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Monday, July 23, 2012

दलित प्रतिभाओं का मेला

चौथी दुनिया के अपने स्तंभ में कुछ महीनों पहले मैंने एक लेख लिखा था, जिसका शीर्षक था बिहार में सांस्कृतिक क्रांति । उस लेख के शीर्षक को लेकर मुझपर जमकर हमले किए गए । पटना के कुछ लेखकों ने मेरे उस लेख पर गंभीर एतराज जताते हुए बेवसाइट्स पर लेख लिए । चौथी दुनिया में मेरा स्तंभ बंद करवाने के लिए तमाम दंद फंद रचे । मुझे नीतीश सरकार का प्रशस्ति गायन करनेवाला लेखक करार दे दिया । एक बेवसाइट के मॉडरेटर ने मुझे भगवा समीक्षक करार दे दिया । मुझपर व्यक्तिगत हमले हुए । कालांतर में मुझ पर हमला करनेवाले लोग किन्ही गैर साहित्यिक वजहों से चर्चा में रहे । दिल्ली के एक कवि मित्र, जो पत्रकार भी हैं , ने फोन करके मेरी लानत मलामत की । वो मुझे फोन पर पत्रकारिता सिखाने की कोशिश करने लगे । बिहार के सांस्कृतिक संस्थानों की बदहाली गिनाने लगे । उनकी वरिष्ठता और वय को ध्यान में रखते हुए मैंने उनसे सिर्फ इतना कहा कि आप इस बात के लिए बिहार सरकार के संस्कति मंत्री या संस्कृति मंत्रालय की तारीफ कीजिए कि सूबे एक बार फिर से सांस्कृतिक गतिविधियां शुरू हो गई हैं जो पिछले दो दशक से बंद थी । मेरे इतना कहने के बाद वो बेतरह नाराज हो गए और कहा कि वो मंत्री को भी जानते हैं और मुझे भी । उसके बाद उन्होंने मुझपर कई तरह के उलजलूल आरोप मढे । जब कवि मित्र आपे से बाहर होने लगे तो उनके पास कोई तर्क बचा नहीं । इस तरह के बुद्धिजीवियों की दिक्कत यही है कि जब उनके पास कोई तर्क बचता नहीं है तो वो एक ही तर्क का सहारा लेते हैं कि आप तो संघी हैं आपसे बहस ही नहीं की जा सकती । नतीजा बातचीत खत्म हो जाती है । उस वक्त मैंने अपने इस कॉलम में अपना पत्र रखते हुए एक और लेख लिखा था । दरअसल लालू मोह में ग्रस्त कुछ लेखकनुमा लोग बिहार में हो रहे सांसकृतिक गतिविधियों और विकास के कामों को पचा नहीं पा रहे हैं । दलितों के नाम पर सालों से अपनी सांस्कृतिक दुकान चला रहे इन लोगों को लगता है कि अगर सरकारी स्तर पर कार्यक्रम या फिर किताबें प्रकाशित होने लगी तो उनकी दुकान बंद हो जाएंगी । लालू राज के दौरान इन संस्थानों और कार्यक्रमों में कुछ चुनिंदा लोगों की भागीदारी रहती थी । वो चंद लोग चुपचाप अपना हित साधते रहते थे क्योंकु उन्हें व्यक्तिगत लाभ लोभ के आगे सूबे की छवि या बिहार की समृद्धशाली परंपरा का ना तो अभिमान था और ना ही उन्हें प्रचारित करने में कोई रुचि । अब जब बिहार में सांस्कृतिक गतिविधियां होने लगी हैं । सरकारी स्तर पर प्रयास करके कई बेहतरीन किताबों का प्रकाशन होने लगा है तो लालू राज के दौरान काम कर रहे मठाधीशों को लगने लगा है कि अब उनकी दुकानदारी तो बंद हो गई । लिहाजा उन्होंने इस तरह के हमले शुरू किए ताकि सरकारी सांस्कृतिक पहल पर ब्रेक लगवा सकें ।
अभी जून के महीने में बिहार सरकार के संस्कृति मंत्रालय की पहल पर दस से पंद्रह तारीख के बीच पटना के प्रेमचंद रंगशाला मैं लोकोत्सव का आयोजन किया गया था इस लोकोत्सव में दलित संस्कृति के विभिन्न रूपों को समेकित रूप से प्रदर्शित किया गया था लोकोत्सव में बिहार के विभिन्न क्षेत्रों और दलित जातियों की विशिष्ट लोकगाथाओं हिरनी बिरनी, राजा सलहेस, सती बिहुला, रेशमा चूहडमल, दीना भदरी, और बहुरा गोढिन की सानदार प्रस्तुति भी पेश की गई थी हैरानी की बात है कि इन प्रस्तुतियों के दौरान प्रेमचंद रंगशाला खचाखच भरा रहता था लोकोत्सव में पहले दिन हिरनी विरनी की प्रस्तुति हुई हिरवी विरनी नट जातियों में प्रचलित है यह लोकगाथा अंग क्षेत्र से लेकर लेकर मध्य विहार तक में सुनी जाती है नारी मुक्ति पर केन्द्रित यह लोकगाथा हिरनी बिरनी दो बहनों के माध्यम से अपने अधिकारों के बारे में बात करती है दलित और स्त्री दोनों को समटे इस प्रस्तुति ने दर्शकों को सोचने पर मजबूर कर जदिया हिरनी विरनी के अगले दिन विन्देश्वर पासवान और उनके दल ने राजा सलहेस को पेश किया मिथिलांचल के दलित जातियों में प्रचलित यह लोकगाथा अब अपनी जातीय सीमाओं से परे पूरे मिथिलांचल में समान रुप से पसंद की जाती है।  राजा सलहेस में सामंती अन्याय के खिलाफ उठ खड़े होने के संघर्ष दास्तां है बाद में छपरा के शिव जी और उनके दल ने सती बिहुला पेश कर दर्शकों का मन मोह लिया यह प्रस्तुति मुख्य रूप से हमारे समाज में महिलाओं के समर्पण और महत्व को रेखांकित करती है। रेशमा चौहरमल को जहानाबाद के बली राय और उनके ग्रुप ने एक अलग शैली में प्रस्तुत कर शहरी दर्शकों कों थिएटर का एक नया रूप दिखाया मध्य बिहार की दलित जातियों में प्रचलित यह लोकगाथा सामाजिक सौहार्द्र को रेखांकित करती है। लोकोत्सव में अनिल सदा ने अपने ग्रुप के साथ दीना भदरी की प्रस्तुति दी उस उत्सव का समापन बहुरा गोढिन की प्रस्तुति के साथ हुआ।  बेगुसराय के पवन पासवान और उनके दल ने बहुरा गोढिन को को जीवंत करते हुए दर्शकों को मोह लिया ।
लोकोत्सव में इन प्रस्तुतितियों के अलावा भी विचार विमर्श हुए जिसमें हर तरह की विचारधारा के लोगों को आमंतत्रित किया गया था । बिहार में लोकोत्सव हो, बिहार की प्रचलित लोकगाथाओं की बिहार के कलाकारों प्रस्तुति हो या क्या क्रांति से कम है । क्या क्रांति का रंग सिर्फ लाल ही होता है । क्या क्रांति समाज के दबे चुचले लोगों से जुड़ी लोकगाथाओं को प्रमुखता से मंच देना क्रांति नहीं है । मैं तो आज भी डंके की चोट पर कहता हूं कि इलस वक्त बिहार में जिस तरह से सांस्कृतिक गतिविधियां हो रही है वो तारीफ के काबिल हैं । क्या इनका विरोध करने वाले लोग वो दौर भूल गए जब कला और संस्कृति के नाम पर बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लौंडे का डांस करवाया करते थे और अपने तमाम कारकुनों के साथ सगर्व लौंडा डांस देखते हुए तस्वीरें खिंचवाया करते थे । ठीक है आपको शौक है आप लौंडा डांस देखिए लेकिन बिहार की गौरवशाली सांस्कृतिक परंपराओं को बचाए रखने का दायित्व का भी निर्बाह करिए ।
जिस तरह से इस बार दलित कलाकारों की भागीदारी से लोकोत्सव का आयोजन पचना में किया गया उसी तरह के आयोजन देश के अन्य भागों में भी होने चाहिए ताकि पूरे देश को बिहार की दलित प्रतिभा का पता चल सके और बिहार के कलाकारों को भी देश के अन्य भागों की कलाओं और कलाकारों से रू ब रू होने का मौका मिलेगा । मैं एक बार फिर से कह रहा हूं कि बिहार में जिस तरह से सांस्कृतिक गतिविधियों ने अंगड़ाई ली है और वो उठ खड़ी हुई है उसके बाद अब बिहार सरकार का दायित्व है कि बिहार की उन साहित्यकिक और सांस्कृतिक संस्थाओं को जिंदा करने की जो पिछले दो दशक से लगभग मृतप्राय हैं । बिहार संगीत नाटक अकादमी, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, मगही अकादमी आदि आदि को पुनर्जीवित करने की आवश्कता है । बिहार में प्रतिभा की कमी नहीं है, कमी है सिर्फ इच्छाशक्ति की । हाल के दिनों में सास्कृतिक गतिविधियों को लेकर जिस तरह से राजनैतिक नेतृत्व की इच्छाशक्ति दिखाई देती है उससे एक उम्मीद बंधी है कि बिहार एक बार फिर से देश के सांस्कृतिक नक्शे पर अपनी अहमियत मजबूती से दर्ज करवाएगा ।   

