नईदिल्ली के प्रगति मैदान में आयोजित विश्व पुस्तक मेला आज समाप्त हो जाएगा। इस वर्ष विश्व पुस्तक मेला में प्रकाशकों और पाठकों की भागीदारी ने पुस्तकों के प्रति आश्वस्ति को गाढा किया। इस बार पुस्तक मेले में श्रीराम साहित्य कई प्रकाशकों के यहां प्रमुखता से प्रदर्शित की गई थी। पाठक उन पुस्तकों को खरीद भी रहे थे। पुस्तक मेला मेरे लिए उन पुस्तकों की खोज और क्रय का अवसर होता है जो सामान्य तौर पर बाजार में नहीं मिलती है। इसी तरह की पुस्तकों की तलाश में जब वाणी प्रकाशन के स्टाल पर पुस्तकें देख रहा था तो नजर सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘निराला’ की पुस्तक रामायण विनय-खण्ड पर पड़ी। इस पुस्तक की मुझे जानकारी नहीं थी। यह पुस्तक तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस के कुछ अंशों का अवधी से हिंदी अनुवाद जैसा है। इसपर बाद में चर्चा होगी। पर इस पुस्तक के बारे में जो जानकारी मिली वो दिलचस्प है। वाणी प्रकाशन के अरुण माहेश्वरी से जब इस पुस्तक के बारे में पूछा तो उन्होंने एक किस्सा बताया। कोरोना महामारी के कुछ वर्षों पहले की बात है। अरुण माहेश्वरी किसी काम से काशी गए हुए थे। काशी के गोदौलिया क्षेत्र में पटरी पर पुस्तकें बेचनेवाले एक व्यक्ति की दुकान पर पहुंचे। वहां उपलब्ध पुस्तकों को उलटने पुलटने लगे। अचानक उनकी नजर पटरी पर लगी दुकान के एक छोर पर गई। वहां कुछ प्रकाशित पन्ने रखे हुए थे। जिज्ञासावश अरुण जी ने उन पन्नों को उठाया तो वो निराला की पुस्तक रामायण, विनय खण्ड के छपे हुए फर्मे थे। जाहिर तौर पर वो बिक्री के लिए रखे गए थे। अरुण जी उन छपे हुए फर्मों को खरीद लिया। काशी में उन्होंने निराला जी की इस पुस्तक के बारे में पूछताछ की। वहां कई तरह की बातें पता चलीं। किसी ने बताया कि ये पुस्तक जिस प्रेस को छपने दी गई थी वो प्रेस बंद हो गया। तबतक पुस्तक के फर्मे छप चुके थे। प्रेस बंद होने के बाद उन फर्मों को रद्दी में बेच दिया गया होगा। आदि । उन छपे हुए पन्नों को लेकर अरुण माहेश्वरी दिल्ली लौट आए।
दिल्ली में उन्होंने कवि केदारनाथ सिंह, अब स्वर्गीय, से मिलकर उनको वो पन्ने दिखाए। केदारनाथ सिंह ने उन पन्नों को पढ़ने के बाद कहा कि ये निराला जी का ही लिखा है और उन्होंने इस पुस्तक को बचपन में देखा था। उसकी भाषा और डा रामविलास शर्मा का लिखा प्रथम संस्करण की भूमिका स्पष्ट कर रही थी ये निराला की ही पुस्तक है। डा रामविलास शर्मा की भूमिका पर 1 जून 1949 की तिथि अंकित है। फिर इस पुस्तक को पुनर्प्रकाशित करने की योजना बनी। केदारनाथ सिंह ने पुस्तक पर एक टिप्पणी लिखी, निरालाकृत इस काव्यानुवाद को मैंने तब देखा जब मैं बनारस में स्कूल का छात्र था। यह भी याद है कि यह संभव हुआ था त्रिलोचन जी के कारण, जिन्हें इस काव्यानुवाद की प्रर्ति राष्ट्रभाषा विद्यालय, काशी से प्राप्त हुई थी। निराला जी उन दिनों अस्वस्थ थे और विद्यालय के प्रधानाचार्य गंगाधर मिश्र के आवास पर विश्राम कर रहे थे। यह अनुवाद कार्य वहीं संपन्न हुआ था और उस समय काशी के अखबारों में इसकी चर्चा भी हुई थी। निराला जी रामायण (श्रीरामचरितमानस) का खड़ी बोली में भाषांतर कर रहे हैं। इसको लेकर वहां के साहित्यिक जगत में एक उत्सुकता भी थी। प्रतियां कम छपीं थी। इस कारण कम लोगों तक पहुंच सकीं। केदारनाथ सिंह ने ये भी स्पष्ट किया है कि यह पूरी रामायण का अनुवाद नहीं है केवल उसके विनयपरक छंदों का भाषांतरण इस पुस्तक में किया गया है। यहां एक प्रश्न उठता है कि निराला जी ने भाषांतरण के लिए श्रीरामचरितमानस को ही क्यों चुना। इसका उत्तर निराला की टिप्पणी से मिलता है, श्रीमद् गोस्वामी तुलसीदास जी का रामचरित-मानस या रामायण भारत की सर्वोत्तम काव्यकृति है, इसको इस समय यहां का वेद कहते हैं। इसके संबंध की बहुत सी