कभी उपन्यास सम्राट प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है। इस समय लोकसभा चुनाव की सरगर्मी है। पांच दिनों बाद लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान होगा लेकिन राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल कहीं दिखाई नहीं दे रही है। ऐसा क्या हुआ कि राजनीति के आगे चलनेवाला साहित्य गौण हो गया और राजनीति प्रमुख हो गई। क्या राजनीति ने साहित्य और साहित्यकारों को महत्व देना बंद कर दिया, या राजनीति के आगे साहित्य की मशाल थाम कर चलनेवाला कद्दावर साहित्यकार समकालीन साहित्य जगत में कोई बचा ही नहीं। स्वाधीनता के बाद कई ऐसे साहित्यकार हुए जो राजनीति में भी गए। कई साहित्यकार तो संसद और विधानसभाओं में भी पहुंचे। वो किसी मुद्दे पर जब बोलते या लिखते थे तो पूरा देश उनको सुनता था और उनके कहे का एक सम्मान होता था। संविधान लागू होने के 15 वर्षों बाद जब हिंदी के राजभाषा के दर्जा को लेकर राजनीति होने लगी तो संसद में साहित्य जगत के प्रतिनिधि के तौर पर नामित साहित्यकारों ने अपने विचारों से सरकार और समाज दोनों को प्रभावित किया था। दिनकर ने राज्यसभा में अपने भाषण में लालबहादुर शास्त्री के एक वक्तव्य पर कटाक्ष किया था। लाल बहादुर शास्त्री ने एक वक्तव्य कहा था कि ‘हम अंग्रेजी को अनिश्चित काल के लिए जीवन-दान दे रहे हैं, अनंत काल के लिए नहीं।‘ तब दिनकर ने शास्त्री को घेरते हुए कहा था कि ‘जिस प्रकार सरकार इस बारे में कार्य करती है, उससे मुझे भय होता है कि वह ‘कल-कल’ की बात अनंत काल तक बढ़ जाएगी।‘ 1962 में जब चीन ने भारत पर हमला किया था तब भी साहित्यकारों ने नेहरू जी को घेरा था। उनके निर्णयों की जमकर आलोचना की थी। इमरजेंसी के दौर में कई साहित्यकार जेल गए। इंदिरा गांधी का विरोध किया। कविताएं लिखीं, लेख लिखे। कई बार किसानों और गरीबों की समस्याओं पर लिखा। कहना न होगा कि साहित्यकारों ने समाज और राष्ट्र के प्रति अपनी भूमिका को समझते हुए अपनी आवाज से लोकतंत्र को बल दिया था।
लेखक-साहित्यकार स्वयं को अपनी ईमानदारी और नैतिकता से स्थापित करता है। इमरजेंसी के बाद से ही साहित्य और साहित्यकारों की ईमानदारी कठघरे में आ गई थी। इमरजेंसी के दौर में कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े कुछ लेखकों ने इंदिरा गांधी और इमरजेंसी का समर्थन किया था। उसके बाद लेखक संगठनों ने भी काफी गड़बड़ियां की जिससे जनता के बीच साहित्यकारों की छवि एक दल विशेष के कार्यकर्ता की बनती चली गई। विचारधारा विशेष की जकड़न में साहित्यकारों ने सच कहना बंद कर दिया। पार्टी और लेखक संघों से संबद्ध लेखक पार्टी और संघ की लाइन पर चलते दिखने लगे। उनके विचारों से वस्तुनिष्ठता कम होने लगी। लंबे अंतराल तक ऐसा चलने का परिणाम यह हुआ कि उनकी विश्वसनीयता छीजने लगी। 2015 में जब कुछ साहित्यकारों ने मोदी सरकार के विरुद्ध असहिष्णुता का आरोप लगाकर पुरस्कार वापसी का प्रपंच रचा तो शोर-शराबा तो बहुत हुआ, पर उसका प्रभाव जनमानस पर कम पड़ा। बाद में ये बात भी स्पष्ट हो गई कि बिहार विधानसभा चुनाव को प्रभावित करने के लिए कुछ लेखकों ने नेताओं के साथ मिलकर पुरस्कार वापसी का अभियान चलाया था। इस प्रसंग ने भी साहित्यकारों की विश्वसनीयता को नुकसान पहुंचाया। यह बात सार्वजनिक हो गई कि भारतीय जनता पार्टी और मोदी विरोध में पुरस्कार वापसी का अभियान चला था। कुछ लेखक और कलाकार राजनीति के टूल बन गए थे। 2019 के लोकसभा चुनाव के पहले भी विचारधारा विशेष के इन्हीं लेखकों ने मोदी सरकार के विरुद्ध एक हस्ताक्षर अभियान चलाकर माहौल बनाने का प्रयास किया था। प्रभाव शून्य रहा था। यह अनायास नहीं है कि इस समय अधिकतर लेखक खामोश हैं या उनकी सर्जनात्मकता वो प्रभावोत्पादकता पैदा नहीं कर पा रही जो राजनीति के आगे मशाल बनकर चल सके।