Sunday, July 22, 2012

लेखकों की राजनीति


मध्य प्रदेश का भारत भवन अपने स्थापना काल से ही विवादों में रहा है । हिंदी के वरिष्ठ कवि अशोक वाजपेयी की पहल पर भोपाल में बना यह साहित्य और संस्कृति का केंद्र एक बार फिर से विवादों में घिर गया है । इस बार विवाद की वजह है हिंदी के प्रगतिशील और जनवादी लेखक संगठनों से जुड़े तीन लेखकों की वो अपील जो उन्होंने जनवादी-प्रगतिवादी लेखक संगठनों से जुड़े कॉमरेड लेखकों से की है । इस अपील में इन संगठनों और विचारधारा से जुड़े साथी लेखकों से अनुरोध किया गया है कि वो भारत भवन, मध्य प्रदेश साहित्य परिषद, उर्दू अकादमी समेत मध्य प्रदेश के कई सरकारी संस्थानों के कार्यक्रमों का बहिष्कार करें । इस अपील में दलील दी गई है कि मध्य प्रदेश की वर्तमान सरकार की अन्यथा स्पष्ट सांस्कृतिक नीतियों की वजह से इन संस्थानों का और साथ ही प्रदेश की मुक्तिबोध, प्रेमचंद और निराला सृजनपीठों का, वागर्थ, रंगमंडल आदि विभागों का पुछले आठ नौ सालों में सुनोयोजित तरीके से पराभव कर दिया गया । अब यहां सवाल यह उठता है कि अगर पिछले आठ नौ सालों से ये सुनियोजित साजिश चल रही थी तो अब तक लेखक और लेखकों के संगठन चुप क्यों बैठे थे । क्या जनवादी और प्रगतिशील पत्रिकाओं में मध्यप्रदेश शासन का विज्ञापन नहीं छपता रहा है । दरअसल मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव नजदीक आते ही इन लोगों को इन संस्थाओं के पतन और पराभव की याद आने लगी । चाहे वो प्रगतिशील लेखक संगठन हों या फिर जनवादी लेखक संगठन इनके सदस्यों का ना तो अपना कोई वजूद है ना तो अपनी कोई सोच ना ही अपनी कोई लाइन । हर तरह के कार्यक्रमों के लिए साहित्य के ये संगठन अपने राजनीतिक आकाओं का मुंह जोहते हैं और इतिहास इस बात का गवाह है प्रगतिशील लेखक संगठन और जनवादी लेखक संगठन से जुड़े लेखक हमेशा से सीपाआई और सीपीएम की विचारधारा के ही पोषक और प्रचारक रहे हैं । दरअसल अगर हम इस अपील को ठीक से पढ़ें और उसकी पड़ताल करें तो इसमें कुछ और खेल नजर आता है ।
इस अपील में लिखा गया है कि हमारा विरोध किसी राजनैतिक अनुशंसा से उतना नहीं है जितना क्योंकि व्यवस्था में इन पदों पर पहले भी राजैनतिक अनुशंसाओं ले लोग नामित किए जाते रहे हैं लेकिन वे सब असंदिग्ध रूप से हमारे समकालीन साहित्य के मान्य, समादृत हस्ताक्षर रहे हैं । इस वाक्य के बाद लेखकों की एक सूची दी गई है जिसमें वामपंथी विचारधारा के बाहर के भी कुछ लोगों के नाम शामिल कर अपील की साख को बढ़ाने की कोशिश की गई है । लेकिन इन तीन लोगों को यह याद दिलाने की जरूरत है कि जब अशोक वाजपेयी भारत भवन के कर्ता-धर्ता थे तो इन्हीं संगठनों से जुड़े लेखकों ने वाजपेयी पर जोरदार हमले किए थे । उन हमलों को अभी हिंदी साहित्य जगत भूला नहीं है । अशोक वाजपेयी का दोष तब इतना था कि उन्होंने भारत भवन पर कम्युनिस्ट पार्टी का झंडा लहराने से मना कर दिया था । लिहाजा उन पार्टियों से जुड़े लेखकों ने अशोक वाजपेयी औऱ उनसे जुड़े लेखकों को कलावादी कह किनारा लगाने की लगातार कोशिश की। उनको कल्चरल माफिया कहा गया तो भारत भवन को संस्कृति का अजायबघर । अशोक वाजपेयी के साथियों को अष्टछाप कह कर उनका मजाक उड़या गया । यही काम इन संगठन से जुड़े लेखकों ने हिंदी के हिरामन लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय के साथ भी किया और अब भी कर रहे है । भारत भवन के कामकाज में निसंदेह गिरावट आई है । जिस उद्देश्य के लिए उसकी स्थापना की गई थी उससे वह भटक गया है । लेकिन आठ सालों तक उसके कार्यक्रमों में दीप प्रजज्वलित करने और सक्रिय हिस्सेदारी के बाद चुनाव के वक्त उसका गिरता स्तर याद आना अपीलकर्ताओं की मंशा को संदेहास्पद बना रही है । अपीलकर्ताओं ने जो ईमेल अखबारों और लेखकों को भेजा है उसमें बार बार राजनीतिक भावना से काम न करने की सफाई दी है । बार-बार सफाई देना ही उस संदेह को बढ़ाने का पर्याप्त आधार है ।
दरअसल प्रगतिशील लेखक संघ और जनवादी लेखक संघ दोनों लेखकों के बड़े समुदाय से कट गए है । लेखकों की बेहतरी और उनके कल्याण के लिए उनके पास कोई ठोस योजना नहीं है । उनका काम सिर्फ लेखकों की मौत पर शोकगीत लिखना रह गया है । हिंदी के वरिष्ट कथाकार अरुण प्रकाश का जब  निधन हुआ था तो उनके पड़ोस में रहनेवाले जनवादी और प्रगतिशील संगठनों से जुड़े उनके साथी लेखकों के पास उनके अंतिम संस्कार में भाग लेने का वक्त नहीं था । दुख की उस घड़ी में परिवार के साथ खड़े होने से ज्यादा जरूरी उन संगठनों को सारे अखबारों को शोक संदेश प्रेषित करना लगा । जो लेखक अरुण प्रकाश के घर से चंद मीटर की दूरी पर रहते थे उनके दुख का पता अखबारों से चला । प्रचारप्रियता की पराकाष्ठा । दरअसल इन संगठन से जुड़े लेखक अब लेखक रहे नहीं वो पूरे तौर पर नेता हो गए हैं और उन्हीं की तरह के राजनीतिक दांव-पेंच चलते हैं । नेताओं की तरह का व्यवहार भी करते हैं और उनका वर्गचरित्र भी नेताओं वाला ही हो गया है । लेखकों का काम लिखना है राजनीति करना नहीं । इन लेखक संगठनों ने लेखकों को राजनीति करना सिखा दिया जिसका नतीजा यह हुआ कि उनसे जुड़े लेखकों की साख नेताओं की तरह संदिग्ध हो गई । लेखक अपने पाठकों से और रचनाओं से दूर होते चले गए । आज हालात यह है कि हिंदी समाज चंद लेखकों को छोड़कर किसी को जानता नहीं है, जानते हैं साहित्य की दुनिया में आवाजाही करनेवाले चंद लोग । लेखक संगठनों ने लेखकों को राजनीति के ऐसे दलदल में ढकेल दिया था कि जितना वो उससे निकलने की कोशिश करते थे उतना ही उसमें फंसते चले गए ।
मध्यप्रदेश के ये तीन कवि जो अपने सूबे की संस्थाओं के गिरते स्तर और पतनशीलता पर जार-जार हो रहे हैं उनको साथी लेखिका तसलीमा नसरीन का दर्द याद नहीं आता है । तसलीमा हर दिन घुट रही है लेकिन उसके लिए क्या कभी कोई प्रयास किया गया । एम एफ हुसैन के लिए बुक्का फाड़ विरोध करनेवाले इन लेखक संगठनों ने सलमान रश्दी के भारत आने पर मुल्लाओं के विरोध में चुप्पी साध ली थी । वजह बहुत साफ है उसको कहने की आवश्यकता नहीं है । जनवादिता और प्रगतिशीलता जब अपने आपको एक दायरे में समेट लेती है या विरोध या प्रशंसा का पैमाना विचारधारा और परोक्ष रूप से विचारधारा के लिए वोट जुटाना हो जाता है तो लेखकों का व्यवहार राजनेताओं सरीखा हो जाता है । लेखन से ज्यादा राजनीति करने का नतीजा यह होता है कि पाठकों के बीच उनकी साख कम से कमतर होती चली जाती है । आज संस्थाओं से ज्यादा जरूरी, गंभीर और बुनियादी समस्याएं लेखकों के सामने हैं । आज हिंदी में किताबों की उपलब्धता, हिंदी समाज के फैलाव के बावजूद साहित्यिक किताबों की कम बिक्री, लेखकों की रॉयल्टी, लेखकों की सहायता के लिए आकस्मिक कोष की कमी जैसी समस्याएं हैं जिनपर तवज्जो की जरूरत है । लेखक संगठन के कर्ताधर्ताओं और उनसे जुड़े लेखकों को इनपर ध्यान देना चाहिए और हालात की बेहतरी के लिए काम करना होगा । लेकिन इन समस्याओं को लेकर कभी हल्ला-गुल्ला नहीं मचता, कोई आंदोलन नहीं होता , कभी कोई अपील नहीं जारी की जाती । इसकी वजह है कि उससे कोई दलगत हित नहीं सधता । जरूरत इस बात की है कि इन मुद्दों पर गंभीर विमर्श हो वर्ना लेखक समुदाय एक दिन मृतप्राय लेखक संगठनों का शोकगीत लिख डालेंगे ।

