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Saturday, July 27, 2024

मानवीय संबंधों-मूल्यों का कोलाज


आज से बासठ वर्ष पहले एक फिल्म आई थी, साहिब, बीबी और गुलाम। विमल मित्र के उपन्यास पर आधारित इस फिल्म को गुरुदत्त ने बनाया था। जब ये फिल्म प्रदर्शित हुई थी तो इसको अपेक्षित सफलता नहीं मिली थी। दर्शकों ने बहुत पसंद नहीं किया लेकिन समीक्षकों ने इस फिल्म की बहुत प्रशंसा की थी। इसको समय से आगे की फिल्म बताया गया था । बहुत हद तक यह बात सही भी है। गुरुदत्त ने इस फिल्म में ‘छोटी बहू’ के चरित्र के माध्यम से स्त्री के सेक्सुअल डिजायर को पर्दे पर चित्रित किया था। आज से छह दशक पहले इस तरह के विषयों को फिल्मी पर्दे पर उतारने की बात सोच पाना भी मुश्किल था। गुरुदत्त ने सोचा भी और किया भी। छोटी बहू के रूप में मीना कुमारी ने जब शादी करके जमींदार चौधरी के परिवार में हवेली में प्रवेश करती है तो उसकी पहचान बदल जाती है। उसका नाम हवेली की देहरी के बाहर रह जाता है और वो बन जाती है छोटी बहू। जिससे ये अपेक्षा की जाती है कि वो जमींदार चौधरी खानदान की स्त्रियों की तरह हवेली की चौखट के अंदर ही रहे। वो रहती भी है। परिवार और विवाह को निभाने के लिए सारे जतन करती है। पति पर पूरा भरोसा करती है लेकिन उसका जमींदार पति कहता है कि चौधरियों की काम वासना को उनकी पत्नियां कभी तृप्त नहीं कर सकती हैं। यह सुनकर छोटी बहू के अंदर कुछ दरकता है। वो पति का ध्यान आकृष्ट करने के लिए तमाम तरह के जतन करती है। स्त्री यौनिकता के बारे में भी पति से खुल कर बात करती है जिसमें उसकी स्वयं की संतुष्टि की अपेक्षा भी शामिल है। इन दृष्यों को साहब बीबी और गुलाम में जिस संवेदनशीलता के साथ फिल्माया गया है उसको रेखांकित किया जाना चाहिए। पहले भी कुछ लोगों ने इसपर चर्चा की होगी। 

इस तरह के विषय आज सामान्य लग सकते हैं। लेकिन 1962 की फिल्म में नायिका के संवाद में आता है कि मर्दानगी की डींगे हांकने के बावजूद छोटे बाबू नपुंसक हैं। इस संवाद और दृष्य को उस समय के दर्शक पचा नहीं पाते। उनको झटका लगा था। आज ये सामान्य बात है। मिर्जापुर वेबसरीजीज में भी नायिका और उसके पति के बीच इस तरह के संवाद है। जिसका नोटिस भी नहीं लिया जाता। अभिनेता पंकज त्रिपाठी जिसने अखंडानंद त्रिपाठी का अभिनय किया है और उसकी पत्नी बीना त्रिपाठी की भूमिका निभाने वाली रसिका दुग्गल के बीच भी कुछ दृश्यों में साहिब बीबी और गुलाम के छोटे बाबू और छोटी बहू जैसा संवाद है। यहां भी स्त्री कामोत्तजना से लेकर कामोद्वेग तक के दृष्य हैं लेकिन अब दर्शकों को झटका नहीं लगता है। दर्शक इन दृष्यों को और संवाद को सहजता के साथ लेता है। समाज बदल गया है। दर्शकों की मानसिकता बदल गई है। स्त्री यौनिकता पर समाज में खुलककर बात होने लगी है। जब गुरुद्दत ने ये सोचा था तब भारतीय समाज इस विषय पर सार्वजनिक रूप से चर्चा करने को तैयार नहीं था। विमल मित्र ने तो फिल्म के प्रदर्शन से वर्षों पहले अपने उपन्यास में ये सब लिख दिया था। माना जाता है कि साहित्य में जो विषय पहले आते हैं वो फिल्मों में बाद में आते हैं। उस समय का भारतीय समाज ऐसा था कि वो विवाह से बाहर के संबंध भी पर्दे पर देखना नहीं चाहता था। कम से कम साहब बीबी और गुलाम में तो ऐसा ही प्रतीत हुआ था। 

