दिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अधिवेशन में गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि नरेन्द्र मोदी ने देश को सामूहिक हीन भावना से बाहर निकालने का काम किया। नरेन्द्र मोदी जी ने पहली बार इस देश में को गुलामी के प्रतीकों से मुक्ति दिलाने का आह्वान लाल किले की प्राचीर से किया था। आगे उन्होंने जो कहा उसका अर्थ ये था कि मोदी के शासन काल में देश को उग्रवाद, आतंकवाद और नक्सलवाद से लगभग मुक्ति मिली। इसके अलावा भी अमित शाह ने अपने भाषण में नरेन्द्र मोदी को कई समस्याओं से मुक्ति दिलानेवाले नेता के तौर पर रेखांकित किया। जब मुक्ति की बात होती है और उसके साथ कार्यों का लेखा जोखा दिया जाता है तो वो कोई साधारण बात नहीं होती है। राजनीतिक वक्तव्य नहीं होता है। उस वक्तव्य के पीछे एक सुचिंतित रणनीति होती है। अमित शाह के नेता नरेन्द्र मोदी अपने भाषणों के माध्यम से एक पाठ (टेक्सट) का निर्माण करते चलते हैं। प्रधानमंत्री मोदी के भाषणों में मुक्ति का चाहत तो होती ही है, देश के उज्जवल भविष्य का स्वपन भी होता है। पिछले दिनों नरेन्द्र मोदी के भाषणों और क्रियाकलापों को देखें तो वो इसके माध्यम से जो आख्यान रचते हैं उसमें इन सबकी झलक दिखाई देती है। नरेन्द्र मोदी ने स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय जो पंच प्रण की घोषणा की थी वो इसी आख्यान का एक भाग प्रतीत होता है। उसमें भी उन्होंने मुक्ति का स्वप्न देखा था। उसके बाद वो निरंतर विकसित भारत की बात कर रहे हैं। 2047 तक भारत को पूर्ण विकसित राष्ट्र बनाने का स्वप्न। जब नरेन्द्र मोदी विकसित भारत का आख्यान रचते हैं तो उसके साथ भारतीय अस्मिता को भी जोड़ते चलते हैं। अगर मोदी की इस अस्मितामूलक आख्यान को देखें और उसको स्टीफन ग्रीनब्लाट जैसे चिंतक की अवधारणों पर कसें तो स्थिति और स्पष्ट होती है। स्टीफन ग्रीनब्लाट कहते हैं कि हर अस्मिता एक कहानी है। कहानी के बार बार कहने से ही अस्मिता का निर्माण होता है। हमें यहां ये समझना होगा कि बार बार कहना क्या है। ये जो बार बार कहना होता है यही तो जनता के मानस पटल पर अंकित होकर एक ऐसे पाठ का निर्माण करते हैं जिससे एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र में वातावरण का निर्माण होता है, जिसकी परिणति सत्तामूलक विमर्श में होती है।
हिंदी के आलोचक सुधीश पचौरी ने अपनी पुस्तक तीसरी परंपरा की खोज में लिखा है कि जिस तरह से इतिहास एक टेक्सट (पाठ) है उसी तरह पद्मावत भी एक टेक्सट है और हर सत्ता समूह उसको अपने तरीके से पढ़ सकता है। उसका अर्थ फिक्सड नहीं तरल होता है उससे राजनीति भी की जा सकती है। वो आगे कहते हैं कि टेक्सट जब मास सर्कुलेशन में होता है तो उसकी मानी की परतें बढ़ती जाती हैं और उसकी एक इकोनामी भी काम करने लगती है।... कोई टेक्सट कभी बंद नहीं होती है, न किसी टेक्सट का समापन होता है। वह नए नए पाठों के लिए हमेशा खुली रहती है और इस तरह इतिहास के पाठों को बदलती रहती है। अब अगर इस सिद्धांत के आलोक में नरेन्द्र मोदी के रचे आख्यानों को देखें तो वो जिस टेक्सट का सृजन करते हैं उसके मास सर्कुलेशन में होने के कारण व्याप्ति बढ़ती जाती है। प्रधानमंत्री मोदी अपने पाठ (टेक्सट) का समापन नहीं करते हैं बल्कि एक को दूसरे से जोड़कर एक नया टेक्सट जनता के सामने रखते चलते हैं। उदाहरण के तौर पर पहले वो संकल्प से सिद्धि की बात करते हैं। संकल्प और सिद्धि की बात करते करते वो स्वाधीनता के अमृत महोत्सव के समय कई प्रकार की मुक्ति का पाठ रचते हैं। इस मुक्ति के बाद वो विकसित भारत के स्वप्न की संरचना