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Saturday, April 27, 2024

पार्टी भक्ति से संदिग्ध साहित्यधर्मिता


इस वक्त देश में आम-चुनाव चल रहे हैं। दो चरणों के लिए मतदान संपन्न हो चुके हैं। चुनाव के बीच इंटरनेट मीडिया पर साहित्यकारों का एक खेमा जमकर राजनीति की बात करता है। खुद को कथित रूप से प्रगतिशील कहने और देश में धर्मनिरपेक्षता की वकालत करनेवाले लेखक दिन-रात राजनीति पर लिखते रहते हैं। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की आलोचना करते रहते हैं। कुछ लेखक तो राजनीतिक दलों के पूर्णकालिक कार्यकर्ता के तौर पर खुद को प्रस्तुत करते हैं। उनके लेखन में वामपंथ का एजेंडा साफ दिखता है। यह अलग बात है जबसे जनता ने वाम दलों को नकार दिया है तब से तमाम वामपंथी लेखकों को कांग्रेस में भविष्य नजर आने लगा है। ऐसे लेखक भी कांग्रेस की जयकार करते हुए भारतीय जनता पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना में जुटे रहते हैं। स्वयं को प्रगतिशील साबित करने की होड़ में बहुधा आलोचना की मर्यादा तोड़ते नजर आते हैं। फेसबुक, एक्स (पहले ट्विटर) और इंस्टा चूंकि स्वच्छंद इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म्स हैं, इसलिए वहां मर्यादाविहीन टिप्पणियां देखने को मिलती हैं। इस स्तंभ में कई बार इसकी चर्चा की जा चुकी है कि लेखक संगठनों, प्रगतिशील लेखक संघ, जनवादी लेखक संघ और जन संस्कृति मंच, से जुड़े लेखक अपनी लेखन के लिए अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह जोहते रहते हैं। कहना न होगा कि इन संघों से जुड़े लेखक अपनी रचना में भी जबरन पार्टी के सिद्धांतों को ठूंसने का प्रयत्न करते रहे हैं, अब भी कर रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि हिंदी का पाठक साहित्य से दूर होता जा रहा है। इन वामपंथी लेखक संघों से जुड़े लेखक जिन साहित्यिक पत्रिकाओं के संपादक आदि हैं वो पत्रिकाएं भी संबंधित कम्युनिस्ट पार्टी का मुखपत्र नजर आता है। उसी तरह की कृतियों का चयन किया जाता है और उसपर एक खास वैचारिक दृष्टि से विचार करके उनको चर्चित करने का प्रयास किया जाता है। उन्हीं विषयों पर चर्चा की जाती है जिनमें भारतीय जनता पार्टी की आलोचना की संभावना हो। 

इंटरनेट मीडिया पर इन वामपंथी और कथित प्रगतिशील लेखकों की टिप्पणियों को देखते हुए 1974 में नामवर सिंह के लिखे एक लेख, प्रगतिशील साहित्य धारा में अंध लोकवादी रुझान, की पंक्तियों की याद आती है।  नामवर सिंह ने आज से पांच दशक पहले ये माना था कि वामपंथ से जुड़े लेखक पार्टी लाइन पर लेखन करते हैं। पचास वर्षों बाद भी बहुत कुछ नहीं बदला है। नामवर सिंह ने तब लिखा था, भारत में इस समय तीन या चार कम्युनिस्ट पार्टियां हैं और इनके अलावा भी अपने आपको मार्क्सवादी कहनेवाले कुछ समुदाय तथा व्यक्ति हैं, जिनमें से हर एक के पास कुछ न कुछ लेखक या तो संबद्ध हैं या सहानुभूति रखते हैं। इसलिए अपनी अपनी पार्टियों या समुदायों की राजनीतिक ‘लाइन’ के अनुसार लेखकों की राजनीतिक दृष्टि में भिन्नता स्वाभाविक है। उन्होंने तो यहां तक कह दिया कि इन लेखकों से दलगत निष्ठा, प्रतिबद्धता या राजनीति से ऊपर उठने की बात कहना ज्यादती है। ऐसा कहने के पीछे नामवर सिंह का उद्देश्य चाहे जो रहा हो लेकिन एक बात तो स्पष्ट है कि वो ये स्वीकार कर रहे हैं कि कम्युनिस्ट पार्टियों या मार्क्सवादी समुदायों से जुड़े लेखक राजनीतिक ‘लाइन’ पर लेखन कर रहे थे। नामवर सिंह ने अपने इस लेख में मार्क्सवाद को वैश्विक दृष्टि जरूर करार दिया लेकिन ऐसी कई बातें कह गए जो वामपंथी लेखकों की पोल खोल कर रख देते हैं। वो आगे कहते हैं कि एक निष्ठावान लेखक से उसकी राजनीति की साहित्यिक अंतर्वस्तु की मांग तो की ही जा सकती है क्योंकि एक लेखक के नाते उसका अपना कर्मक्षेत्र तो साहित्य ही है। विचित्र विडंबना है कि अधिकांश लेखक अपनी रराजनीति के अभीष्ट साहित्यिक रूपांतर में या तो असमर्थ हैं या फिर अनजान हैं। दरअसल इस समस्या के समाधान की उम्मीद अनेक निष्ठावान लेखकों को अपनी पार्टी के राजनीतिक नेताओं से है।...किसी समानधर्मा राजनीतिकर्मी तथा बुद्धिजीवी के अनुभव-ज्ञान का लाभ उठाना एक बात है, किंतु साहित्य के जिस क्षेत्र से उनका परिचय नही हैं उसके बारे में उससे समाधान की उम्मीद करना उसके साथ सरासर ज्यादती है। 