Thursday, July 19, 2012

पिकी को पान सिंह तोमर मत बनाओ

कुछ दिनों पहले एक फिल्म आई थी जिसकी स्मृति अभी भी जनमानस में ताजा है । फिल्म का नाम था- पान सिंह तोमर । उस फिल्म में एक अंतरराष्ट्रीय धावक, जिसने भारत का नाम पूरे विश्व में उंचा किया था, की कहानी थी । पान सिंह तोमर पर समाज और सरकार से मिले उपेक्षा का दंश इतना गहरा हो गया था कि उसने बीहड़ में जाकर हथियार उठा लिया था । पहले पान सिंह तोमर एक जिम्मेदार नागरिक की तरह पुलिस स्टेशन जाता है लेकिन जब वहां बुरी तरह से अपमानित हो जाता है तो उसके पास कोई विकल्प बचता नहीं है । अभी अंतराष्ट्रीय महिला धावक पिकी प्रामाणिक के साथ भी वैसा ही सलूक किया जा रहा है । एक जमीन के टुकड़े के लिए पिंकी प्रमाणिक पर रेप का आरोप जैसे केस का सनसनीखेज खुलासा हुआ है । पिंकी प्रामाणिक एशियाई खेलों में भारत के लिए स्वर्ण पदक और राष्ट्रमंडल खेलों में रजत पदक जीतकर भारत का नाम रोशन कर चुकी है । लेकिन कृतध्न राष्ट्र उनके साथ दुर्दांत अपराधी जैसा बर्ताव कर रहा है ।

पिकी प्रमाणिक महिला है जिसपर पुरुष होने का आरोप लगा है लेकिन अबतक ये साबित नहीं हुआ है कि वो पुरुष हैं । जब पश्चिम बंगाल में उनपर एक महिला ने रेप का आरोप लगाया तो पिंकी के साथ पुलिस ने बेहद अमानवीय व्यवहार किया । जैसे ही रेप का आरोप लगा वैसे ही पुलिस ने पिंकी को मुजरिम मानते हुए जेल की सलाखों के पीछे डाल दिया । उसको गिरफ्तार करने से पहले पुलिस सारे कायदे कानून भूल गई कि एक महिला को महिला पुलिस की मौजूदगी में ही गिरफ्तार किया जा सकता है । पुरुष पुलिस अधिकारी पिंकी को घसीटते हुए थाने तक ले गए । पुलिस की मंशा इससे भी साफ जाहिर होती है कि उसने आरोप लगाने वाली लड़की का मेडिकल तक नहीं करवाया । ना ही यह जानने की कोशिश की गई कि आरोप लगानेवाली महिला के पेनिट्रेशन हुआ या नहीं ताकि कानूनन रेप की पुष्टि हो सके । इस केस में ऐसा नहीं किया गया क्योंकि पुलिस ये फैसला ले चुकी थी कि पिंकी पुरुष है । उसके बाद रेप के आरोप में जब पिंकी को जेल भेजा गया तो उसे महिला वॉर्ड की बजाए अलग वार्ड में रख दिया गया । जेल मैनुअल के तहत महिलाओं को मिलने वाली सहूलियतें पिंकी को नहीं दी गई। अदालत ले जाते समय वैन में भी पिंकी के साथ कोई महिला कॉंस्टेबल मौजूद नहीं रहती थी । क्यों । क्योंकि पुलिस और जेल प्रशासन ने मान रखा है कि पिंकी पुरुष है ।

करीब महीने भर तक जेल में जिल्लत, हिकारत और अपमान की जिंदगी काटने के बाद जब पिंकी जेल से बाहर निकली तो उन्होंने जो बताया वो सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा है । जेल में रहने के दौरान जब भी उनका जेंडर टेस्ट किया गया तो पुलिस पिंकी के हाथ पांव जानवरों की तरह बांध देती थी और बेहोश करके जबरन ये टेस्ट किया जाता था । अबतक पुलिस एक निजी नर्सिंग होम, जिला अस्पताल और एसएसकेएम अस्पताल में पिंकी का जेंडर टेस्ट करवा चुकी है । क्या इस तरह से पिंकी को जानबूझकर अपमानित नहीं किया जा रहा है । अभी तक ये साबित नहीं हुआ है कि पिंकी महिला है या पुरुष लेकिन पुलिस ने जिस तरह से उसे पुरुष समझ कर उसतके साथ गैरजिम्मेदाराना व्यवहार किया है उसके खिलाफ सख्त कार्रवाई होनी चाहिए । जिस तरह से सोशल नेटवर्किंग साइट्स और इंटनेट पर पिंकी की मेडिकल के वक्त के अंतरंग वीडियो या एमएमएस घूम रहे हैं वो उसकी प्रतिष्ठा और मान सम्मान को तार-तार कर रहे हैं । पिंकी को रेलवे के नियम की वजह से नौकरी से स्सपेंड कर दिया गया । इन सबके उपर जिस तरह से मीडिया के एक हिस्से में पिंकी प्रमाणिक की कहानी को रस ले लेकर दिखाया गया वह बेहद शर्मनाक है । कई अखबारों ने तो उसको सूत्रों के हवाले से उभयलिंगी बता दिया । इन सबसे पिंकी की प्रतिष्ठा तो धूमिल हुई ही समाज में सर उठाकर चलने का उसका भरोसा भी खत्म हो गया । क्या हमारा भारतीय समाज अपने नायकों और विजेताओं के साथ इसी तरह का व्यवहार करता है । क्या इस व्यवहार पर पूरे देश को शर्मसार नहीं होना चाहिए । एक बच्ची को पेशाब चटवाने के मामले में प्रधानमंत्री कार्यालय हरकत में आ जाता है लेकिन इस पूरे मसले पर शासन-प्रशासन की चुप्पी उनकी कार्यशैली पर बड़ा सवाल खड़े कर रही है । क्रिकेट के अलावा अन्य खेलों के लिए हमेशा चिंता जतानेवाले खेल मंत्री की इस मसले पर खामोशी हैरान करनेवाली है ।  

