हिंदी में जब भी साहित्यक कृतियों की बात होती है कविता, कहानी और
उपन्यास पर सिमट कर रह जाती है । अन्य विधाओं की बात चलते चलते हो जाती है । अगर
हम वर्ष दो हजार सोलह को देखें तो इन विधाओं से इतर भी कई अच्छी किताबें छपकर आईं
चर्चित हुईं और पाठकों ने भी उनको हाथों हाथ लिया । कई लेखकों ने लगभग अनछुए
विषयों को उठाया और उसपर मुकम्मल किताब लिखी । साल के खत्म होते होते कवि और कला
पर गंभीरता से लिखनेवाले यतीन्द्र मिश्र की किताब ‘लता, सुर-गाथा’ (वाणी प्रकाशन) से
छपकर आई । करीब छह सौ पन्नों की ये किताब यतीन्द्र मिश्र के सालों की मेहनत का
परिणाम है । इस किताब में यतीन्द्र ने लता मंगेशकर की सुरयात्रा के उपर दो सौ
पन्ने लिखे हैं और करीब चार सौ पन्नों में लता मंगेशकर से बातचीत है । लता मंगेशकर
ने राजनीति से लेकर समाज, परिवार और अपने संघर्षों पर बेबाकी से उत्तर दिए हैं । जैसे
बॉलीवुड में कोई फिल्म साल की सबसे बड़ी हिट मानी जाती है उसी तरह से यतीन्द्र की
ये किताब इस साल की सबसे बड़ी किताब कही जा सकती है । कहानीकार और उपन्यासकार मनीषा
कुलश्रेष्ठ ने अपने उपन्यास ‘स्वप्नपाश’ (किताबघर प्रकाशन) में
एकदम अछूते विषय पर कलम चलाई है । इस उपन्यास में मनीषा ने अपने पात्र गुलनाज के
माध्यम से स्कीत्जनोफ्रेनिया नामक बीमारी को उठाया है । हिंदी के हमारे लेखक इस
तरह के विषयों से दूर ही रहते हैं लेकिन मनीषा ने इस बंजर प्रदेश में प्रवेश कर
मेहनत से उसके हर पहलू के रेशे-रेशे को अलग किया है । यह उपन्यास बदलते समय और
समाज की हकीकत का दस्तावेज है । कुछ लोगों को इस उपन्यास के डिटेल्स को लेकर
आपत्ति हो सकती है लेकिन वो विषय वस्तु की मांग के अनुरूप है । वरिष्ठ उपन्यासकार
चित्रा मुद्गल का उपन्यास ‘पोस्ट बॉक्स नं-203 नाला सोपारा’ (सामयिक प्रकाशन) भी
ऐसे ही एक लगभग अनछुए विषय को केंद्र में रखकर लिखा गया है । किन्नरों की जिंदगी
पर लिखे इस उपन्यास में चित्रा मुद्गल ने उस समुदाय की पीड़ा, संत्रास आदि को
संवेदनशीलता के साथ सामने रखा है जो पाठकों को सोचने पर विवश कर देती है । चित्रा
जी का ये उपन्यास एक लंबे अंतराल के बाद आया है लिहाजा इसको लेकर पाठकों में एक
उत्सकुकता भी है । इन उपन्यासों के अलावा एक और उपन्यास ने पाठकों का ध्यान अपनी
ओर खींचा वो है युवा लेखक पंकज सुबीर का ‘अकाल में उत्सव’ ( शिवना प्रकाशन )
। उस उपन्यास में लेखक ने अंत तक पठनीयता बनाए रखने में कामयाबी हासिल की है और
उसका ट्रीटमेंट भी लीक से थोड़ा अलग हटकर है । जयश्री राय का उपन्यास ‘दर्दजा’ ( वाणी प्रकाशन) और लक्ष्मी शर्मा के पहले उपन्यास ‘सिधपुर की भगतणें’ ( सामयिक प्रकाशन)
की भी चर्चा रही । बस्तर की नक्सल समस्या और उसकी जटिलताओं को केंद्र में रखकर लिखा
टीवी पत्रकार ह्रदयेश जोशी का उपन्यास लाल लकीर (हार्पर कालिंस) में समांतर रूप से
एक बेहतरीन प्रेमकथा भी साथ-साथ चलती है ।
हिंदी में कविता को लेकर बहुत कोलाहल है । कुंवर नारायण से लेकर
शुभश्री तक कई पीढ़ियों के कवि इस वक्त सृजनरत हैं । पर इस कोलाहल में बहुधा यह
सुनने को मिलता है कि कविता के पाठक कम हो रहे हैं, प्रकाशक कविता संग्रह छापने के
