि बैठक को दो महीने से अधिक समय बीत गया लेकिन इसका मिनट्स अबतक सदस्यों के पास नहीं पहुंचा है। जब मिनट्स ही नहीं बना तो बैठक में लिए गए निर्णयों का क्या हुआ होगा, इसकी जानकारी की अपेक्षा तो व्यर्थ ही है। दरअसल फिल्म द कश्मीर फाइल्स का वो संवाद बेहद सटीक है, सरकार भले ही तुम्हारी है लेकिन सिस्टम तो हमारा ही चलता है। भारतीय जनता पार्टी की सरकार भले ही 11 वर्षों से चल रही है लेकिन सिस्टम में बहुत बदलाव आ गया हो ऐसा प्रतीत नहीं होता। 

सिस्टम के नहीं बदलने का ही एक और उदाहरण है। कारपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी (सीएसआर) के नियमों में सख्ती। बताया जा रहा है कि सख्ती के बाद कोई भी सांस्कृतिक कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत नहीं आ सकता। अगर कोई शास्त्रीय गायन या नृत्य के कार्यक्रम का आयोजन करता है तो उसको सीएसआर के अंतर्गत नहीं माना जाएगा। पहले साहित्य, कला और संस्कृति के आयोजन इस योजना के अंतर्गत आते थे। अब साहित्य को लेकर नियम इतने कड़े कर दिए गए हैं कि किसी कार्यक्रम में पुस्तकों का वितरण बेहद कठिन हो गया है। कल्पना कीजिए कि समाज के पढ़े लिखे लोगों के बीच एक पुस्तक चर्चा रखी गई। लेखक से पुस्तक पर चर्चा करने के बाद आमंत्रित सदस्यों को उनकी पुस्तक भेंट की जाती थी। पहले ये पूरा कार्यक्रम सीएसआर के अंतर्गत आता था और खर्चे की औपचारिकताएं बिल आदि जमा कर पूरी कर ली जाती थीं। अब ये कर दिया गया है कि जो भी किसी वस्तु का एंड यूजर होगा यानि कि जिसको भी आयोजक संस्था की ओर पुस्तक भेंट की जाएगी उसका नाम और फोन नंबर आयोजक को संबंधित सरकारी विभाग के पास जमा करना होगा। सायकिल वितरण में तो इस तरह का प्रविधान उचित है लेकिन साहित्यिक कार्यक्रमों में पुस्तक वितरण में ये बाधा है। स्कूलों में पुस्तक वितरण में तो ये दायित्व स्कूल उठा लेते हैं। ये सहजता के साथ संपन्न हो जाता है, लेकिन आयोजनों में एक किताब गिफ्ट देने पर फार्म भरवाना कठिन सा होता है। ये व्यावहारिक दिक्कतें हैं। पिछले 10 वर्षों में अधिक पुस्तकें तो भारतीय विचार और विचारधारा की प्रकाशित हो रही हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और उनके कार्यों पर प्रकाशित हो रही हैं। प्रश्न ये उठता है कि क्या ईकोसिस्टम भारतीय विचार के पुस्तकों के पाठकों तक पहुंच में नियमों के जरिए बाधा खड़ी कर रहा है। सीएसआर के नियमों में पुस्तकों को लेकर उदारता बरतनी चाहिए। नियम बनाने वालों को इस दिशा में काम करना चाहिए ताकि प्रधानमंत्री और गृह मंत्री के सोच को और विजन को अमली जामा पहनाया जा सके। लोगों और पुस्तकालयों तक पुस्तकें पहुंचे इसके लिए आवश्यक है कि संस्कृति मंत्रालय पुस्तकालयों की नोडल संस्था राजा राममोहन राय लाइब्रेरी फाउंडेशन को सक्रिय करे। प्रतिवर्ष नए और उच्च स्तर की पुस्तकें खरीद कर पुस्तकालयों में भेजी जाएं। संस्थाओं को प्रभारियों से मुक्त करके नियमित नियुक्ति की जाए ताकि जो भी व्यक्ति वहां नियुक्त हो उसकी प्राथमिकता में पुस्तकालयों की बेहतरी हो। 

Tuesday, December 3, 2024

साहब बीबी और गुलाम


विमल मित्र के उपन्यास पर साहिब, बीबी और गुलाम नाम से फिल्म बनाने को फिल्म समीक्षकों ने उचित तरीके से नहीं लिया। धर्म कर्म में आस्था रखनेवाली घरेलू महिला का अपने पति का दिल जीतने के लिए शराब पीते दिखाना बेहद जोखिम भरा निर्णय था। मेरे इस फैसले का प्रेस ने स्वागत किया था। दर्शकों की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक रही। इस फिल्म के प्रदर्शन पर बंबई के दर्शकों में केवल दो सीन को लेकर गुस्सा दिखा। पहला जब छोटी बहू आकर्षण में आकर अपना सर भूतनाथ की गोद में रख देती है और दूसरा सीन वो जिसमें वो अपने पति से कहती है कि मुझे शराब का घूंट पीने दो केवल अंतिम बार। मैंने छोड़ने का निश्चय किया है, पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया है। हमने दोनों सीन फिल्म से निकाल दिए। फिल्म के उत्तरार्ध के एक सीन को बदलने को लेकर गुरुदत्त ने 1963 में सेल्यूलाइड पत्रिका में लिखे अपने लेख कैश एंड क्लासिक्स में लिखा था। 

विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित फिल्म साहिब, बीबी और गुलाम को गुरुदत्त ने बनाया था।  अपने प्रदर्शन पर इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। गुरुदत्त ने इस फिल्म में ‘छोटी बहू’ के चरित्र के माध्यम से स्त्री के सेक्सुअल डिजायर को पर्दे पर चित्रित किया था। आज से छह दशक पहले इस तरह के विषयों को फिल्मी पर्दे पर उतारने की बात सोच पाना भी मुश्किल था। गुरुदत्त ने सोचा भी और किया भी। छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने जब शादी करके जमींदार चौधरी के परिवार में हवेली में प्रवेश करती है तो उसकी पहचान बदल जाती है। उसका नाम हवेली की देहरी के बाहर रह जाता है और वो बन जाती है छोटी बहू। जिससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो जमींदार चौधरी खानदान की स्त्रियों की तरह हवेली की चौखट के अंदर ही रहे। वो रहती भी है। परिवार और विवाह को निभाने के लिए सारे जतन करती है। पति पर पूरा भरोसा करती है लेकिन उसका जमींदार पति कहता है कि चौधरियों की काम वासना को उनकी पत्नियां कभी तृप्त नहीं कर सकती हैं। यह सुनकर छोटी बहू के अंदर कुछ दरकता है। वो पति का ध्यान आकृष्ट करने के लिए तमाम तरह के जतन करती है। स्त्री यौनिकता के बारे में भी पति से खुल कर बात करती है जिसमें उसकी स्वयं की संतुष्टि की अपेक्षा भी शामिल है। इन दृष्यों को साहब बीबी और गुलाम में जिस संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। पहले भी कुछ लोगों ने इसपर चर्चा की होगी। 

इस तरह के विषय आज सामान्य लग सकते हैं। लेकिन 1962 की फिल्म में नायिका के संवाद में आता है कि मर्दानगी की डींगे हांकने के बावजूद छोटे बाबू नपुंसक हैं। इस संवाद और दृष्य को उस समय के दर्शक पचा नहीं पाते। उनको झटका लगा था। आज ये सामान्य बात है। मिर्जापुर वेबसरीजीज में भी नायिका और उसके पति के बीच इस तरह के संवाद है। जिसका नोटिस भी नहीं लिया जाता। अभिनेता पंकज त्रिपाठी जिसने अखंडानंद त्रिपाठी का अभिनय किया है और उसकी पत्नी बीना त्रिपाठी की भूमिका निभाने वाली रसिका दुग्गल के बीच भी कुछ दृश्यों में साहिब बीबी और गुलाम के छोटे बाबू और छोटी बहू जैसा संवाद है। दर्शक इन दृष्यों को और संवाद को सहजता के साथ लेता है। समाज बदल गया है। दर्शकों की मानसिकता बदल गई है। स्त्री यौनिकता पर समाज में खुलककर बात होने लगी है। जब गुरुद्दत ने ये सोचा था तब भारतीय समाज इस विषय पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने को तैयार नहीं था। विमल मित्र ने तो फिल्म के प्रदर्शन से वर्षों पहले अपने उपन्यास में ये सब लिख दिया था। माना जाता है कि साहित्य में जो विषय पहले आते हैं वो फिल्मों में बाद में आते हैं। 

साहिब बीबी और गुलाम एक असाधारण फिल्म है। इसका निर्देशन भले ही अबरार अल्वी ने किया है लेकिन इस पूरी फिल्म पर गुरुदत्त की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। गुरुदत्त चाहते थे कि भूतनाथ की भूमिका शशि कपूर करें लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। इस भूमिका के लिए विश्वजीत को भी संपर्क किया गया था पर वो भी नहीं आए। अंत में उन्होंने खुद ये भूमिका निभाई। इसी तरह से छोटी बहू की भूमिका को लेकर नर्गिस से संपर्क किया गया था। गुरुदत्त ने इस फिल्म के लिए लंदन में रह रहे अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र जितेन्द्र आर्य की पत्नी छाया को तैयार कर लिया। वो लोग लंदन से मुंबई शिफ्ट भी हो गए। गुरुदत्त के सामने जब छोटी बहू के गेटअप में छाया की तस्वीरें आईं तो वो निराश हो गए और उनको मना कर दिया। इतना ही नहीं गुरुदत्त इस फिल्म का संगीत निर्देशन एस डी बर्मन से करवाना चाहते थे लेकिन वो अपनी बीमारी के कारण कर नहीं सके तो हेमंत कुमार को लिया गया। साहिर ने मना कर दिया तो शकील बदायूंनी से गीत लिखवाए गए। सिर्फ जब्बा की भूमिका के लिए वहीदा रहमान पहले दिन से तय थीं। जो टीम बनी उसने एक ऐसी फिल्म दी जो आज पूरी दुनिया में फिल्म निर्माण कला के लिए न सिर्फ देखी जाती है बल्कि छात्रों को दिखाकर फिल्म निर्माण की बारीकियां बताई भी जाती हैं। 

Saturday, November 30, 2024

आरंभिक भारतीय फिल्मों से बदलेगा इतिहास


गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में जानेवालों की अपेक्षा होती है कि उनको कुछ बेहतरीन विदेशी फिल्में देखने को मिल जाएं। वहां पहुंचने वाले सिनेमाप्रेमी फेस्टिवल के शेड्यूल में से अपनी पसंद की फिल्में तलाशते और उसपर चर्चा करते नजर आते हैं। हाल ही में गोवा में समाप्त हुए फिल्म फेस्टिवल में सात भारतीय क्लासिक फिल्मों को भी नेशनल फिल्म आर्काइव आफ इंडिया ने रिस्टोर (मूल जैसा बनाया) किया। इन फिल्मों का प्रदर्शन फेस्टिवल के दौरान हुआ। इन फिल्मों को दर्शकों ने पसंद किया लेकिन सबसे अधिक रोमांच तो दादा साहब फाल्के की 1919 में बनाई गई फिल्म कालिया मर्दन को देखते समय हुआ। दादा साहब फाल्के ने 1919 में जब इस फिल्म का निर्माण किया था तो बाल कृष्ण की भूमिका उनकी बेटी मंदाकिनी फाल्के ने की थी। ये मूक फिल्म थी। करीब 50 मिनट की इस फिल्म को लाइव संगीत के साथ प्रदर्शित किया गया। उन 50 मिनट में दर्शक मूक फिल्मों के दौर में चले गए थे। जहां पर्दे पर पात्र अपने हाव भाव से दृष्य को जीवंत करते थे और पर्दे के नीचे या साथ बैठे साजिंदे अपने वाद्ययंत्रों से संगीत देकर उन दृष्यों में रोचकता पैदा करते थे। कालिया मर्दन फिल्म में जब नदी में खेल रहे बाल कृष्ण को महिलाएं गोद में लेकर ऊपर उठातीं तो हाल में बैठे आर्केस्ट्रा से निकलने वाला संगीत गजब का प्रभाव पैदा करता था। पर्दे पर जब बाल कृष्ण बांसुरी बजाते तो हाल में बैठा बांसुरी वादक वैसे ही धुन निकालता। 

एक बेहद ही मजेदार दृष्य है इस फिल्म है। कृष्ण और उनके बाल सखा को गांव की एक महिला अपमानित करती है। उन शरारती बच्चों पर पानी फेंक देती है। इससे कृष्ण जी क्षुब्ध हो जाते हैं। अपने साथियों के साथ उस महिला के घर में घुसकर माखन चोरी कर लेते हैं। माखन चोरी से क्रोधित वो महिला कृष्ण के साथियों को पीट देती है। अपमानित बालकों ने महिला से बदला देने की ठानी। एक रात कृष्ण जी उनके घर में घुस जाते हैं। महिला अपने पति के साथ सो रही होती है। नटखट कृष्ण ने सोते हुए पुरुष की दाढ़ी और महिला के बाल आपस में बांध दिए। बाद में जब वो उस कमरे से निकलने का प्रयास करते हैं तो असफल हो जाते हैं। बाल कृष्ण की बदमाशियों को दादा साहब फाल्के ने जिस खूबसूरती के साथ दिखाया है कि आज भी दर्शक आनंदित हो उठते हैं। उनको ये याद ही नहीं रहता है कि इस लंबे दृष्य में किसी तरह का कोई संवाद नहीं है। है तो सिर्फ पार्श्व संगीत। फेस्टिवल के समापन समारोह में रमेश सिप्पी ने इस बात को रेखांकित किया कि आज से 105 वर्ष पहले बनी फिल्म कितनी सुंदर थी और किस तरह से उसमें कहानी को आगे बढ़ाया गया है। उन्होंने फिल्म के कैमरा वर्क की प्रशंसा भी की। यह अनायस नहीं है कि दादा साहब फाल्के को भारतीय फिल्म जगत का पितामह कहा जाता है। इसके अलावा राज कपूर की मास्टरपीस फिल्म आवारा, देवानंद कि हम दोनों, तपन सिन्हा की हारमोनियम, ए नागेश्वर राव की तेलुगु फिल्म देवदासु और सत्यजित राय की सीमाबद्ध और ख्वाजा अहमद अब्बास की सात हिन्दुस्तानी को भी रिस्टोर करके दिखाया गया। नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत इन फिल्मों पर काम हुआ। यह कार्य महत्वपूर्ण है। 

