उत्तराखंड में आई आपदा को एक महीने से ज्यादा बीत चुके हैं लेकिन राज्य सरकार का तंत्र और राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अब तक इस प्राकृतिक विपत्ति से हुए नुकसान तक का आकलन नहीं कर पाया है । अभी तक यह पता नहीं लगाया जा सका है कि इस भीषण आपदा में कितने लोगों की जान गई है और कितने लोग अपनों से बिछड़ गए हैं। अभी तक मलबे में दबे शवों तक को बाहर नहीं निकाला जा सका है, उनके अंतिम संस्कार की बात तो दूर है । दावा यह किया गया था कि शवों से डीएनए के नमूने लिए जाएंगे और उनके आधार पर बाद में उनकी पहचान हो सकेगी। डीएनए के नमूने तो तब निकाले जाएंगे जब उनको मलबे से बाहर निकाला जा सकेगा । अब तक विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर से मलबा साफ नहीं किया जा सका है , मंदिर में पूजा शुरू होने की बात तो बहुत दूर है । अभी सिर्फ इस बात का दावा किया जा रहा है कि केदार घाटी में हवाई जहाज के जरिए जेसीबी मशीनें भेजी जाएंगी ताकि मलबों को हटाया जा सके । इसके अलावा अब तक यह भी पता नहीं लगाया जा सका है कि इस आपदा में उत्तराखंड के कितने गांवों को नुकसान पहुंचा । उधर आपदा प्रभावित इलाकों में महामारी फैलने का खतरा उत्पन्न हो गया है । डॉक्टरों की एक टीम ने कुछ इलाकों का दौरा कर सरकार को आपात स्थिति से निबटने के लिए आगाह कर दिया है । लेकिन सवाल यह है कि क्या सरकार इतनी बड़ी आपदा के बाद महामारी के आसन्न खतरे को भांपने में नाकाम क्यों और कैसे रही । इतनी बड़ा आपदा के बाद भी प्रधानमंत्री की अगुवाई वाली राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करने में पूरी तरह से सफल नहीं रही है । कुछ दिनों पहले सीएजी ने राष्ट्रीय आपदा प्रबंधन प्राधिकरण को कठघड़े में खड़ा कर किया था । इन सवालों के जवाब ढूढने पर सरकार की लोकल्याणकारी भूमिका सवालों के घेरे में आ जाती है ।
अगर हम विस्तार से देश पर आई अबतक की आपदाओं का विश्लेषण करें तो यह पातें हैं कि हमारे देश के कर्ता-धर्ता और सियासत के रहनुमा आपदा को विपदा में तब्दील करने में अपनी सारी उर्जा खर्च करते हैं । बजाए आपदा से निबटने की रणनीति बनाने और उसपर अमल करने-करवाने के, हमारे नेता अपनी अपनी राजनीति की दुकान चमकाने में लग जाते हैं । उत्तराखंड में इतनी बड़ी तबाही आई लेकिन बजाए सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर इस आपदा से डटकर मुकाबला करने के एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप में प्राणपन से लग गए । भारतीय जनता पार्टी ने राहुल गांधी की उस दौरान देश से अनुपस्थिति पर कांग्रेस को घेरने की कोशिश की । इस बात को लेकर उनकी जमकर लानत मलामत की गई कि देश में इतनी बड़ी आपदा के वक्त वो विदेश में अपना जन्मदिन मना रहे थे । कांग्रेस ने भी जवाबी हमला किया और भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को इस पर राजनीति ना करने की नसीहत दी । भारतीय जनता पार्टी को राजनीति ना करने की नसीहत देनवाली कांग्रेस गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के उत्तराखंड दौरे को लेकर बिलबिला गई और उसपर राजनीतिक रोटियां सेंकने में जुट गई । मोदी को उत्तराखंड के जमीनी दौरे करने की मंजूरी नहीं दी गई । गृहमंत्री सुशील कुमार शिंदे ने तर्क दिया कि नेताओं के जमीनी दौरे से राहत कार्यों में बाधा आएगी । उत्तराखंड में गुजरात के फंसे लोगों को मोदी की अगुवाई में निकालने की खबर को लेकर कांग्रेस ने जमकर बवाल काटा । मोदी को इशारों इशारों में रैंबो तक करार दे दिया गया । उस दौर में दोनों पक्षों से ऐसी बयानबाजी होने लगी कि लगा कि उत्तरखांड की आपदा से बड़ी कोई बात हो गई हो और देश की दो बड़ी राजनीति पार्टियां उसमें उलझ गईं हैं । रैंबो से लेकर मोगैंबो और फेकू से लेकर पप्पू तक की बातों में उत्तराखंड पीड़ितों का दर्द गुम सा होता नजर आया । दोनों पार्टियों के बयानवीर नेताओं ने पूरे देश का सर शर्म से झुका दिया । आपदा की इस मुश्किल घड़ी में आपसी राजनीतिक मतभेदों को भुलाकर उससे निबटने के लिए जब एकजुटता की जरूरत थी तब सियासत का बाजार गर्म था ।