पता नहीं क्यों नामवर सिंह अपने वामपंथी कामरेडों पर इतने कुपित थे। उन्होंने यहां तक कह दिया कि राजनितिज्ञों से समाधान की उम्मीद करने से किसी लेखक की पार्टी-भक्ति भले ही प्रमाणित हो,उसकी अपनी सृजनशीलता और साहित्यधर्मिता संदिग्ध हो जाती है। राजनीति के पराश्रयी और राजनीतिक नेताओँ के पिछलग्गू लेखक ही इस दिशा में प्रवृत्त होते हैं। कोई स्वाभिमानी और सुबुद्ध साहित्यकार इस पराश्रयी वृत्ति को स्वीकार नहीं कर सकता है। नामवर की इन टिप्पणियों से स्पष्ट हो रहा है कि वामपंथी लेखक पार्टी-भक्ति करते रहे हैं, राजनीतिक नेताओं के पिछलग्गू रहे हैं और उनकी साहित्यधर्मिता संदिग्ध है। पार्टी भक्ति करनेवाले वामपंथी लेखकों पर नामवर सिंह ने 1974 जो बातें कही थीं उसका कोई असर नहीं दिखता है। अब भी जो पुराने, नववामपंथी या वामपंथ में इंटर्नशिप कर रहे लेखक सभी इसी लीक पर चल रहे हैं। वामपंथ कमजोर हुआ। वामपंथ कांग्रेस का पिछलग्गू बना। तो इस श्रेणी के लेखक भी कांग्रेस के पिछलग्गू बनकर इंटरनेट मीडिया पर क्रांति (?) करने में जुट गए। इस तरह के लेखक देशी विदेशी लेखकों का नाम लेकर अपनी विद्ता से जनता को प्रभावित करना चाहते हैं लेकिन जिस तरह से हर जगह ये सेलेक्टिव होकर बात करते हैं, वैसे ही विदेशी लेखकों को उद्धृत करने में भी इसी सलेक्टिव प्रविधि का उपयोग करते हैं। ग्राम्शी के लिखे को उद्धृत करते हैं। ये कभी नहीं बताते कि उन्होंने कहा था कि ‘राजनीतिज्ञ साहित्य-कला की दुनिया में अपने समय की एक निश्चित सांस्कृतिक दुनिया के निर्माण के लिए दबाव डालते हैं।‘ स्वाधीनता के बाद से ही कम्युनिस्ट नेता हमारे देश में भी साहित्य और कला के क्षेत्र में अपने तरह की सांस्कृतिक दुनिया बनाना चाहते थे। इसके लिए उन्हें पहले सोवियत रूस से और बाद में चीन से दिशा निर्देश मिलते थे। उन दिशा निर्देशों के अनुसार उन्होंने कला जगत को अपने कब्जे में लिया। 

वामपंथी लेखकों के साथ दिक्कत ये रही है कि वो बहुधा अपनी रचनाओं में राजनीतिक परिवर्तन का नारा लगाते रहे हैं। उनके लिए विरोधी विचारधारा की सरकार और सत्ता हमेशा से दमन का माध्यम है। वो वैचारिक रूप से विरोधी सरकार पर तमाम तरह के आरोप लगाते रहे हैं। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता से लेकर संविधान के खतरे में होने तक का। राजनीतिक आरोपों में वो ऐसे फंसते हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक बदलाव के पक्ष में बातें नहीं कर पाते हैं। कम्युनिस्टों ने हमारे देश के लेखकों को प्रगतिशील संज्ञा दी। साथ ही प्रगतिशीलता और क्रांति की ऐसी घुट्टी पिलाई कि अधिकतर लेखक राजनीतिक बदलाव के पक्ष में रचनाएं लिखने लगे। होना यह चाहिए था कि वो समाज और संस्कृति को प्रभावित करनेवाली रचनाएं लिखते। ऐसी रचनाएं पाठकों के समक्ष रखते जिनसे पाठकों में भारत की संस्कृति के प्रति एक समझ बनती। भारत की सांस्कृतिक पहचान को गाढ़ा करनेवाली कहानियां, उपन्यास, कविताएं लिखी जाती। लेकिन हुआ इसके उलट। वामपंथी प्रगतिशील लेखकों ने खुद तो इस तरह की रचनाएं लिखी नहीं, जो लेखक इस तरह की रचनाएं लिख रहे थे उनको भी षडयंत्रपूर्वक हाशिए पर डाल दिया गया। कई बार अपमानित किया गया। योग्य लेखकों को सम्मान पुरस्कार से दूर रखा। लेखक संघों ने लेखकों के हितों में कोई कार्य किया हो ये ज्ञात नहीं है। वैचारिक संघर्ष की आड़ में ये दूसरे संघों से जुड़े लेखकों को नुकसान पहुंचाने में जुटे रहे। बेहतर होता कि ये लेखकों के हितों की रक्षा के लिए एकजुट होते। लेखकों के भविष्य को सुरक्षित बनाने के लिए सरकार पर दबाव बनाते। पर ऐसा हो न सका। परिणाम लेखक संगठन भी अप्रसांगिक हो गए।  


Saturday, April 20, 2024

फिल्मों से निकलते साहित्यिक संदेश


फिल्मों में रुचि के कारण मित्रों से नई और पुरानी फिल्मों पर चर्चा होती रहती है। आपस में बातचीत करते रहते हैं कि कौन सी फिल्म या वेबसीरीज आई है, किसका ट्रीटमेंट कैसा है, संवाद कैसा है, कौन सी देखी जा सकती है। इसी क्रम में साइलेंस टू का नाम आया। बताया गया कि वो अमुक प्लेटफार्म पर उपलब्ध है। मैंने सोचा, मनोज वाजपेयी की फिल्म है, देख ली जाए। प्रशंसा भी हो रही थी कि अच्छी मर्डर मिस्ट्री है। इस फिल्म को देखने की इच्छा के साथ टीवी आन किया। अलेक्सा का बटन दबाकर कहा, साइलेंस टू। अलेक्सा सर्च करने लगा। चंद पलों में उसने साइलेंस टू को स्क्रीन पर उपस्थित कर दिया। फिल्म का पोस्टर लगा था और नीचे उसकी अवधि भी एक घंटे पचास मिनट उल्लिखित थी। मैंने उसको सेलेक्ट करके चालू कर दिया। फिल्म आरंभ हो गई। मनोज वाजेयी इस फिल्म में थे। कहानी अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी की थी। मेंने देखना आरंभ कर दिया। कुछ अंतराल के बाद मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। मैंने उसको बंद किया और फिर अलेक्सा को बोला कि साइलेंट टू दिखाओ। वो फिर वहीं लेकर गया । मैं उसी फिल्म को देखने लगा। करीब पौने घंटे के बाद फिर मुझे लगा कि गलत फिल्म देख रहा हूं। अपने मित्र को फोन करके कहा कि आपने नाम गलत बता दिया । थोड़ी नाराजगी भी दिखाई। उन्होंने फिर से कहा कि साइलेंस टू सर्च करिए और देखिए। अच्छी फिल्म है। मैंने फिर से देखा तो फिल्म के ऊपर छोटे अक्षरों में लिखा आ रहा था साइलेंस टू, मनोज वाजपेयी, प्राची देसाई। मैं फिर निश्चिंत हो गया और आगे देखने लगा। थोड़ी देर बाद ये समझ आ गया कि मैं साइलेंस टू नहीं बल्कि मनोज वाजपेयी की ही एक और फिल्म अलीगढ़ देख रहा था। तबतक एक घंटा देख चुका था। खैर...फिल्म पूरी देख गया। इस फिल्म ने दो सूत्र दे दिए जिसकी चर्चा यहां करना चाहता हूं। पहला तो ये कि अलेक्सा को भी धोखा दिया जा सकता है। किसी ने अलीगढ़ फिल्म के ऊपर साइलेंस टू का थंबनेल लगा दिया था। तकनीकी तौर फिल्म अलीगढ़ को यूट्यूब पर इस तरह से लगाया था कि साइलेंस टू सर्च करने पर वही फिल्म आए। स्तंभ लिखने के पहले एक बार फिर चेक किया। अब भी यही हो रहा था। दरअसल मुझसे गलती ये हो गई थी कि मुझे जी 5 प्लेटफार्म पर जाकर इस फिल्म को सर्च करना चाहिए था। 

