जिस तरह से महात्मा गांधी दुनिया भर के राजनीतिक और सामाजिक विषयों पर लिखनेवाले
लेखकों को लुभाते हैं उसी तरह से हिंदी साहित्य में रुचि रखनेवालों या फिर देश के हिंदी
विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ने-पढानेवालों को प्रेमचंद अपनी ओर प्रकाशित करते हैं
। प्रेमचंद ने हिंदी में विपुल लेखन किया है । प्रेमचंद जब लिख रहे थे तो उस वक्त देश
की जो सामाजिक स्थिति थी उसको ध्यान में रखकर उनकी रचनाओं को कसौटी पर कसा जाना चाहिए
लेकिन कुछ अति उत्साही आलोचक आज की सामाजिक स्थिति को आधार बनाकर उनका मूल्यांकन करने
में जुट जाते हैं । नतीया यह होता है कि प्रेमचंद की धज्जियां उड़ाकर, उन्हें दलित
और महिला विरोधी करार देकर वो फौरी चर्चा तो हासिल कर लेते हैं लेकिन उतने ही वो हास्य
के पात्र भी बनते रहे हैं । हर साहित्यकार का मूलयांकन उसके लेखन काल और देश में उस
वक्त की परिस्थियों के आदार पर किया जाना चाहिए । जैसे प्रेमचंद ने लिखा था- सौभाग्यवती
स्त्री के लिए उसका पति संसार की सबसे प्यारी वस्तु होती है । अब अगर प्रेमचंद की इस
उक्ति को स्त्री विमर्श के नाम पर हाथ में एके 47 लेकर लेखन करनेवाली लेखिकाओं की कसौटी
पर कसेंगे तो बेचारे प्रेमचंद कहीं के नहीं रहेंगे । आज की स्त्री विमर्शकार के लिए
पति तभी तक संसार की सबसे प्यारी वस्तु हो सकता है जबतक कि वो अपनी पत्नी को तमाम तरह
की आजादी दे, बराबरी का हक दे, उसके फैसलों में दखल ना दे । प्रेमचंद के युग से लेकर
अबतक पति की परिभाषा पूरी तौर पर बदल चुकी है । प्रेमचंद के युग से लेकर पति ने लंबी
यात्रा तय की है । अब वो परमेश्वर से सहजीवी और साथी से होते-होते लगभग खलनायक हो गया
है ।
प्रेमचंद अपने कथा साहित्य में इतने पर ही नहीं रुकते हैं । वो कहते हैं- 1. पति की आड़ में सबकुछ जायज है । मुसीबत तो उसकी है जिसे कोई आड़ नहीं । 2. औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिये काबू में भी तो नहीं रहती । 3. पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है । नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है । 4. ब्याह तो आत्मसमर्णण है । 5. प्रेम जब आत्म समर्पण का रूप लेता है तभी ब्याह है उसके पहले ऐय्याशी है । इन पांच सूक्तियों के आदार पर अगर प्रेमचंद का मूल्यांकन किया जाय तो उनका लेखन पूरी तौर पर मर्दवादी लेखन कहा जाएगा और स्त्री विमर्शकार उनको स्त्री विरोधी साबित कर देंगे । कईयों ने कोशिश भी की है । जबकि ऐसा है नहीं, जैसा कि मैंने उपर कहा कि प्रेमचंद को समग्रता में समझने के लिए तत्कालीन सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है ।
यह पूरा संदर्भ इसलिए दे रहा हूं कि अभी अभी मैं रांची विश्वविद्यालय के मारवाड़ी कॉलेज में व्याख्याता डॉ नियति कल्प का शोध प्रबंध पढ़ रहा था जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है । दरअसल पिछले महीने मैं भागलपुर गया था । भागलपुर मुझे अपने शहर जैसा ही लगता है कि क्योंकि वहीं से मैंने कॉलेज की पढ़ाई की थी । वहीं एक समारोह के दौरान मुझे नियति कल्प की किताब मिली- प्रेमचंद के कथा साहित्य में सूक्तियां । लगभग पौने चार सौ पृष्टों की इस किताब में बहुत श्रमपूर्वक प्रेमचंद के कथा साहित्य से सूक्तियां छांटकर उसको व्याख्यायित किया गया है । नियति ने समग्रता में सूक्तियों को देखा है और स्त्री के लिए लिए गए अच्छे वाक्यों को भी इस किताब में व्याख्यायित किया है – 1. स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से । 2. स्त्री जितना क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता । 3. नारी हृद्य धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वाहट भी । उसके अंदर पड़नेवाले बीज में जैसी शक्ति हो । 4. नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है । परीक्षा गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीट है । प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुंदर को सुंदर । अब अगर इन सूक्तियों के आधार पर प्रेमचंद की विवेचना करें तो उनकी अलग ही छवि उभरती है । एरक ऐसे लेखक की जो स्त्री के पक्ष में मजबूती से खड़ा है, उस वक्त के पितृसत्तात्मक समाज के बगैर दबाव में आए । लेकिन नियति कल्प की इस किताब की खास बात यह है उसने सूक्तियों के बहाने प्रेमचंद के लेखकीय वयक्तित्व को बगैर किसी पूर्वग्रह के पाठकों के सामने रखा है ।
डॉ नियति कल्प ने अपनी इस किताब को छह खंडों में बांटा है । पहले अध्याय में सूक्ति का सैद्धांतिक विवेचन किया गया है जिसमें सूक्तियों के महत्व पर प्रकाश डाला गया है । दूसरे अध्याय में प्रेमचंद के साहित्य संसार पर आलोचनात्मक नजर डाली गई है । इस अध्याय को पढ़ने से इस किताब और प्रेमचंद के साहित्य संसार का एक बैकग्राउंडर पाठक को मिलता है । उसके बाद के अध्यायों में प्रेमचंद के कथा साहित्य में सामाजिक सूक्तियां, भावनात्मक सूक्तियां, दार्शनिक और राजनीति सूक्तियां और अन्य सूक्तियों को व्याख्यायित किया गया है । नियति कल्प की यह किताब साहित्य के विद्यार्थियों के अलावा साहित्य में रुचि रखनेवालों पाठकों के लिए एक संदर्भ ग्रंथ की तरह है । लेकिन एक चीज जो इस किताब में मुझे खटकी वो है इसकी भाषा । नियति कल्प भारत के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों द्वारा प्रयोग में लाई जानेवाली भाषा से खुद को मुक्त नहीं कर पाई है । दरअसल यह नियति की कमी नहीं है यह कमी हमारी शिक्षण प्रणाली और विश्वविद्यालयों की है । हमारे विश्वविद्यालय के हिंदी विभागों को यह समझने की जरूरत है कि हिंदी एक भाषा के तौर काफी विकसित हो चुकी है । विभाग को भाषा के विकास के साथ कदम से कदम मिलाने की जरूरत है । नियति ने इस किताब में क्लासिक हिंदी का प्रयोग किया है । हलांकि शोध प्रबंध में इसकी ही अपेक्षा की जाती है । हिंदी के विभागों में काम करनेवाले ज्यादातर आलोचकों को ही देख लें तो वो मुक्तिबोध के आगे बढ़ ही नहीं पाते हैं । लौट लौटकर मीराबाई और कबीर तक जा पहुंचते हैं । कुछ आलोचल हिम्मत जुटाते भी हैं तो फिर से मैथिलीशरण गुप्त और सूरदास की तरफ पहुंच जाते हैं । लगता है कि प्राध्यापकीय आलोचना में अतीतोन्मुख होने की होड़ है । मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि जिस तरह से निर्मल वर्मा और मुक्तिबोध को नामवर जी जैसे आलोचक मिले क्या नई पीढ़ी को वैसा कोई आलोचक मिल पाएगा । फिलहाल तो ऐसा दिखाई नहीं देता । आज विश्वविद्यालयों में इस बात की सख्त जरूरत है कि युवा शिक्षकों को इस बात के लिए प्रेरति और प्रोत्साहित किया जाए कि वो नई पीढ़ी के लेखकों की रचनाओं को आलोचना की कसौटी पर कसें ।
प्रेमचंद अपने कथा साहित्य में इतने पर ही नहीं रुकते हैं । वो कहते हैं- 1. पति की आड़ में सबकुछ जायज है । मुसीबत तो उसकी है जिसे कोई आड़ नहीं । 2. औरत जात बिना कुछ ताड़ना दिये काबू में भी तो नहीं रहती । 3. पुरुष में नारी के गुण आ जाते हैं तो वह महात्मा बन जाता है । नारी में पुरुष के गुण आ जाते हैं तो वह कुलटा हो जाती है । 4. ब्याह तो आत्मसमर्णण है । 5. प्रेम जब आत्म समर्पण का रूप लेता है तभी ब्याह है उसके पहले ऐय्याशी है । इन पांच सूक्तियों के आदार पर अगर प्रेमचंद का मूल्यांकन किया जाय तो उनका लेखन पूरी तौर पर मर्दवादी लेखन कहा जाएगा और स्त्री विमर्शकार उनको स्त्री विरोधी साबित कर देंगे । कईयों ने कोशिश भी की है । जबकि ऐसा है नहीं, जैसा कि मैंने उपर कहा कि प्रेमचंद को समग्रता में समझने के लिए तत्कालीन सामाजिक स्थिति को ध्यान में रखना आवश्यक है ।