दरअसल इस पूरे समस्या की जड़ में इंटरनेशनल ओलंपिक कमिटी की तरफ से जेंडर तय करने के लिए कोई तय मानक नहीं हैं । जेंडर टेस्ट के लिए ओलंपिक कमेटी के कई बयोलॉजिकल मानक हैं उसके मुताबिक शरीर में टेस्टोएस्टेरॉन की मात्रा से जेंडर तय किया जाता है । जांच में मेल हॉर्मोन टेस्टोएस्टेरॉन की मात्रा ज्यादा पाई जाती है तो माना जाता है कि वो पुरुष है । विडंबना यह है कि टेस्टोएस्टेरॉन का कोई एक मानक स्तर तय नहीं है जिसके आधार पर जेंडर तय हो सके । यह जांच भी इतना आसान नहीं है । उसमें टेस्टोएस्टेरॉन की मात्रा और उसकी कार्य क्षमता की संयुक्त जांच के बाद ही इसका पता लग पाता है । अगर मेल क्रोमोजोम वाई टेस्टोएस्टेरॉन के साथ कोई प्रतिक्रिया नहीं देता है तो उसका विकास महिला की तरह होता है । उसी तरह अगर अनुवांशिक रूप से किसी महिला के दो एक्स क्रोमोजोम और अतिविकसित एडरीनल ग्लैंड्स के हार्मोन टेस्टोएस्टेरॉन में तब्दील हो जाते हैं तो उससे शरीर में टेस्टोएस्टेरॉन की मात्रा बढ़ जाती । ऐसी महिलाओं के एंबिगुअस जेनेटिला भी विकसित हो जाते हैं । उसी तरह अगर किसी महिला में वाई क्रोमोजोम विकसित हो जाता है और जेनेटिक डिफेक्ट की वजह से वाई क्रोमोजोम टेस्टोएस्टेरॉन के साथ रेस्पांड नहीं करता है तो उस प्रक्रिया के आदार पर भी जेंडर टेस्ट में मदद मिलती है ।
इस वजह से ही गिरफ्तार होने के बाद जब पिंकी प्रमाणिक के हुए दो अलग अलग टेस्ट के अलग अलग नतीजे आए हैं । पिंकी के टेस्ट में जिस तरह के नतीजे अबतक मिले हैं उससे पिंकी में कुछ जेनेटिक डिफेक्ट के संकेत मिले हैं । लेकिन विशेषज्ञों की राय में कार्योटाइपिंग के अलावा इस तरह के मामलों में शरीर की संरचना और बचपन से उसके लालन पालन के आधार का भी ध्यान रखना पड़ा है ताकि नतीजे सटीक हो सकें । अब देश को पिंकी के तीसरे टेस्ट के नतीजों का इंतजार है । लेकिन इस पूरे प्रकरण से ये साफ हो गया है कि हमारा समाज समय समय पर पान सिंह तोमर बनाता है । अब भी वक्त है कि पिंकी को पानसिंह तोमर बनने से रोका जाए । उसको उसकी खोई प्रतिष्ठा तो वापस नहीं दी जा सकती लेकिन सम्मान तो हम दे ही सकते हैं ।