दूसरी महत्वपूर्ण बात साहित्य से जुड़ी है। अलीगढ़ फिल्म में प्रोफेसर सिरस (मनोज वाजपेयी) और युवा पत्रकार दीपू (राजकुमार राव) के बीच एक संवाद है। बुजुर्ग प्रोफेसर सिरस युवा पत्रकार दीपू से पूछते हैं कि अच्छा बताओ तुमने किन किन पोएट को पढ़ा है। उत्तर मिलता पोएट, अय्यो! ज्यादा कुछ तो नहीं पढ़ा है...शब्दों का जो खेल है वो सब ऊपर से चला जाता है। प्रोफेसर सिरस कहते हैं कि पोएट्री शब्दों में कहां होती है बाबा। कविता तो शब्दों के अंतराल में मिलती है, साइलेंसेज और पाजेज में होती है। लोग अपने हिसाब से उसका अर्थ निकालते रहते हैं। उम्र और मैच्युरिटी के हिसाब से। समझे। दीपू कहता है, समझा। इसके बाद दीपू उनकी कविता पुस्तक के बारे में पूछता है। प्रोफेसर सिरस बेहद गंभीर भाव भंगिमा में बोलते हैं, नैचुरली आजकल कविता खरीदता कौन है?  और तुम्हारे जेनरेशन के लोगों को तो पोएट्री की समझ ही नहीं है। वो तो हर चीज को किसी न किसी लेबल से चिपकाना चाहते हैं- फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। फिर दोनों की बात केस को लेकर आगे चलती रहती है। संवाद की उपरोक्त पंक्तियों को अगर समकालीन साहित्य के संदर्भ में समझने का प्रयत्न करें तो काफी हद तक ये सही प्रतीत होती है। अगर प्रकाशकों की मानें तो कविता संग्रहों के खरीदार पहले की अपेक्षा में कम हुए हैं। कवियों को अपने संग्रह को प्रकाशित करवाने में संघर्ष करना होता है। समकालीन कविता के एक सशक्त हस्ताक्षर से स्वयं मुझसे कहा कि उन्होंने एक कविता संग्रह तैयार किया था। उसको प्रकाशित करवाना चाहते थे लेकिन प्रकाशक तैयार नहीं हो रहे थे। उनके मुताबिक प्रकाशकों के तर्क थे कि कविता आजकल खरीदता कौन है। कविता के पाठक घट गए हैं। कई बार फिल्मों के संवाद में साहित्यिक यथार्थ उद्घाटित हो जाते हैं। 

कविता के अलावा प्रोफेसर सिरस ने जो एक और बात कही वो भी महत्वपूर्ण है। युवा पत्रकार को जब वो कहते हैं कि तुम्हारी पीढ़ी हर चीज को किसी न लेबल से चिपकाना चाहती है, फैंटेस्टिक, फैबुलस, सुपर, सुपर्ब, कूल और आसम। ऐसा लेबलीकरण इंटरनेट मीडिया पर साफ तौर देखा जा सकता है। अगर किसी ने फेसबुक पर कोई कविता पोस्ट की तो कमोबेश इसी तरह की प्रतिक्रिया अधिक मिलती है। कई बार तो ऐसा लगता है कि कविता बिना पढ़े पोस्ट पर अपनी उपस्थिति दिखाने के लिए प्रशंसात्मक लेबलनुमा टिप्पणी कर देते हैं। यह तो हुई वो बात जो सतह पर दिखती है। प्रो सिरस के लेबल लगानेवाली बात के गंभीर निहितार्थ भी हैं। इस तरह की टिप्पणियों (लेबलीकरण) से खराब कविता लिखनेवालों को बढ़ावा मिलता है। उनको लगता है कि वो पंत और निराला के स्तर की कविताएं लिख रहे हैं। तुकबंदी मिलाने और भावोच्छ्वास को कविता की तरह परोसनेवाले लेखकों का उत्साहवर्धन इतना हो जाता है कि इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर इस तरह की कविताएं बहुतायत में उपलब्ध होने लगती है। प्रशंसात्मक टिप्पणियों से उनको लगता है कि वो महान कवि हो गए हैं। अब उनकी कविताओं का संग्रह आना ही चाहिए। वो भावोच्छ्वास और तुकबंदी लेकर प्रकाशकों के यहां पहुंचने लगते हैं। कुछ प्रकाशक, दबाव या अन्य कारणों से संग्रह प्रकाशित भी कर देते हैं। इस तरह के संग्रह कविता के गंभीर पाठकों को भाते नहीं। परिणाम ये होता है कि वो बिक नहीं पाते और कविता को लेकर एक खराब धारणा बनने लगती है। 

