श्रीरामजन्मभूमि पर अयोध्या में भव्य मंदिर का निर्माण हो रहा है। 22 जनवरी को मंदिर में श्रीराम के बालस्वरूप की प्राण प्रतिष्ठा होने जा रही है। पूरे देश के सनातनी इस समय रामलला की प्राण प्रतिष्ठा को लेकर उत्साहित हैं। ऐसे वातावरण में श्रीरामचरित पर, श्रीराम कथा पर अन्य भाषाओं में लिखे रामायण के विभिन्न आयामों पर चर्चा हो रही है। नई-नई पुस्तकें आ रही हैं। बच्चों के लिए रामकथा और श्रीरामजन्मभूमि पर कामिक्स का प्रकाशन हो रहा है। फिल्मों और सीरियल्स का निर्माण हो रहा है। ऐसे वातावरण में मन में सहज ही एक प्रश्न उठा कि श्रीराम कथा का हिंदी फिल्मों पर क्या प्रभाव रहा है। जब इस दिशा में विचार करने लगा तो सामने आया कि रामकथा से जुड़े विभिन्न प्रसंगों को लेकर हिंदी के फिल्मकारों ने फिल्में बनाई। फिल्म या पटकथा लिखनेवालों ने रामकथा से प्रसंग उठाए। उन प्रसंगों को आधार बनाकर आधुनिक परिवेश और पात्रों की रचना की और उनको कथासूत्र में पुरो दिया। ये बहुत ही रोचक विषय लगा । इसको सोचते हुए सचिन भौमिक और राजकपूर से जुड़ा एक किस्सा याद आ गया। सचिन भौमिक हिंदी फिल्मों से जुड़े सफलतम कहानीकारों में से एक हैं। उनकी लिखी कहानियों पर बनी फिल्में निरंतर सुपर हिट होती रही हैं। उनकी सफल फिल्मों की लंबी सूची है जिसमें अनुराधा, आई मिलन की बेला, जानवर, आया सावन झूम के, अराधना, गोल-माल, कर्ज, नास्तिक, झूठी, सौदागर, ताल आदि प्रमुख हैं। इन सफल फिल्मों में उन्होंने किसी की कहानी लिखी तो किसी फिल्म की पटकथा, लेकिन लेखक के रूप में वो बेहद सफल रहे हैं। बताया जाता है कि एक जमाने में निर्माताओं की वो पहली पसंद थे। कहना न होगा कि सलीम जावेद की जोड़ी से ज्यादा हिट फिल्में सचिन भौमिक के नाम पर दर्ज है। तो बात कर रहा था एक किस्से की। वो किस्सा है सचिन भौमिक और राज कपूर से जुड़ा। सचिन भौमिक कोलकाता (तब कलकत्ता) से मायानगरी मुंबई (तब बांबे) पहुंचे थे। उनकी इच्छा राज कपूर से मिलने की थी। वो इसके लिए प्रयत्न कर रहे थे। एक दिन वो राज कपूर से मिलने आर के स्टूडियो पहुंच गए। उन्होंने गेट पर अपना परिचय दिया लेकिन किसी कारणवश उस दिन राज कपूर से उनकी भेंट नहीं हो सकी। उनको अगले दिन के लिए मुलाकात का समय मिल गया। अगले दिन नियत समय पर सचिन भौमिक फिर से चेंबूर स्थित आर के स्टूडियो पहुंचे। उनको राज कपूर के कमरे में ले जाया गया। अभिवादन आदि के बाद राज कपूर ने उनसे मुलाकात का प्रयोजन जानना चाहा। सचिन भौमिक ने खुल कर अपनी इच्छा बताई और कहा कि वो उनके लिए फिल्म की कहानी लिखना चाहते हैं। राज कपूर ने धैर्यपूर्वक उनकी बात सुनी और कहानी भी। जब बातचीत खत्म हो गई तो राज कपूर ने कहा कि आप हिंदी फिल्मों के लिए कहानियां लिखते हो, अच्छी बात है, लिखते रहो लेकिन इतना ध्यान रखना कि हिंदी फिल्मों में कहानी तो एक ही होती है, ‘राम थे, सीता थीं और रावण आ गया।‘ सचिन भौमिक ने एक साक्षात्कार में बताया था कि राज कपूर की ये बात उन्होंने गांठ बांध ली थी और वो कोई भी कहानी लिखते थे तो उनके अवचेतन में रामकथा अवश्य चल रही होती थी।