दरअसल हमारे देश के नेताओं को आपदा में राजनीति का अवसर नजर आता है जिसके कालांतर में गंभीर परिणाम होते हैं । जब देश को एक बेहतर कार्ययोजना की जरूरत होती है तब नेता आपसी स्कोर सेट कर रहे होते हैं । आपदाग्रस्त इलाके के लोगों को जब राहत और मदद की उम्मीद होती है तो हमारे नेता राजनीति में मुब्तला रहते हैं । नेताओं के इस आपसी झगड़े से पार्टी के कार्यकर्ता भी आक्रामक हो जाते हैं । विरोधी दल के स्थानीय कार्यकर्ता राहत और बचाव में प्रशासन की मदद करने के बजाए उनके खिलाफ धरना प्रदर्शन में जुट जाते हैं । आपदा के वक्त जब पीड़ितों के दुख दर्द को बांटने की जरूरत होती है तब नेताओं के बयान जख्मों पर मरहम लगाने के बजाए उसे कुरेदने का काम करते हैं। सरकार अपनी उर्जा आपदाग्रस्त इलाके में खर्च करने की बजाए इन धरना प्रदर्शनों को रोकने में खर्च करने में जुट जाती है । नुकसान पीड़ितों का होता, दर्द उनका ही बढ़ता है ।
ऐसा नहीं है कि उत्तराखंड में आई इस विनाशकारी प्राकृतिक आपदा के दौरान ही ऐसा हो रहा है । हमारे यहां जब भी किसी तरह की कोई आपदा आई है तो उसे विपदा में बदलने के लिए हमारा पूरा राजनीतिक और नौकरशाही का सिस्टम एकजुट हो जाता है । चाहे वो उड़ीसा में आया भयंकर तूफान हो, तमिलनाडू में आई सूनामी हो या फिर भोपाल में यूनियन कार्बाइड के संयत्र से गैस रिसाव का मसला रहा हो । हर जगह प्राथमिकता पर राजनीति रहती है । उड़ीसा में नेताओं की बयानबाजियों और आपस में उलझने की वजह से आपदाग्रस्त इलाकों में भ्रष्टाचार अपने चरम पर पहुंच गया था । वही हाल सूनामी के बाद तमिलनाडू का भी रहा । उत्तराखंड से भी ऐसी खबरें आई कि राहत कार्य में लगे कर्मचारी अपने दफ्तरों में खाने पीने में लगे थे । भ्रष्टाचार के अलावा इन इलाकों में राहत का काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों के कामकाज में बाधा भी डालने की खबरें आती रहती हैं । नतीजा यह होता है कि इन गैर सरकारी संगठनों के लोग हतोत्साहित होने लगते हैं । नुकसान सिर्फ और सिर्फ पीड़ितों का होता है ।
अब वक्त आ गया है कि आपदा के वक्त राजनीतिक दलों को अपने सारे मतभेदों को भुलाकर पीडितों की मदद के लिए मिलजुलकर एक ठोस कार्ययोजना बनानी चाहिए । हमारे सामने अमेरिका का उदाहरण है कि जब वहां बोस्टन में बम धमाका हुआ था तो पूरे देश से एक ही आवाज आई थी कि हम ना तो रिपब्लिकन हैं और ना ही डेमोक्रैट- संकट की इस घड़ी में हम सभी अमेरिकन हैं । इस आवाज से एक संदेश गया कि आतंक के खिलाफ पूरी लड़ाई में अमेरिका एकजुट है । लेकिन हमारे देश में आतंकवादी वारदातों के वक्त भी सियासी जमात एकजुटता का संदेश देने में नाकाम रहती है । नतीजा हम सबके सामने है । आतंकवादियों को जब भी जहां मौका मिलता है वहां धमाका कर देते हैं । हाल के दिनों में जिस तरह से सुरक्षा एजेंसियों को राजनीति में घसीटा जा रहा है वह और भी दुखद है । इससे आतंक के खिलाफ हमारी लड़ाई कमजोर होती है । जिससे अंतिम रूप से नुकसान एक राष्ट्र का होता है, वहां रहनेवाले लोगों का होता है, जिनके बल पर सियासत की ये जमात खड़ी होती है, जिनके नाम पर ये सियासत करती है और ताकत पाती है । अगर समय रहते हमारे सियासतदां नहीं चेतते हैं और आपदा को राष्ट्रीय विपदा में तब्दील करने से बाज नहीं आते हैं तो जनता ही उनको सबक सिखाने का कदम उठा सकती है और तब वो स्थिति बेहद अप्रिय होगी
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