इन प्रशंसात्मक लेबलों का एक और गंभीर नुकसान होता है। खराब कविता लिखकर भी प्रशंसा पाने वाले कवियों को ये लगता है कि आलोचकों की कोई भूमिका ही नहीं है। वो खुलेआम ये घोषणा करते नजर आते हैं कि पाठक उनकी कविताओं को पसंद कर रहे हैं तो आलोचकों की आवश्यकता क्या है। कवि और पाठक के बीच तीसरा क्यों ? आलोचकों के इस नकार का परिणाम आज युवा कवि ही सबसे अधिक झेल रहे हैं। संजय कुंदन, प्रेमरंजन अनिमेष, हेमंत कुकरेती की पीढ़ी की कविताओं पर तो कुछ आलोचकों ने विचार किया भी। उनकी कविताओं को रेखांकित किया। उनको साहित्य जगत में कवि रूप में स्थापित किया। इसके बाद की पीढ़ी के कवियों का क्या हुआ ?  इनके बाद की पीढ़ी का आलोचक नहीं होने के कारण अच्छे कवि भी रेखांकित नही हो पा रहे हैं। उनकी पहचान नहीं बन पा रही है। प्रोफेसर सिरस कह रहे हैं कि कविता शब्दों के अंतराल में उसके साइलेंस में होती है। इसी अंतराल और साइलेंस की कविता को उद्घाटित करने का कार्य आलोचक करते हैं। सामान्य लेबलीकरण से न तो अंतराल और न ही साइलेंस के अर्थ पाठकों के सम्मुख आ सकते हैं। आंत में प्रोफेसर सिरस अनुवाद की स्थिति पर भी टिप्पणी करते हुए कहते हैं अनुवाद भी स्तरीय न होने के कारण कविता का रूप बिगड़ जाता है। यह स्थिति सिर्फ कविता की नहीं है। अधिकतर गद्य के अनुवाद भी स्तरहीन हो रहे हैं। सिनेमा को जो लोग सिर्फ मनोरंजन का माध्यम मानते हैं उनको सिनेमा के दृश्यों और संवादों से निकलते संदेशों को पकड़ना चाहिए। कई बार फिल्मों और उसके संवादों से जो संदेश निकलते हैं वो समकालीन रचनात्मकता या सामाजिक संदर्भों पर टिप्पणी होती है।  


Sunday, April 14, 2024

जा पर कृपा राम की होई


चुनाव प्रचार के दौरान मेरठ से भारतीय जनता पार्टी के प्रत्याशी अरुण गोविल की एक तस्वीर आई थी जिसमें वो श्रीराम की तस्वीर हाथ में लिए नजर आ रहे थे। कुछ लोगों ने उनकी इस तस्वीर पर आपत्ति जताई और उसको चुनाव प्रचार में धर्म का उपयोग बताना आरंभ किया था। ऐसा करनेवाले ये भूल गए कि उत्तर प्रदेश के एक उपचुनाव में अरुण गोविल और दीपिका चिखलिया को कांग्रेस ने राम और सीता की वेशभूषा में चुनाव प्रचार में उतारा था। कुछ ही दिनों पहले रामानंद सागर निर्मित सीरियल रामायण में इन दोनों ने राम और सीता की भूमिका निभाई थी। दरअसल राम और सीता या रामायण के पात्र धर्म नहीं हैं वो आस्था है। 1943 में भी जब विजय भट्ट निर्देशित फिल्म रामराज्य फिल्म आई थी तो लोगों ने उसमें राम और सीता की भूमिका निभानेवाले प्रेम अदीब और शोभना समर्थ को भी बहुत मान दिया था। वो जिधर निकल जाते थे उधर उनको देखने के लिए और उनको सम्मान देने के लिए आस्थावान भारतीयों की भीड़ उमड़ती थी। यह प्रभु श्रीराम और रामकथा में भारतीयों की आस्था ही है जिसने इस कथा के पात्रों को चुनाव में विजयश्री का हार पहनाकर भारतीय संसद में भेजा।

रामानंद सागर के सीरियल रामायण में सीता की भूमिका निभाने वाली दीपिका चिखलिया जब 1987-88 में सड़कों पर आती थीं लोग उनको सीता मानकर उनके प्रति सम्मान प्रकट करते थे। आस्थावान भारतीयों की भीड़ उनको घेर लेती थी। रामानंद सागर के रामयण में सीता की भूमिका में उनका जो गेटअप था, या उनका जो अभिनय था या उनकी जो संवाद अदायगी थी या जिन प्रसंगों में वो वो टीवी स्क्रीन पर आती थी वो सभी दर्शकों के मन पर एक अमिट छाप छोड़ती थीं। वो रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था ही थी कि जब 1991 में दीपिका चिखलिया बडोदरा से भारतीय जनता पार्टी की उम्मीदवार बनीं तो जनता ने उनके सर पर जीत का सेहरा बांधकर लोकसभा भेजा। उस समय बडोदरा कांग्रेस पार्टी का गढ़ हुआ करता था। दीपिका ने बडोदरा राजघराने के रंजीत सिंह प्रताप सिंह गायकवाड़ को लोकसभा के चुनाव में पराजित किया था। यह रामकथा और माता सीता के प्रति आस्था की जीत थी। राजनीति में आई दीपिका ने दिग्गज कांग्रेसी उम्मीदवार को न केवल परास्त किया बल्कि करीब 50 प्रतिशत वोट भी हासिल किया। 

आस्था से जीत का दूसरा उदाहरण रामायण सीरियल में रावण का किरदार निभाने वाले अरविंद त्रिवेदी है जिनको जनता ने पसंद किया था। 1991 के चुनाव में ही अरविंद त्रिवेदी ने गुजरात के साबरकांठा से भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर तुनाव लड़ा था। तब उनके खिलाफ महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी जनता दल के उम्मीदवार थे और जनता दल से टूटकर अलग हुए जनता दल(गुजरात) के उम्मीदवार मगनभाई पटेल थे। तीन वर्ष पहले ही रामायण सीरियल ने लोकप्रियता का नया कीर्तिमान स्थापित किया था। उस समय रामजन्मभूमि आंदोलन भी चल रहा था। लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी चुनावी मंच से गरजते थे कि राम की अवहेलना करने का परिणाम क्या होता है ये मुझसे बेहतर कौन जानता है तो जनता पर उसका प्रभाव पड़ता था। ये चुनाव परिणाम में दिखा और लंकेश की भूमिका निभानेवाले अरविंद त्रिवेदी ने जनता दल के प्रत्याशी राजमोहन गांधी को पराजित कर दिया। राजमोहन गांधी तीसरे नंबर पर रहे थे। रामायण में हनुमान का किरदार निभानेवाले दारा सिंह ने हलांकि कोई चुनाव नहीं लड़ा लेकिन पहले कांग्रेस का समर्थन किया और जब अखिल भारतीय जाट महासभा के अध्यक्ष बने तो अटल बिहारी वाजपेयी के करिश्मा के चलते उनका झुकाव भारतीय जनता पार्टी की तरफ हुआ। सीमा सोनिक ने लिखा है कि अटल जी के कहने पर ही दारा सिंह ने 1998 के लोकसभा चुनाव में अभिनेता विनोद खन्ना और शत्रुघ्न सिन्हा के लिए जमकर चुनाव प्रचार किया था। इन रैलियों में दारा सिंह रामायण सीरीयल में बोले गए हनुमान के संवाद दोहराते थे, उनके जैसी भाव भंगिमाएं बनाते थे। रैलियों में भारी भीड़ होती थी। बाद में भारतीय जनता पार्टी ने उनको राज्यसभा में भेजा था और वो 2003-09 तक सांसद रहे। 

