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Saturday, June 23, 2012

संबंधों और विमर्श की नदी

हिंदी में इन दिनों स्त्री विमर्श के नाम पर रचनाओं में जमकर अश्लीलता परोसी जा रही है । स्त्री विमर्श की आड़ में देहमुक्ति के नाम पर पुरुषों के खिलाफ बदतमीज भाषा का जमकर इस्तेमाल हो रहा है । कई लेखिकाओं को यह सुनने में अच्छा लगता है कि आपकी लेखनी तो एके 47 की तरह हैं । माना जाता है कि हिंदी में स्त्री विमर्श की शुरुआत राजेन्द्र यादव ने अपनी पत्रिका हंस में की । नब्बे के शुरुआती वर्षों में । उस वक्त विमर्श के नाम पर काफी धांय-धांय हुई थी । कई अच्छे लेख लिखे गए । कई शानदार रचनाएं आई । लंबी लंबी बहसें हुई । लेकिन कुछ साल बाद स्त्री और विमर्श दोनों अपनी अपनी अलग राह चल पड़े और उनकी जगह ले ली एक तरह की अश्लील और बदतमीज लेखन ने । शुरुआत में तो पाठकों को उस तरह का बदतमीज या अश्लील लेखन एक शॉक की तरह से लगा था जिसकी वजह से उसकी चर्चा भी हुई और लोगों को पसंद भी आई । बाद में जब हर कोई फैशन की तरह बदतमीज लेखन करने लगा तो उसकी शॉक वैल्यू खत्म हो गई और पाठकों के साथ साथ आलोचकों ने भी उस तरह से लेखन को नकारना शुरू कर दिया । सवाल भी उठे कि क्या स्त्री विमर्श का मतबल परिवार तोड़कर, परिवार छोड़कर, रिश्तों से आजादी है । क्या देहमुक्ति का मतलब अवारागर्दी है । क्या स्त्रियां देहमुक्ति के नाम पर जब चाहे जिससे चाहे शारीरिक संबंध बना लें और उसका वर्णन हमारे साहित्य का हिस्सा बन जाए । इन सवालों से टकराते हुए स्त्री विमर्श की मुहिम पर ब्रेक लगा ।

