दो हजार सोलह में प्रकाशित
कृतियों पर समीक्षात्मक बातचीत में जब लोकसभा टीवी पर यतीन्द्र मिश्र की किताब, लता
सुर-गाथा को मैंने हिंदी में प्रकाशित साल की सबसे बड़ी किताब बताई थी तो कई लोगों
को इस कथन को फतवा आदि करार दिया था । लोकसभा टीवी के उस कार्यक्रम में मैंने यह कहा
था कि जिस तरह से हर साल कोई एक बड़ी फिल्म आती है और परिदृश्य पर छा जाती है उसी तरह
से वर्ष दो हजार सोलह में प्रकाशित ये बड़ी किताब लता सुर-गाथा है जो हिट भी रही है।
इस किताब को मैंने पढ़ा था और मेरी पाठक बुद्धि कह रही थी कि इस कृति को व्यापक स्वीकार्यता
मिलेगी और इसके लेखक को पर्याप्त यश। इस सोच के पीछे हिंदी में इस तरह की फिल्म में
गंभीर किताब की कमी का होना थी । हिंदी में फिल्मों पर ज्यादातर किताबें लेखों का संग्रह
आदि है । अब लता सुर-गाथा को राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार में किताबों की श्रेणी के लिए
स्वर्ण कमल के लिए चुना गया है तब यह बात साबित होती है कि यतीन्द्र मिश्र की किताब
दो हजार सोलह की सबसे बड़ी हिट रही ।
फिल्मों से बंधित किताबों
पर दिए जाने वाले नेशनल अवॉर्ड की की चयन समिति की अध्यक्ष वरिष्ठ फिल्म पत्रकार भावना
सोमैया थीं । उनके अलावा प्रभात प्रकाशन के निदेशक प्रभात कुमार और एक और शख्स जूरी
के सदस्य थे । इनके सामने अंग्रेजी के अलावा भारतीय भाषाओं में लिखी गई करीब तीन दर्जन
किताबें थी जिनके बीच से चयन समिति ने यतीन्द्र मिश्र की किताब लता सुर-गाथा को सर्वसम्मति
से पुरस्कार के लिए चुना । इस पुरस्कार के तहत पुस्तक के लेखक और प्रकाशक दोनो को पचहत्तर
हजार रुपए और स्वर्ण कमल दिया जाएगा । लता सुर-गाथा को वाणी प्रकाशन ने प्रकाशित किया
है। जूरी ने लता सुर-गाथा के बारे मे कहा कि यह किताब लगा मंगेशकर की सत्तर साल की
संगीत यात्रा का भारतीय सिनेमा पर प्रभाव को चित्रित करता है और लेखक यतीन्द्र मिश्र
उसको पकड़ने में कामयाब रहे हैं । लता की इस लंबी सुर यात्रा का फिल्मों पर पड़े प्रभाव
को भी इस किताब में शिद्दत से रेखांकित किया गया है । इस बार जूरी के सदस्यों के बीच
इस पर भी एक राय बनी कि किताबों के चयन करने का कोई ऐसा मैकेनिज्म बनाया जाना चाहिए
जिसमें कृतियों की गहन पड़ताल की जा सके । तय ये हुआ कि इस बारे में ये तीनो मिलकर
सूचना और प्रसारण मंत्रालय को अपना सुझाव भेजेंगे ।
अब जरा लता सुर-गाथा
की बात कर ली जाए । यह किताब यतीन्द्र मिश्र के लगभग सात साल की मेहनत का नतीजा है
। सात सालों तक वो लगातार नियमित अंतराल पर तय वक्त पर लता मंगेशकर से बात कर उसको
रिकॉर्ड करते रहे और साथ साथ उसको लिपिबद्ध भी करते रहे । इस किताब के साथ अच्छी बात
यह रही कि यतीन्द्र मिश्र ने इसको विवादास्पद बनाने की कोशिश नहीं की । इसके अलावा
लता मंगेशकर की जिंदगी के उन व्यक्तिगत प्रसंगों को भी खोलने का प्रयास लेखक ने नहीं