लोक आस्था का ये रूप सिर्फ रामकथा को लेकर ही नहीं दिखता है। महाभारत सीरियल में श्रीकृष्ण की भूमिका निभानेवाले नीतीश भारद्वाज को भी जनता ने सम्मान दिया। यह श्रीकृष्ण में आस्था का ही परिणाम था कि जब नीतीश भारद्वाज ने 1996 में लोकसभा का चुनाव जीता था। नीतीश भारद्वाज ने झारखंड के जमशेदपुर से जनता दल के दिग्गज इंदर सिंह नामधारी को परास्त कर दिया था। श्रीरामकथा और श्रीकृष्णकथा में भारतीयों की प्रगाढ़ आस्था है। इसका प्रगटीकरण रील और रीयल दोनों में होता रहा है। 


Saturday, April 13, 2024

ईमानदारी और नैतिकता से बनेगी साख


कभी उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है। इस समय लोकसभा चुनाव की सरगर्मी है। पांच दिनों बाद लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान होगा लेकिन राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहीं दिखाई नहीं दे रही है। ऐसा क्या हुआ कि राजनीति के आगे चलनेवाला साहित्य गौण हो गया और राजनीति प्रमुख हो गई। क्या राजनीति ने साहित्य और साहित्यकारों को महत्व देना बंद कर दिया, या राजनीति के आगे साहित्य की मशाल थाम कर चलनेवाला कद्दावर साहित्यकार समकालीन साहित्य जगत में कोई बचा ही नहीं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जो राजनीति में भी गए। कई साहित्यकार तो संसद और विधानसभाओं में भी पहुंचे। वो किसी मुद्दे पर जब बोलते या लिखते थे तो पूरा देश उनको सुनता था और उनके कहे का एक सम्मान होता था। संविधान लागू होने के 15 वर्षों बाद जब हिंदी के राजभाषा के दर्जा को लेकर राजनीति होने लगी तो संसद में साहित्य जगत के प्रतिनिधि के तौर पर नामित साहित्यकारों ने अपने विचारों से सरकार और समाज दोनों को प्रभावित किया था। दिनकर ने राज्यसभा में अपने भाषण में लालबहादुर शास्त्री के एक वक्तव्य पर कटाक्ष किया था। लाल बहादुर शास्त्री ने एक वक्तव्य कहा था कि  ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब दिनकर ने शास्त्री को घेरते हुए कहा था कि  ‘जिस प्रकार सरकार इस बारे में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तब भी साहित्यकारों ने नेहरू जी को घेरा था। उनके निर्णयों की जमकर आलोचना की थी। इमरजेंसी के दौर में कई साहित्यकार जेल गए। इंदिरा गांधी का विरोध किया। कविताएं लिखीं, लेख लिखे। कई बार किसानों और गरीबों की समस्याओं पर लिखा। कहना न होगा कि साहित्यकारों ने समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी भूमिका को समझते हुए अपनी आवाज से लोकतंत्र को बल दिया था। 

लेखक-साहित्यकार स्वयं को अपनी ईमानदारी और नैतिकता से स्थापित करता है। इमरजेंसी के बाद से ही साहित्य और साहित्यकारों की ईमानदारी कठघरे में आ गई थी। इमरजेंसी के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद लेखक संगठनों ने भी काफी गड़बड़ियां की जिससे जनता के बीच साहित्यकारों की छवि एक दल विशेष के कार्यकर्ता की बनती चली गई। विचारधारा विशेष की जकड़न में साहित्यकारों ने सच कहना बंद कर दिया। पार्टी और लेखक संघों से संबद्ध लेखक पार्टी और संघ की लाइन पर चलते दिखने लगे। उनके विचारों से वस्तुनिष्ठता कम होने लगी। लंबे अंतराल तक ऐसा चलने का परिणाम यह हुआ कि उनकी विश्वसनीयता छीजने लगी। 2015 में जब कुछ साहित्यकारों ने मोदी सरकार के विरुद्ध असहिष्णुता का आरोप लगाकर पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा तो शोर-शराबा तो बहुत हुआ, पर उसका प्रभाव जनमानस पर कम पड़ा। बाद में ये बात भी स्पष्ट हो गई कि बिहार विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने के लिए कुछ लेखकों ने नेताओं के साथ मिलकर पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था। इस प्रसंग ने भी साहित्यकारों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया। यह बात सार्वजनिक हो गई कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी विरोध में पुरस्कार वापसी का अभियान चला था। कुछ लेखक और कलाकार राजनीति के टूल बन गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भी विचारधारा विशेष के इन्हीं लेखकों ने मोदी सरकार के विरुद्ध एक हस्ताक्षर अभियान चलाकर माहौल बनाने का प्रयास किया था। प्रभाव शून्य रहा था। यह अनायास नहीं है कि इस समय अधिकतर लेखक खामोश हैं या उनकी सर्जनात्मकता वो प्रभावोत्पादकता पैदा नहीं कर पा रही जो राजनीति के आगे मशाल  बनकर चल सके। 

इसका एक दूसरा पहलू भी है। जब प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है तब अपने उसी वक्तव्य में उन्होंने एक और बात कही थी। प्रेमचंद ने साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा था कि साहित्य मन का संस्कार करता है। मन के संस्कार की बात तो दूर तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकारों ने व्यवहार को संस्कारित करने का कार्य करना भी बंद कर दिया। भारतीय संस्कारों को आगे बढ़ाने और समाज के बीच उन संस्कारों को गाढ़ा करने के बजाय विदेशी संस्कृति के संस्कारों को भारतीय पाठकों पर थोपने का कार्य किया था। विदेशी संस्कृति के रंग को गाढ़ा करने के लिए उन्होंने भारत और भारतीयता से जुड़े साहित्य और साहित्यकारों को नीचा दिखाना आरंभ कर दिया। जब उनकी ही विचारधारा के लेखक रामविलास शर्मा ने ऋगवेद पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह और उनकी मंडली ने उनको हिंदूवादी कहकर उपहास किया था। जब विद्यानिवास मिश्र जैसे लेखकों ने सनातन परंपराओं और पौराणिक ग्रंथों पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह ने उनको विद्याविनाश कहकर उनको अपमानित किया था। कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकार को प्रगतिशीलों ने न केवल दरकिनार किया बल्कि लंबे समय तक उनके लेखन पर चर्चा ही नहीं की। भला हो साहित्य अकादमी और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का कि इन दोनों संस्थाओ ने कुबेरनाथ राय की रचनाओँ का संचयन प्रकाशित किया। नरेन्द्र कोहली से लेकर कमलकिशोर गोयनका तक ऐसे कितने ही लेखक हैं जिनको इस विचारधारा के पोषकों ने अपमानित किया। 