हम वापस लौटते हैं फिल्म कालिया मर्दन की ओर। आज से 105 वर्ष पहले बनी इस फिल्म के केंद्र में श्रीकृष्ण का बाल स्वरूप है। उस दौर में जितनी भी फिल्में बन रही थीं सभी भारतीय पौराणिक कथाओं और पात्रों पर आधारित थीं। दादा साहब फाल्के की पत्नी ने उनको कृष्ण के व्यक्तित्व के अलग अलग शेड्स पर फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। इसके लिए उनकी पत्नी ने अपने गहने गिरवी रखे। उससे मिले पैसे को लेकर फाल्के लंदन गए और वहां से सिनेमैटोग्राफी सीखकर वापस लौटे। अब उनके सामने अपने सपने को साकार करने की चुनौती थी। उन्होंने पहले कृष्ण और फिर राम पर फिल्म बनाने की कोशिश की लेकिन संसाधन के अभाव में उसको छोड़ना पड़ा। फिर राजा हरिश्चंद्र की कहानी पर काम आरंभ किया। विज्ञापन के बावजूद कोई महिला इस फिल्म में अभिनय के लिए तैयार नहीं हो रही थी। निराशा बढ़ती जा रही थी। पास की दुकान में चाय पीने गए। वहां चायवाले लड़के, सालुंके, पर उनकी नजर पड़ी और उस लड़के को तारामती के रोल के लिए तैयार किया गया। इस तरह भारतीय फिल्म में एक पुरुष ने पहली अभिनेत्री का रोल किया। ‘राजा हरिश्चंद्र’ फिल्म बन गई। 3 मई 1913 को बांबे के कोरोनेशन हॉल में उसका प्रदर्शन हुआ। फिल्म लगातार 12 दिन चली। 1914 में लंदन में प्रदर्शित हुई। इनकी दूसरी फिल्म ‘भस्मासुर मोहिनी’ में नाटकों में काम करनेवाली कमलाबाई गोखले ने अभिनय किया। कमला बाई को फिल्म में अभिनय के लिए उस वक्त फाल्के साहब ने आठ तोला सोना, दो हजार रुपए और चार साड़ियां दी थीं। इसके बाद इन्होंने ‘कृष्ण जन्म’ बनाई। कहते हैं कि इस फिल्म ने इतनी कमाई की कि टिकटों की बिक्री से जमा होनेवाले सिक्कों को बोरियों में भरकर ले जाना पड़ता था। सफलता के बाद इनको फाइनेंसर मिल गया। उन्होंने हिंदुस्तान फिल्म कंपनी बनाई। इसी फिल्म कंपनी से दादा साहब फाल्के ने कालिया मर्दन फिल्म का निर्माण किया। फाल्के साहब ने अपने जीवन काल में करीब 900 लघु फिल्में और 20 फीचर फिल्में बनाईं। भारतीय सिनेमा के शोधार्थियों को इस बात की पड़ताल करनी चाहिए कि दादा साहब फाल्के भारतीय पौऱाणिक पात्रो को लेकर ही फिल्में क्यों बनाते रहे। 

जिस तरह से नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन के अंतर्गत पुरानी भारतीय फिल्मों को रिस्टोर करने का कार्य हो रहा है, उसको और बढ़ाने और भारतीय दर्शकों तक पहुंचाने की आवश्यकता है। स्वाधीनता के बाद फिल्मी दुनिया में कई ऐसे निर्माता निर्देशक आए जिन्होंने जो वामपंथी विचार के प्रभाव वाले थे। स्वाधीनता के बाद तत्कालीन भारत सरकार फिल्मी जगत के लोगों को सोवियत रूस भेजकर उनके प्रभाव में आने का रास्ता खोल रही थी। अनके पुस्तकों और दस्तावेजों में इस बात का उल्लेख मिलता है कि किस तरह से सोवियत रूस ने अपने विचारों को भारत में फैलाने के लिए फिल्म और साहित्य जगत का उपयोग किया और सफलता भी प्राप्त की। रूस को सफलता इस कारण मिली क्योंकि उस समय भारत सरकार का सहयोग उनको प्राप्त था। गीतों से लेकर संवाद में पूंजी और पूंजीपतियों पर परोक्ष रूप से हमले शुरु हो गए थे। जमींदारों से लेकर पैसेवालों को बुरा आदमी दिखाने की प्रवृत्ति जोर पकड़ने लगी थी। पूंजीवादी व्यवस्था के कथित दुर्गुणों को फिल्मों में प्रमुखता से दिखाकर भारतीय जनमानस पर साम्यवादी विचारधारा को थोपने का प्रयास हुआ। कहा जाता है कि उस समय से प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू का भी परोक्ष समर्थन इस कार्य के लिए था। अगर नेशनल फिल्म हेरिटेज मिशन अपने काम में तेजी लाती है, इसको सरकार की तरफ से उचित संसाधन उपलब्ध होता है तो संभव है कि आनेवाले दिनों में भारतीय फिल्मों के इतिहास को फिर से लिखने की आवश्यकता पड़े। इसके साथ ही विश्वविद्यालयों में भारतीय फिल्मों की प्रवृत्तियों पर जो कार्य हो रहे हैं उनकी भी दिशा बदल सकती है।    


Saturday, November 23, 2024

नेहरू से मोदी युग के साहित्य पर विमर्श


हिंदी साहित्य में नेहरू युग या नेहरू के विचारों के प्रभाव की खूब चर्चा हुई है। नेहरू के बाद इंदिरा युग की भी चर्चा रही। आपातकाल को लेकर कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी के शासनकाल को परखने का प्रयास किया लेकिन अधिकतर वामपंथी लेखकों ने इंदिरा गांधी के संविधान को ध्वस्त कर आपातकाल लगाने के निर्णय को लेकर बहुत तीखी आलोचना नहीं की। नागार्जुन ने देश में आपातकाल लगाने के पहले ही इंदिरा गांधी के अंदर के अधिनायकवादी प्रवृत्ति को पहचान लिया था। इंदिरा गांधी ने जब देश पर आपातकाल थोपा था उसके दो वर्ष पूर्व ही नागार्जुन ने ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी बहुत तीखी कविता लिखी थी। इस कविता को प्रगतिशील आलोचकों ने बहुत करीने से दबा दिया। उसकी चर्चा ही नहीं होने दी। आनेवाली पीढ़ी को ये बताने का प्रयास हुआ कि नागार्जुन स्वभाव से प्रगतिशील कवि थे। इस धारणा को पुष्ट करनेवाली नागार्जुन की कविताओं की ही चर्चा की गई। ‘देवी तुम तो कालेधन की वैसाखी पर टिकी हुई हो’ जैसी कविता में नागार्जुन ने इंदिरा गांधी और उनके क्रियाकलापों पर कठोर टिप्पणी की थी। अपनी इस कविता में नागार्जुन ने ना सिर्फ महंगाई को लेकर इंदिरा गांधी पर प्रहार किया था बल्कि उनको ठगों और उचक्कों की मलकाइन तक कह डाला था। पंक्तियां देखिए, महंगाई का तुझे पता क्या/जाने क्या तू पीर पराई/इर्द गिर्द बस तीस हजारी/साहबान की मुस्की छाई/तुझ को बहुत बहुत खलता है/’अपनी जनता’ का पिछड़ापन/महामूल्य रेशम में लिपटी/यों ही करती जीवन-यापन/ठगों- उचक्कों की मलकाइन/प्रजातंत्र की ओ हत्यारी/अबके हमको पता चल गया है/है तू किन वर्गों की प्यारी । यहां इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि नागार्जुन ने आपातकाल की घोषणा के पूर्व ही इंदिरा गांधी को प्रजातंत्र की हत्यारी कहा था। इंदिरा युग में इस तरह के साहित्य को जानबूझकर ओझल कर दिया गया। तू किन वर्गों को प्यारी से नागार्जुन कटाक्ष कर रहे हैं कि किस तरह से आम आदमी की बात करते करते वो धनाढ्य लोगों के पक्ष में खड़ी हो गईं। 

नेहरू युग में हिंदी के प्रगतिशील साहित्यकारों ने आधुनिकतावादी कम्युनिस्ट विचार ने ‘धर्म को अफीम’ बताया। जबकि मार्क्स ने उसको अफीम बताने के साथ मानव के दुखी मन का आर्तनाद भी बताया था लेकिन आधुनिकतावादियों और कम्युनिस्टों ने इस दुखी मन के मर्म को न कभी समझा न कभी सहलाया और वृहत्तर हिंदू समाज को क्रमिक तरीके से अपने से दूर कर दिया और अन्तत: खो दिया। ये बातें हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने सेतु प्रकाशन से प्रकाशित अपनी पुस्तक, हिंदी साहित्य के 75 वर्ष : नेहरू युग से मोदी युग तक में लिखी है। नेहरू युग से लेकर राजीव गांधी के दौर तक कम्युनिस्टों की चुनिंदा मामलों पर खामोशी से भी हिंदी साहित्य लेखन का सत्य से आंख मूंद लेने की प्रवृत्ति दिखाई देती है। स्वाधीनता के समय जो देश विभाजन हुआ उसको हिंदी के अधिकतर साहित्यकारों ने अपने लेखन का विषय नहीं बनाया। दो चार लेखकों को छोड़कर मानवता के इतिहास की इतनी बड़ी घटना को कम्युनिस्ट विचारधारा से प्रभावित हिंदी के लेखकों ने अपनी कृतियों का विषय नहीं बनाया। सुधीश पचौरी प्रश्न उठाते हैं कि हिंदी के अधिकतर लेखक आश्विट्ज, जहां हिटलर ने लाखों यहूदियों को गैस चैंबर में मौत के घाट उतार दिया था, को तो याद करते हैं लेकिन उन्हें विभाजन की विभीषिका परेशान नहीं करती। मुक्तिबोध जैसा क्रांतिकारी कवि भी विभाजन की विभीषिका पर निरपेक्ष ही नजर आता है। इसका उत्तर भी मिलता है जब लेखक कहता है कि कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन स्वयं टू नेशन थ्योरी पर आधारित थी। वह स्वयं प्रो विभाजन थी। उनके लिए तो विभाजन एकदम उचित था। ऐसे में प्रगतिवादियों को विभाजन का दर्द कैसे महसूस होता, यदि दर्द यत्र तत्र आया भी तो बेहद सेलेक्टिवली आया। 

कम्युनिट विचारधारा से जुड़े हिंदी के लेखकों ने विभाजन की विभीषिका को अपने लेखन का विषय नहीं बनाया बल्कि उनकी कलम 1984 में दिल्ली में हुए सिखों के नरसंहार पर भी कमोबेश खामोश ही रही। इंदिरा गांधी की हत्या के बाद तीन दिनों तक दूरदर्शन ने शोक को लाइव दिखाया। कहा जाता है कि उस उस दौरान किसी ने खून का बदला खून का नारा दिया और दूरदर्शन के जरिए वो बड़े समुदाय तक पहुंचा और सिखों का नरसंहार आरंभ हो गया। राजीव गांधी के बड़े पेड़ गिरने से धरती हिलने वाले बयान ने भी आग में घी का काम किया। सुधीश पचौरी का मानना है कि टीवी के सतत प्रसारण और शोक दृष्यों को लगातार देख इंदिरा के प्रति हमदर्दी और मारने वालों के प्रति क्षोभ पैदा होता था। पता नहीं किन तत्त्वों का शोक बेदर्द होकर आम सिखों पर टूटने लगा। सिख और हिंदू जो कल तक एक दूसरे के अनन्य थे वो एक दूसरे के अन्य हो गए। इस बात का समाजशास्त्रीय अध्ययन होना चाहिए कि हिंदू परिवारों में धर्म की रक्षा के लिए अपने बड़े बेटे को सिख बनाने की परंपरा थी वही हिंदू इंदिरा की हत्या के बाद सिखों को पराया समझने लगे। जाहिर है जब इस तरह के धार्मिक अस्मितामूल्क विमर्श अपनी जगह बनाने लगते हैं तब न यथार्थ बचता है न कोई तटस्थता बच पाती है। समूचा यथार्थ ही विभक्त हो जाता है। 1984 में सिखों के नरसंहार ने इसी प्रकार से यथार्थ को विभाजित कर दिया। जो कल तक अपने को सिख या हिंदू की तरह महसूस नहीं करता था वह भी अपनी अस्मिता पहनकर चलने लगा। स्वाधीनता के समय देश विभाजन के बाद यह दूसरा नया विभाजन था। इस विभाजन ने भले ही भौगोलिक विभाजन नहीं किया लेकिन हमारे आसपास के दैनिक यथार्थ और अनुभवों को भी विभक्त कर दिया। प्रश्न यही उठता है कि सिखों के नरसंहार को हिंदी के लेखकों ने प्राय: अनदेखा क्यों किया? सिखों का दर्द हिंदी लेखकों की रचनाओं में नहीं आ पाया। कुछ लेखकों ने लिखा लेकिन वृहत्तर हिंदी साहित्यिक समाज खामोश रहा। एकबार फिर हिंदी के साहित्यकार संवेदनहीन साबित हुए। सुधीश पचौरी कहते हैं कि वो दंगों में शामिल हुए बिना भी दंगों में ‘शामिल’ नजर आए।

आज बहुत सारे साहित्यकार भ्रमित नजर आते हैं। इंदिरा गांधी युग में साहित्य में जिस अवसरवाद का उदय हुआ भूमंडलीकरण तक चलता रहा। मंडल के बाद साहित्य में अस्मितामूलक विमर्श आरंभ हुआ। दलित और स्त्री चेतना का उभार होता है। ये दौर चलता है। मोदी युग में हिंदी साहित्य का इंटरनेट मीडिया युग आरंभ होता है। हिंदी साहित्य की रचना प्रक्रिया से लेकर अर्थ प्रक्रिया और उसकी आलोचना प्रक्रिया भी बदलती नजर आती है। मगर इस बदलाव का अहसास बहुत कम लोगों को है और उससे बाहर निकलने की छटपटाहट तो और भी कम लोगों को है। मोदी युग में हिंदी साहित्य में नए नए प्रश्न खड़े हो रहे हैं। विमर्श पर बहुत चर्चा होती है। विमर्श, आधुनिकता आदि को लेकर साहित्य में बहस कम दिखाई देती है। उपभोक्ता संस्कृति से लेकर बाजर को नए सिरे परिभाषित करने में साहित्य पिछड़ता नजर आता है। हिंदी के वामपंथी साहित्यकार अब भी पुरानी घिसी पिटी लीक पर चलते हुए नजर आते हैं। उनको अपनी रचनाओं में इन प्रश्नों से मुठभेड़ करने की आवश्यकता है। आवश्कता तो इस बात को रेखांकित करने की भी है कि हिंदू समाज किन कारणों से संगठित हुआ और अपने अधिकारों के लिए कृतसंकल्पित भी। 


Saturday, November 16, 2024

महान कलाकारों के स्मरण का संयोग


किसी भी फिल्म फेस्टिवल के आयोजन का उद्देश्य देश में फिल्म संस्कृति का निर्माण करना होता है। इस उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए भारत सरकार ने भी फिल्म फेस्टिवल की कल्पना की थी। आगामी 20 नवंबर से गोवा में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिव का आरंभ हो रहा है। उसके बाद 5 दिसंबर से विश्व के सबसे बड़े घुमंतू फिल्म फेस्टिवल जागरण फिल्म फेस्टिवल की दिल्ली से शुरुआत हो रही है। भारत सरकार के सूचना और प्रसारण मंत्रालय के आयोजन अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन गोवा में होने जा रहा है। इस बार गोवा में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (ईफी) में भारतीय सिनेमा के चार दिग्गजों को भी याद किया जा रहा है। महान शोमैन राज कपूर, गायक मुहम्मद रफी, फिल्मकार तपन सिन्हा और अभिनेता ए नागेश्वर राव की जन्मशती मनाई जा रही है। इन चारों के फिल्मों का प्रदर्शन, उनके कार्यों और समाज पर उसके प्रभाव पर बात होगी। उनके जीवन और फिल्मों के आधार पर प्रदर्शनी लगाई जा रही है। जब हम फिल्म फेस्टिवल पर बात करते हैं और ये मानते हैं कि इससे देश में फिल्म संस्कृति का विकास होगा तो हमारे मानस में एक प्रश्न खड़ा होता है कि इसमें युवाओं की कितनी भागीदारी होगी। ईफी ने एक सराहनीय पहल की है। इस बार फिल्म फेस्टिवल की थीम ही युवा फिल्मकार है। इसमें युवा फिल्मकारों को मंच देने का प्रयास किया जा रहा है। देशभर के फिल्म स्कूलों से जुड़े चुनिंदा छात्रों को ना केवल ईफी में आमंत्रित किया गया है बल्कि उनके कार्यों को रेखांकित कर अंतराष्ट्रीय दर्शकों तक पहुंचाने का उपक्रम भी किया गया है। पहली बार किसी फिल्म का निर्देशन करनेवाले युवा निर्देशक को सम्मानित करने के लिए जूरी ने मेहनत की है। कुछ वर्षों पूर्व 75 क्रिएटिव माइंड्स नाम से युवा फिल्मकारों को प्रोत्साहित करने का एक कार्यक्रम आरंभ किया गया था। इस अभियान के आरंभ में जुड़ने का अवसर मिला था। यह एक बेहद महत्वाकांक्षी प्रोजेक्ट था। ईफी के इस 55वें संस्करण में 75 क्रिएटिव माइंड्स की संख्या बढ़ाकर 100 क्रिएटिव माइंड्स कर दी गई है। 