किया जिसको लेकर अफवाहें या गॉसिप फिल्मी दुनिया में चलती रही हैं । इसका सकारात्मक
पहलू ये रहा कि इससे इस किताब की सनसनी पैदा करनेवाली छवि नहीं बन पाई और पाठकों ने
इसको गंभीर लेखन के कोष्ठक मे रखा । अगर यतीन्द्र इस किताब में लता से जुड़े विवादों
को उठाकर सनसनीखेज बनाने की कोशिश करते, जिसका अवसर उनके पास था, तो शायद इसकी बिक्री
ज्यादा होती लेकिन फिर उसको गंभीर किताब के तौर पर मान्यता नहीं मिल पाती या फिर उस
किताब तो राष्ट्रीय पुरस्कार नहीं मिल पाता । विवादों और सनसनी से दूर यतीन्द्र इस
किताब में लता मंगेशकर को उन प्रदेशों में लेकर गए जिन प्रदेशों में ले जाने में लेखकों
को घबराहट होती है या उससे बचकर निकल जाते हैं । फिल्म, संगीत, गायक, कलाकारों के अलावा
यतीन्द्र ने लता मंगेशकर से वीर सावरकर से लेकर नेहरू तक के बारे में सवाल पूछे । इस
किताब से संभवत: पहली बार यह तथ्य सामने
आया कि लता मंगेशकर समाज सेवा करना चाहती थी लेकिन वीर सावरकर की प्रेरणा से वो गायिक
बनीं । बहुत दिलचस्प प्रसंग है यह । इस तरह के कई प्रसंग इस किताब में हैं।
इस किताब में यतीन्द्र
मिश्र की लता मंगेशकर से बातचीत जितनी महत्वपूर्ण है उतनी ही महत्वपूर्ण है यतीन्द्र
द्वारा सिखी गई करीब पौने दो सौ पृष्ठों में लता की सुर यात्रा । इस खंड में लेखक ने
लता मंगेशकर के विकास को, उनकी सुर साधना को रेखांकित किया है । इस खंड को पढ़ने के
बाद लेखक की संगीत की समझ का भी अहसास होता है । हिंदी में बहुत कम लेखक ऐसे हैं जो
हिंदी में इन विषयों पर लिखते हैं। जब यतीन्द्र ने इस किताब को तैयार किया तो वो लगभग
हजार पृष्ठों की बन रही थी लेकिन बाद में उसको संपादित कर साढे छह सौ पृष्ठों की किताब
बनाई गई । इस किताब का प्रोडक्शन भी वर्ल्ड क्लास है ।
राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार
में दो हजार पांच के बाद यानि बारह साल बाद किसी हिंदी की कृति का चयन किया गया है।
दो हजार पांच में शरद दत्त की कुंदन लाल सहगल पर लिखी किताब ‘कुंदन’ को राष्ट्रीय फिल्म
पुरस्कार मिला था इसके पहले दो हजार तीन में उनकी ही किताब ‘ऋतु आए, ऋतु जाए’ को नेशनल अवॉर्ड मिला
था । यह किताब संगीतकार अनिल विश्वास की जिंदगी पर लिखी गई है । चौंसठ फिल्म पुरस्कारों
में से सिर्फ तीन हिंदी की कृतियों को फिल्म पुरस्कार से नवाजा गया है और दो हिंदी
फिल्म समीक्षकों को ये प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला है, ब्रजेश्वर मदान और विनोद अनुपम
को । विनोद अनुपम को दो हजार दो में फिल्म समीक्षा का राष्ट्रीय पुरस्कार मिला था और
उसके बाद से पंद्रह साल हो गए लेकिन किसी हिंदी के लेखक को फिल्म समीक्षा का नेशनल
अवॉर्ड नहीं मिल पाया है। क्यों? इस बात पर विचार किया जाना चाहिए । फिल्मों से जुड़ी हिंदी में लिखी गई किताब
पर भी एक युग के बाद पुरस्कार दिया जा रहा है। क्यों? इसपर भी विचार किया
