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Monday, June 11, 2012

कहां गई 'पार्टी विद अ डिफरेंस'

कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए 2 सरकार एक के बाद एक भ्रष्टाचार के गंभीर आरोपों से बुरी तरह घिरी हुई है । सरकार महंगाई पर काबू पाने में बुरी तरह से नाकाम रही है । पेट्रोल के दाम आसमान छू रहे हैं, देशभर में आम जनता त्राहिमाम कर रही है । राजनीति में इस तरह की स्थितियां प्रमुख विपक्षी दल के आइडियल होती हैं । उन्हें बैठे बिठाए मुद्दा मिल जाता है और सत्तारूढ दल या गठबंधन को पछाड़ने का हथियार । याद हो कि वी पी सिंह ने सिर्फ चौंसठ करोड़ के बोफोर्स घोटाले को लेकर देशभर में इतना बड़ा जनज्वार पैदा कर दिया था कि सरकार बदल गई थी। लेकिन इस वक्त ऐसा होता नहीं दिख रहा । प्रमुख विपक्षी दल बीजेपी में इतनी ज्यादा खींचतान है कि वो फिलहाल जनता को बेहतर विकल्प देने का भरोसा नहीं दे पा रही है । मुंबई में राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक मे जिस तरह से शीर्ष नेतृत्व के बीच मतभेद का इजहार हुआ वो पार्टी के लिए अच्छे संकेत नहीं हैं । नरेन्द्र मोदी और संजय जोशी का प्रकरण नेतृत्व की लाचारी दिखा गया । नितिन गडकरी को पार्टी अध्यक्ष को दूसरा कार्यकाल देने के लिए जब पार्टी संविधान में संशोधन का प्रस्ताव पास हो रहा था तो आडवाणी नदारद थे । बाद की रैली में आडवाणी के साथ सुषमा स्वराज भी गायब रही । बीजेपी भले ही उपर से एकजुट दिखने का प्रयास करे लेकिन हर जगह पार्टी आंतरिक कलह और अपने नेताओं की महात्वाकांक्षा से जूझ रही है । प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश पाले नेताओं के बीच शह और मात का खेला जा रहा है तो कोई मुख्यमंत्री बनने के लिए बेताब है । इस अंतर्कलह के बीच पार्टी के लौहपुरुष आडवाणी रेसकोर्स जाने के अपने सपने को पूरा करना चाहते हैं । आडवाणी ने अपने ब्लॉग में जिस तरह से गडकरी पर निशाना साधा है उससे कलह खुलकर सामने आ गई है ।

केंद्रीय नेतृत्व की होड़ के बीच बीजेपी शासित राज्यों में भी हालात कोई अच्छे नहीं हैं । राजस्थान में वसुंधरा राजे ने आलाकमान के खिलाफ खुली बगावत करके उन्हें घुटने टेकने को मजबूर कर दिया संगठन के उपर व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा की जीत हुई । कर्नाटक में भी येदुरप्पा के बगावती तेवर पार्टी नेताओं को परेशान कर रहे हैं । इस वक्त जब पार्टी को चुनाव की तैयारी में जुटना चाहिए था और कांग्रेस को परास्त करने की रणनीति बनानी चाहिए थी तो नेता खुद की पार्टी को परास्त करने की बिसात बिछा रहे हैं । येदुरप्पा खुद मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं, सदानंद गौड़ा मुख्यमंत्री बने रहना चाहते हैं और अनंत कुमार फल टपकने के इंतजार में हैं । गुजरात में इस साल विधानसभा चुनाव होने वाले हैं । वहां के संगठन में भी हालात बेहतर नहीं हैं । केशुभाई पटेल, सुरेश मेहता और कांशीराम राणा जैसे कद्दावर नेता लगातार मोदी को कमजोर करने में जुटे हैं । गुजरात से निकलकर अगर महाराष्ट्र बीजेपी की बात करें तो प्रमोद महाजन के बाद पार्टी के सबसे बड़े और पिछड़े वर्ग से आने वाले गोपीनाथ मुंडे गाहे बगाहे बगावती तेवर दिखाते रहते हैं । गडकरी से उनकी अदावत पुरानी है । कांग्रेस-एनसीपी के बदतर प्रदर्शन के बावजूद पार्टी के अंतर्कलह से बीजेपी सत्तारूढ गठबंधन को चुनौती देने की हालत में नहीं है । मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान भी पार्टी से बड़े हो गए हैं । उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के वक्त जब उमा भारती की पार्टी में वापसी का फैसला होनेवाला था तो शिवराज सिंह ने शर्त रख दी थी कि उमा भारती मध्यप्रदेश में कदम नहीं रखेंगी। आलाकमान के इस शर्त मानने के बाद ही भारती की पार्टी में वापसी संभव हुई । दिल्ली में तो शीला दीक्षित करीब पंद्रह साल से राज कर रही है लेकिन वहां डेढ़ दशक के बाद भी बीजेपी शीला को चुनौती देनेवाला नेता नहीं ढूंढ पाई है । झारखंड का मसला बहुत पुराना नहीं है जब राज्यसभा चुनाव में उम्मीदवारों के चयन को लेकर यशवंत सिन्हा और गडकरी में ठन गई थी । बाद में पार्टी को एक धनवान उम्मीदवार के समर्थन के फैसले को बदलना पड़ा था जिससे आलाकमान की खासी किरकिरी हुई थी।
पार्टी में अंतर्कलह का नतीजा यह हुआ कि बीजेपी संसद से लेकर सड़क तक यूपीए सरकार के खिलाफ कोई ठोस मुद्दा पेश नहीं कर सकी । पिछले साल महंगाई के मुद्दे पर बीजेपी ने देशभर में सड़कों पर उतरने का ऐलान किया था लेकिन जनता को बेहतर विकल्प का भरोसा नहीं दे पाने की वजह से अपेक्षित जनसमर्थन नहीं मिला और मुहिम टांय टांय फिस्स हो गई । जब बीजेपी 1998 में सत्ता में आई थी तो उस वक्त उनका नारा था सार्वजनिक जीवन में शुचिता और पार्टी विद अ डिफरेंस । नरसिंह राव, देवगौड़ा और गुजराल जैसे नेताओं के शासन से उब चुकी जनता को बीजेपी में उम्मीद दिखी थी ।  पिछले तीन साल से संसद में बीजेपी यूपीए सरकार की नाकामी और भ्रष्टाचार पर वॉक आउट और शोर-शराबे के अलावा रचनात्मक विपक्ष की भूमिका निभाने में अबतक सफल नहीं हो पाई है । उनको लगता है कि यूपीए की नाकामी ही उनके लिए सत्ता का मार्ग प्रशस्त करेगी । पार्टी की आस नकारात्मक वोट से है लिहाजा सकारात्मक वोट पाने की कोशिश नहीं हो रही ।  