गुरुदत्त की फिल्में जब रिलीज होती थीं तो वो दर्शकों की प्रतिक्रिया जानने के लिए बेहद उत्सुक रहते थे। साहिब बीबी और गुलाम जब प्रदर्शित हुई तो उन्होंने अपने मित्र राज खोसला को फिल्म देखने के लिए भेजा। राज खोसला बांबे (अब मुंबई) के मिनर्वा सिनेमा में दोपहर का शो देखने के लिए पहुंचते हैं। दर्शकों की मिली-जुली प्रतिक्रिया होती है। फिल्म के उत्तरार्ध के एक दृश्य में गुरुदत्त अभिनीत पात्र भूतनाथ और छोटी बहू मीना कुमारी बग्घी में जा रही होती हैं। अचानक छोटी बहू अपना सर भूतनाथ की गोद में रख देती है। इस सीन पर दर्शकों की प्रतिक्रिया अच्छी नहीं होती। अगले दिन गुरुद्दत स्वयं फिल्म देखने पहुंचते हैं। उस दिन भी जब ये दृश्य पर्दे पर आता है तो दर्शक अपनी नाराजगी प्रकट कर देते हैं। सिनेमा हाल में बैठे- बैठे ही गुरुदत्त ये निर्णय लेते हैं कि इस दृष्य को फिल्म से हटाकर दूसरा दृष्य पिरोना है। वहीं से वो मीना कुमारी को फोन करके अगले दिन शूटिंग के लिए आने का आग्रह करते हैं। अगले दिन नया शूट होता है और फिल्म के सभी प्रिंट में उसको जोड़ा जाता है। इस बारे में गुरुदत्त ने 1963 में सेल्यूलाइड पत्रिका में लिखे अपने लेख कैश एंड क्लासिक्स में लिखा- विमल मित्र के उपन्यास पर साहिब, बीबी और गुलाम नाम से फिल्म बनाने को फिल्म समीक्षकों ने उचित तरीके से नहीं लिया। धर्म कर्म में आस्था रखनेवाली घरेलू महिला का अपने पति का दिल जीतने के लिए शराब पिते दिखाना बेहद जोखिम भरा निर्णय था। मेरे इस फैसले का प्रेस ने स्वागत किया था। दर्शकों की प्रतिक्रिया भी उत्साहवर्धक रही। इस फिल्म के प्रदर्शन पर बंबई के दर्शकों में केवल दो सीन को लेकर गुस्सा दिखा। पहला जब छोटी बहू आकर्षण में आकर अपना सर भूतनाथ की गोद में रख देती है और दूसरा सीन वो जिसमें वो अपने पति से कहती है कि मुझे शराब का घूंट पीने दो केवल अंतिम बार। मैंने छोड़ने का निश्चय किया है, पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया है। हमने दोनों सीन फिल्म से निकाल दिए।

साहिब बीबी और गुलाम एक असाधारण फिल्म है। इसका निर्देशन भले ही अबरार अल्वी ने किया है लेकिन इस पूरी फिल्म पर गुरुदत्त की छाप स्पष्ट रूप से दिखाई देती है। असाधारण फिल्म असाधारण घटनाओं से बनती है। ये इस कारण कह रहा हूं कि इस फिल्म को लेकर गुरुदत्त की योजनाएं कुछ और थीं लेकिन नियति कुछ और ही मंजूर था। गुरुदत्त चाहते थे कि भूतनाथ की भूमिका शशि कपूर करें लेकिन वो संभव नहीं हो पाया। इस भूमिका के लिए विश्वजीत को भी संपर्क किया गया था पर वो भी नहीं आए। अंत में उन्होंने खुद ये भूमिका निभाई। इसी तरह से छोटी बहू को लेकर कई नायिकाओं के नाम पर विचार करने के बाद मीना कुमारी तय हुईं। इस भूमिका के लिए नर्गिस से भी गुरुदत्त ने संपर्क किया था। उन्होंने मना कर दिया। तब ये चर्चा हुई थी कि गुरुदत्त और सुनील दत्त के संबंघ ठीक नहीं होने के कारण नर्गिस ने इंकार किया। गुरुदत्त ने इस फिल्म के लिए लंदन में रह रहे अपने सिनेमेटोग्राफर मित्र जितेन्द्र आर्य की पत्नी छाया को तैयार कर लिया। वो लोग लंदन से मुंबई शिफ्ट भी हो गए। गुरुदत्त के सामने जब छोटी बहू के गेटअप में छाया की तस्वीरें आईं तो वो निराश हो गए और उनको मना कर दिया। इतना ही नहीं गुरुदत्त इस फिल्म का संगीत निर्देशन एस डी बर्मन से करवाना चाहते थे लेकिन वो अपनी बीमारी के कारण कर नहीं सके तो हेमंत कुमार को लिया गया। साहिर ने मना कर दिया तो शकील बदायूंनी से गीत लिखवाए गए। सिर्फ जब्बा की भूमिका के लिए वहीदा रहमान पहले दिन से तय थीं। जो टीम बनी उसने एक ऐसी फिल्म दी जो आज पूरी दुनिया में फिल्म निर्माण कला के लिए न सिर्फ देखी जाती है बल्कि छात्रों को दिखाकर फिल्म निर्माण की बारीकियां बताई भी जाती हैं। गुरुदत्त का छोटा जीवन मिला लेकिन उनकी दो फिल्में प्यासा और साहिब बीबी और गुलाम ने उनको अमर कर दिया। उनकी शैली को देखकर लोग कहा करते थे कि वो पर्दे पर कविता लिखते हैं।  