राज कपूर ने बहुत महत्वपूर्ण बात कही थी लेकिन उतनी ही महत्वपूर्ण बात सचिन भौनिक ने भी कही कि कहानी लिखते समय उनके अवचेतन रामकथा होती थी। इस अवचेतन मन की छाप आपको कई फिल्मों पर दिखेगी। अगर आप सुपरहिट फिल्म शोले पर विचार करें तो श्रीरामकथा का एक प्रसंग आपको उसमें दिखाई देगा। श्रीरामकथा में जब राक्षसों ने ऋषियों को बहुत तंग करना आरंभ कर दिया, यज्ञ आदि में बाधा डालने लगे तो विश्वामित्र ने राजा दशरथ से जाकर ये बातें बताईं। उनसे राक्षसों से मुक्ति के लिए राम और लक्ष्मण को साथ भेजने का आग्रह किया। राजा दशरथ पहले घबराए लेकिन फिर राम और लक्ष्मण को विश्वामित्र के साथ भेज दिया। दोनों भाइयों ने राक्षसों का वध करके ऋषियों के यज्ञादि में आनेवाले विघ्न को दूर किया। अब फिल्म शोले की कहानी को देखिए तो आपको इस प्रसंग की छाया वहां दिखाई देगी। ठाकुर बलदेव सिंह और उनकी बहू को छोड़कर डकैत गब्बर सिंह ने उनके परिवार के सभी सदस्यों की हत्या कर दी थी। रामगढ़ इलाके में उसका आतंक था। गब्बर के आतंक को खत्म करने के लिए ठाकुर जय और वीरू को रामगढ़ लेकर आते हैं। कहानी में तमाम तरह के मोड़ आते हैं और अंत में गब्बर के आतंक का अंत होता है। अब यहां अगर हम देखें तो विश्वामित्र वाले प्रसंग को कहानीकार ने उठाया और नए परिवेश और पात्रों को बदलकर कहानी में पिरो दिया। यहां हम सिर्फ विश्वामित्र के लिए राक्षसों को खत्म करने के लिए राम और रावण को ले जाने की बात कर रहे हैं। श्रीराम कथा में वर्णित दोनों भाइयों के चरित्र के बारे में बिल्कुल ही बात नहीं कर रहे हैं। इसी तरह से एक और फिल्म आई, कभी खुशी कभी गम। इसमें भी श्रीरामकथा का प्रसंग आपको दिखाई देगा। राजा दशरथ के वचन की रक्षा करने के लिए प्रभु श्रीराम चौदह वर्षों के वनवास पर चले गए। इस फिल्म में भी अपने पिता यशवर्धन रायचंद के कहने पर उनका ज्येष्ठ पुत्र राहुल घर छोड़कर अपनी पत्नी के साथ विदेश चला जाता है। राहुल की माता नंदिनी को बहुत कष्ट होता है। वो घुटती रहती है। अब इस छोटे से प्रसंग को उठाकर करण जौहर ने बिल्कुल ही आधुनिक परिवेश और पात्रों के साथ फिल्म बना दी। यहां एक बार फिर से स्पष्ट करना चाहता हूं कि इसमें न तो श्रीराम के चरित्र का अंश है और ना ही उनका मर्यादित आचरण की झलक। बस प्रसंग वहीं से उठाए गए हैं। हिंदी फिल्मों में इस तरह के सैकड़ों उदाहरण दिए जा सकते हैं। कई फिल्मों के गीतों में भी रामकथा के प्रसंग आपको दिख जाएंगे। स्वदेश फिल्म का गीत याद करिए, पल पल है भारी वो विपदा है आई, मोहे बचाने अब आओ रघुराई। आओ रघुवीर आओ, रघुपति राम आओ, मोरे मन के स्वामी, मोरे श्रीराम आओ। इतना ही नहीं कई फिल्मी गीत तो इतने लोकप्रिय हुए उसको सुनकर आम जनता के मन में श्रद्धा उत्पन्न होने लगती है। फिल्म नीलकमल का गाना- हे रोम रोम में बसनेवाले राम, जगत के स्वामी, हे अंतर्यामी, मैं तुमसे क्या मांगू। या फिर 1961 की फिल्म घराना का गीत, जय रघुनंदन जय सियाराम से ऐसा ही प्रभाव उत्पन्न होता है।
दरअसल श्रीराम कथा और उनका चरित्र इतना विराट है कि उससे जुड़े किसी प्रसंग को कहानीकार उठाते हैं और फिर उसकी पृष्ठभूमि में अपनी कथा रच लेते हैं। रामकथा तो गंगा है जो सदियों से बहती आ रही है और हर कोई अंजुलि भर जल वहां से लेता है। अपनी श्रद्धानुसार उसका उपयोग करता है। इसी तरह से रामकथा रूपी गंगा से फिल्मी कथाकार अंजुलि भर भर कर प्रसंग उठाते रहते हैं और अपनी शैली में, अपनी भावभूमि पर उसका उपयोग करते रहते हैं। श्रीराम कथा के मूल में है अर्धम पर धर्म की विजय और जितनी भी सुखांत हिंदी फिल्में हैं उसमें यही दिखता है। तमाम बाधाओं के बाद अधर्म का नाश होता है और धर्म की स्थापना होती है। यहां धर्म को व्यापक संदर्भ में देखे जाने की आवश्यकता है। अब जबकि कई विश्वविद्यालयों में फिल्म अध्ययन केंद्र खुल गए हैं तो जरूरत इस बात की है कि वहां श्रीराम कथा के हिंदी फिल्मों पर व्यापक प्रभाव पर शोध हो, चर्चा हो और उसको जनता के सामने रखा जाए। कथाकारों के अवचेतन को समझा जाए।
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