इन सबका परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी या विचारधारा से संबद्ध लेखकों की साख समाप्त होती चली गई । आज हालत ये है कि हिंदी में कोई सार्वजनिक बुद्धीजीवी बचा ही नहीं। अशोक वाजपेयी गाहे बगाहे पब्लिक इंटलैक्टुअल की पोजिशनिंग करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन उनके पास इस पोजिशनिंग के लिए कुछ खास औजार नहीं बचे हैं। बार-बार असहिष्णुता और लोकतंत्र के सिकुड़न का राग अलापते हैं। कांग्रेस पार्टी से उनकी निकटता और उसके प्रदर्शन के कारण उनकी मनचाही छवि बन नहीं पाती। पहले अर्जुन सिंह से निकटता और अब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में हिस्सा लेकर उन्होंने रही सही साख भी खो दी है। पहले अज्ञेय को बूढ़ा गिद्ध कहते हैं और बाद में अज्ञेय की प्रशंसा करते हैं। लेखकों की खामोशी का एक दूसरा पक्ष भी है। वह पक्ष है कि पिछले 10 वर्षों में नरेन्द्र मोदी सरकार ने साहित्य और शिक्षा को समृद्ध करने के लिए प्रशंसनीय प्रयास किया। साहित्य अकादमी ने अपने आयोजनों में विचारधारा को आधार बनाए बिना लेखकों को जुटाकर विश्वस्तरीय आयोजन किए। शिमला और भोपाल में उन्मेष नाम के कार्यक्रम में साहित्य अकादमी ने मोदी के विचार सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास और सबका विश्वास को साकार किया। एक जमाना था जब साहित्य अकादमी में वामपंथियों का दबदबा था और दूसरे विचार के साहित्यकार अघोषित प्रतिबंध का सामना करते थे। पिछले दस वर्षों में साहित्य अकादमी में सभी विचारों के लेखकों का प्रवेश संभव हुआ। सिर्फ इन दो कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि हाल ही समाप्त हुए साहित्योत्सव में भी संस्थान का समावेशी चरित्र गाढ़ा हुआ। ऐसे माहौल में वामपंथ से संबद्ध लेखकों को कहने के लिए कुछ बचा नहीं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को भी अभिजात्य से मुक्ति मिली और वह भी एक समावेशी संस्था के रूप में स्थपित हुआ। दस वर्ष पहले वहां भी भारत और भारतीयता को लेकर जो उपेक्षा भाव था वो खत्म हुआ, बिना किसी के प्रति नकारात्मक हुए। इसके अलावा 2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं महत्व दिया गया। इसके कारण भारतीय भाषा भाषियों के बीच हिंदी को लेकर वैमनस्यता का भाव लगभग खत्म हो गया। साहित्य को राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने की आवश्यकता आज भी है लेकिन उसके लिए विचार का साथ चाहिए विचारधारा की नहीं। 

Sunday, April 7, 2024

चुनावी जंग में साहित्यिक योद्धा


आगामी 19 अप्रेल को लोकसभा के चुनाव के प्रथम चरण के लिए वोट डाले जाएंगे। इस चुनाव में भारतीय भाषा के कई साहित्यकार और कवि अपनी किस्मत आजमा रहे हैं। ऐसे राजनेता-साहित्यकार के बारे में देश को जानना चाहिए। ऐसे साहित्यकारों और कवियों के बारे में आगामी अंकों में बताएंगे लेकिन पहले उन पूर्वज साहित्यकारों के बारे में जान लेते हैं जिन्होंने सक्रिय राजनीति भी की और चुनाव भी लड़ा। 

एक बार किसी कार्यक्रम में राष्ट्रकवि दिनकर और उस समय के प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पहुंचे थे। कार्यक्रम स्थल पर जाने के दौरान नेहरू सीढ़ियों पर लड़खड़ा गए थे, उस वक्त दिनकर ने उनका हाथ थाम लिया था। जवाहरलाल नेहरू ने इसके लिए दिनकर को धऩ्यवाद कहा। धन्यवाद के उत्तर में दिनकर ने कहा था ‘जब जब सत्ता लड़खड़ाती है तो सदैव साहित्य ही उसे संभालती है।‘ दिनकर ने उस समय चाहे ये बात हल्के अंदाज में कही हो लेकिन इसके मायने बहुत गंभीर हैं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जिनको संसद के उच्च सदन में समय समय पर राष्ट्रपति ने नामित किया। कुछ ऐसे साहित्यकार-कवि हुए जिन्होंने लोकसभा चुनाव जीतकर संसद की गरिमा बढ़ाई तो कुछ ऐसे साहित्यकार हुए जिन्होंने लोकसभा का चुनाव तो लड़ा पर हार गए। 

सबसे पहले बात कर लेते हैं पूर्व प्रधानमंत्री भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी की। वाजपेयी कवि थे और उनके कई संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। राजनीति के मैदान में उतरे लेकिन उनका कवि मन पद्य में रमा रहा। पहला चुनाव 1952 में लड़ा लेकिन जीत नहीं सके। वाजपेयी ने हार नहीं मानी और 1957 में लोकसभा चुनाव जीत कर संसद पहुंचे। फिर हार जीत लगी रही। अटल जी की कविताओं का संग्रह मेरी इक्यावन कविताएं को लोगों ने खूब पसंद किया था। गीत नया गाता हूं और हिंदू तन मन हिंदू जीवन, रग रग हिंदू मेरा परिचय जैसी पंक्तियां अब भी लोगों को याद हैं। अटल जी कविताओं की भाषा उनको समकालीन कवियों से अलग दिखाती हैं। 