Saturday, July 20, 2024

हिंदू-मुसलमान के चक्रव्यूह में शासनादेश


उत्तर प्रदेश सरकार के एक आदेश की इन दिनों बहुत चर्चा है। कई विपक्षी दल और बयान बहादुर किस्म के नेता इस आदेश को समाज को बांटनेवाला बता रहे हैं। आदेश ये है कि कांवड़ यात्रियों के मार्ग में पड़नेवाले सभी दुकानों, ढाबों और ठेलों पर दुकान मालिक का नाम, रेट लिस्ट और दुकान मालिक का मोबाइल नंबर लिखना अनिवार्य कर दिया गया है। यह आदेश समान रूप से सभी दुकानों के लिए है। किसी जाति और मजहब के दुकानदारों के लिए नहीं। इस आदेश के बाद तथाकथित सेक्युलर ब्रिगेड को लगने लगा कि ये मुसलमानों को चिन्हित करने के लिए किया जा रहा है। जमीयत उलमा-ए-हिंद ने भी एक बयान जारी कर सरकार से इस फैसले को वापस लेने की मांग की है। जमीयत उलमा-ए-हिंद के अध्यक्ष मौलाना महमूद असद मदनी ने इस निर्णय को अनुचित, पूर्वाग्रह पर आधारित और भेदभावपूर्ण बताया है। उन्होंने अपने बयान में आगे ये भी कहा कि ये फैसला मुसलमानों को दोयम दर्जे का नागरिक बनाने की घिनौनी साजिश है। अपने बयान में मदनी ने सभी धर्म के लोगों से अपील की है कि वो एकजुट होकर इसके विरुद्ध आवाज उठाएं। अब जरा निर्णय की बात कर ली जाए। खानपान व्यवसाय के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने 2006 में एक नियम बनाया था। उसको खाद्य सुरक्षा और मानक अधिनियम कहा गया। इस अधिनियम के अनुसार प्रत्येक रेस्तरां या ढाबा संचालक को अपनी फर्म का नाम, अपना नाम और लाइसेंस संख्या लिखना अनिवार्य है। ग्राहक जागो अभियान के अंतर्गत भी इस बात की अनिवार्यता की गई थी कि हर प्रतिष्ठान पर उसके मालिक का नाम, पंजीयन संख्या और वहां की सेवाओं या वस्तुओं का रेट कार्ड लगाया जाएगा। तब किसी भी कोने अंतरे से इसके विरोध की आवाज नहीं आई थी। कारण कि तब तथाकथित सेक्यूलरों की सरकार थी। अब योगी आदित्यनाथ की सरकार है तो उनको घेरने के लिए इसका एक राजनीतिक औजार की तरह उपयोग हो रहा है। पुराने कानून को लागू करने से कैसे समाज में हिंदू-मुसलमान विभेद उत्पन्न हो जाएगा, ये समझ से परे है। 

स्वाधीनता के 75 वर्षों बाद भी अगर समाज में हिंदू और मुसलमान के बीच सिर्फ नाम जानने के बाद विभेद पैदा हो रहा है तो इस बात पर विचार किया जाना चाहिए कि हमने कैसा समाज बनाया। गंगा-जमुनी संस्कृति को नारे की तरह उपयोग करनेवालों को ये सोचना चाहिए कि इस कथित गंगा-जमुनी संस्कृति की नींव कितनी कमजोर थी जो सिर्फ नाम जान लेने से दरक जा रही है। नाम उजागर करने से मुसलमान चिन्हित कैसे हो जाएंगे। जमीयत के नेता इसको घिनौनी साजिश बता रहे हैं, लेकिन कैसे, ये नहीं बता पा रहे हैं। जहां तक नाम के सार्वजनिक करने का प्रश्न है तो नाम तो हर जगह सार्वजनिक होता है। किसी जिलाधिकारी के कमरे में जाइए तो उसकी मेज पर उसकी नाम पट्टिका रखी होती है। यहां तक कि प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति की भी नेमप्लेट, जहां आवश्यक होता है, वहां लगाई जाती है। हर पुलिस आफिसर और सैनिक की वर्दी पर उसका नाम लगा होता है। नाम जान लेने से समाज के बंटने का तर्क बेहद सतही है। समाज को इस बात पर चिंता करनी चाहिए कि कुछ लोग हर बात को हिंदू-मुसलमान के चश्मे से देखने लगते हैं। 