उस मुहिम पर ब्रेक भले ही लग गया हो लेकिन उस दौर में लिखने की शुरुआत कर रही कई लेखिकाओं ने स्त्री विमर्श के मूल को पकड़ा और इंटरनेट युग की युवतियों की छटपटाहट, बेचैनी, मुक्त होने की लालसा, अपनी देह की मालकिन होने की अभिलाषा, अपनी आजादी और स्वतंत्रता के लिए किसी भी हद तक जाने की जिद को अपनी रचनाओं का विषय बनाया । कुछ वरिष्ठ लेखिकाएं भी अपने तरीके से अपनी रचनाओं में स्त्री विमर्श को उठाए रही । अभी हाल ही में मैने युवा लेखिका जयश्री राय का पहला उपन्यास औरत जो नदी है पढ़ा । करीब डेढ सौ पन्नों के इस उपन्यास में स्त्री मन की आजादी का कोमल और संवेदनशील चित्रण है । उपन्यास की शुरुआत बेहद ही नाटकीय तरीके से होती है । नायक अशेष त्यागी एक मल्टीनेशनल कंपनी में नौकरी करता है तबादले के बाद गोवा पहुंचता है । वो शादी शुदा और बाल बच्चेदार आदमी है लेकिन तबादले की वजह से पत्नी और परिवार के बगैर गोवा में मिलेज लोबो के घर उसे ठिकाना मिलता है । अकेला और आजाद । वहां उसकी मुलाकात दामिनी नाम की एक युवती से होती है । उपन्यास के शुरुआत में फोन नंबर का प्रसंग एक तिलस्म की तरह है जो धीरे-धीऱे खुलता है । बेहद दिलचस्प । दामिनी और अशेष की मुलाकात होती है और बिना प्यार में जीने मरने की कसमें खाए बगैर दोनों के बीच शारीरिक संबंध बनते हैं । जयश्री राय ने उन अंतरंग क्षणों का बेहद संवेदनशीलता के साथ वर्णन किया है बगैर अश्लील हुए । लोग तर्क दे सकते हैं कि स्त्री-पुरुष के बीच जब अंतरंग संबंध बनते हैं तो उसका जो वर्णन होगा उसमें खुलापन तो होगा । लेकिन जयश्री ने उन क्षणों का वर्णन इस तरह से किया है कि उससे जुगुप्सा नहीं बल्कि बेहतरीन गद्य को पढने का सुख मिलता है । उस वक्त लेखिका की भाषा काफी संयत लेकिन आज के जमाने के हिसाब है । प्रतीकों में तो बातें कहती है लेकिन रीतिकालीन भाषा में नहीं । गौर फर्माइये- अपने तटबंधों को गिराते हुए मुझमें किसी बाढ़ चढी नदी की तरह उफन आई थी वह । प्रेम के क्षणों में जितनी कोमल थी वह कभी-कभी उतनी ही आक्रामक भी- एक सीमा तक हिंसक ! अपनी देह पर खिले अनवरत टीसते हुए नीले फूलों को देखकर पीड़ा का ऐसा स्वाद ऐसा मधुमय भी हो सकता है, यह उसी रात महसूस कर पाया था मैं ।
इस तरह के कई प्रसंग हैं उस उपन्यास में लेकिन सभी मर्यादा में रहकर । इस उपन्यास में एक जगह इस बात का संकेत है कि अंतरंग क्षणों में स्त्रियों को कष्ट पहुंचाने से कईयों को ज्यादा आनंद की अनुभूति होती है । यहां सिर्फ संकेत मात्र है लेकिन अंग्रेजी में इस विषय पर कई उपन्यास लिखे गए हैं । अभी हाल ही में पूर्व टीवी पत्रकार ई एल जेम्स की तीन किताबें आई हैं फिफ्टी शेड्स आफ ग्रे, फिफ्टी शेड्स डॉर्कर और फिप्टी शेड्स फ्रीड । जेम्स की इन किताबों में नायक ग्रे और नायिका एना के बीच के सेक्स संबंध को बीडीएमएस के तौर पर दिखाया गया है । यूरोप और अमेरिका में ये किताबें कई हफ्तों से बेस्ट सेलर की सूची में हैं । सेक्स प्रसंगों की वजह से कुछ आलोचकों ने तो इसे मम्मी पॉर्न का खिताब दे डाला है तो कुछ इसको वुमन इरोटिका लेखन के क्षेत्र में क्रांति की तरह देख रहे हैं । उसके पहले भी 1965 में पॉलिन रेग का उपन्यास स्टोरी ऑफ ओ आया था । स्टोरी ऑफ ओ में एक खूबसूरत पर्सियन फोटोग्राफर अपने प्रेमी के साथ सेक्स संबंधों में गुलाम की तरह का व्यवहार किया जाना पसंद करती थी । उसको लेकर उस वक्त फ्रांस में काफी बवाल मचा था और पुस्तक पर पाबंदी की मांग भी उठी थी, शायद पाबंदी लगी भी थी । लेकिन हिंदी में फीमेल इरोटिका पर अब भी पाठकों को एक बेहतरीन कृति का इंतजार है ।
जयश्री के इस उपन्यास में अशेष और दामिनी के बीच जब संबंधों की शुरुआत होती है तो अशेष उससे झूठ बोलता है कि उसका अपनी पत्नी से संबंध ठीक नहीं है आदि आदि । यह प्रसंग रोचक है । अमूमन ऐसा होता ही है । लेखिका ने उसको भी स्त्री मन से जोड़कर उसे एक उंचाई दे दी है । पत्नी से खराब संबंध की बात सुनकर दामिनी के मन में जो भाव उठते हैं उसे जयश्री नायक के मार्फत इस तरह से व्यक्त करती है- ...मैं जानता था वह मेरा होना चाह रही थी, मगर रस्म निभा रही थी- दुनियादारी की रस्म । यह जरूरी हो जाता है, ऐसे क्षणों में जब हमन किसी वर्जित क्षेत्र में प्रवेश कर रहे हों, अपनी ग्लानि को कम करना जरूरी हो जाता है । दिमाग जिसे नहीं स्वीकारता, मन उसे अस्वीकार नहीं कर पाता । इस तरह से स्त्री के मन में चलनेवाले द्वंद को भी जहां मौका मिला है बेहतर तरीके से उघारा गया है । इस उपन्यास में दामिनी की मां की एक समांतर कहानी चलती है । किस तरह से दामिनी के पिता ने उसकी मां के साथ इमोशनल अत्याचर किया । वो उससे बात ही नहीं करते थे, जिसका मनोवैज्ञानिक असर जानलेवा साबित हुआ और अएक दिन उनकी मृत्यु हो जाती है । दामिनी के मन पर इस घटना का जबरदस्त प्रभाव आखिर तक बना रहता है ।