लिए आसानी से तैयार नहीं होते हैं । कहना ना होगा कि यह स्थिति साहित्य के लिए
चिंताजनक है, बावजूद इसके वर्ष दो हजार सोलह में दर्जनों कविता की किताबें छपीं । जिस
कविता संग्रह ने पाठकों और आलोचकों का सबसे अधिक ध्यान खींचा वह है वरिष्ठ कवि
लीलाधर मंडलोई का ‘भीजै दास कबीर’ (वाणी प्रकाशन ) ।अशोक
वाजपेयी का कविता संग्रह ‘नक्षत्रहीन समय में’ (राजकमल प्रकाशन) से
छपी लेकिन इस संग्रह को अपेक्षित चर्चा नहीं मिल पाई । इसके अलावा विनोद भारद्वाज,
दिविक रमेश, कात्यायनी की कविताएं भी पुस्तकाकार प्रकाशित हुईं । युवा कवि चेतन
कश्यप का दूसरा संग्रह एक पीली नदी हरे पाटों के बीच बहती हुई (प्रकाशन संस्थान)
ने भी कविता प्रेमियों का ध्यान खींचा । उपेन्द्र कुमार ने महाभारत को केंद्र में
रखकर इंद्रप्रस्थ (अंतिका प्रकाशन) की रचना की । जिसके बारे में कवि मदन कश्यप ने लिखा
है कि यह कृति महाभारत की अशेष सृजनात्मकता को प्रमाणित करती है । नाटक तो कम ही
लिखे गए लेकिन इंदिरा दांगी लिखित नाटक ‘आचार्य’ (किताबघर प्रकाशन) की जमकर चर्चा हुई
। कहानी संग्रहों को लेकर हिंदी जगत में
खास उत्साह देखने को नहीं मिला । कहा तो यहां तक गया कि हिंदी कहानी भी कविता की
राह पर चलने लगी है । पत्र-पत्रिकाओं में इतनी फॉर्मूलाबद्ध कहानियां छपीं कि पाठक
निराश होने लगे जिसका असर कहानी संग्रहों की बिक्री पर पड़ा । अवधेश प्रीत का
कहानी संग्रह चांद के पार चाभी ( राजकमल प्रकाशन) के अलावा रजनी मोरवाल का ‘कुछ तो बाकी है...’( सामयिक प्रकाशन) की
चर्चा रही ।
अनुवाद के लिहाज से ये साल बहुत अच्छा नहीं कहा जा सकता है । सालभर
अनूदित किताबों पर बहस चलती रही लेकिन साहित्य अकादमी ने कुछ अच्छी किताबों का
अनुवाद अवश्य छापा । डी एस राव की किताब फाइव डिकेड्स का ‘पांच दशक’ के नाम से भारत
भारद्वाज ने अनुवाद किया । साहित्य अकादमी के इतिहास में रुचि रखनेवालों के लिए यह
महत्वपूर्ण किताब है । इसी तरह से ओड़िया लेखक शरत कुमार महांति की गांधी की जीवनी
का हिंदी अनुवाद ‘गांधी मानुष’ (साहित्य अकादमी) के
नाम से सुजाता शिवेन ने किया । सुजाता शिवेन उन चंद अनुवादकों में से हैं जो
ओड़िया की अहम किताबों का हिंदी में अनुवाद कर रही हैं । श्रीकृष्ण पर लिखा
रमाकांत रथ का खंडकाव्य ‘श्री पातालक’ का अनुवाद ‘श्रीरणछोड़’ ( साहित्य अकादमी)
से प्रकाशित हुई । चीनी लेखक ह च्येनमिंङ की किताब का हिंदी अनुवाद ‘जनता का सचिव,
पीपुल्स पार्टी में भ्रष्टाचार से जंग’ (प्रकाशन संस्थान) भी आंखे खोलनेवाला
है । इस किताब से चीन की हकीकत का खुलासा होता है । इसका अनुवाद अरुण कुमार ने
किया है । एक और किताब जिसने पाठकों का ध्यान अपनी ओर खींचा वह है वरिष्ठ
उपन्यासकार भगवानदास मोरवाल की स्मृति कथा ‘पकी जेठ का गुलमोहर’ (वाणी प्रकाशन) । इस स्मृति कथा
में मेवात अपनी पूरी जीवंतता के साथ उपस्थित है । शायर मुनव्वर राना की आत्मकथा का
पहला खंड- ‘मीर आ के लौट गया’(वाणी प्रकाशन) भी
प्रकाशित हुआ है । शायर अनिरुद्ध सिन्हा के गजलों का
संग्रह ‘तो गलत क्या किया’ (मीनाक्षी प्रकाशन)
से छप कर आया है ।
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