शास्त्रीय संगीत की बात करें। क्या कभी भी उस्ताद बिस्मिल्ला खां की शहनाई को इस कारण से सुनना बंद किया कि वो मुसलमान हैं। किसी ने उस्ताद अल्लारखा खान से लेकर उस्ताद अलाउद्दीन खान, बड़े गुलाम अली खां, विलायत खां, बेगम अख्तर, रसूलन बाई जैसे दिग्गज कलाकारों के सम्मान में कोई कमी की। सबके नाम सार्वजनिक थे हैं और सभी कलाकार समान रूप से हिंदुओं को भी पसंद हैं। नाम को लेकर जो फिजूल की बातें हो रही हैं वो विरोध करनेवालों की मानसिकता को ही दर्शाते हैं। सवाल मुसलमान नाम का नहीं है मानसिकता का है, राजनीति का है। जिन मुस्लिम कलाकारों ने अपना नाम बदलकर हिंदू नाम रख लिए उनको भी हमारे देश की जनता ने इतना सम्मान और प्यार दिया जिसका हिसाब नहीं लगाया जा सकता है। आज भी जब सिनेमा के दमदार कलाकारों की बात होती है तो दिलीप कुमार का नाम लिया जाता है। युसूफ खान जब फिल्मों में आए तो दिलीप कुमार बन गए। लोगों को इस बात का पता भी चला लेकिन उनकी लोकप्रियता में किसी प्रकार की कमी नहीं आई। इसी तरह जब हमारे देश के दर्शकों को पता चला कि अभिनेत्री मीना कुमारी का नाम महजबीन बानो है तब भी कोई अंतर नहीं आया। मधुबाला भी मुमताज जहां बेगम देहलवी थीं लेकिन आज भी हिंदी फिल्मों की सबसे सुंदर अभिनेत्री के तौर पर समादृत है। इन सबके प्रशंसक हैं, न हिंदू न मुसलमान। दर्जनभर से अधिक मुसलमान अभिनेता और अभिनेत्रियों ने अपना नाम बदलकर हिंदू नाम रख लिया था। देश की जनता को पता भी चला लेकिन किसी को कुछ फर्क नहीं पड़ा। इसी तरह से शाहरुख खान या सलमान खान अपने मुस्लिम नाम और पहचान के साथ ही फिल्मों में आए लेकिन उनके नाम से न तो फिल्म हिट हुई न ही उनके नाम और मजहब को देखकर दर्शक फिल्म देखने गए। यहां तक कि 2002 के गुजरात के सांप्रदायिक दंगों के बाद आमिर खान एक पार्टी विशेष के एजेंडा को बढ़ाने के लिए एक्टिविस्ट बन गए थे लेकिन जनता ने न तो उनकी राजनीति देखी और न ही उनका नाम। देखा तो सिर्फ उनका काम। आज भी फैज से लेकर मीर तक की शायरी भारत में लोगों की जुबान पर है। तो फिर कैसी बात करते हैं कि दुकान पर मुस्लिम नाम लिखे होने के कारण हिंदू वहां नहीं जाएंगे। या दुकानों पर नाम लिखने का नियम लागू होने से मुसलमान इस देश में दोयम दर्ज के नागरिक हो जाएंगे।

जब भी हमारे देश में इस तरह की बातें होती है तो लगता है कि जो लोग धर्मनिरपेक्षता के झंडाबरदार होने का दावा करते हैं उनका सोच कितना संकुचित है। जो लोग इस तरह के नियमों से सामाजिक समरसता खत्म होने की बात करते हैं उनको न तो हिंदुओं पर भरोसा है न मुसलमानों पर विश्वास। दरअसल जबसे संविधान की प्रस्तावना में पंथनिरपेक्ष शब्द को अवैध तरीके से जोड़ा गया तब से ही सायास इस तरह का वातावरण बनाया गया जिससे हिंदुओं और मुसलमानों के बीच वैमनस्यता बढ़े। पिछले दस वर्षों से ये प्रवृत्ति और बढ़ी है। कांग्रेस और उसके इकोसिस्टम को ये लगता है कि मुसलमानों को इस तरह से डराकर ही अपने पाले में ला सकती है। उनका वोट एकमुश्त उनकी पार्टी को मिल सकता है। 2024 के चुनाव में हलांकि कांग्रेस पार्टी को सफलता नहीं मिली लेकिन मुसलमानों को एक वोटबैंक के तौर पर अपने गठबंधन में लाने में सफल रहे। अब उनके सामने इस वोटबैंक को अपने साथ बनाए रखने की चुनौती है। इस चुनौती से निबटने के लिए वो दुकानों पर नाम लिखने के सरकारी आदेश को राजनीति के टूल की तरह उपयोग कर रहे हैं। हिंदू मुसलमान में देश को उलझानेवाली इन कोशिशों से तात्कालिक रूप से वोट मिल सकता है, कहीं कहीं सत्ता भी लेकिन देश कहीं पीछे छूट जाएगा। इसके बारे में समाज को सोचना होगा।  