यह पूरा संदर्भ इसलिए दे रहा हूं कि अभी अभी मैं रांची विश्वविद्यालय के मारवाड़ी कॉलेज में व्याख्याता डॉ नियति कल्प का शोध प्रबंध पढ़ रहा था जो पुस्तकाकार भी प्रकाशित है । दरअसल पिछले महीने मैं भागलपुर गया था । भागलपुर मुझे अपने शहर जैसा ही लगता है कि क्योंकि वहीं से मैंने कॉलेज की पढ़ाई की थी । वहीं एक समारोह के दौरान मुझे नियति कल्प की किताब मिली- प्रेमचंद के कथा साहित्य में सूक्तियां । लगभग पौने चार सौ पृष्टों की इस किताब में बहुत श्रमपूर्वक प्रेमचंद के कथा साहित्य से सूक्तियां छांटकर उसको व्याख्यायित किया गया है । नियति ने समग्रता में सूक्तियों को देखा है और स्त्री के लिए लिए गए अच्छे वाक्यों को भी इस किताब में व्याख्यायित किया है – 1. स्त्री पुरुष से उतनी ही श्रेष्ठ है, जितना प्रकाश अंधेरे से । 2. स्त्री जितना क्षमाशील हो सकती है, पुरुष नहीं हो सकता । 3. नारी हृद्य धरती के समान है, जिससे मिठास भी मिल सकती है, कड़वाहट भी । उसके अंदर पड़नेवाले बीज में जैसी शक्ति हो । 4. नारी परीक्षा नहीं चाहती, प्रेम चाहती है । परीक्षा गुणों को अवगुण, सुंदर को असुंदर बनाने वाली चीट है । प्रेम अवगुणों को गुण बनाता है, असुंदर को सुंदर । अब अगर इन सूक्तियों के आधार पर प्रेमचंद की विवेचना करें तो उनकी अलग ही छवि उभरती है । एरक ऐसे लेखक की जो स्त्री के पक्ष में मजबूती से खड़ा है, उस वक्त के पितृसत्तात्मक समाज के बगैर दबाव में आए । लेकिन नियति कल्प की इस किताब की खास बात यह है उसने सूक्तियों के बहाने प्रेमचंद के लेखकीय वयक्तित्व को बगैर किसी पूर्वग्रह के पाठकों के सामने रखा है ।
डॉ नियति कल्प ने अपनी इस किताब को छह खंडों में बांटा है । पहले अध्याय में सूक्ति का सैद्धांतिक विवेचन किया गया है जिसमें सूक्तियों के महत्व पर प्रकाश डाला गया है । दूसरे अध्याय में प्रेमचंद के साहित्य संसार पर आलोचनात्मक नजर डाली गई है । इस अध्याय को पढ़ने से इस किताब और प्रेमचंद के साहित्य संसार का एक बैकग्राउंडर पाठक को मिलता है । उसके बाद के अध्यायों में प्रेमचंद के कथा साहित्य में सामाजिक सूक्तियां, भावनात्मक सूक्तियां, दार्शनिक और राजनीति सूक्तियां और अन्य सूक्तियों को व्याख्यायित किया गया है । नियति कल्प की यह किताब साहित्य के विद्यार्थियों के अलावा साहित्य में रुचि रखनेवालों पाठकों के लिए एक संदर्भ ग्रंथ की तरह है । लेकिन एक चीज जो इस किताब में मुझे खटकी वो है इसकी भाषा । नियति कल्प भारत के विश्वविद्यालयों के शिक्षकों द्वारा प्रयोग में लाई जानेवाली भाषा से खुद को मुक्त नहीं कर पाई है । दरअसल यह नियति की कमी नहीं है यह कमी हमारी शिक्षण प्रणाली और विश्वविद्यालयों की है । हमारे विश्वविद्यालय के हिंदी विभागों को यह समझने की जरूरत है कि हिंदी एक भाषा के तौर काफी विकसित हो चुकी है । विभाग को भाषा के विकास के साथ कदम से कदम मिलाने की जरूरत है । नियति ने इस किताब में क्लासिक हिंदी का प्रयोग किया है । हलांकि शोध प्रबंध में इसकी ही अपेक्षा की जाती है । हिंदी के विभागों में काम करनेवाले ज्यादातर आलोचकों को ही देख लें तो वो मुक्तिबोध के आगे बढ़ ही नहीं पाते हैं । लौट लौटकर मीराबाई और कबीर तक जा पहुंचते हैं । कुछ आलोचल हिम्मत जुटाते भी हैं तो फिर से मैथिलीशरण गुप्त और सूरदास की तरफ पहुंच जाते हैं । लगता है कि प्राध्यापकीय आलोचना में अतीतोन्मुख होने की होड़ है । मेरी चिंता इस बात को लेकर है कि जिस तरह से निर्मल वर्मा और मुक्तिबोध को नामवर जी जैसे आलोचक मिले क्या नई पीढ़ी को वैसा कोई आलोचक मिल पाएगा । फिलहाल तो ऐसा दिखाई नहीं देता । आज विश्वविद्यालयों में इस बात की सख्त जरूरत है कि युवा शिक्षकों को इस बात के लिए प्रेरति और प्रोत्साहित किया जाए कि वो नई पीढ़ी के लेखकों की रचनाओं को आलोचना की कसौटी पर कसें ।
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