देश में
राजनीति के अपराधीकरण को रोकने की दिशा में सुप्रीम कोर्ट ने दो बेहद अहम फैसले दिए
हैं । पहला फैसला तो यह दिया कि जिस किसी को भी दो साल की या उससे ज्यादा की सजा होगी
उनकी संसद, विधानसभा या विधान परिषद की सदस्यता फैसले के फौरन बाद खत्म हो जाएगी ।
आठ साल तक सुप्रीम कोर्ट में चली सुनवाई और विद्वान वकीलों और संविधान विशेषज्ञों की
राय के बाद सुप्रीम कोर्ट ने ये ऐतिहासिक माना जानेवाला फैसला सुनाया । इसके अलावा
दूसरा फैसला यह है कि अगर कोई व्यक्ति चुनाव के वक्त जेल या हिरासत में होगा तो उसको
चुनाव लड़ने का हक नहीं मिलेगा। इस फैसले का आधार यह बताया गया है कि जिस व्यक्ति को
वोट देने का अधिकार नहीं है वह चुनाव लड़ने के योग्य कैसे हो सकता है । सुप्रीम कोर्ट
के दोनों फैसले तत्काल प्रभाव से लागू हो गए हैं । इन दोनों फैसलों का देश के कमोबेश
सभी हलकों में जोरदार स्वागत हो रहा है । सियासी दलों ने भी इन फैसलों का आमतौर पर
स्वागत ही किया है । मीडिया में इन दो फैसलों को राजनीति के अपराधीकरण पर लगाम लगाने
की दिशा में एक बड़़ा कदम बताया जा रहा है । है भी । कहा और माना जा रहा है कि सुप्रीम
कोर्ट के इस फैसले के बाद राजनीतिक पार्टियां दागी उम्मीदवारों पर दांव नहीं लगाएंगी
। उन्हें इस बात का डर होगा कि फैसले के बाद क्या होगा । फैसले के बाद तरह तरह की बातें
शुरु हो गईं और उन नेताओं की सूची सामने आने लगी जिनपर इन फैसलों के बाद तलवार लटक
गई है । सूची बेहद लंबी है जिसमें लालू, मुलायम, मायावती से लेकर जयललिता और कनिमोड़ी
से लेकर राजा और मारन तक शामिल हैं ।
लेकिन सुप्रीम
कोर्ट के इन दोनों फैसलों में कुछ ऐसे बिंदु हैं जिनपर आनेवाले दिनों में विमर्श की
जरूरत महसूस की जाएगी । दो साल की सजा के फौरन बाद सदस्यता खत्म होने का फैसला किसी
भी व्यक्ति को प्राकृतिक न्याय के दायरे से बाहर रखती है । भारतीय संविधान के मुताबिक
किसी भी व्यक्ति को निचली अदालतों के फैसले के खिलाफ उपरी अदालतों में अपील करने का
अधिकार है । अपील के बाद अगर उपरी अदालत को केस में मेरिट दिखाई देता है और निचली अदालत
के फैसले पर पुनर्विचार की आवश्यकता महसूस होती है तो उसपर रोक लगा दी जाती है । कई
बार सजा पर तो कई बार उसके अमल पर रोक लगा दी जाती है । लेकिन सुप्रीम कोर्ट के हाल
के फैसले के बाद अपील के अधिकार के बीच कार्रवाई हो चुकी होगी । अगर किसी संसद सदस्य
के खिलाफ कोई केस होता है और उसमें निचली अदालत से उनको तीन साल की सजा हो जाती है
। संविधान से मिले अधिकार के तहत जब तक सांसद महोदय हाईकोर्ट में अपील करेंगे तब तक
उनकी संसद की सदस्यता जा चुकी होगी । लेकिन उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब हाई कोर्ट
निचली अदालत के उस फैसले पर रोक लगा देता है । सुनवाई के बाद निचली अदालत के फैसले
को पलट देती है और सांसद महोदय को राहत मिल जाती है । लेकिन तबतक उनकी संसद की सदस्यता
जा चुकी होगी । अगर सुप्रीम कोर्ट के हाल के फैसले के आलोक में इस स्थिति को देखें
तो यह स्थित न्याय के अधिकार पर सवाल खड़े करती है । संविधान सभा की बहस के दौरान भी
