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Monday, November 14, 2011

लेखको, माफी मांगो !

पिछले दिनों लखनऊ में हिंदी के महान रचनाकारों में से एक श्रीलाल शुक्ल जी का निधन हो गया । मैं श्रीलाल जी से दो बार मिला । एक बार राजकमल प्रकाशन के लेखक से मिलिए कार्यक्रम में और दूसरी बार राजेन्द्र यादव के जन्मदिन की पार्टी में । लेखक से मिलिए कार्यक्रम में तो बेहद ही औपचारिक सी मुलाकात थी । लेकिन कवि उपेन्द्र कुमार के घर पर हुई राजेन्द्र यादव की पार्टी में पर तो मेरा अनुभव एकदम ही अलहदा था । किस वर्ष की बात है ये ठीक से याद नहीं है । लेकिन इतना याद है कि नब्बे के दशक के उत्तर्राद्ध की बात है । यादव जी की पार्टी चल रही थी । दिल्ली का पूरा साहित्यिक समाज वहां मौजूद था । पार्क स्ट्रीट के बंगले में हो रही पार्टी में जमकर रसरंजन भी हो रहा था । रसरंजन के बाद खाने का इंतजाम था । पार्टी अपने शबाब पर थी । जमकर रसरंजन हो रहा था । नामवर जी, अजित कुमार, श्रीलाल शुक्ल एक ही टेबल पर जमे हुए थे । हमलोग खाना खाने पहुंचे तो देखा कि श्रीलाल जी भी आ रहे हैं । कतार में खड़े सभी लोगों ने श्रीलाल जी के लिए जगह छोड़ दी । शुक्ला जी ने खाना लिया और प्लेट लेकर गेट की ओर बढ़ चले । सभी लोग अपनी मस्ती में थे, रसरंजन का भी असर था । खाना लेकर श्रीलाल जी जब गेट से बाहर हो गए तो हम दो तीन लोग लपके । लेकिन श्रीलाल जी कहां मानने वाले थे वो तो सड़क पार करके जाकर डिवाइडर पर बैठ गए । अब सोचिए कि हिंदी का इतना बड़ा लेखक पार्टी से निकलकर डिवाइडर पर बैठकर खाना खा रहा है । पार्क स्ट्रीट पर ठीक-ठाक ट्रैफिक होता है । लेकिन पार्टी के शोरगुल से बेफिक्र श्रीलाल जी खाने में मगन थे । हम लोग उनके आसपास खड़े थे । मैं मंत्रमुग्ध सा उनको देख रहा था । हिंदी के इतने बड़े साहित्यकार से इतने नजदीक से मिलने का मौका । जब खाना खत्म होने लगा तो उन्होंने कहा कि सब्जी चाहिए । खैर हमारे कहने पर माने और खुद चलकर अंदर आ गए । लेकिन तबतक रसरंजन का असर काफी हो चुका था । किसी तरह हम उनको लेकर अंदर आए और फिर वहां बिठाया । यह मेरे लिए एक स्वपन सरीखा था । राग दरबारी जैसी कालजयी कृति के रचियता से बातचीत कर मैं धन्य हो रहा था । खैर पार्टी खत्म हो गई और हम अपने अपने घर चले गए । लेकिन तबतक कई लोगों से श्रीलाल जी के बारे में बात कर काफी जान चुका था । कई सालों बाद जब तद्भव के प्रवेशांक में श्रीलाल शुक्ल पर रवीन्द्र कालिया का संस्मरण पढ़ा तो यादव जी के जन्मदिन की घटना एक बार फिर से स्मरण हो आया । कालिया जी ने लिखा था- लखनऊ में मेरे एक आईएएस मित्र हैं, एक बार उनसे मिलने उनके निवास स्थान पर गया । बाहर एक चौकीदार तैनात था । मैंने उससे पूछा, साहब हैं ? हां हैं । क्या कर रहे हैं ? शराब पी रहे हैं । उसने निहायत सादगी से जवाब दिया । श्रीलाल शुक्ल जब इलाहाबाद नगर निगम के प्रशासक थे, तो अक्सर उनसे भेंट होती थी, उनका चौकीदार भी कुछ कुछ लखनऊ के मित्र के चौकीदार जैसा था । एक बार उनसे मिलने गया और चौकीदार से यह पूछने पर कि श्रीलाल जी घर पर हैं या नहीं, उसने बताया, साहब हैं । क्या कर रहे हैं- मैंने पूछा । बाहर बगीचे में बैठे हैं और टकटकी लगाकर चांद की तरफ देख रहे हैं । उसने बगीचे की ओर संकेत करते हुए कहा था । बाद में कालिया जी को श्रीलाल जी ने पत्र लिखकर उपरोक्त प्रसंग पर हल्की सी नाराजगी भी दिखाई थी और लिखा था कि काल्पनिक आईएएस मित्र की बजाए सीधे सीधे उनका नाम भी लिख देते तो कुछ नहीं हो जाता । तद्भव का वह अंक बेहतरीन था । लकिन वो अंक मेरे पास नहीं हैं , बाद में राजकमल से ही अखिलेश के संपादन में श्रीलाल शुक्ल की दुनिया के नाम से वो पुस्तकाकार छपा । श्रीलाल जी को जानने के लिए वो किताब मुकम्मल है । तकरीबन दस साल बाद लखनऊ जाना हुआ । श्रीलाल जी से मिलने के लिए उनके घर फोन किया । यह याद नहीं कि किसने उठाया लेकिन यह बताया गया कि उनकी तबियत खराब है और मुलाकात मुमकिन नहीं है ।
