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Friday, February 2, 2024

हिंदी पर हिंदुस्तानी की प्रेतछाया


कहीं एक व्यंग्योक्ति पढ़ी थी कि वामपंथी इतिहासकारों के पास ज्योतिषि विज्ञान से अधिक शक्ति होती है। ज्योतिष किसी का भविष्य बदलने का दावा कर सकते हैं लेकिन वामपंथी इतिहासकार तो अतीत बदल देते हैं। इस बात का स्मरण दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के संस्थापक डा नगेन्द्र की आत्मकथा, अर्धकथा पढ़ते समय आया। दरअसल डा नगेन्द्र ने कुछ दिनों तक आल इंडिया रेडियो में भी नौकरी की थी। उस समय सूचना और प्रसारण मंत्री सरदार पटेल थे। मौलाना अबुल कलाम आजाद शिक्षा मंत्री थे। जब 1947 में डा नगेन्द्र ने आल इंडिया रेडियो का पद ग्रहण किया। उन्होंने लिखा- ‘उस समय रेडियो में हिंदी की काफी दुर्दशा थी। वार्ता, नाटक, संगीत आदि सभी अनुभागों में उर्दू का बोलबाला था। नाम हिंदुस्तानी था पर भाषा उर्दू थी। यह हिंदुस्तानी शुद्ध उर्दू ही थी जिसमें क्रियाओं और विभक्तियों के अतिरिक्त जो वस्तुत: हिंदी और उर्दू में समान ही होती है, हिंदी का कोई लक्षण नहीं था। अंतराष्ट्रीय के लिए वैनुलअकवामी, प्रधानमंत्री के लिए वजीरे आजम, गृहमंत्री और विदेश मंत्री आदि के लिए वजीरे दाखिला और वजीरे खालिजा जैसे शब्दों का प्रयोग होता था। स्वागत, धन्यवाद जैसे शब्दों का प्रयोग भी वर्जित था। कभी कभी पंजाबी भाषी के अनुवादक आभारी के स्थान पर धन्यवादी जैसे शब्दों का प्रयोग कर दिया करते थे, जिससे तथाकथित हिंदुस्तानी का रूप और भी विकृत हो जाता था।‘  

उस समय रेडियो के महानिदेशक पी सी चौधुरी थे। उनकी पीठ पर लौहपुरुष सरदार पटेल का हाथ था। वो रेडियो की हिंदी सेवा की भाषा को लेकर संवेदनशील थे। रेडियो में दिल्ली और पंजाब के लोगों की संख्या अधिक थी। केंद्रीय सरकार के कर्मचारियों का बड़ा वर्ग था जो न हिंदी जानता था न उर्दू। जब रेडियो के हिंदी सेवा में भाषा को लेकर आवश्यक सुधार होने लगे तो ये सभी लोग मिलकर बुखारीकालीन उर्दूनिष्ठ हिंदुस्तानी के सहज रूपांतरण के सभी प्रकार के प्रयत्नों का तीव्र विरोध करने लगे थे। डा नगेन्द्र लिखते हैं कि प्रो बुखारी के समय आल इंडिया रेडियो में एंग्लो मुस्लिम संस्कृति का वातावरण था, इसलिए वहां के अधिकांश अधिकारी, जिनमें हिंदू भी थे, किसी प्रकार का साहित्यिक-सांस्कृतिक परिवर्तन नहीं चाहते थे और तरह तरह की प्रशासनिक बाधाएं उत्पन्न करते थे।‘ डा नगेन्द्र धुन के पक्के थे। उनको भाषा संबंधी विसंगतियों को दूर करने के लिए रेडियो में लाया गया था। नगेन्द्र चाहते थे कि संगीत, नाटक, वार्ता आदि सभी घटकों में भारतीय संस्कृति का प्रवेश हो। इन जगहों पर भारतीय संस्कृति का प्रवेश भाषा के साथ ही संभव था। उस समय रेडियो में उच्चतर स्तर यानि विभागीय मंत्री सरदार पटेल की नीतियों को लागू करना था। इसमें उस समय एक बड़ी बाधा उतपन्न हो गई। बाधा ये कि जिनके हाथ में क्रियान्वयन का दायित्व  था उन्हें भाषा की व्वहारिक समस्याओं का ज्ञान नहीं था। उन लोगों ने एक सामान्य सूत्र तैयार कर लिया था। उसी सूत्र पर सबको कसते रहते थे। सूत्र था सर्वाधिक सुबोधता। सर्वाधिक सुबोधता का अर्थ आम बोलचाल के शब्द और छोटे वाक्यों का प्रयोग। ये समस्या जस की तस न भी हो लेकिन आज भी ये सर्वाधिक सुबोधता का जुमला उछलता ही रहता है। खैर ये अवांतर प्रसंग है इस पर फिर कभी। 