अब बात कर लेते हैं उन महान फिल्मी हस्तियों की जिनकी जन्म शताब्दी वर्ष में उनपर विशेष आयोजन हो रहा है। ए नागेश्वर राव तेलुगु फिल्म इंडस्ट्री को पहचान और नाम देने वाले कलाकार थे। करीब सात दशकों तक उन्होंने फिल्मों में जितना काम किया उसने तेलुगू सिनेमा की पहचान को गाढ़ा किया। उन्होंने एन टी रामाराव के साथ मिलकर तेलुगु फिल्मों को खड़ा किया। कहा जाता है कि तेलुगु फिल्मों के ये दो स्तंभ हैं। नागेश्वर राव का संघर्ष बहुत बड़ा है। वो एक बेहद गरीब परिवार में पैदा हुए थे। वो बचपन से ही फिल्मों में अभिनय करने का स्वप्न देखते थे। वो जब आठ नौ वर्ष के थे तभी से आइने के सामने खड़े होकर अभिनय किया करते थे। उनकी मां जब इसको देखती तो अपने बेटे को प्रोत्साहित करती। नागेश्वर राव की मां ने ही उनको अभिनय के लिए ना केवल प्रेरित किया बल्कि अपनी गरीबी के बावजूद उनको थिएटर में भेजने लगीं। इस बात को नागेश्वर राव स्वीकार भी करते थे कि अगर उनकी मां ना होती तो वो फिल्मों में नहीं आ पाते। रंगमंच पर नागेश्वर राव के काम की प्रशंसा होने लगी थी। 1941 में उनको फिल्मों में पहला काम मिला जब पुलैया ने अपनी फिल्म धर्मपत्नी में कैमियो रोल दिया। उनके इस काम पर प्रलिद्ध फिल्मकार जी बालारमैया की नजर पड़ी और उन्होंने अपनी फिल्म सीतारामम जन्मम में केंद्रीय भूमिका के लिए चयनित कर लिया। स्वाधीनता के पूर्व 1944 में जब ये फिल्म रिलीज हुई तो नागेश्वर राव के काम की चर्चा हुई। पहचान मिली। 1948 में जब उनकी फिल्म बालाराजू आई तो उसको दर्शकों का भरपूर प्यार मिला। उसके बाद तो वो तेलुगु सिनेमा के सुपरस्टार बन गए। ए नागेश्वर राव ने ढाई सौ से अधिक तेलुगु, तमिल और हिंदी फिल्मों में काम किया। एएनआर के नाम से मशहूर इस कलाकार को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया। 

जिस तरह से एएनआर ने तेलुगू फिल्मों को संवारा, कह सकते हैं कि राज कपूर ने भी हिंदी फिल्मों को एक दिशा दी। उनकी फिल्म आवारा का प्रदर्शन ईफी के दौरान किया जा रहा है। कौन जानता था कि जो बालक कोलकाता के स्टूडियो में केदार शर्मा से रील का रहस्य जानना चाहता था, जो किशोरावस्था में कॉलेज में पढ़ाई न करके अन्य सभी बदमाशियां किया करता था, जिसके पिता उसके करियर की चिंता में सेट पर उदास बैठा करते थे, वो रील की इस दुनिया में इतना डूब जाएगा, उसकी बारीकियों को इस कदर समझ लेगा या फिर रील में चलने फिरनेवाले इंसान के व्याकरण को इतना आत्मसात कर लेगा कि पहले अभिनेता राज कपूर के तौर पर और बाद में शोमैन राज कपूर के रूप में उनकी ख्याति पूरे विश्व में फैल जाएगी। राज कपूर ने ना केवल कालजयी फिल्में बनाईं बल्कि उन्होंने नई प्रतिभाओं को भी अवसर दिया। उनकी संगीत की समझ इतनी व्यापक थी कि अक्सर वो संगीतकारों के साथ होनेवाली संगत में फीडबैक दिया करते थे जिससे संगीत बेहद लोकप्रिय हो जाया करता था। कई गीतकारों और संगीतकारों ने इसको स्वीकार किया है। राज कपूर के सहायक रहे और फिर कई हिट फिल्मों का निर्देशन करनेवाले राहुल रवैल ईफी दौरान रणबीर कपूर के साथ संवाद करेंगे। 

तपन सिन्हा एक ऐसे निर्देशक थे जिन्होंने बेहतरीन फिल्में बनाईं। काबुलीवाला एक ऐसी फिल्म जिसको अंतराष्ट्रीय स्तर पर मान्यता मिली। तपन सिन्हा की समाज और समकालीन राजनीति पर पैनी नजर रहती थी। वो अपनी फिल्मों के माध्यम से मनोरंजन तो करते ही थे फिल्मों के जरिए राजनीति की विसंगतियों पर प्रहार भी करते थे। तपन सिन्हा ने बंगाली, हिंदी और ओडिया में फिल्में बनाई। तपन सिन्हा ने बिहार के भागलपुर में अपनी स्कूली पढ़ाई की फिर पटना विश्वविद्यालय से उच्च शिक्षा। तपन सिन्हा ने अपना करियर साउंड इंजीनियर के तौर पर आरंभ किया था लेकिन उनके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा था। वो फिल्म बनाना चाहते थे। जब उन्होंने फिल्मों का निर्देशन आरंभ किया तो फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनको डेढ़ दर्जन से अधिक राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार मिले। सत्यजित राय और तपन सिन्हा ने मिलकर बांग्ला फिल्मों को एक नई ऊंचाई दी। वो एक बेहद अनुशासित निर्देशक थे और सुबह दस बजे फिल्मों की शूटिंग आरंभ करते थे और शाम पांच बजे समाप्त। उसके बाद गोल्फ खेलना उनकी दिनचर्या में शामिल था। 

मोहम्मद रफी के बारे में क्या ही कहना। वो भारत के ऐसे पार्श्व गायक थे जिनके गीतों को आज भी गुनगुनाया जाता है। ये देखना दिलचस्प होगा कि मोहम्मद रफी को ईफी में कैसे याद किया जाता है। ईफी की ओपनिंग फिल्म स्वातंत्र्य वीर सावरकर है। इस फिल्म को रणदीप हुडा ने निर्देशित किया है। गैर फीचर फिल्म श्रेणी में ओपनिंग फिल्म घर जैसा कुछ है जो लद्दाखी फिल्म है। इसके अलावा गीतकार प्रसून जोशी, संगीतकार ए आर रहमान और निर्देशक विधु विनोद चोपड़ा फिल्मों की बारीकियों पर बात करेंगे। गोवा में आयोजित होनेवाले इस फिल्म फेस्टिवल को लेकर अंतराष्ट्रीय फिल्म जगत में भी एक उत्सकुता रहती है। इसमें कई बेहतरीन अंतराष्ट्रीय फिल्मों का भी प्रदर्शन होगा। चार भारतीय फिल्मी दिग्गजों को समर्पित ये फेस्टिवल लंबी लकीर खींच सकता है।      


Sunday, November 10, 2024

प्रगतिशीलता का अधिनायकवाद


इन दिनों हिंदी साहित्य जगत में एक बार फिर से वाम दलों से संबद्ध लेखक संगठनों की चर्चा हो रही है। चर्चा इस बात पर नहीं हो रही है कि लेखक संगठनों ने लेखकों के हित में कोई कदम उठाया है बल्कि इस बात पर हो रही है कि जनवादी लेखक संघ के संस्थापक सदस्य और राष्ट्रीय अध्यक्ष असगर वजाहत ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने 2 नवंबर को अपना त्यागपत्र संगठन के महासचिव और कार्यकारिणी सदस्यों को भेजा। उसके बाद गुरुवार को प्रगतिशील लेखक संघ के उत्तर प्रदेश के अध्यक्ष पद से वरिष्ठ कवि नरेश सक्सेना ने भी त्यागपत्र दे दिया। उनके त्याग पत्र में उनका दर्द झलक रहा है। नरेश सक्सेना ने लिखा कि मैं मित्रों की असहमति का सम्मान करता हूं, किंतु अपने प्रति व्यंग्य और संदेह का नहीं। हार्दिक विनम्रता के साथ मैं तत्काल प्रभाव से उत्तर प्रदेश प्रगतिशील लेखख संघ के अध्यक्ष पद से इस्तीफा देता हूं। गौर करने की बात है कि नरेश सक्सेना जी ने ये बात फेसबुक पर लिखी। उनके लिखने के बाद उनके समर्थन और विरोध में टिप्पणियां आने लगीं। कम्युनिस्ट पार्टी के प्रति आस्थावान कुछ लेखकों ने उनको नसीहत दी तो अधिकतर लेखकों ने उनका समर्थन किया। कर्मेन्दु शिशिर ने अच्छी टिप्पणी की, संगठन और सृजन दोनों का अपना महत्व है। जब एक रचनाकार को संगठन और सृजन में चयन करना पड़े तो सच्चा रचनाकार तो सृजन का ही चयन करेगा। असगर वजाहत जैसे बड़े कथाकार/नाटककार और नरेश सक्सेना जैसे बड़े कवि को जब संगठन ही ट्रोल करने लगे तो वो क्या करें। नरेश सक्सेना का त्याग पत्र और उनपर आई टिप्पणियों को पढ़ने के बाद इस बात के संकेत मिलते हैं कि संघ की कोई बैठक चंडीगढ़ में हुई थी जिसमें ये तय किया गया था कि संघ से जुड़ा कोई लेखक किस मंच पर जाएगा ये संगठन तय करेगा। 

कम्युनिस्ट पार्टियों के बौद्धिक प्रकोष्ठ की तरह काम करनेवाला प्रगतिशील लेखक संघ हो, जनवादी लेखक संघ हो या जन संस्कृति मंच सबमें एक अधिनायकवादी प्रवृत्ति दिखाई देती है। इस संबंध में राहुल सांकृत्यायन से जुड़ा एक प्रसंग का उल्लेख उचित होगा। स्वाधीनता के बाद दिसंबर 1947 में हिंदी साहित्य सम्मेलन का एक अधिवेशन बांबे (अब मुंबई) में होना था। राहुल सांकृत्यायन को अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए मंत्रित किया गया था। उस समय राहुल सांकृत्यायन कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। जब वो बांब पहुंचे तो पार्टी के कार्यालय पहुंचे। वहां कामरेडों ने उनके तैयार भाषण की कापी पढ़ी। उसके बाद तो वहां विवाद खड़ा हो गया। राहुल सांकृत्यायन ने अपने भाषण में लिखा था इस्लाम को भारतीय बनना चाहिए। उनका भारतीयता के प्रति विद्वेष सदियों से चला आया है। नवीन भारत में कोई भी धर्म भारतीयता को पूर्णतया स्वीकार किए बिना फल फूल नहीं सकता।ईसाइयों, पारसियों और बौद्धों को भारतीयता से एतराज नहीं फिर इस्लाम को ही क्यों? इस्लाम की आत्मरक्षा के लिए भी आवश्यक है कि वह उसी तरह हिन्दुस्तान की सभ्यता, साहित्, इतिहास, वेशभूषा, मनोभाव के साथ समझौता करे जैसे उसने तुर्की, ईरान और सोवियत मध्य-एशिय़ा के प्रजातंत्रों में किया। कामरेड चाहते थे कि राहुल अपने लिखे भाषण में बदलाव करें। उन हिस्सों को हटा दें जहां उन्होंने इस्लाम के भारतीयकरण की बात की है। मामला काफी गंभीर हो गया। राहुल जी भाषण में संशोधन के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हो रहे थे। कम्युनिस्ट पार्टी के कामरेड ने उनको पत्र लिखा और कहा कि आप अपने भाषण में आवश्यक रूप से ये कहें कि ये पार्टी का स्टैंड नहीं है। इसका राहुल सांकृत्यायन ने बहुत अच्छा इत्तर दिया । उन्होंने लिखा कि पार्टी की नीति के साथ नहीं होने के कारण वो स्वयं को पार्टी में रहने लायक नहीं समझते हैं और उन्होंने पार्टी छोड़ दी। कुछ ऐसा ही भाव नरेश सक्सेना के त्याग पत्र से भी प्रतिबिंबित हो रहा है। 

एक भयावह उदाहरण है शायर कैफी आजमी की पत्नी शौकत कैफी से जुड़ा।  शौकत कैफी ने अपनी किताब ‘यादों की रहगुजर’ में लिखा है कि जब उनकी शादी हुई तो वो मुंबई में एक कम्यून में रहते थे। उनका जीवन सामान्य चल रहा था। उनके घर एक बेटे का जन्म हुआ था। अचानक सालभर में बच्चा टी बी का शिकार होकर काल के गाल में समा गयॉ। इस विपदा से शौकत पूरी तरह से टूट गई थीं। अपने इस पहाड़ जैसे दुख से उबरने की कोशिश में जैसे ही शौकत को पता चला कि वो फिर से मां बनने जा रही हैं तो उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहा । अपनी इस खुशी को शौकत ने कम्यून में साझा की । उस वक्त तक शौकत कम्युनिस्ट पार्टी की सदस्यता ले चुकी थी । जब शौकत की पार्टी को इसका पता चला तो तो पार्टी ने शौकत से गर्भ गिरा देने का फरमान जारी किया। उस वक्त शौकत पार्टी के इस फैसले के खिलाफ अड़ गईं थी और तमाम कोशिशों के बाद बच्चे को जन्म देने की अनुमति मिली थी। स्वाधीनता, स्त्री अधिकार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की बात करनेवाले कम्युनिस्ट पार्टी के लोगों को जैसे ही अवसर मिलता है इनको दबाने का पूरा प्रयत्न करते हैं। नरेश सक्सेना इसके हालिया शिकार हैं।  