Sunday, July 15, 2012

किताब संस्कृति की बाधाएं

हिंदी की प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका साहित्य अमृत के अपने संपादकीय में त्रिलोकी नाथ चतुर्वेदी ने लिखा है दिल्ली में हिंदी साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं के मिलने का कोई एक स्थान नहीं है, जहां पाठक पन्ने पलटकर अपनी पसंद की कोई पत्रिका खरीद सके । त्रिलोकीनाथ चतुर्वेदी के लंबे संपादकीय में यह छोटी सी टिप्पणी पूरे हिंदी समाज में साहित्यक किताबों और पत्र-पत्रिकाओं की उपलब्धता के बारे में सटीक लेकिन कड़वी हकीकत बयान करती है । आज हमारे समाज में हिंदी साहित्य की किताबों को लेकर जो एक उदासीनता, खासकर नई पीढ़ी में, दिखाई देती है उसके पीछे किताबों और साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं की अनुपलब्धता बड़ी वजह है । आज अगर हिंदी साहित्य का कोई नया पाठक प्रेमचंद से लेकर अज्ञेय से लेकर संजय कुंदन तक की रचनाएं पढना चाहता है तो उसे उसके आसपास मिल नहीं पाता है । अपने पसंदीदा लेखक की किताब के लिए पाठक को कई किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है या फिर इतना श्रम करना पड़ता है कि पढ़ने का उत्साह ही खत्म हो जाता है । अब जरूर एक नया विकल्प इंटरनेट के जरिए ऑर्डर देकर किताबें मंगवाने का है लेकिन वहां यह आवश्यक नहीं है कि मनचाही हिंदी की किताबें मिल ही जाएं ।
दिल्ली और मुंबई, जैसे महानहरों के अलावा अगर हिंदी पट्टी के बड़े शहरों मसलन लखनऊ, पटना,इलाहाबाद, कानपुर, भोपाल, जयपुर आदि की भी बात करें तो हर जगह कमोबेश एक ही तरह की स्थिति है । छोटे शहरों में जरूर कुछ स्थिति बेहतर है वो भी इस लिहाज से कि वहां की जनसंख्या और शहरों के फैलाव के अनुपात में एक भी साहित्यिक पत्रिकाओं की दुकान से पाठकों को देर सबेर कुछ ना कुछ मिल ही जाता है । दिल्ली के केंद्र में स्थित श्रीराम सेंटर में वाणी प्रकाशन की किताबों और पत्रिकाओं की एक दुकान हुआ करती थी जहां हर तरह की पत्र-पत्रिकाएं मिल जाया करती थी । वहां पाठकों को बाहर बैठकर किताबों को देखने पलटने की भी सहूलियत भी थी । लेकिन कारोबारी वजहों से वो सेंटर बंद हो गया और हिंदी की साहित्यक पत्रिकाओं और साहित्य की किताबें ढूंढना दिल्ली में एक श्रमसाध्य काम हो गया । कड़वी सचाई यही है कि साहित्यक पत्रिकाओं का कोई भी केंद्र दिल्ली में नहीं है जहां आपको देशभर की किताबें मिल सकें ।  
पाठकों तक किताबों को पहुंचाने और उसकी उपलब्धता बढ़ाने की दिशा में ना तो हिंदी के प्रकाशक और ना ही सरकार की तरफ से कोई पहल हो रही है । नतीजा ह हो रहा है कि हिंदी जगत में पुस्तक संस्कृति विकसित नहीं हो पा रही है । पहले तो पुस्तकालयों के माध्यम से ये संभव हो जाता था, लेकिन अब तो पुस्तकालय भी भगवान भरोसे ही हैं । दरअसल पुस्तक संस्कृति के फैलाव से नई पीढ़ी में एक तरह के संस्कार पैदा होता है जो अपनी समृद्ध साहित्यिक और सांस्कृतिक परंपराओं का ज्ञान कराता है । जब आपको अपनी परंपरा का ज्ञान होगा तो उस पर आप अभिमान कर पाएंगे । प्रकाशक तो संसाधनों की कमी का रोना रोकर इस पहल से पल्ला झाड़ लेते हैं । प्रकाशकों के संगठनों के सामने फ्रांस का उदाहरण है जहां प्रकाशकों के संगठनों ने शानदार पहल की और किताबों की दुकान को लेकर सरकार को एक ठोस नीति बनाने के लिए मजबूर कर दिया । फ्रांस में हर गली मोहल्ले में आपोक किताबों की दुकान मिल जाएगी । एक अनुमान के मुताबिक फ्रांस में पिछले दस साल में किताबों की बिक्री में सालाना सात फीसदी इजाफा हुआ है । किताबों के कारोबार को लोकप्रिय बनाने में फ्रांस के संस्कृति मंत्री रहे जैक लैंग की महती भूमिका रही है । लैंग लॉ फ्रांस का मशहूर कानून है जिसकी दुहाई पूरे यूरोप में दी जाती है और