करते हैं। इस तरह से प्रधानमंत्री मोदी न केवल नया टेक्सट रचते हैं बल्कि उसको इतिहास के तथ्यों के साथ मिलाकर मौखिक इतिहास (ओरल हिस्ट्री) का सृजन भी करते हैं। सुधीश पचौरी कहते हैं कि मौखिक इतिहास के इतिहासत्व को लेकर अतिरिक्त सजगता की आवश्यकता होती है। मौखिक इतिहास की चुनौतियां भी कई प्रकार की होती हैं। वो वाचक पर निर्भर करते है। कई बार मौखिक इतिहास में एक वाचक नहीं होता है बल्कि वो अलग अलग कालखंड में कई वाचकों के माध्यम से आगे बढ़ता है। प्रधानमंत्री के इस मौखिक पाठ को विश्लेषण करते हैं तो इतिहास के साथ साथ वो एक पावर टेक्सट (सत्तात्मक कृति) का निर्माण भी करते हैं। पाठ में जब मुक्ति और स्वप्न का रसायन मिला दिया जाता है तो वो पावर टेक्सट बनता है। आज अगर नरेन्द्र मोदी की साख और विश्वास है तो उसके पीछे यही पावर टेक्सट है।
हमारे देश में पावर टेक्सट को समझने का सटीक उदाहरण तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस है। तुलसीदास ने जब मानस की रचना की तो कथा के साथ साथ उन्होंने मुक्ति का लक्ष्य भी रखा। जब तुलसीदास मानस की रचना कर रहे थे उस समय भारत की जनता का मनोबल गिरा हुआ था। हिंदू जनता आक्रांताओं की ज्यादातियों से परेशान थी और वो मुक्ति चाहती थी। तुलसीदास ने इसको समझते हुए एक ऐसे पाठ की रचना की जिसमें राम जैसा नायक था जिसका चरित्र लोगों में उत्साह का संचार करनेवाला था। तीसरी परंपरा की खोज करते करते लेखक कहते हैं कि रामकथा और उसमें राम का विष्णु के अवतार के रूप में आना और विराट हिंदू कथा में बदलना पूर्व लिखित बहुत सी रामकथाओं को विस्थापित कर देता है। भारत में तुलसी के रामकथा की व्याप्ति एक बहुत ही ताकतवर और सघन विमर्श पैदा करती है। इसके मूल में धार्मिक कारणों के अलावा सबसे बड़ा कारण है मानस के प्रतीकों, रूपकों और मुक्ति की कथा के रूप में उसके आदर्शों का सुदीर्घ और सतत संचरण। ये चिन्ह एक तरह से हिंदू जनता की स्मृति में चक्कर मारते रहते हैं। भारत में मानस को मनोरंजन का ग्रंथ नहीं बल्कि मुक्ति का ग्रंथ माना जाता है । एक मेटानेरेटिव ये बनता है कि वो कलियुग के अत्याचारों से मुक्ति देनेवाली एकमात्र कथा है। तुलसी के मानस के साथ विश्वास और आस्था जुड़कर उसको एक पावर टेक्स्ट बनाती है।
आज नरेन्द्र मोदी जिस तरह पावर टेक्सट का आख्यान रच रहे हैं उससे उनके नेता की छवि के साथ मुक्तिदाता की छवि भी गाढ़ी होती जा रही है। उनके सहयोगी और उनकी पार्टी के लोग इस पावर टेक्सट को लेकर ही आगे बढ़ रहे हैं और जनमानस में इस छवि को गाढा करने के प्रयत्न में जुटे हुए हैं। जनता भी प्रधानमंत्री के रूप में मोदी के इस पावर टेक्सट से सहमत ही नजर आती है। लोकतंत्र में जनता की सहमति का पैमाना चुनाव होता है। तीन राज्यों के विधानसभा चुनाव के परिणामों में मोदी के इस पाव्र टेक्सट को मतदाताओं ने स्वीकार किया। विपक्ष के सामने इस समय सबसे बड़ी चुनौती नरेन्द्र मोदी के पावर टेक्सट से पैदा हो रहे मेटानैरेटिव को समझने के साथ साथ उसका काट ढूंढने की है। विपक्षी दल अब भी राजनीति के पुराने औजारों से इसका काट ढूंढने का प्रयत्न कर रहे हैं और निरंतर विफल हो रहे हैं। वो अब भी जाति और धर्म का आधार लेकर मोदी के पावर टेक्सट के समझ अपना पाठ प्रस्तुत कर रहे हैं। लेकिन इन पाठ में न तो मुक्ति की बात है और न ही कोई स्वप्न। इसलिए जनविश्वास अर्जित करने में सफलता नहीं मिल पा रही है। तुलसीदास ने रामकथा को मिथक से प्रतिरोधात्मक कथा में बदला उसी तरह से प्रधानमंत्री मोदी विकसित भारत के संकल्प के नैरेटिव के साथ एक महाआख्यान रचा है। इसके परिणाम मिल रहे है।