इसका एक दूसरा पहलू भी है। जब प्रेमचंद ने कहा था कि साहित्य राजनीति के आगे चलनेवाली मशाल है तब अपने उसी वक्तव्य में उन्होंने एक और बात कही थी। प्रेमचंद ने साहित्य को परिभाषित करते हुए कहा था कि साहित्य मन का संस्कार करता है। मन के संस्कार की बात तो दूर तथाकथित प्रगतिशील विचारधारा के साहित्यकारों ने व्यवहार को संस्कारित करने का कार्य करना भी बंद कर दिया। भारतीय संस्कारों को आगे बढ़ाने और समाज के बीच उन संस्कारों को गाढ़ा करने के बजाय विदेशी संस्कृति के संस्कारों को भारतीय पाठकों पर थोपने का कार्य किया था। विदेशी संस्कृति के रंग को गाढ़ा करने के लिए उन्होंने भारत और भारतीयता से जुड़े साहित्य और साहित्यकारों को नीचा दिखाना आरंभ कर दिया। जब उनकी ही विचारधारा के लेखक रामविलास शर्मा ने ऋगवेद पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह और उनकी मंडली ने उनको हिंदूवादी कहकर उपहास किया था। जब विद्यानिवास मिश्र जैसे लेखकों ने सनातन परंपराओं और पौराणिक ग्रंथों पर लिखना आरंभ किया तो नामवर सिंह ने उनको विद्याविनाश कहकर उनको अपमानित किया था। कुबेरनाथ राय जैसे निबंधकार को प्रगतिशीलों ने न केवल दरकिनार किया बल्कि लंबे समय तक उनके लेखन पर चर्चा ही नहीं की। भला हो साहित्य अकादमी और राष्ट्रीय पुस्तक न्यास का कि इन दोनों संस्थाओ ने कुबेरनाथ राय की रचनाओँ का संचयन प्रकाशित किया। नरेन्द्र कोहली से लेकर कमलकिशोर गोयनका तक ऐसे कितने ही लेखक हैं जिनको इस विचारधारा के पोषकों ने अपमानित किया।
इन सबका परिणाम यह हुआ कि कम्युनिस्ट पार्टी या विचारधारा से संबद्ध लेखकों की साख समाप्त होती चली गई । आज हालत ये है कि हिंदी में कोई सार्वजनिक बुद्धीजीवी बचा ही नहीं। अशोक वाजपेयी गाहे बगाहे पब्लिक इंटलैक्टुअल की पोजिशनिंग करने का प्रयत्न करते हैं। लेकिन उनके पास इस पोजिशनिंग के लिए कुछ खास औजार नहीं बचे हैं। बार-बार असहिष्णुता और लोकतंत्र के सिकुड़न का राग अलापते हैं। कांग्रेस पार्टी से उनकी निकटता और उसके प्रदर्शन के कारण उनकी मनचाही छवि बन नहीं पाती। पहले अर्जुन सिंह से निकटता और अब राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा में हिस्सा लेकर उन्होंने रही सही साख भी खो दी है। पहले अज्ञेय को बूढ़ा गिद्ध कहते हैं और बाद में अज्ञेय की प्रशंसा करते हैं। लेखकों की खामोशी का एक दूसरा पक्ष भी है। वह पक्ष है कि पिछले 10 वर्षों में नरेन्द्र मोदी सरकार ने साहित्य और शिक्षा को समृद्ध करने के लिए प्रशंसनीय प्रयास किया। साहित्य अकादमी ने अपने आयोजनों में विचारधारा को आधार बनाए बिना लेखकों को जुटाकर विश्वस्तरीय आयोजन किए। शिमला और भोपाल में उन्मेष नाम के कार्यक्रम में साहित्य अकादमी ने मोदी के विचार सबका साथ, सबका विकास, सबका प्रयास और सबका विश्वास को साकार किया। एक जमाना था जब साहित्य अकादमी में वामपंथियों का दबदबा था और दूसरे विचार के साहित्यकार अघोषित प्रतिबंध का सामना करते थे। पिछले दस वर्षों में साहित्य अकादमी में सभी विचारों के लेखकों का प्रवेश संभव हुआ। सिर्फ इन दो कार्यक्रमों में ही नहीं बल्कि हाल ही समाप्त हुए साहित्योत्सव में भी संस्थान का समावेशी चरित्र गाढ़ा हुआ। ऐसे माहौल में वामपंथ से संबद्ध लेखकों को कहने के लिए कुछ बचा नहीं। इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र को भी अभिजात्य से मुक्ति मिली और वह भी एक समावेशी संस्था के रूप में स्थपित हुआ। दस वर्ष पहले वहां भी भारत और भारतीयता को लेकर जो उपेक्षा भाव था वो खत्म हुआ, बिना किसी के प्रति नकारात्मक हुए। इसके अलावा 2020 में घोषित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भारतीय भाषाओं महत्व दिया गया। इसके कारण भारतीय भाषा भाषियों के बीच हिंदी को लेकर वैमनस्यता का भाव लगभग खत्म हो गया। साहित्य को राजनीति के आगे मशाल लेकर चलने की आवश्यकता आज भी है लेकिन उसके लिए विचार का साथ चाहिए विचारधारा की नहीं।
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