Saturday, July 13, 2024

हिटलर से बड़ा तानाशाह स्टालिन


लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद से फेसबुक पर हिंदी साहित्य से जुड़े लोगों ने ऐसा स्तरहीन विवाद छेड़ा हुआ है जिससे साहित्य जगत शर्मसार हो रहा है। सतही, व्यक्तिगत और अश्लील टिप्पणियों की भरमार है। लोग एक दूसरे से अपनी खुंदक में किसी भी हद तक जा रहे हैं। हिंदी साहित्य से जुड़े युवा और नवोदित वृद्ध पीढ़ी के अनेक लेखक व्यक्तिगत कुंठा का सार्वजनिक प्रदर्शन करते हुए स्ततरहीन टिप्पणियां कर रहे हैं। इन टिप्पणियों से साहित्य जगत बजबजा रहा है। आभासी दुनिया के इस घटिया वातावरण में जनवादी लेखक संघ (जलेस) से जुड़े संजीव कुमार ने फेसबुक पर बहुत ही चतुराई से एक बहस को आरंभ करने का प्रयास किया। चतुराई इस कारण कि उन्होंने हिटलर और स्टालिन की तुलना करने के लिए एक पुस्तक के अनुदित अंश का हवाला दिया। हिटलर और स्टालिन को लेकर अंतराष्ट्रीय स्तर पर कई बार बहस हो चुकी है और हर बार निष्कर्ष यही निकला था कि दोनों क्रूर तानाशाह थे। परंतु यह माना जाता है कि वैचारिक मुद्दे बीस साल बाद हर पीढ़ी के सामने अपने अपने तरीके से रखे जाने चाहिए। इससे युवाओं के विचारों को प्रभावित करने और उसको गढ़ने में मदद मिलती है। कम्युनिस्ट प्रचारक बहुधा इस प्रविधि का उपयोग करते रहते हैं। अब भी कर रहे हैं। परंतु संजीव की इस बात के लिए प्रशंसा करनी चाहिए कि फेसबुक पर साहित्य को लेकर जिस तरह की गंदगी हो रही है उसमें उन्होंने एक वैचारिक मुद्दा तो उठाया। संजीव कुमार की इस टिप्पणी पर जिस प्रकार की प्रतिक्रिया आ रही है वो भी निराश ही करती है। वामपंथ से जुड़े छोटे और मंझोले लेखकों की उनकी पोस्ट पर टिप्पणियों को पढ़कर लगता है कि वो लहालोट हो रहे हैं 

अब हिटलर और स्टालिन की तुलना पर आते हैं। संजीव ने अनुवाद का अंश लगाने के पहले एक टिप्पणी लिखी- एक ही सांस में हिटलर और स्टालिन दोनों का नाम लेना इन दिनों बहुत आम है। कई उदारपंथी बुद्धिजीवियों ने तो बीच में ठीक-ठाक कोशिश की कि नरेंद्र मोदी के प्रसंग में बार-बार याद किये जाने वाले हिटलर को स्टालिन से रिप्लेस कर दिया जाए। इसे देखते हुए आइजक डाटशर की किताब ‘स्टालिन: अ पोलिटिकल बायोग्राफी’ का एक हिस्सा बहुत दिनों से अनुवाद करके साझा करना चाहता था। टलते-टलते आज संयोग बना है। जो लोग आइजक डाटशर से परिचित न हों, उनके लिए इतना जानना काफी होगा कि वे एक पोलिश मार्क्सवादी थे जो 1932 में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी से निष्कासित हुए। 1939 में इंगलैंड चले गए और फिर आजीवन आत्मारोपित निर्वासन में ही रहे। वे ट्रोट्स्की के मुरीद थे और तीन खण्डों में उन्होंने ट्रोट्स्की की जो जीवनी लिखी है, वह आधुनिक क्लासिक मानी जाती है उससे पहले, 1949 में उन्होंने स्टालिन की जीवनी लिखी जो, जाहिर है, काफ़ी आलोचनात्मक है। यह अंश उसी के आखिरी अध्याय से है। अनुवाद का अंश लंबा है लेकिन संजीव उसके बहाने ये साबित करना चाहते हैं कि हिटलर की क्रूरता विध्वंस के लिए थी जबकि स्टालिन की निर्माण के लिए। अनुवाद में कहा गया है कि हिटलर जिस जर्मनी को छोड़कर गया वो दरिद्र और वहशी था। वहीं स्टालिन के शासनकाल में रूस का विकास हुआ। अब जरा इसकी पड़ताल करनी चाहिए। आगे बढ़ने से पहले ये देख लेते हैं कि हिटलर का कालखंड क्या था और स्टालिन का क्या था। हिटलर 1933-1939 तक सत्ता में रहा। जबकि स्टालिन ने 1924 से 1953 तक सोवियत रूस पर राज किया। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि संजीव स्टालिन के संबंध में एक मार्क्सवादी लेखक का ही उद्धरण दे रहे हैं। 