उसे पुस्तकों की संस्कृति विकसित करने की दिशा में एक आदर्श कानून माना जाता है  । जैक ने सबसे पहले एक काम किया कि कानून बनाकर किताबों की कीमत तय करने का एक मैकेन्जिम बनाया । नतीजा यह हुआ कि पूरे देश में किताबों की कीमत में एकरूपता आ गई । वहां कोई भी प्रकाशक सूची में प्रकाशित मूल्य से पांच फीसदी से ज्यादा की छूट नहीं दे सकता है । अमेजोन और दूसरे बेवसाइट पर भी इतनी ही छूट दी जा सकती है । इससे ज्यादा देने पर वो गैरकानूनी हो जाता है । हिंदी में यह स्थिति नहीं है । कारोबारी कमीशन से इतर पाठकों को भी प्रकाशक अपनी मर्जी से बीस से पच्चीस फीसदी तक छूट दे देते हैं । पुस्तक मेले में तो ये छूट बढ़कर पच्चीस फीसदी तक पहुंच जाती है । सरकारी खरीद में कितनी छूट दी जाती है ये तो प्रकाशक या फिर संबंधित विभाग को ही पता रहता है । मूल्य निर्धारण की हिंदी में कोई सर्वमान्य प्रक्रिया भी नहीं है, लिहाजा किताबों के दाम बहुधा ज्यादा और सरकारी खरीद को ध्यान में रखकर तय किए जाते हैं । कभी कभार तो ये आम पाठकों की पहुंच से बाहर होते हैं ।
दूसरी बात जो किताब की दुकानों की कमी को लेकर है । यह कमी सरकारी उदासीनता और कोई ठोस नीति नहीं होने की वजह से हैं । किताब की दुकान खोलने के लिए सरकारी या सरकारी सहायता प्रापत् स्वायत्त साहित्यक संस्थाओं की तरफ से कोई आर्थिक सहायता का प्रावधान नहीं है । ना ही बैंको से रियायती दरों पर किताब की दुकान खोलने के लिए कर्ज मिलता है । हमारे यहां कई गैरजरूरी चीजों पर सरकारी सब्सिडी मिल सकती है लेकिन किताबों की उपल्बधता बढ़ाने के लिए होनेवाले खर्च पर सरकार भी उदासीन है । अगर हम फ्रांस की बात करें तो वहां कई सरकारी संस्थाएं रियायती दरों पर किताब की दुकान के कारोबार के लिए कर्ज देती है । नतीजा यह होता है कि अगर कोई एक किताब की दुकान बंद होती है तो उसके पड़ोस में नई दुकान खुल जाती है ।  किताब के करोबार को हमारे यहां ना तो उद्योग और ना ही लघु उद्योग का दर्जा प्राप्त है । हमारे देश की विडंबना यह है कि यहां किसी भी तरह की संपत्ति की बिनाह पर बैंक से लोन मिल जाता है लेकिन अगर किताबों के स्टॉक को गिरवी रखकर भी आप लोन लेना चाहें तो बैंक इंकार कर देते हैं । प्रकाशन जगत में एक जुमला बहुत चलता है छपने के पहले कागज चार रुपए किलो, छपने के बाद दो रुपए किलो । ये कहावत हमारे देश में छपी किताबों को लेकर उससे जुड़े कारोबारियों की ममोदशा की ओर इशारा करता है ।   
पाठकों तक किताबें भेजने के लिए साहित्यक पत्र पत्रिकाओं के लिए डाक दरों में भी रियायत नहीं मिलती है । खबर छापने वाली पत्रिकाओं को डाक दर में रियायत मिलती है । रेलवे से किताब भेजने पर जितनी छूट पहले मिला करती थी वो भी अब लगातार कम होती जा रही है । इन सबके पीछे जो वजह है वो यह कि किताबों को लेकर हमारे देश में कोई नीति नहीं है । नीति तब बनती है जब सत्ता के शीर्ष पर बैठा कोई शख्स उसमें रुचि लेता है । जवाहरलाल नेहरू जब प्रधानमंत्री थे तो उनकी उन कला संस्कृति, पुस्तक लेखक और उनसे जुड़े सवालों में रुचि थी । आज के राजनीति परिदृश्य में नेहरू जैसे शख्सियत कम ही हैं । आजादी के पैंसठ साल बाद भी हमारे देश में किताबों को लेकर कोई ठोस नीति नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण है । आज हमारे देश में जरूरत इस बात की है कि किताबों को लेकर एक राष्ट्रीय पुस्तक नीति बने जिसमें उन सारी बातों और पहलुओं का ध्यान रखा जाना चाहिए जिससे देश में किताबों की एक संस्कृति का विकास हो सके । इस नीति के पहले राष्ट्रीय स्तर पर एक बहस हो जिसमें लेखकों, प्रकाशकों और आम पाठकों की भागीदारी हो । उस मंथन से जो अमृत निकले उसको लेकर आगे बढ़ा जाए ताकि हमारे देश में पुस्तक संस्कृति का निर्माण हो सके ।