बात हो रही थी रेडियो की भाषा की। डा नगेन्द्र ने स्पष्ट रूप से लिखा है कि हिंदी विरोधियों की अंतिम शरण भूमि थी तत्कालीन शिक्षा मंत्री मौलाना अबुल कलाम आजाद का कार्यालय। वहां से तरह तरह की शिकायतें आती रहती थीं। जाहिर है इस तरह की बातों को शिक्षा मंक्षी का प्रश्रय था। एक बार रेडियो पर मौलाना आदाज को वजीरे तालीम की जगह शिक्षा मंत्री कहा गया। एक कर्मचारी नगेन्द्र के पास पहुंचे और कहा कि मौलाना साहब के आफिस से फोन आया था और वहां से पूछा जा रहा है कि क्या उनका मंत्रालय बदल दिया गया है। नगेन्द्र कहते हैं कि ये भले मजाक हो लेकिन ये रेडियो की भाषा पर कटाक्ष जैसा था। इसी तरह से एक बार बुलेटिन में ‘वे’ शब्द के प्रयोग पर मौलाना के कार्यालय से आपत्ति आई। उसपर नगेन्द्र को उप-महानिदेशक के सामने सफाई पेश करनी पड़ी थी। उन्होंने बताया कि हिंदी में एकवचन में वह और बहुवचन में वे का प्रयोग किया जाता है। उर्दू में एकवचन और बहुवचन दोनों में वो का प्रयोग होता है, जो हिंदी व्याकरण की दृष्टि से गलत था। नगेन्द्र इस तरह की आपत्तियों से इतने परेशान हो गए थे कि उनको गांधी जी की शरण में जाना पड़ा। गांधी जी को उन्होंने एक बुलेटिन की भाषा दिखाई। गांधी जी ने उसको पढ़कर कहा था कि इसमें तो सब ठीक है। ये बात जब रेडियो महा-निदेशालय पहुंची तो सबको संतोष हुआ। नगेन्द्र का काम अपेक्षाकृत आसान। 

एक शिक्षा मंत्री किसी भाषा को लेकर इतना दुराग्रही हो तो क्या कहा जा सकता है। आरंभ में इतिहासकार और ज्योतिष का जो उदाहरण दिया है उसका संदर्भ यही था। मौलाना आजाद की जो छवि गढ़ी गई वो बहुत ही उदार, सहिष्णु, सर्वसमावेशी और सभी का सम्मान करनेवाले व्यक्ति के तौर पर किया गया। इस तरह की बातें भी पीढ़ियों से बताई गईं और अब भी बताई जा रही हैं। अकादमिक जगत में उनका एक अलग ही रूप दिखता है। सिर्फ नगेन्द्र ही नहीं जोश मलीहाबादी ने भी अपनी आत्मकथा, यादों की बारात में मौलाना के बारे में एक प्रसंग का उल्लेख किया है। उससे भी संकेत मिलता है कि मौलाना आजाद उर्दू और मुसलमानों की पक्षधरता के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे। जोश मलीहाबादी भारत विभाजन के बाद पातिस्तान चले गए लेकिन अन्यान्य कारणों से वहां टिक न सके। वहां से लौटे तो नेहरू ने उनको भारत सरकार की पत्रिका आजकल में संपादक के तौर पर नौकरी दे दी। एक दिन जोश मलीहाबादी नेहरू से मिलने पहुंचे। नेहरू ने उनसे पूछा कि आप अपने महकमे के मंत्री सरदार पटेल से मिले कि नहीं?  जोश मलीहाबादी ने कहा अभी तक नहीं। नेहरू ने फौरन सरदार पटेल के यहां फोन मिलाकार मुलाकात तय करवा दी। जोश साहब सरदार पटेल से मिले और कई तरह की बातें हुईं। जब जोश मलीहाबादी सरदार पटेल से मिलकर उनके बंगले से बाहर निकले तब की स्थिति का विवरण देखिए- सरदार पटेल से अभी मिलकर निकला ही था कि मौलाना आजाद से मुठभेड़ हो गई। उन्होंने अपनी मोटर रोककर मुझे आवाज दी और जब मैं उनकी मोटर में बैठा तो उन्होंने बेहद दर्दनाक तेवरों से देखकर कहा जोश साहब! आप और सरदार पटेल। इसके पहले भी जब नेहरू ने जोश मलिहाबादी को आजकल की नौकरी की पेशकश की थी तो मौलाना ने नेहरू को आगाह किया था कि सोच समझकर जोश साहब को आश्वासन दें ये महकमा सरदार पटेल का है। जोश मलीहाबादी की आत्मकथा में इस तरह के कई प्रंसग  हैं जिससे ये ध्वनित होता है कि मौलाना उर्दू और मुसलमानों की पक्षधरता करते थे और सरदार पटेल से नफरत अन्यथा दर्दनाक तेवर क्यों होता।

इतिहासकारों ने क्या किया, सरदार पटेल को कट्टर हिंदूवादी बताकर उनको आधुनिक भारत के इतिहास में परिधि पर रखने का प्रयास किया। दूसरी तरफ मौलाना आजाद के बारे में अच्छा लिखकर उनको एक ऐसे नेता के तौर पर पेश किया जो विभाजन के बाद भारत में रुका और भारतीय शिक्षा और संस्कृति के लिए जीवन के अंतिम समय तक संघर्ष करता रहा। उर्दू को हर हालत में बनाए रखने और हिंदी पर उसको वरीयता देने के उनके मन का विश्लेषण नहीं हुआ। जिस तरह से हिन्दुस्तानी का प्रेत हिंदी पर मंडराता रहा उसको मौलाना ने और शक्ति दी। स्वाधीनता के अमृतकाल में इन विषयों पर अकादमिक जगत में चर्चा हो और जो नैरेटिव सेट किया गया था उसको चुनौती दी जानी चाहिए। 


2 comments:

Anonymous said...

Awesome post. Facts.

Anonymous said...

धोखाधड़ी के परदे की आड़ में इतिहास में मार्क्सवाद की घुसपैठ का नतीजा है