इस वक्त देश में आम-चुनाव चल रहे हैं। दो चरणों के लिए मतदान संपन्न हो चुके हैं। चुनाव के बीच इंटरनेट मीडिया पर साहित्यकारों का एक खेमा जमकर राजनीति की बात करता है। खुद को कथित रूप से प्रगतिशील कहने और देश में धर्मनिरपेक्षता की वकालत करनेवाले लेखक दिन-रात राजनीति पर लिखते रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते रहते हैं। कुछ लेखक तो राजनीतिक दलों के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर खुद को प्रस्तुत करते हैं। उनके लेखन में वामपंथ का एजेंडा साफ दिखता है। यह अलग बात है जबसे जनता ने वाम दलों को नकार दिया है तब से तमाम वामपंथी लेखकों को कांग्रेस में भविष्य नजर आने लगा है। ऐसे लेखक भी कांग्रेस की जयकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना में जुटे रहते हैं। स्वयं को प्रगतिशील साबित करने की होड़ में बहुधा आलोचना की मर्यादा तोड़ते नजर आते हैं। फेसबुक, एक्स (पहले ट्विटर) और इंस्टा चूंकि स्वच्छंद इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स हैं, इसलिए वहां मर्यादाविहीन टिप्पणियां देखने को मिलती हैं। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा की जा चुकी है कि लेखक संगठनों, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, से जुड़े लेखक अपनी लेखन के लिए अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह जोहते रहते हैं। कहना न होगा कि इन संघों से जुड़े लेखक अपनी रचना में भी जबरन पार्टी के सिद्धांतों को ठूंसने का प्रयत्न करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि हिंदी का पाठक साहित्य से दूर होता जा रहा है। इन वामपंथी लेखक संघों से जुड़े लेखक जिन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक आदि हैं वो पत्रिकाएं भी संबंधित कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र नजर आता है। उसी तरह की कृतियों का चयन किया जाता है और उसपर एक खास वैचारिक दृष्टि से विचार करके उनको चर्चित करने का प्रयास किया जाता है। उन्हीं विषयों पर चर्चा की जाती है जिनमें भारतीय जनता पार्टी की आलोचना की संभावना हो।
इंटरनेट मीडिया पर इन वामपंथी और कथित प्रगतिशील लेखकों की टिप्पणियों को देखते हुए 1974 में नामवर सिंह के लिखे एक लेख, प्रगतिशील साहित्य धारा में अंध लोकवादी रुझान, की पंक्तियों की याद आती है। नामवर सिंह ने आज से पांच दशक पहले ये माना था कि वामपंथ से जुड़े लेखक पार्टी लाइन पर लेखन करते हैं। पचास वर्षों बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। नामवर सिंह ने तब लिखा था, भारत में इस समय तीन या चार कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और इनके अलावा भी अपने आपको मार्क्सवादी कहनेवाले कुछ समुदाय तथा व्यक्ति हैं, जिनमें से हर एक के पास कुछ न कुछ लेखक या तो संबद्ध हैं या सहानुभूति रखते हैं। इसलिए अपनी अपनी पार्टियों या समुदायों की राजनीतिक ‘लाइन’ के अनुसार लेखकों की राजनीतिक दृष्टि में भिन्नता स्वाभाविक है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि इन लेखकों से दलगत निष्ठा, प्रतिबद्धता या राजनीति से ऊपर उठने की बात कहना ज्यादती है। ऐसा कहने के पीछे नामवर सिंह का उद्देश्य चाहे जो रहा हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि वो ये स्वीकार कर रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों या मार्क्सवादी समुदायों से जुड़े लेखक राजनीतिक ‘लाइन’ पर लेखन कर रहे थे। नामवर सिंह ने अपने इस लेख में मार्क्सवाद को वैश्विक दृष्टि जरूर करार दिया लेकिन ऐसी कई बातें कह गए जो वामपंथी लेखकों की पोल खोल कर रख देते हैं। वो आगे कहते हैं कि एक निष्ठावान लेखक से उसकी राजनीति की साहित्यिक अंतर्वस्तु की मांग तो की ही जा सकती है क्योंकि एक लेखक के नाते उसका अपना कर्मक्षेत्र तो साहित्य ही है। विचित्र विडंबना है कि अधिकांश लेखक अपनी रराजनीति के अभीष्ट साहित्यिक रूपांतर में या तो असमर्थ हैं या फिर अनजान हैं। दरअसल इस समस्या के समाधान की उम्मीद अनेक निष्ठावान लेखकों को अपनी पार्टी के राजनीतिक नेताओं से है।...किसी समानधर्मा राजनीतिकर्मी तथा बुद्धिजीवी के अनुभव-ज्ञान का लाभ उठाना एक बात है, किंतु साहित्य के जिस क्षेत्र से उनका परिचय नही हैं उसके बारे में उससे समाधान की उम्मीद करना उसके साथ सरासर ज्यादती है।