असली कहानी तो इसी कालखंड में है। स्टालिन और हिटलर में कोई दुश्मनी नहीं थी। बल्कि कहा तो ये जाता है कि हिटलर ने बर्बरता के बहुत से तरीके जोसेफ स्टालिन से सीखे। जब हिटलर जर्मनी का चासंलर बना तबतक स्टालिन ने रूस में अपनी सत्ता की जड़ें काफी मजबूत कर ली थीं। दोनों एक दूसरे से बर्बरता और अधिकनायकवाद सीख रहे थे। अगर होलोकास्ट ब्रिटानिका को देखें तो पता चलता है कि 23 अगस्त 1939 में हिटलर और स्टालिन ने एक समझौता किया। इस समझौते पर जर्मनी और सोवियत रूस के विदेश मंत्रियों ने हस्ताक्षर किए। इस समझौते को हिटलर-स्टालिन समझौता कहा जाता है। हिटलर और स्टालिन के बीच हुए इस समझौते के दो भाग थे। एक भाग जो सार्वजनिक किया गया और दूसरे को गोपनीय रखा गया। जो भाग सार्वजनिक किया गया उसमें समझौता ये था कि दोनों देश एक दूसरे पर आक्रमण नहीं करेंगे। पर खतरनाक वो हिस्सा था जिसको उस समय गोपनीय रखा गया था। गोपनीय हिस्सा था पूर्वी यूरोप में दोनों देशों का दबदबा बनाना और पोलेंड का आपस में बंटवारा करना। ये समझौता दस वर्षों के लिए किया गया था और अगर दोनों में से किसी देश से आपत्ति नहीं आती तो अगले पांच वर्षों तक ये स्वत: बढ़ जाता । समझौते के एक ही सप्ताह बाद जर्मनी ने पोलैंड पर हमला कर दिया। युद्ध चल ही रहा था कि सोवियत रूस ने पूर्वी दिशा से पोलैंड पर हमला कर दिया। फिर दोनों ने गोपनीय समझौते के अनुसार पोलैंड को आपस में बांट लिया। कई इतिहासकार हिटलर को द्वितीय विश्वयुद्ध के लिए जिम्मेदार मानते हैं लेकिन कुछ लोग हिटलर-स्टालिन समझौते को विश्वयुद्ध की जमीन तैयार करनेवाला बताते हैं क्योंकि इस समझौते के बाद ही सोवियत रूस ने फिनलैंड, लातिविया आदि पर कब्जा किया। इससे ये साबित होता है कि स्टालिन और हिटलर में सहमति थी। दोनों ने पूर्वी यूरोप को आपस में बांट लेने पर सहमति जताई थी और उसके लिए समझौता भी किया था। 

अब रही बात देश के निर्माण और विध्वंस की। जर्मनी के विश्वविद्यालयों और विज्ञानियों को खत्म करने की बात होती है और हिटलर को जिम्मेदार बताया जाता है। ये बताते हुए वामपंथी लेखक इस बात को सुविधानुसार तरीके से भुला देते हैं कि हिटलर यहूदियों को समाप्त कर रहा था। उस समय के जर्मनी में शिक्षा, विज्ञान, साहित्य, मनोरंजन के क्षेत्र में यहूदियों का बोलबाला था। हिटलर को यहूदियों को मारना था तो जो उसके सामने आया मारा गया। इससे भी खतरनाक और बर्बर कार्रवाई तो स्टालिन ने की। 1937 में स्टालिन ने द ग्रेट पर्ज की आड़ में अपने राजनीतिक विरोधियों, किसानों का जो नरसंहार किया उसको नहीं भूलना चाहिए। स्टालिन इतने पर ही नहीं रुका था उसने तो जातीय नरसंहार किया जिसमें एक अनुमान के मुताबिक दस लाख से अधिक लोगों का कत्ल किया गया। देश के बाहर निर्वासित जीवन जी रहे लोगों को मरवाया गया। जब भी किसी दो व्यक्ति में तुलना होती है तो उसका पैमाना तय किया जाता है। किसी भी पैमाने पर स्टालिन जर्मन तानाशाह हिटलर से अधिक बर्बर, क्रूर, शातिर और वैश्विक समाज के लिए खतरनाक दिखाई देता है। स्टालिनवादी राजनीति मार्क्सवादियों से अधिक हिंसक है। बार बार इस बात का प्रयास किया जाता है कि हिटलर की तुलना में स्टालिन रचनात्मक दिखे। 25 जून को केंद्र सरकार ने संविधान हत्या दिवस घोषित किया है। उसके बाद से ही ये प्रयास दिखाई देने लगा है कि कैसे आपातकाल को उचित ठहराया जाए। ऐसे तर्क गढ़े जाएं जिससे ये लगे कि इंदिरा गांधी ने परिस्थियों से मजबूर होकर देश पर इमरजेंसी थोपी। 