Sunday, July 8, 2012

ई रीडर्स मांगे मोर

पिछले करीब तीन महीनों से ई एल जेम्स की फिफ्टी शेड्स ट्रायोलॉजी यानि तीन किताबें फिफ्टी शेड्स ऑफ ग्रे, फिफ्टी शेड्स डार्कर, फिफ्टी शेड्स फ्रीड अमेरिका में प्रिंट और ई एडीशन दोनों श्रेणी में बेस्ट सेलर बनी हुई हैं । जेम्स की इन किताबों ने पूरे अमेरिका और यूरोप में इतनी धूम मचा दी है कि कोई इसपर फिल्म बना रहा है तो कोई उसके टेलीवीजन अधिकार खरीद रहा है । फिफ्टी शेड्स ट्रायोलॉजी लिखे जाने की कहानी भी बेहद दिलचस्प है । टीवी की नौतरी छोड़कर पारिवारिक जीवन और बच्चों की परवरिश के बीच एरिका ने शौकिया तौर पर फैनफिक्शन नाम के बेवसाइट पर मास्टर ऑफ यूनिवर्स के नाम से एक सीरीज लिखना शुरू किया । एरिका ने पहले तो स्टीफन मेयर की कहानियों की तर्ज पर प्रेम कहानियां लिखना शुरू किया जो काफी लोकप्रिय हुआ ।  लोकप्रियता के दबाव और ई रीडर्स की मांग पर उसे बार बार लिखने को मजबूर होना पड़ा । शौकिया लेखन पेशेवर लेखन में तब्दील हो गया । पाठकों के दबाव में एरिका ने अपनी कहानियों का पुर्नलेखन किया और उसे फिर से ई रीडर्स के लिए पेश कर दिया । पात्रों के नाम और कहानी के प्लॉट में बदलाव करके उसकी पहली किश्त बेवसाइट पर प्रकाशित हुई तो वह पूरे अमेरिका में वायरल की तरह फैल गई । चंद हफ्तों में एरिका लियोनॉर्ड का भी नाम बदल गया और वो बन गई ई एल जेम्स । उसकी इस लोकप्रियता को भुनाते हुए उसने ये ट्रायोलॉजी प्रकाशित करवा ली । इसके प्रकाशन के पहले ही प्री लांच बुकिंग से प्रकाशकों ने लाखों डॉलर कमाए । यह सब हुआ सिर्फ साल भर के अंदर ।
इस पूरे प्रसंग को लिखने का उद्देश्य यह बताना था कि ई बुक्स की बढती लोकप्रियता और उसके फायदों के मद्देनजर यूरोप और अमेरिका में लेखकों ने ज्यादा लिखना शुरू कर दिया है । उनकी पहली कोशिश ये होने लगी है कि वो अधीर पाठकों की झुधा को शांत करे जो कि अपने प्रिय लेखक की कृतियां एक टच से या एक क्लिक से डाउनलोड कर पढ़ना चाहता है । ई रीडिंग और ई राइटिंग के पहले के दौर में लेखक साल में एक कृति की रचना कर लेते थे तो उसे बेहद सक्रिय लेखक माना जाता था । जॉन ग्रीशम जैसा लोकप्रिय लेखक भी साल में एक ही किताब लिखता था । पाठकों को भी साल भर अपने प्रिय लेखकों की कृति का इंतजार रहता था । पुस्तक छपने की प्रक्रिया भी वक्त लगता था । पहले लेखकों के लिखे को टाइप किया जाता था । फिर उसकी दो तीन बार प्रूफरीडिंग होती थी । कवर डिजायन होता था । ले देकर हम कह सकते हैं कि लेखन से लेकर पाठकों तक पहुंचने की प्रक्रिया में काफी वक्त लग जाता था । यह वह दौर था जब पाठकों और किताबों के बीच एक भावनात्नक रिश्ता होता था । पाठक जब एकांत में हाथ में लेकर किताब पढ़ता था तो किताब के स्पर्श से वह उस किताब के लेखक और उसके पात्रों से एक तादात्मय बना लेता था । कई बार तो लेखक पाठक के बीच का भावनात्मक रिश्ता इतना मजबूत होता था कि पाठक वर्षों तक अपने प्रिय लेखक की कृति के इंतजार में बैठा रहता था और जब उसकी कोई किताब बाजार में आती थी तो उसे वो हाथों हाथ ले ले लेता था । लेकिन वक्त बदला, स्टाइल बदला, लेखन और प्रकाशन की प्रक्रिया बदली । अब तो ई लेखन का दौर आ गया है । ई लेखन और ई पाठक के इस दौर में पाठकों की रुचि में आधारभूत बदलाव देखने को मिल रहा है । पश्चिम के देशों में पाठकों की रुचि में इस बदलाव को रेखांकित किया जा सकता है । अब तो इंटरनेट के दौर में पाठकों का लेखकों से भावनात्मक संबंध की बजाए सीधा संवाद संभव हो गया है । लेखक ऑनलाइन रहते हैं तो पाठकों के साथ बातें भी करते हैं । ट्विटर पर सवालों के जवाब देते हैं । पेसबुक पर अपना स्टेटस अपडेट करते हैं । ई एल जेम्स की सुपरहिट ट्राय़ोलॉजी तो पाठकों के संवाद और सलाह का ही नतीजा है ।