Saturday, November 9, 2024

अनौपचारिक चर्चा में उठते गंभीर प्रश्न


वर्षों बाद मित्रों से मिलने दिल्ली विश्वविद्यालय जाना हुआ। विश्वविद्यालय के पास विजयनगर की चाय दुकान पर मिलना तय हुआ। ये वही ठीहा है जहां छात्र जीवन में मित्रों के साथ बैठकी होती थी। पुराने दिनों को याद करने और कालेज के जमाने के मित्रों से मिलने का अवसर था। उत्साहित होकर हम सब विजयनगर वाली चाय दुकान पर जुटे। हम छह मित्र थे। वहीं फुटपाथ पर बैठकर छात्र जीवन को याद करने लगे। हमने तय किया था कि राजनीति पर बात नहीं करेंगे। ऐसा संभव नहीं हो सका। आधे पौने घंटे तक दिल्ली विश्वविद्यालय की बातें होती रहीं। इसके बाद बात राष्ट्रीय शिक्षा नीति तक पहुंच गई। मैंने कहा कि ये मोदी सरकार का शिक्षा व्यवस्था में आमूल चूल सुधार करने का बड़ा और ऐतिहासिक कदम है। 1986 के बाद शिक्षा पर विशेष ध्यान नहीं दिया गया था। हमारी शिक्षा व्यवस्था विदेशी भाषा और विदेशी शैक्षणिक तौर तरीकों में उलझी हुई थी। अब अकादमिक जगत के चर्चा के केंद्र में भारतीय ज्ञान परंपरा है। कोई भी सेमिनार या गोष्ठी ऐसी नहीं जिसमें भारतीय ज्ञान परंपरा की बात न हो। स्वाधीनता के बाद पहली बार शिक्षा का भारतीयकरण हो रहा है। मेरे दो मित्र ने सहमति जताई। उसमें से एक ने मेरी बातों में ये जोड़ा कि शिक्षा का ना केवल भारतीयकरण हो रहा है बल्कि विद्यार्थियों और शिक्षकों के मानस में भी परिवर्तन हो रहा है। वो अभी ये बातें कह ही रहा था कि एक मित्र ने हस्तक्षेप किया। उसने कहा कि शिक्षा नीति तो ठीक है, ऐतिहासिक भी है, इससे भारतीयकरण भी हो रहा है, चर्चा भी हो रही है लेकिन इसका क्रियान्वयन बहुत धीरे हो रहा है। मेरा तर्क था कि संभव है कि क्रियान्वयन धीमा हो पर बदलाव में समय तो लगता है। ये कोई सामान नहीं है कि एक को हटाकर उसकी जगह दूसरा रख दिया जाए। 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति कि चर्चा में अब राजनीति भी आ गई। एक मित्र, जो शिक्षक संगठन में सक्रिय हैं, अबतक ब्रेड पकौड़ा खा रहे थे। पकौड़े से फारिग होते ही हमारी चर्चा में घुसे और आक्रामक तरीके से बोले कि चार वर्ष बीत गए अबतक पाठ्यक्रम तो बना नहीं पाए। लागू कैसे करेंगे। उनके पास काफी जानकारी थी। उन्होंने कहा कि अभी दिल्ली में शिक्षाविदों की दो दिन की बैठक हुई है जिसमें पाठ्यक्रम बनाने को लेकर चर्चा हुई। उस बैठक में भी इस बात पर सहमति नहीं बन पाई कि पाठ्यक्रम कब तक तैयार हो पाएगा। पुस्तकों की बात तो बाद की है। कांग्रेस तो 2004 में सत्ता में आई थी और 2006 तक सारे पुस्तकों में बदलाव करके अपने अनुकूल सामग्री लागू कर दी थी। यहां तो चार साल में चले ढाई कोस वाली बात है। इसका प्रतिरोध एक अन्य मित्र ने जोरदार तरीके से किया। उसका कहना था कि कांग्रेस के पास एक ईकोसिस्टम था जिसने सबकुछ आनन फानन में कर दिया। इसपर पहले वाले मित्र ने कहा कि दस वर्ष से अधिक हो गए ईकोसिस्टम नहीं बना पाए भाजपा वाले। मेरा तर्क था कि दस और साठ वर्ष में अंतर होता है, इसको समझना होगा। मेरी इस बात पर वो चुप तो हो गया लेकिन बड़बड़ाता रहा कि जब गलत लोगों का चयन करोगो, अपने लोगों पर भरोसा नहीं करोगे, काम नहीं दोगे तो सिस्टम बनेगा कैसे। खैर बातचीत खत्म हो गई। हम सबने फिर से चाय पीने का मन बनाया। चाय आ गई। 

मित्रगण एक दूसरे से मजे भी ले रहे थे। इसमें से दो मित्र बाहर से आए थे। वो दोनों प्रोफेसर हैं। अचानक से विश्वविद्यालय की बात आरंभ हुई। इस बात पर चर्चा होने लगी कि आजकल शिक्षकों के मजे हैं। शिक्षकों के लिए सुविधाएं बहुत हो गई हैं। वो दोनों सहमत थे। ये भी बताया गया कि शिक्षा के क्षेत्र में अब संसाधनों की कमी नहीं है। क्लासरूम बेहतरीन हो गए हैं। चर्चा चल ही रही थी कि एक मित्र ने चुटकी ले ली। सुविधाएं तो अपार हैं समय भी खूब है। क्लास तो लेनी नहीं है। इसपर दोनों भड़क गए। कहने लगे कि हमें जितना काम करना पड़ता है उसकी कल्पना भी बाहर वालों को नहीं है। फिर वो लोग आपस में वर्कलोड आदि की बातें करने लगे। इतने में पहले वाले मित्र जो शिक्षक राजनीति में सक्रिय हैं फिर से टपक पड़े। बोले शिक्षकों के मजे तो होंगे ही। जब 56 केंद्रीय विश्वविद्यालयों में से एक दर्जन से अधिक विश्वविद्यालयों में कुलपति नहीं होंगे तो मजे को कौन रोक सकता है। कामचलाऊ व्यवस्था में तो हर कोई मजे लूटता है। उसकी बात काटते हुए मैंने कहा कि कुलपति चयन की प्रक्रिया में समय तो लगता है। हो जाएगा। हमारे देश में चुनाव भी तो चलते रहते हैं। शिक्षा मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान जी चुनाव प्रबंधन के माहिर हैं। पार्टी उनका उपयोग करती है। कुछ विलंब हो गया होगा। इसको इस तरह से पेश करना गलत है। उसने पलटकर विश्वविद्यालयों के नाम गिनाने शुरू कर दिए। वर्धा का हिंदी विश्वविद्यालय, लखनऊ का अंबेडकर विश्वविद्ययालय, गढ़वाल का केंद्रीय विश्वविद्यालय, बंगाल का विश्वभारती विश्वविद्यालय, सिक्किम, अरुणाचल, पुडेचेरी आदि के केंद्रीय विश्वविद्यालय बगैर कुलपति के चल रहे हैं। धमकाने के अंदाज में बोला कि सूची लंबी है कहो तो पूरी गिनाऊं। कुछ विश्वविद्ययालयों के कुलपति का कार्यकाल अभी से लेकर जनवरी तक समाप्त हो जाएगा। बात आगे ना बढ़े इसलिए उसको बदलने का प्रयास करते हुए कहा कि यार तुम तो प्रक्रियागत देरी पर राजनीति करने लग गए। वो माना नहीं कहा कि शिमला के उच्च अध्ययन संस्थान में 2021 से नियमित निदेशक नहीं है। मैं इसका तुरंत उत्तर नहीं दे पाया। 

चर्चा वहीं पहुंच गई जिसको लेकर हम सभी आरंभ से आशंकित थे। अब बारी हमारे दो शिक्षक मित्रों की थी। वो इन तर्कों से सहमत नहीं हो पा रहे थे। उन्होंने कहा कि कांग्रेस की तरह बीजेपी अपने लोगों को भरने की जगह प्रतिभा को प्राथमिकता देती है। कांग्रेस की तरह भाई-भतीजावाद से पद भरने में इस सरकार की रुचि नहीं है। जब से प्रधानमंत्री मोदी ने पद संभाला है उन्होंने इस बात पर सबसे अधिक बल दिया है कि प्रतिभा को किसी भी तरह से हाशिए पर ना रखा जाए। योग्य व्यक्ति को पद मिले। चाहे वो शिक्षा का क्षेत्र हो या विज्ञान का या कला का। कांग्रेस के ईकोसिस्टम को जब भी चुनौती मिलती है तो वो इसी तरह से बिलबिलाने लगते हैं। धर्मेन्द्र प्रधान और उनके पहले के शिक्षा मंत्रियों ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति पर बहुत मेहनत की है। उसको समावेशी बनाने के लिए हजारों लोगों की राय ली गई थी। दिनकर का नाम तो सुना होगा। संस्कृति के चार अध्याय में उन्होंने कहा है कि विद्रोह, क्रांति या बगावत कोई ऐसी चीज नहीं जिसका विस्फोट अचानक होता है। जब शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक बदलाव की बात हो रही है तो उसमें विलंब तो होगा ही। दोनों मित्रों की आक्रामकता देखकर आलोचना करनेवाला मित्र चुप तो हो गया लेकिन फिर धीरे से बोला अगर विश्वविद्यालय और शैक्षणिक संस्थान नेतृत्वविहीन रहेंगी तो बदलाव में संदेह है। इतनी गर्मागर्मी हो गई कि अगली बार मिलने की तिथि नियत न हो सकी। हम घर की ओर चल पड़े।        


Saturday, November 2, 2024

हिंदुओं की वैश्विक व्याप्ति और समाज


महाराष्ट्र और झारखंड में विधानसभा के लिए चुनाव में प्रचार चरम पर है। इन दोनों राज्यों में चुनाव प्रचार के बीच उत्तर प्रदेश की नौ विधानसभा सीटों पर होनेवाले उपचुनाव को लेकर भी राजनीतिक सरगर्मी तेज है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के बंटेंगे तो कटेंगे वाले बयान की काट ढूंढने में विपक्ष परेशान प्रतीत हो रहा है। कभी जीतेंगे तो पिटेंगे जैसा बयान आते हैं तो कभी जुड़ेंगे तो जीतेंगे जैसे नारे होर्डिंग पर लगते हैं। पूरे चुनाव प्रचार में हिंदू और सनातन की ही चर्चा हो रही है। योगी आदित्यनाथ ने तो रामभक्त ही राष्ट्रभक्त का नारा भी दे दिया है। इसपर पलटवार करते हुए अखिलेश यादव ने कहा कि उनका नारा निराशा और नाकामी का प्रतीक है। अखिलेश यादव ने आदर्श राज्य की कल्पना की बात की। यहां वो राम राज्य कहने से बच गए, लेकिन पूरे पोस्ट से भाव यही निकल रहा है। उनके दल के प्रवक्ता भी श्रीरामचरितमानस की चौपाइयां सुना रहे हैं। हिंदू विमर्श और पौराणिक चरित्र विधानसभा चुनाव प्रचार का केंद्रीय विमर्श है। कुछ लोगों को हिंदू और श्रीराम नाम लेने में कष्ट होता है। वो इशारों में अपनी बात कहते हैं। हिंदुओं की एकजुटता और हिंदू वोटरों को अपने पाले में करने के लिए सभी राजनीतिक दल बेचैन हैं। कोई जाति कार्ड खेल रहा है तो कोई जाति जनगणना की बात को हवा दे रहा है। 

हिंदुओं की चिंता सिर्फ विधानसभा चुनावों में नहीं हो रही है बल्कि वैश्विक स्तर पर भी इसको लेकर चर्चा हो रही है। अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव प्रचार में भी हिंदुओं को लेकर दोनों दल सतर्क हैं। रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार डोनाल्ड ट्रंप ने तो हिंदुओं पर बंगलादेश में हो रहे अत्याचार पर एक लंबी पोस्ट ही लिख डाली। ट्रंप ने लिखा कि वो बंगलादेश में हिंदुओं, ईसाइयों और अन्य अल्पसंख्यों पर होने वाले बर्बर हिंसा की निंदा करते हैं। उन्होंने अपने प्रतिद्वंदी कमला हैरिस और अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति जो बाइडेन पर आरोप लगाया कि दोनों ने मिलकर अमेरिका और पूरे विश्व में हिंदुओं की अनदेखी की। ट्रंप ने स्पष्ट रूप से ये घोषणा की है कि धर्म के विरुद्ध रैडिकल लेफ्ट के एजेंडा से अमेरिकन हिंदुओं के अधिकारों की रक्षा के लिए वो प्रतिबद्ध हैं। हिंदुओं की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करेंगे। भारत और अपने मित्र प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के साथ बेहतर समन्वय बनाकर चलेंगे। इसके बाद उन्होंने हिंदुओं को दीवाली की शुभकामनाएं दी और कहा कि ये ये पर्व बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। उधर डेमोक्रैट पार्टी की उम्मीदवार और अमेरिका की उपराष्ट्रपति कमला हैरिस ने भी दीवाली मनाई। दीवाली मनाते हुए उनका वीडियो उनकी टीम ने इंटरनेट मीडिया पर साझा किया। जो बाइडेन ने भी व्हाइट हाउस में अपने परिवार के साथ दीवाली मनाई। जिस तरह से अमेरिका के चुनाव में हिंदुओं की बात हो रही है उतना खुलकर तो यहां भी हिंदुओं और हिंदू धर्म की चर्चा नहीं होती है। पिछले दिनों जब ब्रिटेन में चुनाव हुआ था तो वहां भी प्रधानमंत्री पद के दोनों उम्मीदवारों ने मंदिरों में जाकर पूजा आदि की थी। ऋषि सुनक ने तो खुलकर हिंदू देवी देवताओं के बारे में श्रद्धापूर्वक बात की थी। 

एक तरफ अमेरिका के राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार पर खुलकर बोल और लिख रहे हैं वहीं दूसरी तरफ हमारे देश में कई दलों के नेता इस मुद्दे पर खामोशी ओढे हुए हैं। जब भी बंगलादेश में हिंदुओं पर होनेवाले अत्याचार की चर्चा होती है और इन दलों के नेताओं या प्रवक्ताओं से इस बाबत प्रश्न पूछा जाता है तो वो अपने उत्तर के साथ साथ फिलस्तीन का मुद्दा भी उठा देते हैं। वो ये भूल जाते हैं कि फिलिस्तीनी आतंकवादियों ने इजरायल में घुसकर ना केवल नरसंहार किया बल्कि सैकड़ों बच्चों और महिलाओं को बंधक भी बना लिया था। इस क्रिया की प्रतिक्रिया में फिलस्तीन पर इजरायल हमले कर रहा है। इससे उलट बंगलादेश में तो हिंदुओं ने किसी प्रकार की कोई हिंसा नहीं की। उनपर तो वहां के बहुसंख्यकों ने अकारण हमले किए। हिंदुओं की हत्या की गई। मंदिरों को तोड़ा गया। जब भारत के सभी राजनीतिक दलों को इस हमले के खिलाफ एक स्वर में बोलना चाहिए था उस वक्त ये किंतु परंतु में अटके रहे। अब भी हैं। इसका कारण क्या हो सकता है। एक वजह है वोटबैंक की राजनीति। जो दल अल्पसंख्यकों विशेषकर मुसलमानों की राजनीति करते हैं उनको लगता है कि बंगलादेश में हिदुओं पर हो रहे हमलों का विरोध करने से उनका वोटबैंक दरक सकता है। इस कारण वो हिंदुओं पर होनेवाले हमले को लेकर तटस्थ हो जाते हैं। धर्म और राजनीति के घालमेल की आड़ लेते हैं। तर्क होता है कि धर्म को राजनीति से अलग रखना चाहिए। इस तर्क को इकोचैंबर में बैठे तथाकथित बुद्धिजीवी हवा देते हैं। ऐसा माहौल बनाते हैं कि राजनीति से धर्म को अलग रखना चाहिए। दरअसल इकोचैंबर वाले बुद्धिजीवी ये नहीं समझ पाते कि मार्क्स ने जिस धर्म की बात की थी और जो भारत का धर्म है वो दोनों बिल्कुल अलग हैं। 