Saturday, July 6, 2024

रणभूमि बदल गई युद्ध नहीं


पिछले दिनों देहरादून में दैनिक जागरण के ‘हिंदी हैं हम’ अभियान के अंतर्गत अभिव्यक्ति का उत्सव ‘जागरण संवादी’ का आयोजन हुआ। देशभर के लेखकों ने इस आयोजन में हिस्सा लिया था। जागरण संवादी के दूसरे दिन समापन सत्र के बाद रात्रि भोज था। खाना खत्म करने के बाद कुछ लेखक बाहर बैठ गए। साहित्यिक किस्सों का दौर आरंभ हुआ। रोचक संस्मरण का दौर चला तो समय का ध्यान नहीं रहा। साहित्य से होते होते बात फिल्मों तक आ पहुंची। इस चर्चा में ही हाल में ही ओवर द टाप (ओटीटी) प्लेटफार्म नेटफ्लिक्स पर आई फिल्म महाराज की चर्चा आरंभ हो गई। इस फिल्म से प्रभावित एक लेखक मित्र ने इसकी काफी प्रशंसा की। कहने लगे कि बहुत दिनों बाद भारतीय संस्कृति और धर्म से जुड़ी प्रथा और कुरीतियों को लेकर एक फिल्म आई है। इसमें अभिनेता आमिर खान के पुत्र जुनैद खान और जयदीप अहलावत के अभिनय की जमकर प्रशंसा हुई। जोश में उन्होंने इस फिल्म की संक्षिप्त कहानी भी बताई। पता चला कि ये फिल्म चरण पूजा जैसी प्रथा और उसके विरुद्ध एक समाज सुधारक-पत्रकार के संघर्ष की गाथा है। 

पत्रकार जब अपनी प्रेमिका और मंगेतर को वैष्णव संप्रदाय के बाबा की चरण पूजा करते देखता है तो अपना आपा खो देता है। दरअसल चरण पूजा उन्नीसवीं शताब्दी की एक ऐसी कुप्रथा थी जिसमें वैष्णव संप्रदाय का बाबा किसी लड़की को चुन लेता था। उसके साथ शारीरिक संबंध बनाता था। बांबे (अब मुंबई) के जिस हवेली की कहानी है उसमें भी बाबा लड़कियों को चरण पूजा के लिए चुनता था। कहीं न कहीं ये देवदासी प्रथा से मिलती जुलती कुरीति थी। इस फिल्म से प्रभावित मित्र जब कहानी सुना रहे थे तो वो इस बात को लेकर आह्लादित थे कि कैसे एक पत्रकार ने इतने बड़े संप्रदाय के खिलाफ लड़ाई का बिगुल फूंका था। वो बार-बार इस बात पर जोर दे रहा था कि हिंदू धर्म में कैसी कैसी कुरीतियां थीं। वो फिल्म के संवाद पर भी लहालोट थे। बता रहे थे कि कैसे वो पत्रकार करसनदास जब अपनी मंगेतर से संबंध तोड़ता है तो कहता है कि सही और गलत का भेद जानने में धर्म की नहीं बुद्धि की जरूरत होती है। आपको बताते चलें कि इस फिल्म के प्रदर्शन पर पहले गुजरात हाईकोर्ट ने रोक लगाई थी लेकिन बाद में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं पाते हुए इसके प्रदर्शन की अनुमति दे दी थी। 

जब वो ये बातें कह रहे थे तो साथ बैठे एक युवा लेखक बहुत ध्यान से उनकी बातें सुन रहे थे। उसने बहुत धीमे से कहा कि अच्छा ये बताइए कि बाबा के खिलाफ जो पत्रकार या समाज सुधारक खड़ा हुआ था वो किस धर्म का था। वो भी तो हिंदू ही था। इस फिल्म में दिखाई गई सारी कुरीतियों, विधवाओं के साथ समाज का गलत रवैया, छूआछूत, चरण सेवा, दक्षिण के मंदिरों में देवदासी प्रथा आदि के खिलाफ तो हिंदू समाज ही खड़ा हुआ था। चाहे वो राजा राममोहन राय हों, रख्मादेवी हों, ज्योति बा फुले हों या बाद के दिनों में महात्मा गांधी हों। सबने अपने धर्म में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने के लिए संघर्ष किया था। यह किसी अन्य धर्म में दिखता है क्या। उसका तर्क था कि जब ये कुरीतियां समाप्त हो गईं तो इसको फिल्म के माध्यम से दिखाकर निर्माता क्या हासिल करना चाहते हैं। वो भी सत्य घटना पर आधारित कहकर प्रचारित करते हुए। बाबा के मुंह से इस तरह के संवाद कहवा कर कि चरण सेवा के भक्ति रस को श्रृंगार रस क्यों समझ बैठे। दोनों में बहस होने लगी। 