यह बहुत कम लोगों को पता होगा कि आचार्य विष्णुकांत शास्त्री ने 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के दौरान वो धर्मवीर भारती के साथ मोर्च पर गए थे और वहां से उन्होंने रिपोर्ताज लिखे जो धर्मयुग पत्रिका में प्रकाशित हुए थे। विष्णुकांत शास्त्री कलकत्ता विश्वविद्यालय में आचार्य रहे। वे हिंदी के उन विरल आचार्यों में थे जिन्होंने कई विधाओं में श्रेष्ठ लेखन किया। आलोचना, निबंध, कविता के अलावा निराला और तुलसी की रचनाओं पर लिखा। दर्शन में उनकी विशेष रुचि थी और उन्होंने ज्ञान और कर्म के नाम से एक पुस्तक लिखी। 1944 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेव संघ से जुड़े और 1977 में जनता पार्टी के टिकट पर बंगाल विधानसभा के सदस्य चुने गए। कालांतर में उन्होंने हिमाचल प्रदेश और उत्तर प्रदेश के राज्यपाल का दायित्व मिला। 

हिंदी आलोचना की जब भी चर्चा होती है तो नामवर सिंह का नाम आता है। उनकी पुस्तक दूसरी परंपरा की खोज काफी चर्चित रही और इस पुस्तक पर उनको साहित्य अकादमी पुरस्कार भी मिला। उनकी पुस्तक हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग भी उल्लेखनीय रही। कहानियों पर वो नियमित स्तंभ लिखते रहे और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भारतीय भाषा केंद्र के संस्थापक भी रहे। नामवर सिंह ने 1959 में चंदौली (उप्र) से कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ा लेकिन बुरी तरह से पराजित हो गए। उसके बाद हलांकि उन्होंने चुनाव नहीं लड़ा, लेकिन प्रगतिशील लेखक संघ के माध्यम से राजनीति करते रहे। 

ख्यात हिंदी कवि बालकवि वैरागी में कवित्व के अलावा राजनीति भी कूट कूट कर भरी हुई थी। जितना वो काव्य मंचों पर सक्रिय रहते थे उससे अधिक राजनीति में उनकी सक्रियता रहती थी। जब वो मंच पर कविता पाठ करते थे तो उनकी ओजपूर्ण वाणी से श्रोता मुग्ध हो जाते थे। उनकी कविता झर गए पात, बिसर गए टहनी काफी लोकप्रिय रही। उन्होंने बच्चों के लिए भी काफी कविताएं लिखीं। कई फिल्मों के लिए गीत भी लिखे। वो मध्य प्रदेश के मंदसौर जिले के रहनेवाले थे। सक्रिय राजनीति में रहे और विधानसभा और लोकसभा का चुनाव लड़कर विधायक और सांसद बने। राज्यसभा के भी सदस्य रहे।      

    


Saturday, April 6, 2024

अभिव्यक्ति की सुविधाजनक व्याख्या


फिल्म ‘द केरला स्टोरी’ के बीते शुक्रवार को दूरदर्शन पर दिखाने को लेकर केरल के मुख्यमंत्री पी विजयन से लेकर कई अन्य नेताओं ने विरोध जताया। इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म पर टिप्पणियों से लेकर मामला कोर्ट तक में पहुंचा। एक कवि ने केरल हाईकोर्ट से अनुरोध किया कि इस फिल्म को आमचुनाव के संपन्न होने तक दूरदर्शन पर दिखाए जाने पर रोक लगाई जानी चाहिए। तर्क ये दिया गया था कि ये फिल्म धार्मिक आतंकवाद दिखाती है। यह एक एजेंडा फिल्म है जो चुनाव के समय सांप्रदायिक ध्रुवीकरण को बढावा देगी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी दूरदर्शन का दुरुपयोग कर रही है और दूरदर्शन के माध्यम से अपनी विचारधारा को बढ़ावा दे रही है। केरल हाईकोर्ट ने इस फिल्म को दूरदर्शन पर दिखाने के निर्णय पर रोक लगाने से इंकार कर दिया। याचिकाकर्ता ने चुनाव आयोग से लेकर दूरदर्शन के अधिकारियों को भी इस फिल्म के प्रसारण को रोकने के लिए ईमेल भेजी थी। केरल के मुख्यमंत्री विजयन ने लिखा कि राष्ट्रीय प्रसारणकर्ता दूरदर्शन को बीजेपी-आरएसएस का प्रोपेगैंडा मशीन बनने से बचना चाहिए। उनके मुताबिक ये फिल्म सांप्रदायिकता को बढ़ावा देनेवाली है और चुनाव के समय इसका प्रसारण अनुचित है। केरल से कांग्रेस पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ रहे शशि थरूर ने भी कुछ इसी तरह की बातें कीं। उनके मुताबिक ‘इस समय ‘द केरला स्टोरी’ को दिखाना शर्मनाक है। जब ये फिल्म आई थी तो सभी ने कहा था कि ये केरल की स्टोरी नहीं है। केरल तो सांप्रदायिक सद्भाव के लिए जाना जाता है।‘ इस मसले पर वामदलों और कांग्रेस के नेता एक सुर में बोल रहे हैं। दोनों का मानना है कि दूरदर्शन पर इस फिल्म को दिखाने का निर्णय चुनाव को प्रभावित करने की मंशा से किया जा रहा है। ये सभी वो लोग हैं जो स्वयं को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के चैंपियन बताते हैं। दिन रात संविधान को बचाने की कसमें खाते हैं। 