इस तरह के हालात पर चर्चा हुई थी । संविधान सभा के सदस्य एस एल सक्सेना ने उन्नीस मई
दो हजार उनचास को हुई बहस में संविधान के ड्राफ्ट में संशोधन नंबर 1590 पेश किया था
। सक्सेना ने कहा था कि अगर किसी संसद सदस्य को सजा हो जाती है तो अपील पर फैसला होने
तक उसकी सदस्यता को मुअत्तल रखा जाए और सदन की कार्रवाई में भाग लेने और वोट करने के
अधिकार पर भी उस दौरान रोक रहे । संविधान सभा ने सक्सेना के संशोधन को खारिज कर दिया
था । इस केस में याचिकाकर्ता ने इसको भी आधार बनाया था ।
इसके अलावा
कई ऐसी स्थितियां भी आ सकती हैं जिसमें उपरी अदालत के फैसले के बाद विवाद खड़ा हो सकता
है । सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले के बाद उस स्थिति की कल्पना कीजिए जब किसी सदन का कोई
सदस्य निचली अदालत से दो साल या उससे अधिक की सजा होती है और उसकी सदस्यता चली जाती
है । वो उपरी अदालत में अपील करता है । अपील
पर सुनवाई होने के दौरान उस खाली हुई सीट पर चुनाव आयोग उपचुनाव करवाएगा । चुनाव होने
तक अपील पर कोई फैसला नहीं हो पाता है और उसमें किसी और अन्य उम्मीदवार की जीत होती
है । उसके बाद उपरी अदालत का फैसला निचली अदालत के विपरीत आता है । सजा रद्द कर दी
जाती है । जिसकी सदस्यता गई उसकी भारपाई कौन करेगा । बगैर किसी दोष के उसकी सदस्यता
जाने का जिम्मेदार कौन होगा । भारतीय न्याय व्यवस्था में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिल जाएंगे
जहां निचली अदालतों के फैसलों को हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट ने पलट दिया है । निचली
अदालत से सजा पाए लोग हाईकोर्ट से बाइज्जत बरी होते रहे हैं । हमारे देश की न्यायिक
प्रणाली में माना जाता है कि एक भी निर्दोष को सजा नहीं होनी चाहिए चाहे कितने भी मुजरिम
छूट जाएं । आदर्श स्थिति यह होती कि जबतक अपील पर फैसला ना आए तबतक उपचुनाव नहीं हो
और उसकी संसद सदस्यता सस्पेंड रखी जाए और अंतिम फैसले का इंतजार किया जाए ।
दूसरे
फैसले में जेल में रहनेवाले के चुनाव लड़ने पर रोक लगाने का फैसला आया है। इसका तर्क
भी सही है कि जिस परिस्थित में कोई शख्स वोट नहीं डाल सकते है उसी परिस्थिति में चुनाव
कैसे लड़ सकता है । लेकिन इस फैसले को भी देस के मौजूद राजनीति हालात के मद्दनजर कसौटी
पर कस कर देखा जाना होगा । शासक वर्ग द्वारा इस फैसले के दुरुपयोग की भी आशंका है ।
राजनीतिक दुश्मनी के चलते अपने विरोधियों को चुनाव के दौरान जेल में ठूंसकर उसे चुनाव
लड़ने से रोका जा सकता है । इस फैसले की आड़ में अपने राजीतिक विरोधियों को निबटाने
का खेल भी खेला जा सकता है । इसके अलावा जैसा कि उपर के केस में है कि किसी वजह से
कोई शख्स जेल में है और उस दौरान वो चुनाव नहीं लड़ सकता लेकिन बाद में अदालत उसे बाइज्जत
बरी कर देता है तो फिर क्या होगा । इन दोनों फैसलों का स्वागत किया जाना चाहिए लेकिन
इन फैासलों से जो सवाल खड़े हो रहे हैं या इनके दुरुपयोग की जो आशंकाएं हैं उसका निराकरण
भी होना चाहिए । सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ को इसपर विचार करना चाहिए ।
1 comment:
सर शानदार आलेख.
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