जाना चाहिए ।
हलांकि हिंदी के लिए
यह बेहद अच्छी स्थिति है । पिछले दो तीन सालों मे हिंदी में काम भी अच्छा हुआ है और
उत्साह का माहौल भी बना है, राष्ट्रीय स्तर पर भी और अंतराष्ट्रीय स्तर पर भी । पूरी
दुनिया को अब हिंदी का बड़ा बाजार नजर आ रहा है, लिहाजा हिंदी में निवेश की संभावनाएं
भी तलाशे जा इस रही हैं । पिछले दिनों वाणी प्रकाशन के निदेशक अकुण माहेश्वरी को लंदन
के प्रतिष्ठित ऑक्सफोर्ड बिजनेस कॉलेज ने बिजनेस एक्सीलेंस अवॉर्ड ने नवाजा । ऐसा पहली
बार हुआ कि किसी हिंदी के प्रकाशक को ऑक्सफोर्ड में सम्मानित किया गया हो। इस मौके
पर ऑक्सफोर्ड बिजनेस क़लेज के चेयरमैन प्रोफेसर स्टीव ब्रिस्टो ने कहा कि भारत विविधताओं
का देश है और भारतीय भाषाएं इस विविधता को प्रतिबंहित करती हैं । उन्होंने कहा कि उनके
लिए यह गौरव का विषय है कि भारतीय भाषाओं में प्रमुख भाषा हिंदी के श्रेष्ठ प्रकाशक
को ऑक्सफोर्ड सम्मानित कर रहा है । प्रोफेसर स्टीव ब्रिस्टो ने भारत में भाषा के बड़े
बाजार को भी रेखांकित किया और कहा कि भारत भाषायी रूप से सांस्कृतिक अर्थव्यवस्था का
सोपान है । यह हिंदी के लिए भी गौरव की बात है कि उस भाषा के प्रकाशक को अंतराष्ट्रीय
स्तर पर मान्यता मिल रही है । पूरी दुनिया कीनजर इस वक्त भारत के भाषाई बाजार पर लगी
है और उनको लगता है कि हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के माध्यम से इस बाजार पर पकड़
बनाई जा सकती है । आपको याद होगा कि जब उन्नीस सौ इक्यानवे में भारत में आर्थिक उदारीकरण
की शुरुआत हुई थी तब भारत में पूरी दुनिया की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को संभावनाए नजर
आने लगी थी । ब्यूटी प्रोडक्ट्स से लेकर अन्य तमाम तरह की चीजों के लिए जब बाजार खुले
तो उन्नीस सौ चौरानवे में भारत की सुष्मिता सेन के मिस युनिवर्स और ऐश्वर्या राय को
मिस वर्ल्ड चुना गया था । उसके बाद छह साल बाद भी भारत से ही लारा दत्ता और प्रियंका
चोपड़ा मिस यूनिवर्स और मिस वर्ल्ड चुनी गई थी। यह सब बाजार तय कर रहा था । नेशनल अवॉर्ड
में बारह साल बाद हिंदी की किताब और ऑक्सफोर्ड में हिंदी के प्रकाशक को सम्मानित किए
जाने की घटना को जोड़कर देखते हैं तो यह बाजार में हिंदी की धमक के तौर पर नजर आती
है । कुछ लोगों को ये दलील या ये आंकलन दूर की कौड़ी लग सकती है लेकिन बाजार के अपने
कायदे कानून होते हैं जिसको समझने की जरूरत होती है । बाजार उसपर ही अपना दांव लगाता
है जिसमें उसको संभावना नजर आती है । और इस वक्त हिंदी से ज्यादा संभावना किसी और दूसरी
भाषा में पूरी दुनिया में नहीं है । यह बाजार का ही दबाव है कि ऑक्सफोर्ड युनिवर्सिटी
प्रेस भी अब हिंदी में पुस्तकें प्रकाशित करने लगा है । जरूरत इस बात की है कि हिंदी
बाजार का इस्तेमाल अपने हक में करे ।
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