बीजेपी को हमेशा से मजबूत केंद्रीय नेतृत्व से ताकत मिलती थी । वैसा नेता जो जनता के बीच बेहद लोकप्रिय हो, चाहे वो अटल बिहारी वाजपेयी का करिश्मा हो या फिर लालकृष्ण आडवाणी की सख्त और कट्टर हिंदूवादी छवि । उस दौर में केंद्रीय नेतृत्व अपने हर अहम फैसले के पहले पार्टी क्षत्रपों से बात कर उनको विश्वास में लेते थे । लेकिन हाल के दिनों में जिस तरह से पार्टी की शीर्ष निर्णायक कमेटियों कोर ग्रुप, पार्लियामेंट्री बोर्ड, सेंट्रल इलेक्शन कमेटी से जमीन से जुड़े नेताओं को बाहर रखा गया, उससे मुश्किलें और बढ़ गई । जनता के बीच जानेवाले नेताओं के बजाए एयरकंडीशंड कमरों में रहनेवाले नेताओं की पूछ बढ़ गई है।  नतीजा यह हुआ कि पार्टी पक्षाघात का शिकार हो गई और दिल्ली में बैठे केंद्रीय नेताओं की व्यक्तिगत महात्वाकांक्षा संगठन पर हावी होती चली गई ।

इस वक्त जब बीजेपी के सामने सत्ता वापसी का सुनहरा मौका है लेकिन इस वक्त पार्टी व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं का कोलाज बन गई है । अंतर्कलह चरम पर है । बीजेपी के पास अब भी दो साल का वक्त है । अगर समय रहते पार्टी नहीं चेती और उसके नेता व्यक्तिगत महात्वाकांक्षाओं को त्याग कर एकजुट होकर जनता का विश्वास जीतने में कामयाब नहीं हुए तो 2104 में भी उनके लिए दिल्ली दूर ही साबित होगी ।

2 comments:

सिद्धार्थ प्रताप सिंह said...

महोदय मैंने जब आप का यह लेख नवभारत में पढ़ा तो nbt से लिंक लेकर तुरंत BJP के पेज में शेयर करते हुए लिखा था की यह चिंता का नहीं चिंतन का मौका है, वक्त रहते अगर भाजपा का प्रबुद्ध वर्ग जाग जाये तो यह राष्ट्रीय पार्टी क्षेत्रीय दलों के रूप में बटने से बच जाएगी ,,,,,,और अगर ऐसा होता है तो यह देश हित में होगा |

Anonymous said...

महोदय मैंने जब आप का यह लेख नवभारत में पढ़ा तो nbt से लिंक लेकर तुरंत BJP के पेज में शेयर करते हुए लिखा था की यह चिंता का नहीं चिंतन का मौका है, वक्त रहते अगर भाजपा का प्रबुद्ध वर्ग जाग जाये तो यह राष्ट्रीय पार्टी क्षेत्रीय दलों के रूप में बटने से बच जाएगी ,,,,,,और अगर ऐसा होता है तो यह देश हित में होगा |