अशेष और दामिनी के बीच का प्यार चरम पर होता है उसी वक्त एक और स्त्री रेचल का प्रवेश कथा में होता है । अशेष उसके भी देहमोह में फंसता है । एक दिन रेचल के साथ रात बिताकर बिस्तर में ही होता है कि अचानक सुबह सुबह दामिनी उसके कमरे पर आ जाती है । स्त्री तो आखिर स्त्री ही होती है । जब वो पुरुष के साथ संबंध में होती है तो उसे दूसरी स्त्री बर्दाश्त नहीं होती है । दामिनी के साथ भी वही होता है । वो रेचल को बर्दाश्त नहीं कर पाती है । दोनों के संबंध दरक जाते हैं । संबंधों की उष्मा भाप बनकर उड़ जाती है । अलगाव होता है और फिर उसी तरह के ओवियस भी संवाद होते हैं । स्त्री के मन और मनोविज्ञान का भरपूर वर्णन । उपन्यास का अंत भी बेहद बोल्ड हो सकता था जहां दामिनी, अशेष और रेचल के संबंधों को सहजता से लेती और मस्त रहती । लेकिन मुमकिन है कि लेखिका पारंपरिक अंत करके स्त्री विमर्श की चौहद्दी तोड़ना नहीं चाहती । हमारे समाज में अभी लड़कियां कितनी भी बोल्ड हो जाएं पर वो जिसे प्यार करती हैं उसे दूसरी महिला के साथ बिस्तर में बर्दाश्त नहीं कर सकती ।  
उस उपन्यास में इन दो कहानियों के साथ साथ भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति और पुरुषों की मानसिकता पर भी टिप्पणी चलते रहती है । कभी दामिनी की विदेशी दोस्तों और अशेष के संवाद के रूप में तो कभी दामिनी की सहयोगी उषा की मौत के पहले के उसके बयान से । इस दौर मे जयश्री राय की भाषा से उपन्यास का कथ्य चमक उठता है । भाषा इस उपन्यास की ताकत है जब जयश्री लिखती हैं- सूरज का सिंदूर समंदर के सीने में उतरकर न जाने कब एकदम से घुल गया । जयश्री राय के इस उपन्यास की आने वाले दिनों में हिंदी साहित्य में चर्चा होनी चाहिए और आलोचकों और पाठकों के बीच जयश्री के उठाए सवालों पर बहस भी ।

5 comments:

Unknown said...

nice article.we have published here http://www.apnimaati.com/2012/06/blog-post_24.html

अजय कुमार झा said...

आपके इस खूबसूरत पोस्ट का एक कतरा हमने सहेज लिया है साप्ताहिक महाबुलेटिन ,101 लिंक एक्सप्रेस के लिए , पाठक आपकी पोस्टों तक पहुंचें और आप उनकी पोस्टों तक , यही उद्देश्य है हमारा , उम्मीद है आपको निराशा नहीं होगी , टिप्पणी पर क्लिक करें और देखें

सिद्धार्थ प्रताप सिंह said...

विजय सर सबसे पहले दिल से धन्यवाद इस बात का की आपने एक सही मुद्दे को उठाया और साथ ही अपने मित्रो को कमेन्ट का मौका दिया| रही बात प्रकाशकों को लेकर तो जितना मैंने समझा खासकर हिंदी प्रकाशन मात्र एक व्यवसाय बनकर रह गया है, सबसे पहले प्रकाशक नफा और नुकशान देखता है न की रचनाओ की उत्कृष्टता| इस बात की सबूत के लिए मै आपको प्रतिष्ठित साहित्यिक प्रकाशकों के दर्जन भर ऐसे पत्र दिखा सकता हूँ जिसमें लिखा होगा "महोदय हमारे समस्त संपादक मंडल ने एक स्वर में आपके प्रयासों की सराहना की,हम आपकी रचना क्षमता से अभिभूत होते हुए भी आपकी पाण्डुलिपि को अपने प्रकाशन कार्यक्रम में नहीं ले पा रहे है,आशा करते है आप अन्यथा न लेंगे कृपया संपर्क बनाए रखे- आपका ,,,,," और कुछ दिन बाद फोन कर आपको बुलाया जायेगा की फला सर आपसे मिलना चाहते है ,जब आप जायेंगे तो आप से पूछा जायेगा की आप अपनी कितनी कॉपी बिकवा सकते है मसलन,,,२००,,३००, ५००,,,,आप जब असमर्थता व्यक्त करेंगे तो डायरेक्ट आपको कहा जाएगा की आप ३०० कॉपी खरीद ले हम आप की रचना इसी महीने प्रकाशित कर देते हैं|.... यदि आप रसूख वाले या फिर लक्ष्मी माता के सपूत हैं तो आप बन गए लेखक और नहीं तो सड़कछाप लल्लूलाल ,,, हाँ कुछ साधनहीन छोटे प्रकाशन जरूर कोशिश में लगे हैं अच्छे लेखकों को आंगे लाने के लिए मगर उनकी नोटिस लेने वाला कौन?

सिद्धार्थ प्रताप सिंह said...

फेसबुक पेज में आपकी यह पोस्ट "पता नहीं लोग कैसी कहानियां लिखते हैं और शी्र्ष प्रतिष्ठानों से छप भी जाती है । प्रकाशन गृहों में संपादक की जरूरत है" देखकर मैंने पहली वाली कमेन्ट पोस्ट की थी आपको सिर्फ यह अहसास कराने के लिए की ऐसी परिस्थितयों में हम बड़े प्रकाशको से क्या उम्मीद पालें ....फेसबुक में मैंने रिक्वेस्ट भेजी है अगर एक्सेप्ट कर लेंगे तो आपकी मेहरबानी होगी

सिद्धार्थ प्रताप सिंह said...

जयश्री जी के उपन्यास पर आपकी समीक्षा पढ़कर अब तुरंत उपन्यास पढ़ जाने का मन हो रहा है, वैसे जयश्री जी की कुछ रचनाये "पाखी" में पढ़कर ही उनकी काबिलियत का मुरीद हो गया था, निष्पक्ष और साफगोई से एक बेहतर समीक्षा लिखने के लिए दिल से धन्यवाद |