बाकी लोग इस चर्चा को बड़े गौर से सुन रहे थे। बीच बीच में कुछ बोल भी रहे थे। पर इन दोनों के बीच चर्चा आगे बढने लगी। पहले वाले लेखक मित्र ने कहा कि जबतक अतीत को याद रखा जाएगा तभी भविष्य और वर्तमान को बेहतर बनाया जा सकता है। इसपर फटाक से युवा लेखक ने कहा कि जब वर्तमान राजनीति में नेहरू की गलत नीतियों की बात की जाती है तो आप ही लोग कहने लगते हैं कि गड़े मुर्दे क्यों उखाड़ रहे हो। यहां तो करीब दो सौ वर्ष पुरानी कुरीति को उखाड़ा गया। इसको दिखाने का उद्देश्य क्या है। अब धीरे-धीरे बात फिल्मों से राजनीति और नैरेटिव पर पहुंच गई। 

जब बात नैरेटिव पर पहुंची तो एक लेखिका ने हस्तक्षेप किया। उसका कहना था कि कुरीतियों को दिखाओ। लेकिन संवाद के माध्यम से जब आप किसी बच्चे से ये कहलवाते हो कि क्या भगवान गुजराती समझते हैं। या जब उसकी मां कहती है कि मन में इतने सवाल होंगे तो पूजा कैसे करोगे। या बाबा जब कहता है कि धर्म का पालन डर से करवाना पड़ता है। तो फिल्म के उद्देश्य पर बात तो होगी ही। बात इसलिए भी होगी कि पूरा संदर्भ हिंदू धर्म से जुड़ा हुआ है। जबकि हिंदू धर्म में सनातन काल से प्रश्न करने की स्वतंत्रता है। आप ईश्वर पर भी प्रश्न कर सकते हैं। देहरादून के मौसम में चर्चा थोड़ी गर्म होने लगी थी। लेखिका ने कहा कि इस तरह तो वेब सीरीज लैला में भी कुरीतियों को ही दिखाया गया था। फिर उसकी आलोचना क्यों हुई थी। जिस तरह से लैला में हिंदू धर्म का चित्रण हुआ था या जिस तरह से उसमें राजनीतिक संदेश देने की कोशिश की गई थी वो कुरीतियों पर भारी पड़ गया था। उसने कहा कि फिल्म कुछ लोगों को अच्छी लग सकती है लेकिन जिस तरह इसको नेटफ्लिक्स के कारण इस फिल्म को वैश्विक दर्शकों के सामने प्रस्तुत किया गया उससे भारत की छवि पर क्या असर पड़ेगा। वो बहुत मजबूती से अपनी बात रख रही थीं। इस तरह की फिल्मों से एक नैरेटिव बनता है, एक एजेंडा सेट होता है। महाराज फिल्म पर सबके अपने अपने तर्क थे। रात काफी हो गई थी तो बैठकी समाप्त की गई। 

चर्चा समाप्त कर होटल के अपने कमरे में जाकर काफी देर तक उपरोक्त तर्कों पर विचार करता रहा। किसी निर्णय पर नहीं पहुंच पा रहा था। वापस दिल्ली लौटने पर पता चला कि फिल्म महाराज वैश्विक स्तर पर बहुत अच्छा परफार्म कर रही है, विशेषकर इस्लामिक देशों में। इस फिल्म की कई इस्लामिक देशों में रेटिंग और रैकिंग दोनों अच्छी है। बताय गया कि नेटफ्लिक्स का दावा है कि 20 से अधिक देशों में इस फिल्म को लाखों दर्शकों ने देखा है। इस सब जानने के बाद मुझे लैला वेब सीरीज की याद आई। तब भी इसकी खूब चर्चा हुई थी कि  इस वेब सीरीज को वैश्विक दर्शकों ने खूब पसंद किया था। अब दोनों में एक समानता तो है। दोनों वेब सीरीज की कहानी हिंदू धर्म की कुरीतियों पर आधारित है। वैसी कुरीतियां जो अब हिंदू धर्म में नहीं हैं। जब वैश्विक स्तर पर भारत की छवि मजबूत हो रही हो तो दो सौ वर्ष व्याप्त कुरीतियों पर फिल्म बनाकर उसको ओटीटी पर रिलीज करने का उद्देश्य और औचित्य समझने का प्रयास करना चाहिए। अचानक से देहरादून की चर्चा के दौरान लेखिका मित्र की कही एक बात दिमाग में कौंध गई, रणभूमि भले ही बदल गई लेकिन युद्ध नहीं। संदर्भ नैरेटिव का था।