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Friday, May 3, 2024

फिल्म फेस्टिवल की रोचक कथा


कोरोना महामारी के दौरान फिल्मों के भविष्य को लेकर खूब चर्चा हुई। फिल्म के कई विशेषज्ञों ने सिनेमा हाल में फिल्मों के प्रदर्शन के अंत की आशंका भी जताई थी। इस तरह की तमाम आशंकाएं गलत साबित हुईं और भारतीय फिल्में न केवल पहले की तरह लोकप्रिय हुईं बल्कि पूरे देश में फिल्म संस्कृति और गाढ़ी हुई। फिल्मों की संस्कृति को मजबूत करने में फिल्म फेस्टिवल्स का बड़ा योगदान रहा है। दिल्ली में कई फिल्म फेस्टिवल्स होते रहे हैं। विश्व का सबसे बड़ा घुमंतू फिल्म फेस्टिवल का आयोजन पिछले ग्यारह वर्षों से दैनिक जागरण करता रहा है। जागरण फिल्म फेस्टिवल का आरंभ दिल्ली से होता है और देश के 18 शहरों में आयोजित होता है। दिल्ली में ओशियान फिल्म फेस्टिवल भी होता था। बीते कल (शुक्रवार) से दिल्ली में हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल का आरंभ हुआ है। गोवा में आयोजित होनेवाला इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल आफ इंडिया (इफी) की शुरुआत मुंबई में हुई थी लेकिन उसी वर्ष दिल्ली में भी इसका आयोजन किया गया था। तब इस फेस्टिवल का आयोजन भारत सरकार के फिल्म प्रभाग ने किया था। दिल्ली में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल शुरु होने की भी एक दिलचस्प कहानी है। जब देश स्वाधीन हुआ तो उसके करीब एक वर्ष बाद 1948 में भारत सरकार ने फिल्म प्रभाग की स्थापना की थी। तब इसका काम भारत सरकार से जुड़े कार्यों के बारे में जनता को बताना था। महेन्द्र मिश्र ने अपनी पुस्तक ‘भारतीय सिनेमा’ में लिखा है, ‘सूचना और प्रसारण मंत्रालय के अंतर्गत फिल्म्स डिवीजन की स्थापना 1948 में हुई। फिल्म्स डिवीजन उस समय शायद दुनिया का सबसे बड़ा उत्पादक केंद्र था जिसमें समाचार और अन्य राष्ट्रीय विषयों पर वृत्तचित्र बनाए जाते थे। ये वृत्तचित्र, समाचार चित्र और लघु फिल्में पूरे देश में प्रदर्शन के लिए बनती थीं। प्रत्येक फिल्म की नौ हजार प्रतियां बनती थीं जिनकी संख्या कभी कभी चालीस हजार तक पहुंच जाती थीं। ये भारत की तेरह प्रमुख भाषाओं और अंग्रेजी में पूरे देश में सभी सिनेमाहॉलों में मुफ्त प्रदर्शित की जाती थीं। समाचार चित्रों और लघु फिल्मों एवं वृत्तचित्रों का परोक्ष रूप से दर्शकों पर व्यापक प्रभाव पड़ा जिसने उनकी रुचि बदलने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।‘ 