आज पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है। वो सनातन धर्म को समझना चाहती है। हिंदुओं की उस जीवन शैली को समझना चाहती है जिसकी इकाई परिवार है। एकल परिवार से ऊब चुकी दुनिया भारतीय परिवारों और उनके बीच के लगाव को समझना चाहती है। संस्कारों के बारे में जानने को उत्सुक है। हिंदू धर्म और अध्यात्म को लेकर वैश्विक स्तर पर एक रुझान देखा जा रहा है। ऐसे में अपने देश में हिंदुओं और उनके ग्रंथों को लेकर और सनातन पर अपमानजनक टिप्पणियां करनेवालों को पुनर्विचार करना चाहिए। जब पूरी दुनिया हिंदुओं की ओर देख रही है ऐसे में अपने ही देश में हिंदुओं को लेकर घृणा भाव बहुत दिनों तक चलनेवाला नहीं है। हिंदू धर्म में जो भी कुरीतियां हों उसको दूर करने का सामूहिक प्रयास किया जाना चाहिए। ऐसा पहले होता भी रहा है। हिंदू समाज के अंदर से ही कोई ना कोई सुधारक आता है जो कुरीतियों पर प्रहार करता है और वृहत्तर हिंदू समाज उसको स्वीकार करता है। कुरीतियों और रूढ़ियों के आधार पर हिंदू समाज को बांटने का जो षडयंत्र चल रहा है उसका निषेध हिंदू समाज ही करेगा। अगर कोई सोचता है कि हिंदू समाज को अपमानित करके अपने वोटबैंक को मजबूत कर लेगा तो वो गलतफहमी में है। हिंदू एकता पर पहले भी बातें होती रही हैं, साहित्य में भी इसके उदाहरण मिलते हैं और इतिहास में भी। रामचंद्र शुक्ल से लेकर शिवपूजन सहाय और रामवृक्ष बेनीपुरी के लेखन में हिंदुओं को संगठित होने की अपेक्षा की गई है। यह अकारण नहीं है कि आज प्रबुद्ध हिंदू समाज भी इस ओर सोचने लगा है। सहिष्णुता हिंदुओं का एक दुर्लभ गुण है लेकिन सहिष्णुता को अगर निरंतर छेड़ा या कोंचा जाएगा तो एक दिन उसकी प्रतिक्रिया तो होगी ही। स्वाधीनता के बाद से ही विचारधारा विशेष के लोगों ने हिंदुओं को अपमानित करने का योजनाबद्ध तरीके से लेकिन परोक्ष रूप से उपक्रम चलाया। ऐसा करनेवाले अब परिधि पर हैं और हिंदू केंद्र में। 


Saturday, October 26, 2024

अमेरिकी चुनाव में धर्म की राजनीति


अपने देश में राजनीति में धर्म के उपयोग की खूब चर्चा होती है। एक विशेष वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे कथित विचारक और विश्लेषक इस बात पर चुनाव के समय शोर मचाते हैं। वो राजनीति में धर्म के उपयोग के लिए भारतीय जनता पार्टी को आज से नहीं बल्कि बल्कि इसके गठन के बाद से ही दिम्मेदार ठहराते आ रहे हैं। किसी प्रकार का तर्क नहीं सूझता तो इस तरह के विश्लेषक राम मंदिर मुक्ति के लिए चलाए गए आंदोलन को भी धर्म से जोड़कर कर भारतीय जनता पार्टी पर प्रहार करने से नहीं चूकते। मंदिरों के भव्य और नव्य स्वरूप को देखकर भी इनको धर्म और राजनीति की याद आती है। धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर इसस ईकोचैंबर में बैठे लोग नेतों के मंदिरों में जाने से लेकर टीका लगाने पर टिप्पणी करते हैं। इस संदर्भ में वो अमेरिका और ब्रिटेन का उदाहरण देते हुए सलाह देते हैं कि भारत के राजनेताओं को अमेरिका से सीखना चाहिए। राजनीति में धर्म के कथित घालमेल को ऐसे लोग देश के सामाजिक तानेबाने के लिए खतरा मानते हैं। कई बार तो धर्मनिरपेक्षता को भी इस तरह परिभाषित करते हैं जैसे उसका अर्थ नास्तिकता हो। ईकोचैंबर में बैठे इस तरह के कथित विद्वान या विश्लेषक धर्म को समझने में चूक जाते हैं। संभव है कि समझकर भी ईकोचैंबर को प्राणवायु देनेवाली शक्तियों के प्रति स्वामिभक्ति के कारण गलत व्याख्या करते हों। इस तरह के कथित विद्वान आपको कई देशों में मिलेंगे जो भारतीय मूल के होते हुए भी धर्म को लेकर भ्रमित हैं या भ्रमित होने का दिखावा करते हैं। 

अब जरा अमेरिका चलते हैं। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव प्रचार हो रहे हैं। डेमोक्रैट्स और रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवारों डोनाल्ड ट्रंप और कमला हैरिस के बीच बेहद कड़ा मुकाबला है। कई तरह के सर्वे आ रहे हैं जो इस कड़े मुकाबले में ट्रंप की स्थिति थोड़ी बेहतर दिखा रहे हैं। जो लोग भारत में धर्म के राजनीति में घालमेल को लेकर विलाप करते रहते हैं उनको अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव को देखना चाहिए। वहां किस प्रकार से चुनाव में जीजस क्राइस्ट और क्रिश्चियन धर्म की चर्चा होती है। चुनावी रैलियों में धर्म और आस्तिकता को जोर शोर से उठाया जाता है। राष्ट्रपति पद के दोनों उम्मीदवारों की रैली में बार-बार लार्ड जीजस का नाम गूंजता रहता है। इस समय अमेरिका के राजनेता इंटरनेट मीडिया पर निरंतर आस्था और आस्तिकता को लेकर पोस्ट लिख रहे हैं। अपनी रैलियों में बोल रहे हैं। वहां के समाचारपत्रों में भी उम्मीदवारों के जीजस को लेकर रैलियों में दिए गए बयानों की चर्चा हो रही है। अमेरिका के समाज में धर्म को लेकर जिस प्रकार की बातें की जाती हैं या जिस प्रकार से वहां जीजस और बाइबिल को लेकर श्रद्धा और उसका सार्वजनिक प्रकटीकरण होता है उसको भी देखना चाहिए। चुनावी रैलियों में क्राइस्ट इज किंग और जीजस इज लार्ड जैसे नारे उछाले जा रहे हैं। क्रिश्चियन आबादी में इसको लेकर एक अलग ही तरह का माहैल देखने को मिल रहा है। अमेरिका में जेन जी की बहुत चर्चा है। जो युवा इस चुनाव में वहां पहली बार वोट डालने जा रहे हैं उनमें से कई ने इंटरनेट मीडिया पर लिखा है कि मैं एक प्राउड क्रिश्चियन हूं। पहली बार वोट डालने को लेकर उत्साहित हूं। मैं डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालूंगा। इस टिप्पणी में गौर करनेवाली बात ये नहीं है कि वो डोनाल्ड ट्रंप को वोट डालेगा। इस बात को देखा जानिए कि किस तरह वो अपने धर्म को लेकर गौरवान्वित है। जो अमेरिका भारत और भारतीयों को धर्म और कट्टरता पर ज्ञान देता है उस देश के युवा खुलेआम धर्म के आधार पर वोट डालने की बात कर रहा है। लेकिन भारत में वैचारिक ईकोचैंबर में बैठे लोगों को ये नहीं दिखता है। अमेरिकी ज्ञान को लेकर यहां शोर मचाने में लग जाते हैं। हमेशा से भारत के बाहर के विचार को लेकर यहां आरोपित करनेवाले इन कथित बौद्धिकों को ये सोचना चाहिए कि इस देश में आयातित विचार लंबे समय तक नहीं चल सकता है। मार्क्सवाद को लेकर भी एक जमाने में रोमांटिसिज्म दिखता था लेकिन समय के साथ वो रोमांटिसिज्म खत्म हो गया। इसका कारण ये रहा कि मार्क्सवादी भारत और भारतीय विचारों को समझ नहीं सके। 

अगर भारतीय जनता पार्टी का नेता अपने चुनाव प्रचार के समय किसी मंदिर में चले जाएं तो उसकी ये कहकर आलोचना होने लगती है कि वो हिंदुओं को आकर्षित करने के लिए ऐसा कर रहे हैं। अमेरिका में खुलेआम राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार प्रार्थना करते हैं और जीजस के नाम पर लोग उम्मीदवार को आशीर्वाद देते हैं। यहां अगर इस तरह से किसी नेता के लिए प्रार्थना की जाए और उसको धर्म से जोड़ा जाए तो जोड़नेवाले को भक्त या अंध भक्त कहकर उपहास किया जाता है। अपेक्षा ये की जाती है कि धर्म को लेकर हमारी राजनीति उदासीन रहे। क्यों? इसका उत्तर किसी के पास नहीं है। अगर उत्तर होता भी है तो वो ये कि इससे अल्पसंख्यकों की भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है। संविधान का हवाला दिया जाने लगता है। क्या भारतीय समाज धर्म के बिना चल सकता है? उत्तर होगा नहीं। मुझे कई बार ये प्रसंग याद आता है। उस प्रसंग को बताने के पहले नेहरू के बारे में आधुनिक भारत के इतिहासकारों की राय देखते हैं। इतिहासकारों ने इस बात पर बल दिया है कि नेहरू धर्म को शासन से अलग रखना चाहते थे। इतिहासकारों से इस आकलन में चूक हुई। नेहरू को जब लगता था कि सत्ता के लिए धर्म का उपयोग आवश्यक है तो वो बिल्कुल नहीं हिचकते थे। अब उस प्रसंग की चर्चा। 14 अगस्त 1947। शाम के समय दिल्ली में डा राजेन्द्र प्रसाद के घर हवन-पूजा का आयोजन किया गया था। हवन के लिए पुरोहितों को बुलाया गया था। भारत की नदियों से जल मंगवाए गए थे। डा राजेन्द्र प्रसाद और नेहरू हवन कुंड के सामने बैठे। महिलाओं ने दोनों के माथे पर तिलक लगाया। फिर नेहरू और राजेन्द्र प्रसाद ने हवन किया। पूजा और हवन के पहले नेहरू ने सार्वजनिक रूप से ये स्टैंड लिया था कि उनको ये सब पसंद नहीं है। तब उनके कई मित्रों ने समझाया था कि सत्ता प्राप्त करने का ये हिंदू तरीका है। नेहरू इस हिंदू तरीके को अपनाने को तैयार हो गए थे। इसका उल्लेख ‘आफ्टरमाथ आफ पार्टिशन इन साउथ एशिया’ नाम की पुस्तक में मिलता है। इंदिरा गांधी तो निरंतर मंदिरों में जाती रही हैं। चुनाव हारने के बाद भी और चुनाव के समय भी। कई पुस्तकों में इस बात का उल्लेख है। लेकिन जब से सोनिया गांधी और उसके बाद राहुल गांधी ने कांग्रेस को संभाला तो धर्म पर ज्यादा ही कोलाहल होने लगा। अब कांग्रेस को अमेरिका में बैठे कुछ लोगों से ज्ञान और योजनाएं मिलने लगी हैं तो ये नैरेटिव और गाढ़ा होने लगा है। पर अब ये समझना होगा कि देश की जनता जागरूक हो चुकी है और धर्म को धारण करने में उनको कोई परेशानी भी नहीं। 


Sunday, October 20, 2024

अपराध कथाओं का नया दौर


हिंदी के श्रेष्ठ आलोचकों में से एक सुधीश पचौरी जी से बात हो रही थी। बात लोकप्रिय साहित्य तक जा पहुंची। चर्चा में सुरेन्द्र मोहन पाठक का लेखन भी आया। उन्होंने साफगोई से कहा कि वो लोकप्रिय लेखक हैं और उनको मास साइकोलाजी की समझ है, उनका सांस्कृतिक दायरा विस्तृत है जिसके कारण उनके उपन्यास लोकप्रिय होते हैं। उनकी बात सुनते ही मैंने विनोद कुमार शुक्ल का नाम लिया तो पचौरी जी बोले कि वो लोकप्रिय लेखक नहीं है वो इलीटिस्ट रायटर हैं। अब उनके इस कथन को समझने और इन दो लेखकों के लेखन को समझने की चुनौती सामने थी। एक तरफ सुरेन्द्र मोहन पाठक थे जिनके उपन्यास पैंसठ लाख की डकैती के दो दर्जन संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं और दूसरी तरफ विनोद कुमार शुक्ल थे जो पिछले साल तक रायल्टी की मिलनेवाली राशि को लेकर परेशान थे। विनोद कुमार शुक्ल को हिंदी साहित्य से जुड़ा एक वर्ग बेहद महत्वपूर्ण लेखक मानता था या है लेकिन आम पाठकों के बीच न तो उनकी पहचान है और ना ही लोकप्रियता। सुरेन्द्र मोहन पाठक को हिंदी के आलोचकों ने कभी लेखक माना ही नहीं बल्कि उनको साहित्य की परिधि पर भी नहीं रखा। पाठकों के बीच उनकी लोकप्रियता असंदिग्ध है। जासूसी उपन्यास या अपराध कथा को हिंदी की अध्यापकीय आलोचना ने साहित्य ही नहीं माना। परिणाम ये हुआ कि उन उपन्यासों पर ना तो शोध हुए और ना ही उनके लेखकों को साहित्यकार के तौर पर मान्यता मिली। जबकि पश्चिम के देशों में इस तरह की कृतियों पर खूब कार्य हुए हैं। इसका एक दुष्परिणाम ये भी हुआ कि हिंदी में जासूसी और अपराध कथा लिखनेवालों की कमी होती चली गई। नए लेखकों में से बहुत ही कम लोग उस तरफ जाने की हिम्मत जुटा पा रहे थे। 

पिछले कुछ वर्षों से स्थिति बदली दिख रही है।  हिंदी में अपराध कथा लेखन की ओर नए और युवा लेखकों का ध्यान गया। पुस्तकें भी आईं और चर्चित भी हुईं। दैनिक जागरण हिंदी बेस्टसेलर की सूची में कई बार अपना स्थान बनाने वाले लेखक सत्य व्यास ने सात चर्चित पुस्तकें लिखने के बाद थ्रिलर, लकड़बग्घा लिखने का साहस जुटाया। उन्होंने माना है कि मैं बस अपनी स्याही इस जुर्रत पर जियां करूंगा कि पहली बार मैंने कुछ ऐसा लिखने की कोशिश की है जिसके लिए अक्सर दीगर अदीब मना करते हैं। ऐसी विधा जिसमें मैंने पहली बार कोई उपन्यास लिखा है-थ्रिलर। नए विषयों पर लिखने की चुनौती सत्य व्यास को इस विषय तक लेकर आया। सत्य व्यास हिंदी की परंपरा को भी जानते हैं और रहस्य कथा, अपराध और जासूसी कथा लिखनेवाले लेखकों की उपेक्षा का अनुमान उनको है। बावजूद इसके उन्होंने थ्रिलर लिखा और उसको पाठक पसंद भी कर रहे हैं। संजीव पालीवाल का चौथा उपन्यास मुंबई नाइट्स भी क्राइम थ्रिलर है। इसको पाठक पसंद कर रहे हैं। संजीव कहते हैं कि वो ओटीटी (ओवर द टाप) पर वेब सीरीज देखनेवालों के लिए उपन्यास लिखते हैं पीएचडी करनेवालों के लिए नहीं। साहित्य ने पहले ही पाठकों पर बहुत बोझ डाल रखा है वो औरनहीं डालना चाहते हैं। वो लोक रुचियों का ध्यान रखते हुए लेखन करते हैं और लोकप्रिय लेखक ही बनना चाहते हैं, साहित्यकार नहीं। इसी तरह से मनोज राजन त्रिपाठी ने भी सत्य घटना पर आधारित अपराध कथा कसारी मसारी लिखी। उनके इस अपराध कथा में उत्तर प्रदेश के एक माफिया राजनेता का मर्डर केंद्र में है। उसके इर्द गिर्द उन्होंने कहानी बुनी है। मनोज राजन अपनी कृति को क्राइम थ्रिलर नहीं मानते हैं बल्कि इसको पालिटिकल थ्रिलर नाम देते हैं। चाहे जो नाम दिया जाए पर है ये भी लोकप्रिय उपन्यास की श्रेणी में ही। मनोज भी पाठकों और उनकी रुचि को सर्वोपरि मानते हैं। भारतीय सेना में कर्नल और गजलकार के तौर पर जाने जानेवाले गौतम राजऋषि ने भी एक क्राइम थ्रिलर लिखा है हैशटैग। ये उपन्यास भी शीघ्र ही बाजार में आनेवाला है। इसके कवर पर लिखी पंक्ति इसके बारे में संकेत कर रही है, मुहब्बत ने फौजी बनाया महबूब ने कातिल। 