पता नहीं क्यों नामवर सिंह अपने वामपंथी कामरेडों पर इतने कुपित थे। उन्होंने यहां तक कह दिया कि राजनितिज्ञों से समाधान की उम्मीद करने से किसी लेखक की पार्टी-भक्ति भले ही प्रमाणित हो,उसकी अपनी सृजनशीलता और साहित्यधर्मिता संदिग्ध हो जाती है। राजनीति के पराश्रयी और राजनीतिक नेताओँ के पिछलग्गू लेखक ही इस दिशा में प्रवृत्त होते हैं। कोई स्वाभिमानी और सुबुद्ध साहित्यकार इस पराश्रयी वृत्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है। नामवर की इन टिप्पणियों से स्पष्ट हो रहा है कि वामपंथी लेखक पार्टी-भक्ति करते रहे हैं, राजनीतिक नेताओं के पिछलग्गू रहे हैं और उनकी साहित्यधर्मिता संदिग्ध है। पार्टी भक्ति करनेवाले वामपंथी लेखकों पर नामवर सिंह ने 1974 जो बातें कही थीं उसका कोई असर नहीं दिखता है। अब भी जो पुराने, नववामपंथी या वामपंथ में इंटर्नशिप कर रहे लेखक सभी इसी लीक पर चल रहे हैं। वामपंथ कमजोर हुआ। वामपंथ कांग्रेस का पिछलग्गू बना। तो इस श्रेणी के लेखक भी कांग्रेस के पिछलग्गू बनकर इंटरनेट मीडिया पर क्रांति (?) करने में जुट गए। इस तरह के लेखक देशी विदेशी लेखकों का नाम लेकर अपनी विद्ता से जनता को प्रभावित करना चाहते हैं लेकिन जिस तरह से हर जगह ये सेलेक्टिव होकर बात करते हैं, वैसे ही विदेशी लेखकों को उद्धृत करने में भी इसी सलेक्टिव प्रविधि का उपयोग करते हैं। ग्राम्शी के लिखे को उद्धृत करते हैं। ये कभी नहीं बताते कि उन्होंने कहा था कि ‘राजनीतिज्ञ साहित्य-कला की दुनिया में अपने समय की एक निश्चित सांस्कृतिक दुनिया के निर्माण के लिए दबाव डालते हैं।‘ स्वाधीनता के बाद से ही कम्युनिस्ट नेता हमारे देश में भी साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने तरह की सांस्कृतिक दुनिया बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें पहले सोवियत रूस से और बाद में चीन से दिशा निर्देश मिलते थे। उन दिशा निर्देशों के अनुसार उन्होंने कला जगत को अपने कब्जे में लिया।
वामपंथी लेखकों के साथ दिक्कत ये रही है कि वो बहुधा अपनी रचनाओं में राजनीतिक परिवर्तन का नारा लगाते रहे हैं। उनके लिए विरोधी विचारधारा की सरकार और सत्ता हमेशा से दमन का माध्यम है। वो वैचारिक रूप से विरोधी सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाते रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता से लेकर संविधान के खतरे में होने तक का। राजनीतिक आरोपों में वो ऐसे फंसते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के पक्ष में बातें नहीं कर पाते हैं। कम्युनिस्टों ने हमारे देश के लेखकों को प्रगतिशील संज्ञा दी। साथ ही प्रगतिशीलता और क्रांति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि अधिकतर लेखक राजनीतिक बदलाव के पक्ष में रचनाएं लिखने लगे। होना यह चाहिए था कि वो समाज और संस्कृति को प्रभावित करनेवाली रचनाएं लिखते। ऐसी रचनाएं पाठकों के समक्ष रखते जिनसे पाठकों में भारत की संस्कृति के प्रति एक समझ बनती। भारत की सांस्कृतिक पहचान को गाढ़ा करनेवाली कहानियां, उपन्यास, कविताएं लिखी जाती। लेकिन हुआ इसके उलट। वामपंथी प्रगतिशील लेखकों ने खुद तो इस तरह की रचनाएं लिखी नहीं, जो लेखक इस तरह की रचनाएं लिख रहे थे उनको भी षडयंत्रपूर्वक हाशिए पर डाल दिया गया। कई बार अपमानित किया गया। योग्य लेखकों को सम्मान पुरस्कार से दूर रखा। लेखक संघों ने लेखकों के हितों में कोई कार्य किया हो ये ज्ञात नहीं है। वैचारिक संघर्ष की आड़ में ये दूसरे संघों से जुड़े लेखकों को नुकसान पहुंचाने में जुटे रहे। बेहतर होता कि ये लेखकों के हितों की रक्षा के लिए एकजुट होते। लेखकों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाते। पर ऐसा हो न सका। परिणाम लेखक संगठन भी अप्रसांगिक हो गए।