फिल्म प्रभाग के चीफ प्रोड्यूसर थे मोहन भवनानी। वो दिल्ली में ही सूचना और प्रसारण मंत्रालय के कार्यालय में बैठते थे। मोहन भवनानी जून 1951 में फिल्म विशेषज्ञों के एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए पेरिस गए थे। ये कार्यक्रम यूनेस्को ने आयोजित किया था। उस कार्यक्रम में फिल्म फेस्टिवल के आयोजनों और उसके प्रभाव पर जमकर चर्चा हुई थी। वहां से लौटकर मोहन भवनानी ने भारत सरकार को फिल्म फेस्टिवल के आयोजन संबंधी एक प्रस्ताव दिया। उनके इस प्रस्ताव को भारत सरकार ने स्वीकार कर लिया। उस समय तय ये किया गया था कि फिल्म फेस्टिवल का आयोजन देश के चार शहरों- बांबे (अब मुंबई), दिल्ली, कलकत्ता (अब कोलकाता) और मद्रास (अब चेन्नई) में करवाने का निर्णय हुआ। तय ये किया गया कि इनमें देशी विदेशी दोनों फिल्में दिखाई जाएंगी। दिल्ली में इस आयोजन को लेकर काफी तैयारियां की गई थीं। फिल्मी सितारों ने नईदिल्ली इलाके में रोडशो किया था। सितारों को देखने के लिए दिल्ली की सड़कों पर भारी भीड़ उमड़ी थी। कहीं-कहीं इस बात का उल्लेख मिलता है कि राजकपूर और नरगिस के अलावा भी कुछ कलाकारों ने दिल्ली में आयोजित प्रथम इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल में भाग लिया था। दिल्ली में उस समय सिनेमाघरों की संख्या कम थी इस कारण कई जगहों पर अस्थायी टेंट लगाकर सिनेमाघर बनाए गए थे और प्रोजोक्टर पर फिल्में दिखाई गई थीं। दिल्ली में चार हजार दर्शकों के लिए अस्थायी सिनेमाघर तैयार किए गए थे। 21 फरवरी 1952 को तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल का शुभारंभ किया था। इस समारोह में भाग लेनेवाले कलाकारों के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति डा राजेन्द्र प्रसाद ने राष्ट्रपति भवन में विशेष भोज का आयोजन किया था और बताया जाता है कि राजेन्द्र बाबू पूरे समय उपस्थित रहे थे। उन्होंने दुनियाभऱ में फिल्मों के ट्रेंड के बारे में कलाकारों से बातचीत की थी। इस रात्रिभोज में उस समय के सूचना और प्रसारण मंत्री आर आर दिवाकर भी उपस्थित थे।

दिल्ली में आयोजित फिल्म फेस्टिवल में अमेरिका, इटली, फ्रांस और रूस समेत 23 देशों के फिल्मकारों ने भाग लिया था। अमेरिका के प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व मशहूर निर्देशक फ्रैंक कैपरा ने किया था। इसमें 40 फीचर फिल्में और करीब 100 गैर फीचर फिल्में प्रदर्शित की गई थीं। दिल्ली के दर्शकों ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स, मिरेकल इन मिलान और ओपन सिटी को खूब पसंद किया था। इस फिल्म फेस्टिवल में ही जापान के प्रख्यात फिल्म निर्देशक अकीरा कुरोसावा की फिल्म राशोमन भी दिखाई गई थी। कहा जाता है कि पहले फिल्म फेस्टिवल में ही बिमल राय ने इटली की फिल्म बायसकिल थीब्स देखने के बाद ही उनके मन में दो बीघा जमीन बनाने का आयडिया आया। कहा तो ये भी जाता है कि इस फिल्म ने ही भारतीय फिल्मकारों को यथार्थवादी फिल्में बनाने के लिए प्रेरित किया। 

1952 में आयोजित फिल्म फेस्टिवल के बाद अपने देश में विदेशी फिल्मों को लेकर रुचि जाग्रत हुई। कई अन्य देशों के फिल्मों से परिचय होना आरंभ हुआ। अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल की उस समय काफी चर्चा हुई थी, प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू भी दिल्ली के आयोजन में उपस्थित थे। बावजूद इसके दूसरे आयोजन में नौ वर्ष लगे और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण 1961 में आयोजित हो सका। फिल्म फेस्टिवल का दूसरा संस्करण नईदिल्ली के विज्ञान भवन में आयोजित किया था। चार वर्षों के बाद फिर फेस्टिवल का आयोजन हुआ। फिर चार वर्षों के अंतराल पर दिल्ली के अशोक होटल में इसका आयोजन हुआ। इसके बाद फिल्म फेस्टिवल का आयोजन तीन चार वर्षों के अंतराल पर होता रहा। 1983 में अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल का आयोजन दिल्ली के सीरीफोर्ट आडिटोरियम में हुआ था।  फिल्म फेस्टिवल देश के अलग अलग शहरों में हो रहा था। लंबे अंतराल के बाद दिल्ली में होता था तो दर्शकों के बीच काफी उत्सुकता रहती थी। दिल्ली में भारतीय अंतराष्ट्रीय फिल्म महोत्सव का 34वां संस्करण अक्तूबर 2003 में आयोजित किया गया था। इसके बाद से केंद्र सरकार ने निर्णय लिया और अंतराष्ट्रीय फिल्म फेस्टिवल को प्रतिवर्ष गोवा में आयोजित किया जाएगा। तब से गोवा में आयोजित हो रहा है। दिल्ली में जागरण फिल्म फेस्टिवल, हैबिटैट फिल्म फेस्टिवल और आईआईसी फिल्म फेस्टिवल का आयोजन होता है जिसमें दर्शकों को क्षेत्रीय और विदेशी फिल्में देखना का अवसर मिल जाता है।   

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