दरअसल हमारे या विश्व के अन्य देशों के समाज में जो इंटरनेट पीढ़ी सामने आ रही है उनके पास धैर्य की कमी है । कह सकते हैं कि वो सबकुछ इंस्टैंट चाहती हैं । उनको लगता है कि इंतजार का विकल्प समय की बर्बादी है । अमेजोन या किंडल पर किताबें पढ़नेवाला ये पाठक समुदाय बस एक क्लिक या एक टच पर अपने पसंदीदा लेखक की नई कृति चाहता है । इससे लेखकों पर जो दबाव बना है उसका नतीजा यह है कि बड़े से बड़ा लेखक अब साल में कई कृतियों की रचना करने लगा । कई बड़े लेखक तो साल में दर्जनभर से ज्यादा किताबें लिखने लगे । जो कि ई रीडिंग और ई राइटिंग के दौर के पहले असंभव हुआ करता था । जैम्स पैटरसन जैसे बड़े लेखकों की रचनाओं में बढ़ोतरी साफ लक्षित की जा सकती है । पिछले साल पैटरसन ने बारह किताबें लिखी और एक सहलेखक के साथ यानि कुल तेरह । एक अनुमान के मुताबिक अगर पैटरसन के लेखन की रफ्तार कायम रही तो इस साल वो तेरह किताबें अकेले लिख ले जाएंगें । पैटरसन की सालभर में इतनी किताबें बाजार में आने के बावजूद ई पाठकों और सामान्य पाठकों के बीच उनका आकर्षण कम नहीं हुआ, लोकप्रियता में इजाफा हुआ है । लेकिन जेम्स पैटरसन की इस रफ्तार से कई साथी लेखक सदमे में हैं ।
ई रीडर्स की बढ़ती तादाद का फायदा प्रकाशक भी उठाना चाहते हैं, लिहाजा वो भी लेखकों पर ज्यादा से ज्यादा लिखने का दबाव बनाते हैं । प्रकाशकों को लगता है कि जो भी लेखक इंटरनेट की दुनिया में जितना ज्यादा चर्चित होगा वो उतना ही बड़ा स्टार होगा । जिसके नाम को किताबों की दुनिया में भुनाकर ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाया जा सकता है । इसके मद्देनजर प्रकाशकों ने एक रणनीति भी बनाई हुई है । अगर किसी बड़े लेखक की कोई अहम कृति प्रकाशित होनेवाली होती है तो प्रकाशक लेखकों से आग्रह कर पुस्तक प्रकाशन के पहले ई रीडर्स के लिए छोटी छोटी कहानियां लिखवाते हैं । जो कि सिर्फ डिजिटल फॉर्मेट में बी उपलब्ध होता है । इसका फायदा यह होता है कि छोटी कहानियों की लोकप्रियता से लेखक के पक्ष में एक माहौल बनता है और उसकी आगामी कृति के लिए पाठकवर्ग में एक उत्सुकता पैदा होती है । जब वह उत्सुकता अपने चरम पर होती है तो प्रकाशक बाजार में उक्त लेखक की किताब पेश कर देता है । उत्सुकता के उस माहौल का फायदा परोक्ष रूप से प्रकाशकों को होता है और वो मालामाल हो जाता है । इसमें कुछ गलत भी नहीं है क्योंकि कारोबार करनेवाले अपने फायदे की रणनीति बनाते ही हैं ।
मशहूर और बेहद लोकप्रिय ब्रिटिश थ्रिलर लेखक ली चाइल्ड ने भी अपने उपन्यास के पहले कई छोटी छोटी कहानियां सिर्फ डिजीटल फॉर्मेट में लिखी । उन्होंने साफ तौर पर माना कि ये कहानियां वो अपने आगामी उपन्यास के लिए पाठकों के बीच एक उत्सुकता का माहौल बनाने के लिए लिख रहे हैं । तो प्रकाशक के साथ-साथ लेखक भी अब ज्यादा से ज्यादा लिखकर उस कारोबारी रणनीति का हिस्सा बन रहे हैं । चाइल्ड ने माना है कि पश्चिम की दुनिया में सभी लेखक कमोबेश ऐसा कर रहे हैं और उनके मुताबिक दौड़ में बने रहने के लिए ऐसा करना बेहद जरूरी भी है । इन स्थितियों की तुलना में अगर हम हिंदी लेखकों की बात करें तो उनमें से कई वरिष्ठ लेखकों को अब भी सोशल नेटवर्किंग साइट्स सरे परहेज है । उनकी अपनी कोई बेवसाइट नहीं है । दो-चार प्रकाशकों को छोड़ दें तो हिंदी के प्रकाशकों की भी बेवसाइट नहीं है । हिंदी के वरिष्ठ लेखक अब भी फेसबुक और ट्विटर से परहेज करते नजर आते हैं । नतीजा यह कि हिंदी में लेखकों पर अब भी पाठकों का कोई दबाव नहीं, वो अपनी रफ्तार से लेखन करते हैं । फिर रोना रोते हैं कि पाछक नहीं । वक्त के साथ अगर नहीं चलेगें तो वक्त भी आपका इंतजार नहीं करेगा और आगे निकल जाएगा । हिंदी के लेखकों के लिए चेतने का वक्त है ।