दरअसल हिंदी में मार्क्सवादी आलोचकों ने अपनी कमजोरी के कारण रहस्य रोमांच और अपराध कथाओं को साहित्य की तथाकथित मुख्यधारा से दूर रखा। उनकी आलोचना में लोकप्रिय साहित्य को परखने के औजार ही नहीं हैं जिसके कारण उन्होंने लोकप्रियता को चालू कहकर खारिज करने की प्रविधि अपनाई। अपराध और रहस्य रोमांच कथा का आर्थिक दायरा क्या हो सकता है, जन के मन को समझने के लिए जिस संवेदना की आवश्यकता होती है मार्क्सवादी आलोचना उससे दूर है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल कहते हैं कि किसी भी कृति का एक मार्मिक स्थल होता है। मार्क्सवादी आलोचकों ने अपराध कथाओं के मार्मिक स्थल को पहचाना ही नहीं। हिंदी के लिए अच्छी बात है कि कई लेखक जन मनोविज्ञान को समझते हुए लेखन में आगे आ रहे हैं। इससे हिंदी का सांस्कृतिक दायरा बढ़ेगा।  


Saturday, October 19, 2024

प्राचीन पुस्तकों-फिल्मों का नया दौर


बेहद चर्चित और सफल फिल्म निर्देशक सुभाष घई का एक दिन मैसेज आया। उसमें दिलचस्प सूचना थी। घई साहब ने लिखा था कि 1999 में रिलीज हुई उनकी फिल्म ताल देशभर में रिलीज की जा रही है। उनके इस मैसेज को पढ़कर पहले तो चौंका लेकिन फिर याद आया कि हाल के दिनों में कई पुरानी लेकिन हिट फिल्मों को फिर से प्रदर्शित किया गया। शोले, हम आपके हैं कौन, रहना है तेरे दिल में जैसी फिल्मों को फिर से प्रदर्शित किया गया। दर्शकों ने पसंद भी किया। अमिताभ बच्चन के 80 वर्ष पूरे होने पर भी उनकी कई फिल्मों का प्रदर्शन हुआ था। हिंदी फिल्मों के व्यवसाय को नजदीक से जानने वालों का मानना है कि फिल्मों का पुनर्प्रदर्शन दो कारणों से किया जाता है। एक तो क्लासिक फिल्मों के बारे में नई पीढ़ी को जानने समझने का अवसर मिलता है। कई बार जब फिल्मों पर चर्चा होती है तो क्लासिक फिल्मों के बारे में बातें होती हैं तो युवाओं में इनको देखने की ललक पैदा होती है। दूसरा कारण ये कि जब नई फिल्में नहीं चलती हैं तो उनको सिनेमा हाल से हटाना पड़ता है। जल्दी जल्दी नई फिल्में आती नहीं हैं। ऐसे में सिनेमा हाल को अपना कारोबार चलाने के लिए क्लासिक्स का सहारा लेना पड़ता है। हाल के दिनों में ये चलन बढ़ा है। हिंदी फिल्मों से जुड़े लोग ये नहीं चाहते हैं कि फिल्मों के नए दर्शक सिनेमा हाल पहुंचें और उनको निराशा हाथ लगे। विकल्प देकर वो दर्शकों को बांधे रखना चाहते हैं। 

फिल्मों के अलावा एक दूसरी बात पता चली जो साहित्य जगत से जुड़ी हुई है। हिंदी के एक प्रकाशन गृह सर्वभाषा ट्रस्ट के केशव मोहन पांडे और कवि आलोचक ओम निश्चल से भेंट हुई। चर्चा के क्रम में केशव जी ने एक जानकारी दी। उन्होंने बताया कि उनके प्रकाशन गृह से लाला लाजपत राय की 1928 में प्रकाशित पुस्तक दुखी भारत का पुनर्प्रकाशन हो रहा है। ये पुस्तक काफी चर्चित रही है। 1928 में इसका प्रकाशन इंडियन प्रेस, प्रयाग से हुआ था। अधिक चर्चा इस कारण भी हुई थी कि लाला लाजपत राय की ये पुस्तक कैथरीन मेयो की पुस्तक मदर इंडिया के उत्तर में लिखी गई थी। लाला लाजपत राय की पुस्तक के कवर पर ही इस बात का प्रमुखता से उल्लेख था। दुखी भारत के नीचे लिखा था, मिस कैथरीन मेयो की पुस्तक ‘मदर इंडिया’ का उत्तर। लाला लाजपत राय की इस पुस्तक की कहानी बेहद दिलचस्प है। अमेरिका की पत्रकार कैथरीन मेयो ने 1927 में मदर इंडिया के नाम से एक पुस्तक लिखी थी। उस पुस्तक में कथित तौर पर भारत के तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थितियों के बारे में लिखा गया था। इनकी स्थिति को हिंदू समाज से जोड़कर आपत्तिजनक तरीके से व्याख्यायित किया गया था। पश्चिमी देशों में कैथरीन मेयो की ये पुस्तक काफी चर्चित हुई थी। यूरोप की कई भाषाओ में इसका अनुवाद हुआ था। पुस्तक के कई संस्करण प्रकाशित हुए थे। पराधीन भारत में कैथरीन मेयो की पुस्तक का काफी विरोध हुआ था। माना गया था कि अमेरिकी पत्रकार ने ब्रिटिश साम्राज्यवाद वो उचित ठहराने के लिए ये पुस्तक लिखी थी। उसके लिए उनको विशेष रूप से भारत भेजा गया था। इस पुस्तक में कैथरीन मेयो ने ना केवल हिंदू समाज और संस्कृति की तीखी आलोचना की थी बल्कि स्वाधीनता आंदोलन के नायकों और उनके सोच पर भी प्रश्न उठाए थे। 

लाला लाजपत राय ने इस पुस्तक का सिलसिलेवार उत्तर देते हुए दुखी भारत के नाम से पुस्तक लिखी। इसमें राय ने लिखा था कि प्रत्येक विद्यार्थी ये जानता है कि यूरोप शताब्दियों तक असभ्यता, मूर्खता और गुलामियों का शिकार रहा है। यूरोप से हमारा मतलब संसार की सब गोरी जातियों से है। अर्थात यूरोप और अमेरिका दोनों। अमेरिका तो अभी यूरोप का बच्चा ही है। इन गोरी जातियों ने एशिया से अपना धर्म पाया। मिस्त्र की कला और उद्योग का अनुसरण किया। भारत से सदाचार संबंधी आदर्श उधार लिए। संसार की आधुनिक उन्नत जातियों में इस समय जो कुछ भी वास्तविक खूबी और अच्छाई है वह अधिकांश में उनको पूर्व से मिली है।...मिस मेयो का मनोभाव एशिया की काली, भूरी और पीली सभी जातियों के विरुद्ध यूरोप की गोरी जातियों का ही मनोभाव है। पूरब को दबानेवालों के मुंह की वो पिपहरी मात्र ही है। पूर्व की जागृति ने अमेरिका और यूरोप दोनों को भयभीत कर दिया है। इसी से इतनी प्राचीन और सभ्य जाति के विरुद्ध इस पागलपने का प्रदर्शन हो रहा है और खूब अध्ययन के साथ तथा जानबूझकर यह आंदोलन खड़ा किया जा रहा है। लाला लाजपत राय इतने पर ही नहीं रुके उन्होंने कैथरीन मेयो पर और भी तीखा हमला बोला, मिस कैथरीन मेयो, जैसा कि उसके लेखों से जान पड़ता है, अमेरिका की जिंगो जाति का एक औजार है। ग्रंथकार होने का उसका दावा केवल इतना ही है कि उसकी लेखन शैली मनोरंजक है, सनसनी पैदा करनेवाले उड़ते हुए शब्दों का प्रयोग करना उसे आता है और संदेहपूर्ण कथाओं को मनोरंजक शैली में लिखने का उसे अभ्यास है। एक मामूली पाठक भी उसके इतिहास और राज-नीति-विज्ञान में उसकी अज्ञानता को दिखला सकता है। अपनी इस पुस्तक के विषय प्रवेश में ही लाला लाजपत राय ने काफी विस्तार से कैथरीन मेयो की स्थापनाओं को ध्वस्त कर दिया था।

दुखी भारत नाम की लाला लाजपत राय की ये पुस्तक खूब पढ़ी गई। इसपर काफी चर्चा हुई। लेकिन कालांतर में ये पुस्तक ना केवल चलन से बाहर हो गई या कर दी गई बल्कि नई पीढ़ी को इसके बारे में बताया भी नहीं गया। अब इसका पुनर्प्रकाशन एक सुखद घटना है। सिर्फ यही एक पुस्तक नहीं बल्कि हिंदी की कई कालजयी पुस्तकों का पुनर्प्रकाशन हो रहा है। जैसे प्रेमचंद पर पहली आलोचनात्मक पुस्तक लिखनेवाले जनार्दन झा द्विज की अनुपलब्ध पुस्तक का प्रकाशन हुआ। निराला जी ने श्रीरामचरितमानस के कुछ अंशों का अवधी से हिंदी में अनुवाद किया था जिसका फिर से प्रकाशन रामायण विनय खंड के नाम से हुआ है। श्रेष्ठ हिंदी पुस्तकों के पुनर्प्रकाशन को कई तरह से देखा जा सकता है। एक तो अगर इसको फिल्मों के पुनर्प्रदर्शन से जोड़कर देखें तो इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि जब अच्छी पुस्तकें ना आ रही हों तो पूर्व प्रकाशित अच्छी और अनुपलब्ध पुस्तकों को खोजकर उसका प्रकाशन किया जाए। इसका एक लाभ ये होगा कि पाठकों का जुड़ाव हिंदी के साथ बना रहेगा और वो निराश नहीं होंगे। दूसरी अच्छी बात ये होगी कि स्वाधीनता के बाद जिस तरह का एकतरफा नैरेटिव बनाया गया उसका भी बहुत हद तक निषेध होगा। लाला लाजपत राय ने जिस तरह से अपनी पुस्तक दुखी भारत में हिंदू समाज और संस्कृति को लेकर कैथरीन मेयो के नैरेटिव को ध्वस्त किया था उसके बारे में आज की पीढ़ी को भी जानना चाहिए। आज भी हमारे समाज में कैथरीन मेयो की अवधारणा के लेकर कई लोग घूम रहे हैं। उनके निशाने पर भारत का हिंदू समाज होता है। अगर लाला लाजपत राय की इस पुस्तक का प्रचार प्रसार होगा तो हिंदू समाज को लेकर फैलाई जानेवाली भ्रांतियां दूर होंगी। 


Sunday, October 13, 2024

देविका रानी के सामने कांपे थे अशोक


सुबह के साढे नौ बजे थे। बांबे टाकीज की एक फिल्म की शूटिंग शुरु होनेवाली थी। बांबे टाकीज के कर्ता-धर्ता हिमांशु राय ने अपनी नई फिल्म में एक नए लड़के को नायक के तौर पर लेने का निर्णय किया था। फिल्म का नाम था जीवन नैया और युवक थे अशोक कुमार। सुबह सुबह जब अशोक शूटिंग के लिए फिल्म के सेट पर पहुंचे तो उनको देखकर हिमांशु राय चौंके। अशोक कुमार ने बेतरतीब तरीके से अपने बाल कटवा लिए थे। हिमांशु राय ने उनसे पूछा कि ये क्या है अशोक? हकलाते हुए अशोक कुछ बोलते इसके पहले ही हिमांशु राय ने हेयर ड्रेसर को बुलाकर कहा कि इनके बाल ठीक करो। विग लगाओ। अशोक ने हिमांशु राय की ओर कातर भाव से देखा, सर कुछ कहना चाहता हूं। हिमांशु राय ने अपने अंदाज में कहा कि बोलो। अशोक ने हिमांशु राय का हाथ पकड़ा और उनको सेट के एक कोने में लेकर जाकर धीरे से बोले कि मैं आपके कहने पर फिल्म में काम तो कर लूंगा पर मुझे नायिका के आलिंगन के लिए मत कहिएगा। वो मुझसे हो नहीं हो पाएगा। क्यों? पूछा हिमांशु राय ने। अशोक चुप रहे तो हिमांशु ने आश्वस्त किया कि ऐसा कोई दृष्य फिल्म में नहीं होगा। उसके बाद मेकअप आर्टिस्ट अशोक को लेकर चली गई। मेकअप और गेटअप ठीक होकर जब अशोक सेट पर पहुंचे तो उनके होश उड़ गए। सामने देविका रानी थीं जिनके साथ उनको पहला ही शाट देना था।

अशोक को निर्देशक ने सीन समझाया। अशोक नर्वस हो रहे थे। हिमांशु राय उनके पास पहुंचे उनके कंधे पर हाथ रखकर बोले कि ये बहुत ही सामान्य बात है कि एक लड़का अपनी प्रेमिका के लिए सोने का हार लाता है और फिर उसके गले में डालता है। तुमको इतना ही करना है। अशोक कुमार हाथ में सोने की चेन लेकर देविका रानी के पास पहुंचते हैं। नायिका के करीब पहुंचते ही वो नर्वस हो जाते हैं और दौड़कर बाथरूम की ओर भाग जाते हैं। थोड़ी देर बाद वापस आते हैं। दृश्यांकन आरेभ होता है। अशोक कांपते हाथों से देविका रानी के गले में हार डालने का प्रयास करते हैं। हार उनकी बालों में उलझ जाता है। फिर से प्रयास करने को कहा जाता है। इस बार निर्देशक शूटिंग नहीं रोकते हैं और अशोक कुमार को कहते हैं कि वो गले में हार डालें। अशोक कुमार ने इतनी जोर से हार पहनाने का प्रयास किया कि देविका रानी के बाल ही खुल गए और फिर निर्देशक ने सर पीट लिया। दरअसल अशोक कुमार दो बातों से बुरी तरह से घबरा रहे थे। एक तो उनके बास की पत्नी नायिका थी, दूसरे उनकी मां ने कह रखा था कि फिल्मों में काम करने जा तो रहे हो लेकिन लड़कियों से दूर ही रहना। आखिरकार ये सीन बाद में शूट करने का निर्णय हुआ। दूसरा सीन कुछ यूं था कि फिल्म का खलनायक अभिनेत्री को छेड़ने की कोशिश करेगा। अशोक कुमार को उसको धक्का देकर गिराना था। निर्देशक ने उनको सीन समझाया। कहा कि वो दस गिनेंगे और जैसे ही दस पूरा होगा धक्का देना था। शाट आरंभ हुआ। निर्देशक ने गिनती आरंभ की। घबराए अशोक कुमार ने दस पूरा होने की प्रतीक्षा नहीं की और खलनायक को धक्का दे दिया। धक्का इतनी जोर का था कि देविका रानी और खलनायक दोनों धड़ाम से फर्श पर गिरे। खलनायक का पांव टूट गया। देविका रानी खिलखिलाते हुए उठ खड़ी हुईं। उस दिन शूटिंग रोकनी पड़ी। 

दरअल अशोक कुमार के जीवन की कहानी बहुत दिलचस्प है। उनका ननिहाल बिहार के भागलपुर में था। उनकी मां ने एक लड़की के साथ उनका रिश्ता तय किया था। लड़की के पिता को जब पता चला कि अशोक कुमार फिल्मों में काम करनेवाले हैं तो उन्होंने रिश्ता तोड़ दिया था। 1934 में अशोक कुमार ने हिमांशु राय की कंपनी बांबे टाकीज में नौकरी आरंभ की थी। हिमांशु राय ने उनको अभिनेता बना दिया। उधर उनकी मां को भी जब पता चला कि उनका बेटा फिल्मों में काम करनेवाला है तो उन्होंने नसीहत दी कि फिल्मी लड़कियों से दूर रहना। 