बातें प्रकाश में नहीं आयीं। काफी अंधेरा है, अधिकार और अधिकारियों का प्रमाद भी।... जिन प्रांतो के विद्यार्थी अवधी नहीं जानते उनके लिए सुविधा हुई है। ऐसे भी नवें दसवें में इसका प्रचलन करने से विद्यार्थियों की खड़ी बोली अधिक पुष्ट हो जाएगी, इसका प्रमाण अधिकारीवर्ग पढ़ते ही समझ जाएंगे। आशा है पाठक पढ़कर राष्ट्रभाषा के विस्तार के प्रयत्न में हमारा उत्साह बढ़ाएंगे। रामविलास शर्मा इस पुस्तक के बारे में कहते हैं कि यह रामचरितमानस तक पहुंचने के लिए ऊंची नीची धरती पर रचे हुए एक नए मार्ग के समान है। इस पुस्तक के लिए निराला को तैयार करनेवाले श्री राष्ट्रभाषा विद्यालय के प्रधानाचार्य गंगाधर मिश्र ने उद्देश्य को और स्पष्ट किया था। उनका मानना था कि निराला श्रीरामचरितमानस के अनुवाद से इस ग्रंथ को सांस्कृतिक शिक्षा का आधार ग्रंथ बनाना चाहते थे। जिससे राष्ट्र की आत्यात्मिक चेतना जागरूक हो सके।
अगर हमें निराला की रचनाओं पर समग्रता में विचार करें तो महाकवि निराला का मन बार बार हिंदू धर्म और परंपराओं में रमता हुआ दिखता है। उनकी कुछ कविताओं के आधार पर उनको कम्युनिस्ट और जनवाद आदि से जोड़कर हिंदुत्व और भारतीयता से दूर करने का खेल खेला गया। तोड़ती पत्थर कविता को कई बार उद्धृत किया गया। उस कविता में वर्णित गरीबी और मजदूरों की मेहनत को बार-बार रेखांकित करके विचारधारा विशेष का कवि घोषित किया गया। दूसरी तरफ सनातन धर्म और भारतीयता पर लिखे उनके लेखों को पाठकों की नजरों से ओझल करने का षडयंत्र किया गया। निराला जब समन्वय पत्रिका के संपादक थे तब उन्होंने श्रीरामचरितमानस के सातो कांडों की मौलिक व्याख्या करते हुए कई निबंध लिखे थे। रामविलास शर्मा ने माना है कि निराला की काव्य रचना पर तुलसीदास का प्रभाव था। यह प्रभाव भावों और विचारों के अलावा छंद रचना और ध्वनि पर भी दिखता है। इस सबंध में निराला के प्रबंध काव्य तुलसीदास को भी देखा जाना चाहिए। इन रचनाओं और कृतियों पर अकादमिक जगत में कम विचार हुआ। निराला पर काम करनेवाले आलोचकों ने उनके इस पक्ष पर ध्यान नहीं दिया। निराला पर विदेशी लेखकों और रविन्द्रनाथ ठाकुर के प्रभाव की चर्चा मिलती है। उनकी इतनी आलोचना हुई थी कि रामविलास शर्मा को कहना पड़ा था, निराला जो चार लाइनें बेहोशी में लिख देगा, वह चार जनम तुम होश में भी न लिखा पावोगे। उनके निधन के बाद भी उनपर आरोप लगते रहे, जीवनकाल में तो लगे ही थे। इस तरह के मसलों में उलझाकर निराला के लेखन के सनातन भाव तक जाने से पाठकों को रोका गया। निराला के तुलसी या श्रीरामचरितमानस पर लिखे लेखों अथवा गीताप्रेस गोरखपुर से निकलनेवाली पत्रिका कल्याण के उनके लेखों को मिलाकर निराला के हिंदू मन की चर्चा नहीं की गई। निराला तुलसी साहित्य के गहन अध्येता भी थे और उनके लेखों और प्रबंध काव्य में ये दिखता भी है। श्रीरामचरितमानस के विनयपरक छंदों का भाषांतरण करके उसको व्याप्ति दिलाने का प्रयत्न किया था। निराला के हिंदू मन को पाठकों के सामने लाने का प्रयत्न किया जाना चाहिए। यह कार्य कठिन भी नहीं है। पहले तो उनके सनातन और हिंदुत्व को आधार बनाकर लिखे ग्रंथों और रचनाओं को पुस्तकालयों की धूल से बाहर लाकर पाठकों तक पहुंचाने का प्रयास हो। अकादमिक जगत में उन रचनाओं पर चर्चा हो, शोधार्थियों को उनपर शोध के लिए प्रेरित किया जाए। निराला रचनावली में अगर उनकी इन रचनाओं का समावेश नहीं है तो उसमें भी इन सारी रचनाओं को डालकर उसका पुनर्प्रकाशन करवाया जाए। निराला की रचनाओं को लेकर जो नैरेटिव गढ़ा गया उसको निगेट करने के लिए यह आवश्यक है कि निराला को समग्रता में पाठकों के सामने पेश कर दिया जाए। पाठकों में स्वयं निर्णय करने की क्षमता विकसित हो चुकी है। अमृतकाल में यह आवश्यक है।
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