श्रीलाल जी के निधन से एक और हसरत मन में ही रह गई । दो हजार दो में मेरे श्वसुर (अब स्वर्गीय) प्रो प्रियवत नारायण सिंह जी ने मुझे रागदरबारी का पहला संस्करण भेंट किया । मेरे लिए यह एक अमूल्य भेंट थी । मेरे पास राग दरबारी का पेपर बैक संस्करण था । राग दरबारी का पहला संस्करण 1968 में राजकमल प्रकाशन प्रा लिमिटेड दिल्ली-6 से छपा था । उस संस्करण पर उपन्यास का मूल्य 15 रु अंकित है । पहले संस्करण का कवर रिफार्मा स्टूडियो, दिल्ली ने बनाया था । लेकिन जब मुझे राग दरबारी का पहला संस्करण मिला तो उसका कवर नहीं था । मैंने यूं ही राजकमल प्रकाशन के मालिक अशोक महेश्वरी को पहले संस्करण की प्रति के बारे में चर्चा की । उन्होनें सुनते ही प्रस्ताव रखा कि मैं उनको पहले संस्करण की प्रति दे दूं, बदले में वो मुझे राग दरबारी की पांच प्रतियां दे देंगे । मैंने विनम्रतापूर्वक उनके प्रस्ताव को मना कर दिया । थोड़ी निराशा उनके चेहरे पर अवश्य दिखी लेकिन मेरी भावनाओं को उन्होंने समझा । मेरे पास राग दरबारी का कवर नहीं था। मैंने अशोक जी से एक कवर मांग लिया । अब मेरे पास जो राग दरबारी है वो पहला संस्करण है लेकिन कवर बाद के संस्करण का है । मैं जब भी लखनऊ जाता था तो सोचता था कि इस बार श्रीलाल शुक्ल से मिलूंगा और उनसे किताब पर दस्तखत लूंगा और कवर के बारे में मालूम करूंगा । लेकिन श्री लाल जी के निधन के बाद ये इच्छा पूरी नहीं हो सकी ।
लेकिन श्रीलाल जी की बीमारी और उनके निधन के बहाने मैं एक और बात शिद्दत से उठाना चाहता हूं । जब श्रीलाल जी बीमार थे और लखनऊ के अस्पताल में भर्ती थे तो अचानक से एक दिन दिल्ली के कुछ लेखकों की ओर से एक अपील जारी हुई । जिसमें सरकार से श्रीलाल जी की बीमारी के मद्देनजर सरकार से उनके समुचित इलाज की व्यवस्था करवाने की अपील की गई थी । अपील पर दस्तखत करनेवालों में सर्वश्री अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह, चंचल चौहान, पंकज विष्ट और रेखा अवस्थी के नाम प्रमुख हैं । इस मुहिम के अगुवा मुरली मनोहर प्रसाद थे । श्रीलाल जी वरिष्ठ आईएएस अफसर थे और उत्तर प्रदेश में प्रमुख सचिव के पद से रिटायर हुए थे । लिहाजा उनके पास सीजीएचएस की सुविधा होनी चाहिए । उसके अलावा उनका भरा पूरा समृद्ध परिवार है जो उनके इलाज के लिए स्वत सक्षम है । दिल्ली में 3 नवंबर को श्रीलाल जी की श्रद्धांजलि सभा का भव्य आयोजन हुआ था । उससे भी जाहिर होता है कि परिवार को कोई कमी नहीं है । लेखकों ने इस तरह की अपील जारी कर श्रीलाल जी का अपमान किया । बेवजह उनको दयनीय बनाने की कोशिश की गई । मुझे लगता है कि अगर जीते जी श्रीलाल जी को इस बात का पता चल गया होता तो तो वो बेहद नाराज होते । लखनऊ के उनके कई करीबी लोगों से मेरी बात हुई सबने यही कहा कि श्रीलाल जी बेहद स्वाभिमानी व्यक्ति थे और अगर वो इसका प्रतिरोध करने की स्थिति में होते तो जरूर करते । मेरे हिसाब से सरकार से मदद की अपील अनावश्यक और गैरजरूरी थी । यह अपील जारी करके लेखकों ने श्रीलाल जी का घोर अपमान किया है और उसको माफी मांग कर अपनी गलती को सुधारना चाहिए । क्या अशोक वाजपेयी, राजेन्द्र यादव, पंकज बिष्ठ, मुरली मनोहर प्रसाद सिंह यह साहस दिखा पाएंगे और श्रीलाल जी और उनके परिवार से माफी मांग कर मिसाल कायम करेंगे । करना चाहिए । बड़प्पन इसी में है ।

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