1938 तक अशोक कुमार की छह फिल्में आ चुकी थीं। फिल्म अछूत कन्या से उनको प्रसिद्धि भी मिल चुकी थी। उधर उनकी मां परेशान थी कि बेटा इतनी लड़कियों के बीच रहता है क्या पता क्या कर ले। वो अपने बेटे की शादी को लेकर चिंतित रहने लगी थी। 1938 के अप्रैल में मुंबई में अशोक कुमार को एक टेलीग्राम मिला जो उके पिता ने भेजा था। उसमें लिखा था जल्द से खंडवा आ जाओ अति आवश्यक है। उस समय अशोक कुमार फिल्म वचन की शूटिंग कर रहे थे। उन्होंने फौरन निर्देशक और निर्माता से बात की खंडवा रवाना हो गए। ट्रेन खंडवा पहुंची। अशोक कुमार ट्रेन से उतरने लगे तो देखा कि उनके पिताजी ट्रेन के अंदर आ रहे हैं। वो रुक गए। पिताजी ने आते ही कहा कि ट्रेन से उतरने की जरूरत नहीं है। हमें आगे कलकत्ता (अब कोलकाता) जाना है। उनको पिताजी से पूछने की हिम्मत नहीं हुई। पिताजी ने ही कहा कि लेडीज डब्बे में जाकर अपनी भाभी से मिल लो। वो भाभी से मिलने पहुंचे तो भाभी मुस्कुरा दीं। अशोक कुमार ने पूछा कि हम कोलकाता क्यों जा रहे हैं। भाभी ने शरारती मुस्कान के साथ कहा कि देवर जी बनो मत, हम तुम्हारी शादी के लिए कलकत्ता जा रहे हैं। अशोक जोर से हंसे और अपने डब्बे में आ गए। कलकत्ता पहुंचे तो उनकी मां और अन्य रिश्तेदार पहले से वहां थे। नाटकीय घटनाक्रम में अशोक कुमार की शादी कर दी जाती है। उनके बहनोई शशधर मुखर्जी भी शादी में नहीं पहुंच पाते हैं। ये दिन था 14 अप्रैल 1938 और अशोक कुमार की पत्नी का नाम था शोभा। अशोक कुमार शादी के बाद वापस मुंबई (तब बांबे) लौटे। शादी के बाद अशोक कुमार की प्रसिद्धि और आय दोनों में बढ़ोतरी हुई। अशोक कुमार की मां निश्चिंत हो गईं कि बेटा फिल्मों में काम करके भी बिगड़ेगा नहीं।  


Saturday, October 12, 2024

शील के साथ सबल राष्ट्र का आह्वान


विजयादशमी पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी स्थापना के शताब्दी वर्ष में प्रवेश कर रहा है। इस लंबी यात्रा में संघ ने बहुत उतार चढ़ाव देखे। स्वयंसेवकों की निरंतर तपस्या ने इसको विश्व का सबसे बड़ा संगठन बना दिया। एक ऐसा संगठन जो व्यक्ति निर्माण के माध्यम से राष्ट्र को सशक्त करने में लगा है। ऐसा नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को 100 वर्ष तक की यात्रा पूरी करने में विरोध नहीं झेलना पड़ा। अकादमिक और पत्रकारिता के क्षेत्र में तो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का नाम सुनकर ही आगबबूला होनेवाले लोगों की बड़ी संख्या रही है। अकादमिक जगत में सैकड़ों पुस्तकें लिखी गईं जिनमें राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्रियाकलापों को बिना जाने धारणा के आधार पर निष्कर्ष निकाले गए। अब भी निकाल रहे हैं। अंग्रेजी के कई लेखक जो स्वयं को लिबरल कहते हैं वो सहजता के साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को मिलिटेंट संगठन लिख रहे हैं। संघ को कट्टरपंथी संगठन और प्रगतिशील नहीं माननेवाले अकादमिक जगत के तथाकथित विद्वानों को विजयादशमी के अवसर पर सरसंघचालक मोहन भागवत का व्याख्यान सुनना और समझना चाहिए। अपने इस व्याख्यान में मोहन भागवत जी ने जिस तरह से भारतीय समाज के यथार्थ को उद्घाटित किया उसके गहरे निहितार्थ हैं। समाज में क्या चल रहा है, किस तरह से भारतीय समाज को बांटने की राजनीति हो रही है, किस तरह से भारत को कमजोर करने के लिए अंतराष्ट्रीय स्तर पर रणनीति बनाई जा रही है, किस तरह से देश के कुछ लोगों और समूहों को प्रभावित करके भारत विरोधी ताकतें सक्रिय हैं उन सब पर मोहन भागवत जी ने विस्तार से बोला। समाज को सचेत भी किया।

मोहन भागवत जी ने स्पष्ट रूप से कहा कि पिछले कुछ वर्षों में भारत की धमक पूरे विश्व में बढ़ी है। देशहित की प्रेरणा से युवा शक्ति, मातृशक्ति, उद्यमी किसान, श्रमिक, जवान, प्रशासन, शासन सभी से प्रतिबद्धतापूर्वक अपने कार्य में डटे रहने से विश्वपटल पर भारत की छवि, शक्ति, कीर्ति व स्थान निरंतर उन्नत हो रहा है। यह कहने के बाद वो समाज को चेताते भी हैं, हम सबके इस कृतनिश्चय की परीक्षा लेने के लिए कुछ मायावी षडयंत्र हमारे सामने उपस्थित हुए हैं जिनको ठीक से समझना आवश्यक है। अगर पूरे देश पर नजर डालें तो चारो तरफ के क्षेत्रों को अशांत व अस्थिर करने के प्रयास गति पकड़ते हुए दिखाई देते हैं। मोहन भागवत के भाषण को अगर समग्रता में विश्लेषित करने की कोशिश करें तो इस चेतावनी के बाद वो उन अदृष्य अंतराष्ट्रीय शक्तियों की भी चर्चा करते हैं जो पूरी दुनिया में अपने स्वार्थ के कारण लोकतंत्र के नाम पर दूसरे देशों में गड़बड़ियां फैलाने का कार्य करते हैं। वो अरब स्प्रिंग से लेकर बांग्लादेश में हिंसक तख्तापलट का उदाहरण देते हुए हिंदू समाज को संगठित और सबल बनने की बात को रेखांकित करते हैं।

डा मोहन भागवत समाज में भारतीय संस्कारों के नष्ट करनेवाली शक्तियों की पहचान करते हुए उनसे सतर्क भी करते हैं। डीप स्टेट, वोकिज्म, कल्चरल मार्क्सिस्ट जैसे शब्दों की चर्चा करते हुए इसको सांस्कृतिक परंपराओं का घोषित शत्रु करार देते हैं। वो बेहद तीखे शब्दों में इनपर आक्रमण करते हैं, सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं तथा जहां जहां जो भी भद्र, मंगल माना जाता है उसका समूल उच्छेद इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। समाज मन बनाने वाले तंत्र व संस्थानों यथा शिक्षा तंत्र, शिक्षा संस्थान, संवाद माध्यम, बौद्धिक संवाद से अपने प्रभाव में लाना, उनके द्वारा समाज का विचार, संस्कार तथा आस्था को नष्ट करना यह इस कार्यप्रणाली का प्रथम चरण है। इसको हम इस तरह से भी समझ सकते हैं कि हिंदू त्योहारों के समय इस समूह को पर्यावरण की चिंता सताने लगती है। हिंदू धर्म प्रतीकों को पिछड़ेपन की निशानी बताने का अभियान चलाया जाता है। हिंदू समाज की किसी एक घटना से पूरे समाज को प्रश्नांकित किया जाता है। समाज में टकराव की संभावनाओं की निरंतर तलाश की जाती रहती है। जैसे ही कहीं कोई फाल्ट लाइन मिलती है तो ऐसे वातावरण का निर्माण करते हैं कि प्रतीत होता है कि ये समस्या बहुत बड़ी है। प्रत्यक्ष टकराव की जमीन भी तैयार कर दी जाती है। इसको नागरिकता संशोधन कानून के समय, किसान आंदोलन के समय और 2015 के पुरस्कार वापसी अभियान में देखा जा सकता है। किस तरह से एक छोटी सी घटना को इकोचैंबर में बैठे अकादमिक, लेखन, सिनेमा से जुड़े लोगों ने गुब्बारे की तरह फुला दिया था। मोहन भागवत की राय है कि देश में बिना कारण कट्टरपन को उकसानेवाली घटनाओँ में अचानक वृद्धि हो रही है। परिस्थिति या नीतियों को लेकर मन में असंतुष्टि हो सकती है परंतु उसको व्यक्त करने या विरोध करने के प्रजातांत्रिक मार्ग होने चाहिए। उनका अवलंबन न करते हुए हिंसा पर उतर आना और भय पैदा करने के प्रयास करने को वो बेहद तल्ख शब्दों में गुंडागर्दी कहते हैं। अकारण हिंसा फैलाकर तंत्र को बाधित करने के इन प्रयासों को बाबासाहेब अराजकता का व्याकरण कहते थे।

विजयादशमी पर डा मोहन भागवत के भाषण को दो हिस्सों में बांटकर देखा जाना चाहिए। पहला हिस्सा जिसमें वो सबल राष्ट्र की बात करते हैं। वो हिंदुओं के संगठित होने की अपेक्षा करते हैं। कहते हैं कि इस देश को एकात्म, सुख शांतिमय, समृद्ध और बल संपन्न बनाना यह सबकी इच्छा है और सबका कर्तव्य भी है। इसमें हिंदू समाज की जिम्मेवारी अधिक है। यहां वो बहुत अच्छा उदाहरण देते हैं, समाज स्वयं जगता है, अपने भाग्य को अपने पुरुषार्थ से लिखता है तब महापुरुष, संगठन, संस्थाएं, शासन, प्रशासन आदि सब सहायक होते हैं। शरीर की स्वस्थ अवस्था में क्षरण पहले आता है बाद में रोग उसको घेरते हैं। वो जब सबलता की बात करते हैं तो एक सुभाषित के माध्यम से कहते हैं कि दुर्बलों की परवाह तो देव भी नहीं करते। अपने भाषण के दूसरे हिस्से में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के शताब्दी वर्ष में संगठन की कार्ययोजना प्रस्तुत करते हैं। सामाजिक समरसता, पर्यावरण, संस्कार जागरण, नागरिक अनुशासन और स्व गौरव आदि की बात करते हैं। वो इस बात की अपेक्षा भी जताते हैं कि संवाद माध्यमों का उपयोग करनेवालों को इनका उपयोग समाज को जोड़ने के लिए करना चाहिए ना कि तोड़ने के लिए, सुसंस्कृत बनाने के लिए हो ना कि अपसंस्कृति फैलाने के लिए। अपने व्याख्यान में उन्होंने ओटीटी प्लेटफार्म पर चलनेवाली सामग्री की गुणवत्ता को लेकर चिंता प्रकट की। ओटीटी पर आनेवाली सामग्री पर कानून के नियंत्रण पर भी बल दिया। यह सरकार के लिए भी एक संदेश है। जब संस्कारों और उसके क्षरण की बातें होंगी या जब सरकार के विरुद्ध जन के मानस में गलत छवि आरोपित करने की बात होगी तो ओटीटी प्लेटफार्म्स पर परोसी जानेवाली मनोरंजन सामग्री पर विचार करना ही होगा। समाज को संगठित करते हुए सबल बनाने की बात करते हुए मोहन भागवत ने ये भी स्पष्ट किया कि सबलता शील के साथ आनी चाहिए। विश्व मंगल की अवधारणा पर आधारित व्यवस्था में भारत को एक सबल राष्ट्र के तौर पर स्थापित करने के लिए प्रत्येक भारतवासी को कार्य करना चाहिए। उन तत्वों की पहचान करके उनको परास्त करना होगा जो भारत के सिस्टम में रहते हुए भारत को कमजोर करने के प्रयत्न में लगे रहते हैं।

 

Saturday, October 5, 2024

शास्त्रीय भाषाओं परअकारण राजनीति


पिछले दिनों भारत सरकार ने पांच भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। मराठी, बंगाली, पालि, प्राकृत और असमिया को हाल ही में संपन्न केंद्रीय कैबिनेट की बैठक में शास्त्रीय भाषा के तौर पर स्वीकार किया गया। जैसे ही इस, बात की घोषणा की गई कुछ विघ्नसंतोषी किस्म के लोग इसको महाराष्ट्र चुनाव के जोड़कर देखने लगे। इस तरह की बातें की जाने लगीं कि चूंकि कुछ दिनों बाद महाराष्ट्र में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं इस कारण सरकार ने मराठी को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने की घोषणा की। इसको मराठी मतदाताओं को लुभाने के प्रयास की तरह देखा गया। हर चीज में राजनीति ढूंढनेवालों को ये समझना चाहिए कि इन पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा की श्रेणी में रखने का निर्णय आकस्मिक तौर पर नहीं लिया गया है। भारतीय भाषाओं के इतिहास में आकस्मिक कुछ नहीं होता। बड़ी बड़ी क्रांतियां भी भाषा में कोई बदलवा नहीं कर पाती हैं। उसके लिए सैकड़ों वर्षों का समय लगता है। पांच भाषाओं को क्लासिकल भाषा का दर्जा देना मोदी सरकार का सुचिंतित निर्णय है। प्रधानमंत्री मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के बाद लालकिले की प्राचीर से अमृतकाल में विकसित भारत बनाने के लिए पंच-प्रण की घोषणा की थी। उसमें से एक प्रण था विरासत पर गर्व। विरासत पर गर्व को व्याख्यायित करने का प्रयास करें तो इन भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देना राजनीति नहीं लगेगी। न ही किसी चुनाव में मतदाता को लुभाने के लिए उठाया गया कदम प्रतीत होगा। प्रधानमंत्री मोदी अपने निर्णयों में स्वयं उन पंच प्रण तो लेकर सतर्क दिखते हैं। प्रतीत होता है कि वो विरासत पर गर्व को लेकर देश में एक ऐसा वातावरण बनाना चाहते हैं जिसपर पूरे देश को गर्व हो सके। अपनी भाषाओं को शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में डालने के पीछे इस तरह का सोच ही संभव है। 

किसी भी भाषा को जब शास्त्रीय भाषा के तौर पर मानने का निर्णय केंद्र सरकार लेती है तो उसके साथ कई कदम भी उठाए जाते हैं। शिक्षा मंत्रालय इन भाषाओं के उन्नयन के लिए कई प्रकार के कार्य आरंभ करती हैं। 2020 में तीन संस्थाओं को संस्कृत के लिए केंद्रीय विश्वविद्यालय बना दिया गया। पूर्व में घोषित भारतीय भाषाओं के लिए सेंटर आफ एक्सिलेंस बनाया गया। मराठी की बात कुछ देर के लिए छोड़ दी जाए। विचार इसपर होना चाहिए कि पालि और प्राकृत को क्लासिकल भाषा का दर्जा देने में इतनी देर क्यों लगी। पालि और प्राकृत में इतनी अकूत बौद्धिक संपदा है जिसके आधार पर इन दोनों भाषाओं को तो आरंभ में ही शास्त्रीय भाषा की श्रेणी में रखना चाहिए था। बौद्ध और जैन साहित्य तो उन्हीं भाषाओं में लिखा गया। इनमें से कई पुस्तकों का अनुवाद आधुनिक भारत की भाषाओं में अबतक नहीं हो सका है। हम अपनी ही ज्ञान परंपरा से कितने परिचित हैं इसके बारे में विचार करना आवश्यक है। इन दिनों उत्तर भारत के किसी भी विश्वविद्यालय के किसी सेमिनार में जाने पर विषय या वक्तव्य में भारतीय ज्ञान परंपरा अवश्य दिखाई या सुनाई देगा। इन सेमिनारों में उपस्थित कथित विद्वान वक्ताओं में से अधिकतर को भारतीय ज्ञान परपंरा के बारे में ज्यादा कुछ पता नहीं होता है। भारत की शास्त्रीय भाषाओं के बारे में जितना अधिक विचार होगा, उसमें उपलब्ध उत्कृष्ट सामग्री का जितना अधिक अनुवाद होगा वो हमारी समृद्ध विरासत के बारे में लोगों को बताने का एक उपक्रम होगा। आज अगर बौद्ध मठों में पाली या प्राकृत भाषा में लिखी सामग्री हैं तो आवश्यकता है उनको बाहर निकालकर अन्य भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर आमजन तक पहुंचाने का कार्य किया जाए। इससे सबका लाभ होगा। संभव है कि देश का इतिहास भी बदल जाए। 