प्रश्न यही उठता है कि क्या संविधान ने अभिव्यक्ति की स्वाधीनता कुछ चुनिंदा लोगों या विचारधारा को प्रदान की है। क्या ‘द केरला स्टोरी’ के निर्माताओं को संविधान अभिव्यक्ति की स्वाधीनता नहीं देता है। फिल्म का विरोध तब जबकि केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको सार्वजनिक प्रदर्शन के उपयुक्त माना था। पिछले वर्ष इस फिल्म की रिलीज के समय भी इसी तरह का वैचारिक बवाल मचा था। जिन्होंने फिल्म देखी नहीं थी वो ट्रेलर को देखकर इसको एजेंडा फिल्म करार दे रहे थे। वाम दलों और कांग्रेस के नेताओं को अभिव्यक्ति की स्वाधीनता की इतनी ही चिंता होती तो वो इसके दूरदर्शन पर दिखाए जाने का विरोध नहीं करते। इस फिल्म को देखते या अपने समर्थकों को इसको देखने के लिए प्रेरित करते। फिल्म को देखने के बाद इसकी कमजोरियों को समाज के सामने प्रस्तुत करते। फिल्म देखे बिना उसका विरोध करना और उसको एजेंडा और प्रोपगैंडा बताना कानून समम्त तो नहीं ही कहा जा सकता है। आपको याद दिला दें कि जब ये फिल्म रिलीज होने वाली थी तब भी केरल हाईकोर्ट में इसके खिलाफ याचिका दाखिल कर प्रदर्शन पर रोक लगाने की मांग की गई थी। उस समय भी हाईकोर्ट ने फिल्म के प्रदर्शन पर रोक लगाने से मना कर दिया था। जब एकबार फिल्मों को प्रमाणपत्र देनेवाली संस्था केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इसको पास कर दिया था तो फिर से उसके प्रदर्शन को रोकने की मंशा सिर्फ और सिर्फ राजनीति प्रतीत होती है। क्या कोई विचारधारा इतनी कमजोर होती है कि वो एक फिल्म से हिल जाए या खतरे में आ जाए। विचार करना चाहिए। 

पिछले साल इस फिल्म को लेकर केरल हाईकोर्ट ने जो टिप्पणी की थी उसको एक बार फिर से याद दिलाने की आवश्यकता है। केरल हाईकोर्ट ने याचिकाकर्ताओं के साथ फिल्म के ट्रेलर को कोर्ट में ही देखा था। देखने के बाद कहा था कि ये काल्पनिक है। याचिकाकर्ताओं की दलील थी कि इस फिक्शनल फिल्म का उद्देश्य मुसलमानों को खलनायक के रूप में पेश करना है। कोर्ट ने इससे भी असहमति जताते हुए कहा था कि फिल्मों में कई तरह की चीजें दिखाई जाती हैं। भूत और पिशाच भी नहीं होते हैं लेकिन फिल्मों में काल्पनिक रूप से उनको दिखाया जाता है। सबसे महत्वपूर्ण टिप्पणी न्यायमूर्ति नागरेश ने की थी और कहा था कि कई फिल्मों में हिंदू संन्यासियों को तस्कर और बलात्कारी दिखाया गया है लेकिन कभी भी किसी ने उसपर आपत्ति नहीं जताई। हिंदी और मलयालम में इस तरह की कई फिल्में देखी होगी। मलयालम में तो एक फिल्म में पुजारी को मूर्ति पर थूकते दिखाया गया था लेकिन उससे भी किसी प्रकार की कोई समस्या उत्पन्न नहीं हुई थी। आप कल्पना कर सकते हैं कि वो फिल्म पुरस्कृत भी हुई थी। न्यायमूर्ति की इस टिप्पणी ने भारतीय फिल्म जगत के उस एजेंडे को बेनकाब कर दिया था जो अबतक फिल्मों में चल रहा है। कोर्ट की ये टिप्पणी भी उल्लेखनीय रही कि ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ नहीं है, इस्लाम पर किसी तरह का आरोप नहीं लगाया गया है। इस फिल्म में आतंकवादी संगठन आईएसआईएस के करतूतों को दिखाया गया है। बावजूद इसके फिल्म का विरोध तब भी हुआ था और अब भी हुआ। आतंकवाद को इस्लाम से जोड़ना बिल्कुल गलत है। ‘द केरला स्टोरी’ में इस्लाम के विरुद्ध कुछ भी नहीं है। ऐसा अदालत ने भी माना था।

दरअसल वाम दल और कांग्रेस पार्टी के नेता इस फिल्म के जरिए अपनी राजनीति चमकाने की फिराक में दिखाई देते हैं। फिल्म आतंकवादी संगठन के विरोध में है और वो इसको सांप्रदायिक सद्भाव भड़कानेवाली फिल्म बता रहे हैं। यह तो युवा पीढ़ी को आतंकवाद के खतरे से आगाह करती हुई फिल्म है। इसमें उन खतरों को दिखाया गया है जिसके कारण युवक और युवतियों की जिंदगियां तबाह हो रही हैं। दरअसल द केरला स्टोरी, द कश्मीर फाइल्स या वैक्सीन वार ऐसी फिल्में हैं जो वाम दलों के विचार का पोषण नहीं करती हैं। ये फिल्में भारतीय विचार को आगे बढ़ाती हैं जिसके कारण कुछ लोगों को आपत्ति होती है। उनको लगता है कि हिंदी फिल्म इंडस्ट्री में जिस तरह से मिशन कश्मीर और फना के माध्यम से आतंक और आतंकवादियों को लेकर एक रोमांटिसिज्म दिखाया जाता रहा है उसको चुनौती कैसे दी जा सकती है। जो लोग द केरला स्टोरी या द कश्मीर फाइल्स जैसी फिल्मों का विरोध करते हैं वो सच से मुंह मोड़ते नजर आते हैं। हमारे समाज में इस तरह का जो कुछ भी घटित हो रहा है, जो युवा पीढ़ी को बरगलाती है, इतिहास के क्रूर पन्ने को छिपाती है, उसको दिखाने का अधिकार संविधान भारत के हर नागरिक को देता है। दिखाने की क्या सीमा हो उसको केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड तय करता है। संसद से पारित चलचित्र अधिनियम में सबकुछ स्पष्ट लिखा है कि किस तरह की फिल्मों का सार्वजनिक प्रदर्शन किया जा सकता है और किसका नहीं। संविधान बचाने की बात करनेवाले दल और नेता जब संविधान के अंतर्गत निर्मित संस्था के निर्णयों के विरुद्ध जाकर राजनीति करते हैं तो ऐसा लगता है कि संविधान बचाने की बात सिर्फ राजनीति है। उनकी आस्था संवैधानिक संस्थाओं में नहीं है। संविधान सभी नागरिकों को विरोध करने का अधिकार देता है लेकिन यह भी बताता है कि विरोध किसी की अभिव्यक्ति की स्वाधीनता को बाधित न करे। फिल्मों पर राजनीति बंद होने चाहिए। फिल्मों के कंटेंट पर बात होनी चाहिए, उनके ट्रीटमेंट के तरीके पर बात होनी चाहिए। उसके पक्ष-विपक्ष में लिखा जाना चाहिए लेकिन सिरे से किसी भी प्रमाणित फिल्म के प्रसारण को रोकने की मांग अनुचित है। अभिव्यक्ति की स्वाधीनता का चुनिंदा होना खतरनाक है।