आवश्यकता इस बात की है कि मोदी कैबिनेट ने जो निर्णय लिया है उसको लागू करवाया जाए। शिक्षा मंत्रालय के मंत्री धर्मेन्द्र प्रधान योग्य और समर्पित व्यक्ति हैं। उनको भाषा के बारे में विशेष रूप से रुचि लेकर, संगठन के कार्य के व्यस्त समय से थोड़ा सा वक्त निकालकर इसको देखना चाहिए। उनके मंत्रालय के अधीन एक संस्था है भारतीय भाषा समिति। इस समिति का गठन 2021 में भारतीय भाषाओं के प्रचार प्रसार के लिए किया गया था। इस संस्था के आधे अधूरे वेवसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार इसका कार्य राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में परिकल्पित भारतीय भाषाओं के समग्र और बहु-विषयक विकास के मार्गों की सम्यक जानकारी प्राप्त करना और उनके क्रयान्वयन की दिशा में सार्थक प्रयास करना है। इस समिति का जो तीसरा उद्देश्य है वो बहुत ही महत्वपूर्ण है। समिति को मौजूदा भाषा-शिक्षण और अनुसंधान को पुनर्जीवित करने और देश में विभिन्न संस्थाओं में इसके विस्तार से संबंधित सभी मामलों पर मंत्रालय को परामर्श का कार्य भी सौंपा गया है। ये महत्वपूर्ण अवश्य है लेकिन इसका दूसरा पहलू ये है कि समिति ने मंत्रालय को क्या परामर्श दिए इसका पता नहीं चल पाता है। पता तो इसका भी नहीं चल पाता है कि समिति के किन परामर्शों पर मंत्रालय ने कार्य किया और किस पर नहीं किया। इस संस्था के गठन के तीन वर्ष होने को आए हैं लेकिन इसकी एक ढंग की वेबसाइट तक नहीं बन पाई। इनके कार्यों के बारे में भी कुछ ज्ञात नहीं हो पाया है। बताया जाता है कि इनके परामर्श पर कुछ संपादित पुस्तकों का प्रकाशन हुआ है। इसके अध्यक्ष चमू कृष्ण शास्त्री संस्कृत के ज्ञाता हैं। संस्कृत को लेकर उनका प्रेम सर्वज्ञात है। संस्कृत के कितने ग्रंथ ऐसे हैं जिनका भारतीय भाषाओं में अनुवाद करवाकर उसको स्कूलों से लेकर महाविद्यालयों की शिक्षा से जोड़ा जा सकता है। बताया जाता है कि काशी-तमिल संगमम जैसे कार्यक्रम इस समिति के परामर्श पर आयोजित किए गए थे। आयोजन से अधिक ठोस कार्य करने की आवश्यकता है जो दीर्घकालिक प्रभाव छोड़ सके । 

दरअसल सबसे बड़ी दिक्कत शिक्षा और संस्कृति मंत्रालय के अधिकतर संस्थानों के साथ यही हो गई है कि वो आयोजन प्रेमी हो गए हैं। आयोजनों में कुछ ही चेहरे आपको हर जगह दिखाई देंगे। वो इतने प्रतिभाशाली हैं कि उनको हर विषय़ का ज्ञान है या फिर किसी के कृपापात्र। समितियों और संस्थाओं को लगता है कि किसी विषय पर आयोजन करवाकर, उसके व्याख्यानों को संपादित कराकर पुस्तक प्रकाशन से भारतीय भाषाओं का भला हो जाएगा। संभव है कि हो भी जाए। पर आयोजनों से अधिक आवश्यक है कि इस तरह की समितियां सरकार को शोध प्रस्ताव दें, विषयों का चयन करके उसपर कार्य करवाने की सलाह विश्वविद्यालयों को दें। प्राचीन और अप्राप्य ग्रंथों की सूची बनाकर मंत्रालय को सौंपे जिससे उनका प्रकाशन सुनिश्चित किया जा सके। और इन सारी जानकारियों को अपनी वेबसाइट पर अपलोड करे। जबतक शास्त्रीय भाषाओं को लेकर गंभीरता से कार्य नहीं होगा, जबतक भाषा के प्राचीन रूपों के ह्रास और नवीन रूपों के विकास की प्रक्रिया से पाठकों को अवगत नहीं करवाया जाएगा तबतक ना तो भाषा की समृद्धि आएगी और ना ही गौरव बोध। भारतीय भाषाओं के लिए कार्य करनेवाली संस्थाओं की प्रशासनिक चूलें कसने की भी आवश्यकता है। मैसूर स्थित भाषा संस्थान मृतप्राय है उसको नया जीवन देना होगा तभी वहां भाषा संबंधी कार्य हो सकेगा। इसपर फिर कभी चर्चा लेकिन फिलहाल इन शास्त्रीय भाषाओं को लेकर जो चर्चा आरंभ हुई है उसको लक्ष्य तक पहुंचते देखना सुखद होगा।   

Saturday, September 28, 2024

फिल्मों से गांधी की उदासीनता क्यों ?


कुछ सप्ताह पूर्व मुंबई इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल के सिलसिले में मुंबई जाना हुआ था। राष्ट्रीय फिल्म विकास निगम के परिसर में इस फेस्टिवल का आयोजन था। उसी परिसर में स्थित गुलशन महल में भारतीय सिनेमा के राष्ट्रीय संग्रहालय को जाने और उसको देखने का अवसर प्राप्त हुआ। संग्रहालय में एक जगह गांधी गांधी का पुतला बनाकर उसको कुर्सी पर बिठाया गया है। उनके सामने स्क्रीन पर राम राज्य फिल्म का एक स्टिल लगा हुआ है। ऐसा प्रतीत होता है कि महात्मा गांधी राम राज्य फिल्म देख रहे हैं। कहा जाता है कि बापू ने अपने जीवनकाल में एक ही फिल्म देखी थी जिसका नाम है राम राज्य। इस बात का उल्लेख देश-विदेश के कई लेखकों ने किया है। एक बेहद दिलचस्प पुस्तक है ‘द चैलेंजेस आफ सिल्वर स्क्रीन’ जिसमें राम, जीजस और बुद्ध के सिनेमाई चित्रण पर विस्तार से लिखा गया है। इस पुस्तक के लेखक हैं फ्रीक एल बेकर। इस पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने की चर्चा की गई है। सिनेमा और संस्कृति पर विपुल लेखन करनेवाली रेचल ड्वायर ने भी अपनी पुस्तक में भी गांधी के राम राज्य देखने का उल्लेख किया है। गांधी और सिनेमा पर लिखी अपनी पुस्तक में इकबाल रिजवी ने विस्तार से और रोचक तरीके से इस प्रसंग पर लिखा है। 

इस पर बाद में चर्चा होगी लेकिन उसके पहले गांधी के फिल्मों और नाटक को लेकर विचार को जानना भी दिलचस्प होगा। फिल्म संग्रहालय में ही कुछ पट्टिकाएं लगी हैं जिनपर कुछ टिप्पणियां प्रकाशित हैं। ऐसी ही एक पट्टिका पर लिखा है, मद्रास (अब चेन्नई) के अत्यंत प्रतिष्ठित वकील बी टी रंगाचार्यार के नेतृत्व में इंडियन सिनेमैटोग्राफ कमेटी रिपोर्ट (आईसीसी) का गठन ब्रिटिश प्राधिकारियों द्वारा सेन्सरशिप विनिमयों में अमेरिकी आयात को रोकने के लिए किया गया था। इस वृहदाकर रिपोर्ट में ब्रिटिश इंडिया के सभी भागों को शामिल किया गया है तथा महात्मा गांधी, लाला लाजपत राय, दादासाहेब फाल्के जैसे सैकड़ों महान हस्तियों के मौखिक एवं लिखित राय शामिल हैं। इसका प्रकाशन 1928 में किया गया। इसके खंड संख्या 4 में पृष्ठ संख्या 56 पर महात्मा गांधी का दिनांक 12 नवंबर 1927 का बयान दर्ज है। जो इस प्रकार है- भले ही मुझे जितना भी बुरा लगा हो मुझे आपके प्रश्नों का उत्तर देना चाहिए। क्योंकि मैंने कभी सिनेमा देखा ही नहीं। लेकिन किसी बाहरी का भी इसने जितना अहित किया है और कर रहा है वो प्रत्यक्ष है। यदि इसने किसी का भला किसी भी रूप में किया है तो इसका प्रमाण मिलना अभी बाकी है। इस टिप्पणी से गांधी की फिल्मों को लेकर राय का स्पष्ट पता चलता है। ऐसा नहीं है कि गांधी जी की फिल्मों को लेकर ये राय अकारण बनी थी। वो जब स्कूली छात्र थे तब नाटक देखा करते थे और उससे प्रभावित भी थे।

संग्रहालय की एक दूसरी पट्टिका पर इसका उल्लेख है, मोहनदास करमचंद गांधी जब स्कूली विद्यार्थी थे उन्होंने एक गुजराती नाटक देखा था, जिसका नाम हरिश्चन्द्र था। इस नाटक का प्रभाव आजीवन उन पर रहा। अपनी आत्मकथा में उन्होंने लिखा है- मैंने किसी ड्रामा कंपनी द्वारा मंचित नाटक को देखने की अनुमति अपने पिता से प्राप्त कर ली थी। हरिश्चन्द्र नामक इस नाटक ने मेरा ह्रदय जीत लिया। मैं इसे देखकर कभी नहीं थकता। लेकिन उसे देखने की अनुमति मैं कितनी बार प्राप्त करता। इसने मुझे परेशान किया और मैं सोचता रहा कि मैंने स्वयं असंख्य बार हरिश्चन्द्र की भूमिका निभाई होती। हम सभी हरिश्चंद्र की भांति सत्यवादी क्यों नहीं होते? यही प्रश्न मुझे दिन रात परेशान किए रखता। हरिश्चन्द्र की भांति सत्य का अनुसरण करना और सारे कष्टों को झेलना एक ऐसा आदर्श था जिसने मुझे प्रेरित किया । मैं पूर्णत: हरिश्चन्द्र की कहानी में विश्वास करने लगा। इन सभी विचारों से बेचैन होकर मैं अक्सर रोने लगता। किशोरावस्था से ही गांधी को ये पता चल गया था कि फिल्मों या नाटकों का मानस पर कितना असर होता है। जब वो स्वाधीनता के संघर्ष के लिए मैदान में उतरे तो उन्होंने कई जगहों पर देखा कि कई युवा पार्सी नाटकों की महिला कलाकारों के चक्कर में घर बार छोड़कर नाटक कंपनी के पीछे चल देते थे। इसको देखकर गांधी के मन में इस माध्यम को लेकर उदासीनता बढ़ने लगी। उसके बाद एक और घटना घटी। मीराबेन की सिफारिश पर गांधी जी ने एक फिल्म देखने की हामी भरी। फिल्म का नाम था मिशन टू मास्को। रिजवी लिखते हैं कि इस फिल्म में तंग कपड़े पहनकर लड़कियां नाच रही थीं। थोड़ी देर तक तो बापू झेलते रहे लेकिन फिर बीच में ही उठकर चले गए। उस दिन उनका मौन व्रत था सो कुछ कहा नहीं। अगले दिन उन्होंने लिखा, ‘मुझे नंगे नाच दिखाने की कैसे सूझी। मैं तो दंग रह गया, मुझे तो कुछ पता ही नहीं था।‘ दरअसल मीराबेन को एक पारसी फोटोग्राफर ने गांधी को फिल्म दिखाने के लिए राजी कर लिया था। सबको इस घटना के बाद काफी अफसोस हुआ। फिल्म राम राज्य देखने के लिए बापू को कनु देसाई ने तैयार किया था। कनु देसाई गांधी की सेवा करते थे। वो विजय भट्ट की फिल्म राम राज्य के कला निदेशक रह चुके थे। उनकी बात बापू ने मान ली और कहा कि एक विदेशी फिल्म देखने की गलती कर चुका हूं इसलिए भारतीय फिल्म देखनी पड़ेगी। बापू की सहयोगी सुशीला नायर ने फिल्म के लिए गांधी के 40 मिनट तय किए थे, लेकिन कहा जाता है कि बापू को ये फिल्म इतनी अच्छी लगी थी कि वो पूरे डेढ़ घंटे तक बैठकर राम राज्य देखते रहे थे। फिर विजय भट्ट की पीठ थपथपाई और निकल गए। 

इन प्रसंगों को जानने के बाद ये लगता है कि बापू फिल्मों के विरोध में नहीं थे बल्कि फिल्मों में दिखाई जानेवाली सामग्री के विरोधी थे। 1927 का उनका बयान इसकी ओर ही संकेत करता है। उनको फिल्मों का जनमानस पर पड़नेवाले असर का अनुमान भी था। वो चाहते थे कि फिल्मों के माध्यम से लोगों को स्वाधीनता के लिए तैयार किया जाए। स्वाधीनता के संघर्ष में गांधी के पदार्पण के बाद कई ऐसी फिल्मों का निर्माण हुआ जिसने स्वाधीनता आंदोलन के दौरान गांधीवादी विचारों को फैलाने में बड़ा योगदान किया। 1939 में तमिल भाषा में बनी फिल्म त्यागभूमि को उस दौर की सर्वाधिक सफल फिल्मों में माना जाता है। ये फिल्म प्रख्यात तमिल लेखक आर कृष्णमूर्ति की कृति पर आधारित है। इस फिल्म में गांधीवादी विचारों को प्रमुखता से दिखाया गया था। बाद में इसको अंग्रेजों ने प्रतिबंधित कर दिया था। इसी तरह से अगर देखें तो तेलुगु में बनी फिल्म वंदे मातरम ने भी गांधी के विचारों को तेलुगु भाषी जनता के बीच पहुंचाने का बड़ा काम किया। भालजी पेंढारकर ने अपनी मूक फिल्म वंदे मातरम में अंग्रेजों की शिक्षा नीति की आलोचना की थी।  1943 में बनी हिंदी फिल्म किस्मत के गाना दूर हटो ये दुनियावालो हिंदुस्तान हमारा है बेहद लोकप्रिय हुआ था। ऐसा नहीं है कि गांधी को ये पता नहीं होगा कि इस तरह की फिल्में बन रही हैं। वो चाहते होंगे कि फिल्मकार राष्ट्र के प्रति अपने दायित्वों को समझें और अपनी फिल्मों के कंटेंट के बारे में निर्णय लें। गांधी जैसा व्यापक दृष्टिकोण वाला व्यक्ति सिनेमा विरोधी हो ये मानना कठिन है।